Pillar of True Journalism to save Public Domain

Friday, September 26, 2014

निठारी कांड की पड़ताल: जिद्द और जुनून की रोमांचक दास्तां

निठारी के कथित नर पिशाच सुरेंद्र कोली की फांसी की सजा जब टली तो मामला एक बार फिर सुर्खियों में आ गया। इस दौरान उसकी मां ने उससे मेरठ जेल में मुलाकात की। पहली बार उसके परिवार की तरफ से उसे फंसाए जाने की बात कही गई। निठारी में इस घिनौने कांड के खुलासे से लेकर कोली की फांसी की सजा के एलान के बीच कई सवाल खड़े हुए। मुख्य आरोपी को साक्ष्यों के अभाव में बरी किए जाने और कोली द्वारा सारे गुनाह मान लेने जैसी बातों ने मन में संशय पैदा कर दिया।
नोएडा में निठारी के नर पिशाच की शिकार ज्योति का भाई अर्जुन
सच्चाई जानने के लिए हम निकल नोएडा के निठारी गांव पड़े, जहां बच्चों और महिलाओं के साथ खूनी खेल खेला गया था। यहां पीड़ित परिवारों और प्रत्यक्षदर्शियों से बातचीत के बाद कई तथ्य सामने आए। इसकी पड़ताल कोली के गांव गए बिना नहीं हो सकती थी। इसलिए हमने कोली के अल्मोड़ा स्थित गांव मंगरूखाल जाने का निश्चय किया।

हम दिल्ली से निकल पड़े। कुछ भी पता नहीं था कि क्या होने वाला है। मन में मुख्य गुनाहगार के छूटने की कसक और उसे फांसी पर चढ़ाए जाने की आशा थी। हम दिल्ली से कोली के गांव मंगरूखाल की पहाड़ी के नीचे पहुंचे। वहां से कई किमी उपर खड़ी पहाड़ी पर चढ़ाई करनी थी। हम निकल पड़े। हर पांच मिनट बाद सांस फूल जाती। प्यास लगती। किसी भी तरह दुर्गम रास्तों से होते हुए हम गांव में पहुंचे। वहां अजीब परिस्थिति का सामना करना पड़ा। मुझ अजनबी को देख गांव के लोग कन्नी काटने लगे।

किसी तरह से भाषाई (गढ़वाली) समस्या से जूझते हुए कोली के घर तक पहुंचा। उसकी मां देखते ही भड़क गईं। चिल्लाते हुए बोलीं- भाग जाओ, तुम लोगों की वजह से मेरा बेटा मर रहा है। गांव वाले भी कुछ सुनने को तैयार न थे। दो घंटे की कोशिश के बाद किसी तरह कोली की मौसेरी बहन समझने को तैयार हुई। फिर उसने कोली की मां को समझाया। फिर क्या था...शुरू हो गई बातचीत।
मंगरूखाल में फांसी की सजा पाए सुरेंद्र कोली की मां कुंती देवी

हम लगातार पांच घंटे बात करते रहे। गांव में टहलते रहे। उसी दौरान प्रधान भी आ गए। उन्होंने पहले दिलचस्पी नहीं दिखाई। लेकिन थोड़ी देर की बात के बाद वह भी बदल चुके थे। उनका कहना था कि कोली की वजह से पूरा गांव शर्मसार है। बदनामी के दंश झेल रहा है। पर वे चाहते हैं कि पहले पंढ़ेर को फांसी हो। इसी दौरान दो नए लोग मेरा पीछा करते नजर आए। मुझे शक हुआ। लोगों ने भी शक जताया कि ये लोग पंढ़ेर के आदमी हो सकते हैं। आए दिन गांव में नए लोग दिखाई देते रहते हैं; और कोली के वहां आने वालों पर नजर रखते हैं।

जब मैं गांव से निकलने लगा तो मुझे अकेले जाने से मना कर दिया गया। शाम ढल रही थी। मौसम खराब हो रहा था। गांव के तीन-चार लोग मुझे नीचे गाड़ी छोड़ने आए। उन्होंने कहा कि जब तक आप तीन-चार किमी आगे तक नहीं चले जाएंगे हम लोग यहीं डटे हैं। इस तरह हम वहां से दिल्ली की तरफ रवाना हुए। मन में आज की संतुष्टि और कल की बेचैनी थी। पर एक खतरे से बचने के बाद दूसरा खतरा तैयार था।

मंगरूखाल में सुरेंद्र कोली की मौसेरी बहन श्यामा देवी
मौसम खराब होता जा रहा था। हम मैदान से करीब 300 किमी दूर ऊंचाई पर थे। पहाड़ी में भयंकर बारिश-आंधी का सामना कर रहे थे। नाले-नदी बन चुके थे। रास्ते में पेड़ लोट गए थे। कहीं पानी, तो कहीं पेड़ से रास्ता बंद होता रहा। अंधेरा गहरा चुका था। बारिश की पानी की वजह से कार के शीशे से साफ नहीं दिख रहा था।

पहाड़ी रास्ते पर कब आप नीचे चले जाएं, इसका खतरा दिन में बना रहता है। ऐसे में रात के अंधेरे में वहां चलना जान हथेली पर लेकर चलना था। हमारी मुसीबत यह थी कि हम न तो हर जगह रुक सकते थे, न ही ज्यादा तेज चल सकते थे। जहां रास्ता बंद मिला, वहां रुकना मजबूरी थी। घने जंगल और अंधेरे में पहाड़ी ड्राइवर के भी हाथ-पैर फूल रहे थे।

उसका कहना था कि यहां कब खतरनाक जंगली जानवार सामने आ जाएं, कहा नहीं जा सकता। रास्ते में वैसे भी हिरण, सांभर, भालू, लकड़बग्‍घा टाइप के कई जानवर दिखते जा रहे थे। उनको देख ऐसा लग रहा था कि जंगल के राजा के दर्शन कभी भी हो सकते हैं। वैसे भी वह जिम कॉर्बेट जंगल का एरिया है। ऐसे में आशंका कभी भी सच्चाई में बदल सकती थी। पर कहा गया है न कि जब आप ठान लेते हैं, तो ईश्वर भी आपका साथ देते हैं। हम हर बाधा पार करके आगे बढ़ते रहे। अंतत: अगले दिन सुबह नई मंजिल के करीब पहुंच चुके थे। तीन दिन बीत चुके थे। कई सौ किमी की यात्रा की थकान हावी हो रही थी। तीन दिन से कपड़े तक नहीं बदल पाया था।

चुनौती कोली की पत्नी और भाई को उससे जेल में मिलवाने की थी। डासना जेल के बाहर मेन रोड पर हमारी मुलाकात हुई। उनके मेन वही सवाल था कि आखिरकार मैं क्यूं उनकी मदद कर रहा हूं। मैंने उनको अपने दिल की बात बताई। उसे सुनकर कोली की पत्नी ने कहा कि वह पूरी तरह से हमारी मदद करेगी। वह अपने पति को यूं मरने नहीं देगी। अपने हालात की वजह से वह आठ साल तक सामने नहीं आ सकी थी। हम जेल गए। वहां नंबर आने पर कोली की पत्नी-बच्चे और भाई अंदर चले गए। मैं बाहर खड़ा था। इसी बीच हमने खबर ब्रेक कर दिया।

मुझे नहीं पता था कि हमारे खबर ब्रेक करते ही लोकल मीडिया वहां इतनी जल्दी आ पहुंचेगी। जेल के बाहर मीडिया का जमावड़ा शुरू हो गया। एक रिपोर्टर अपने बॉस से बात करता हुआ नजर आया। वह बोल रहा था- अरे सर, भास्कर वाले फर्जी खबर चला दिए हैं। मैंने कोली के गांव फोन किया था। वे अभी उत्तराखंड से चले ही नहीं हैं। फिर मैं यहां तब तक वेट करूंगा जब तक मुलाकात का सिलसिला चल रहा है। मैं पास में खड़ा मंद-मंद मुस्करता रहा। इसी बीच बुलेट से दो मठाधीश टाइप के जर्नलिस्ट आ गए। वे लोग सीधे जेल में घुस गए। तभी बाहर एक हवलदार आया। उसने आवाज लगाई- सुरेंद्र कोली के घर से कोई आया है क्या? फिर उनक तरफ मुड़ के देखा और बोला- देखो, मैंने कहा था न कि नहीं आए हैं।

अपनी पत्नी शांति देवी के साथ सुरेंद्र कोली और उसकी बच्ची
दरअसल, मीडिया से बचाने के लिए हवलदार ने झूठ बोल दिया। मैं खुश हो गया। क्योंकि मैं भी नहीं चाहता था कि किसी और के सामने वे लोग आएं। इस बीच मेरा दिल धक-धक करता रहा। डर सता रहा था कि कहीं कोली की फैमली की पहचान उजागर न हो जाए। उनकी चिंता भी इसी बात की थी। उनका कहना था कि पहचान उजागर होने के बाद उनको नौकरी तक नहीं मिलेगी। खैर, मुलाकात के दो घंटे हो चुके थे।

उनका इतनी देर तक रहना मेरे लिए चिंता का विषय बनता जा रहा था। बाहर मीडिया और अंदर उनका इतनी देर तक रहना। तभी सभी लोग गेट से बाहर निकलते दिखाई दिए। अब चुनौती उनको मीडिया की नजरों से बचाए रखते हुए निकाल ले जाना था। मैंने उनको इशारा किया कि जल्दी निकलो। वे लोग तेजी से गाड़ी की तरफ बढ़े। इसी बीच एक मठाधीश टाइप स्ट्रिंगर की नजर उन पर पड़ गई। उसे शक हो गया। वह भी उनके साथ तेजी से आगे बढ़ने लगा। मैंने कोली की फैमली को गाड़ी में बैठा दिया। तब तक वह मेरे पास आ गया।

उसने पूछा- क्या आप सुरेंद्र कोली की फैमली से हैं? मैंने तुरंत कहा- अरे, नहीं हम तो विधायक जी से मिलने आए थे। उसने सॉरी बोला और वापस चला गया। अब जाकर मेरी सांस में सांस आई। मैं खुश था। मैंने ड्राइवर से बोला कि जितनी तेज गाड़ी चला सकते हो चलाकर यहां से निकल लो। इस तरह मैं अपने वादे के मुताबिक, उनकी पहचान छिपाने में सफल रहा।

इसके बाद इनको लेकर ऑफिस गया। वहां हमने कुछ देर रिलैक्स किया। उसके बाद शुरू हुआ बातचीत का सिलसिला। इस दौरान कोली की पत्नी ने अपने पति से बातचीत के आधार पर कई खुलासे किए। पहली बार कोली की बात उसकी पत्नी के माध्यम से बाहर आई। इन बातों और तथ्यों को मैंने स्टोरी और वीडियो के माध्यम से आप सभी के सामने पेश किया है। आशा है कि पंढेर जैसे शातिर नर पिशाच को सजा जरूर होगी।

निठारी से लेकर मंगरूखाल और डासना जेल से एक्सक्लूसिव रिपोर्ट...

Tuesday, September 16, 2014

विश्वास बोले- BIGG BOSS के लिए होती है 'डील'

टीवी रियलटी शो बिग बॉस में सब कुछ पहले से फिक्स होता है। प्रतियोगी अपने मन मुताबिक कमरे में रह सकता है। अपने साथ डायरी-पेन रख सकता है। एंट्री से पहले अपने हिसाब से शो के नियम-कानून भी बदलवा सकता है। 'आप' नेता और कवि डॉ. कुमार विश्वास का कहना है कि उनको शो में शामिल होने का जब तीसरी बार न्योता मिला, तो उन्होंने कुछ शर्तें रखीं। इनमें से कुछ को बिग बॉस रियलिटी शो की निर्माता कंपनी एंडेमॉल और कलर्स टीवी ने मान लिया, लेकिन बात जब पैसों पर आई तो कंपनी ने किनारा कर लिया।

dainikbhaskar.com से खास बातचीत में डॉ. कुमार विश्वास ने बताया कि उन्हें इस शो में शामिल होने के लिए बीते तीन साल से ऑफर आ रहे थे, पर वह मना कर देते थे। इस बार न्योता मिलने पर उन्होंने कुछ शर्तों के साथ जाने का मन बनाया। एंडेमॉल और कलर्स के सामने अपनी शर्तें रखीं, जिसे मान लिया गया। लेकिन जब कुमार ने वार विडोज फंड (शहीद हुए सैनिकों की विधवाओं के लिए फंड) के नाम पर 21 करोड़ रुपए मांगा तो कंपनी ने किनारा कर लिया। इस वजह से वह बिग बॉस का हिस्सा नहीं बन सके।

घर में अलग से रूम देना किया स्वीकार 

बिग बॉस के घर का नियम होता है कि सभी सदस्य एक साथ खुले में रहते और सोते हैं। शो में कुमार विश्वास को प्रतिभागी बनाने के लिए बिग बॉस ने अपना यह नियम भी तोड़ने की बात मान ली। दरअसल, कुमार विश्वास का कहना था कि वह खुले में नहीं सो सकते हैं। इस शर्त को मानते हुए इसका तोड़ भी निकाल लिया गया। कंपनी की तरफ से कहा गया कि उन्हें पहले प्रतिभागी के रूप में शो इंट्री करा दी जाएगी। चूंकि बिग बॉस के नियम के हिसाब से पहले प्रतियोगी को रूम मिलता है; और इस तरह उनको रूम मिल जाएगा।

डायरी और पेन रखने की मिली इजाजत

शो में शामिल होने के लिए कुमार विश्वास ने एक और शर्त रख दी। उन्होंने कहा कि वह कवि हैं। उन्हें कविता लिखने के लिए डायरी और पेन चाहिए। पहले उनकी इस शर्त को नहीं माना गया। लेकिन जब कुमार अपनी शर्त पर अड़े तो बिग बॉस में उन्हें डायरी और पेन रखने की इजाजत मिल गई।
 
शो में स्पेशल सेगमेंट देने की हुई पेशकश

कुमार विश्वास की तीसरी शर्त थी कि वह बिग बॉस में सामाजिक मुद्दों पर चर्चा भी चाहते हैं। इसका भी जुगाड़ निकाल लिया गया। कुमार विश्वास मुताबिक, बिग बॉस ने कहा था कि घर में हर दिन एक घंटा सामाजिक मुद्दों पर चर्चा होगी। इस सेगमेंट को 'गुरु ज्ञान' का नाम दिया जाएगा। इसे शो में पांच मिनट 'आज का गुरु ज्ञान' से अलग चलाया जाएगा।    

कुमार विश्वास का कहना था कि 500 करोड़ रुपए शो को बनाने में लगते हैं। 100 से 125 करोड़ रुपए कंपनी शो में एंकरिंग के लिए सलमान को देती है। फिर सैनिकों के विधवाओं के लिए फंड में 21 करोड़ रुपए देने में क्या दिक्कत है? यदि बिग बॉस उनकी इस शर्त को मान लेता है तो उन्हें घर के बाथरूम साफ करने में भी कोई दिक्कत नहीं है। 

कुमार विश्वास ने भाजपा नेता नवजोत सिंह सिद्ध पर जमकर निशाना साधा। उन्होंने कहा कि वह अमृतसर से सांसद रहते हुए साढ़े तीन करोड़ रुपए लेकर बिग बॉस में चले गए थे। वहां वे बाथरूम साफ करते थे, कहीं किसी को एतराज नहीं था। जनता उनसे ऐसी ही उम्मीद करती है। वह ऐसा कर सकते हैं। वह भाजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष होकर कपिल के शो में 'ठोकों ताली', 'और गुरुवर' बोलते रहते हैं।  

कपिल के शो में उन्होंने एक हिरोइन से कहा था कि यदि आप संसद में आ जाओ तो मैं पूरे दिन संसद में रहुंगा। यह बात रिकॉर्डेड है। इसका मतलब है कि उनका संसद में रहना किसी हिरोइन पर निर्भर है। इस पर अपने आप को राष्ट्रवादी बोलने वाले कोई टिप्पणी नहीं करते हैं। उनका राष्ट्रीय उपाध्यक्ष ऐसी बात बोल रहा है। 

सनी लियोनी के साथ रहने में एतराज

कुमार विश्वास को पोर्न स्टार और पूर्व प्रतिभागी रही सनी लियोनी के साथ बिग बॉस में रहने में एतराज था। साथ ही उन्होंने शो की इस पॉलिसी पर नाखुशी जताई कि पहले से शामिल होने वाले प्रतिभागी के बारे में सही जानकारी नहीं दी जाती है। उन्होंने कहा कि यदि अंदर जाकर पता चले कि कुछ करोड़ रुपए के लिए सनी लियोनी के साथ रहना पड़ेगा और कॉफी या चाय बनाने पर हो रहा है, तो यह कोई इंटरटेनमेंट नहीं हुआ।

उन्होंने कहा कि बिग बॉस के लिए उन्हें काफी बड़ी रकम ऑफर हुई थी, लेकिन रकम ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं होती है। सम्मान जरूरी होती है। यदि किसी से चार साल का बच्चा पूछे कि सनी लियोनी क्या परफार्म करती हैं? तो कोई जानकर भी नहीं बता सकता है।

ऐसा लगता है कि भारत में कलाकार, संगीतकार और गीतकार नहीं बचे हैं। क्या भारत की हिरोइनों की परंपरा इतनी मलिन और छोटी हो गई है कि एक पोर्न स्टार को हिंदुस्तान में लाकर स्टार बनाना पड़े।

कुमार विश्वास ने dainikbhaskar.com से बातचीत के दौरान फिल्मी स्टारों पर भी जमकर निशाना साधा। उन्होंने किसी का नाम तो नहीं लिया, लेकिन इशारों में सलमान और अमिताभ बच्चन को भी नहीं बख्शा। उन्होंने कहा कि जब राहुल गांधी का क्रेज होता है तो सब स्टेडियम में उनके बगल में बैठकर मैच देखते हैं। नरेंद्र मोदी का क्रेज होता है तो अहमदाबाद में जाकर पतंग उड़ाने लगता हैं। इस बार उनका इशारा सलमान खान की तरफ था।

अमिताभ बच्चन पर भी निशाना साधते हुए उन्होंने कहा कि वे राजीव गांधी की सरकार में उनके साथ रहते हैं। यूपी में जब मुलायम की सरकार थी तो यूपी का विज्ञापन कर रहे थे। बाद में जब नरेंद्र मोदी का क्रेज बढ़ने लगा तो वह गुजरात में विज्ञापन देने लगे।

उन्होंने कहा कि प्रिति जिंदा के साथ सब काम करना चाहते हैं, पर जब वह एक बड़े रईसजादे के खिलाफ खड़ी होती है तो उनकी मदद के लिए कोई स्टार सामने नहीं आता है। शिर्डी के साईं बाबा के यहां अंगूर सभी चढ़ाने जाते हैं, लेकिन जब साईं की मूर्तियों को उठाकर फेंका जाता है तो सभी चुप हो जाते हैं। कोई भी दामिनी और गुड़िया पर बोलने को राजी नहीं होता है। 

उन्होंने कहा कि भारतीय सेना यदि कसौटी पर कसी जाए तो कभी नहीं चूकती है। जिस कश्मीर में सेना के खिलाफ नारे लगाए गए। जहां उनके ऊपर पत्थर फेंके गए। आज उस कश्मीर की बाढ़ में वे सिपाही अपनी जान हथेली पर लेकर उतरे हुए हैं। भारतीय सेना एकमात्र ऐसा संस्थान बचा है, जिसको जब चुनौती मिलने पर उसे हर हाल में पूरा करती है। बात चाहे उत्तराखंड या जम्म कश्मीर की हो या देश की सीमा की। वह सब कुछ भूलकर अपनी जान न्यौछावर करती है। इसलिए हमारा भी फर्ज बनता है कि हम सभी शहीद सैनिकों के घरवालों के लिए कुछ न कुछ करें।

उन्होंने कहा कि यदि इन शहीदों की विधवाओं के लिए 21 करोड़ रुपए पहुंचते हैं। वह बिग बॉस तो क्या कहीं भी पोछा लगा सकते हैं। कोई फर्क नहीं पड़ता है। हमारे देश और पड़ोसी मुल्क पीएम की मां के लिए शाल और साड़ी आती- जाती रहती है, लेकिन कफन में लिपटे बेटे आना बंद नहीं होते हैं। नई सरकार आ गई है। इसके बावजूद भी अब तक 30-40 सैनिक बार्डर पर शहीद हो चुके हैं।

Monday, March 4, 2013

एक मिशन की निलामी?


ट्रेन अपनी रफ्तार से दौड़ रही थी। खचाखच भरे हुए उस डिब्बे के एक कोने में किसी तरह जगह मिल सकी थी। मेरे सामने बैठे एक सज्जन अपने बगल में बैठे दूसरे सज्जन से लगभग चीखते हुए बोल रहे थे- 'अरे मेरा भतीजा पत्रकार बनना चाहता है। इसके लिए उससे 1500 रुपए बतौर सिक्युरिटी मांगा जा रहा है।' दूसरे सज्जन ने बड़े उत्सुकता से पूछा- 'पत्रकार बनने से क्या फायदा है?'

पहले सज्जन सचेत हुए फिर गर्व से बोले- ''आपको पता नहीं! पत्रकार बनने वाले को सिक्‍युरिटी देने के बाद एक परिचय पत्र मिलता है। इसे दिखाकर किसी भी अफसर से यह पूछा जा सकता है कि अमुक काम क्यों, कैसे और कब हुआ और क्यों नहीं हुआ? टिकट के लिए कतार में नहीं लगना होता, कभी-कभी तो यात्रा करने के लिए टिकट भी लेने की जरूरत नहीं होती। यदि कुछ गलत करता है तो परिचय-पत्र दिखाकर आसानी से बच सकता है।'' दूसरे सज्जन बहुत खुश होकर बोले- 'तब तो हम भी अपने बेटे को पत्रकार ही बनाएंगे। बहुत दिन से बैठा हुआ है।'

आसपास बैठे लोग दोनों की बात चुप्पी साधे सुन रहे थे। सबकी आंखें चमक रही थीं। शायद सभी अपने भाई, बेटे और भतीजे को पत्रकार बनाने के बारे में सोच रहे थे। तभी ट्रेन किसी स्टेशन पर रुकी। भीड़ होने कारण लोगों ने दरवाजा अंदर से बंद कर रखा था। बाहर कुछ लोग दरवाजा खोलने के लिए चिल्ला रहे थे। इसी बीच बाहर से एक रोबदार आवाज आई- 'गेट खोल दो, वरना अकल ठिकाने लगवा दूंगा। मैं पत्रकार हूं।'

मेरे साथ मुश्किल यह थी कि मैं भी इसी बिरादरी का सदस्य होने के बावजूद इस तरह के सपनों और खयालों से रूबरू नहीं था। अब तक यही सोचता था कि अपने भीतर के इंसानी सरोकार को बचाए रखने में यह पेशा मेरी मदद करेगा। लेकिन ट्रेन के डिब्बे में दो लोगों की बातचीत और बाहर खड़े व्यक्ति की धमकी ने यह सोचने पर मजबूर कर दिया कि क्या पत्रकार वक्त का फायदा उठाने या लोगों की अक्ल ठिकाने लगाने के लिए ही होता है। अब तक तो यही मानता हूं कि‍ पत्रकार भी आम आदमी होता है। वह पीड़ि‍तों की आवाज उठाने के लिए होता है; और प्रेस लोकतंत्र का चौथा स्तंभ।

लोग-बाग यह समझने लगे हैं कि प्रेस ऐसी ताकत है, जिसके सहारे दूसरों के गलत काम की तरफ उंगली उठाई जा सकती है। अपने गलत काम पर पर्दा डाला जा सकता है। भारत में अंग्रेज छापाखाना लेकर आए, ताकि गुलामी की जंजीर को और मजबूती से जकड़ा जाए। लेकिन हमारे जुझारू नेताओं ने छापाखाने को हथियार की तरह प्रयोग किया। अंग्रेजों को भारत से भागने पर मजबूर कर दिया।

आज स्थिति उलट नजर आती है। अब जहां-तहां मीडिया का इस्तेमाल अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए किया जा रहा है। चुनाव में मीडिया का एक बड़ा हिस्सा जिस तरह बड़े पैमाने पर पैसे लेकर विज्ञापनों को खबर की शक्ल में छापता है,  उसे एक मिशन की नीलामी नहीं कहा जाएगा? उसे लोकतंत्र के चौथे स्तंभ का गला घोंटना नहीं कहा जाएगा? हां, यह दीगर बात है कि कुछ मीडिया समूह अब भी अपने सिद्धांतों पर कायम रहने की कोशिश कर रहे हैं, पर पूंजी की जरूरत उनका रास्ता रोक देती है।

मीडिया में कदम रखने वाले कुछ युवा भी खास सपने लेकर आते हैं। ग्लैमर की चकाचौंध में खोए पत्रकारों से और क्या अपेक्षा की जा सकती है। मुश्किल और चुनौती उन सबके सामने है, जो आज भी इस पेशे के प्रति समर्पित और प्रतिबद्ध हैं। और मानते हैं कि पत्रकारिता को अपने मूल रूप में आम आदमी के आवाज और व्यवस्था परिवर्तन का वाहक होना चाहिए।

दिल नहीं, जरा दिमाग से सोचिए जनाब...


लोग कितने भावुक और मूर्ख हैं। जिधर हवा चली, उधर हो लिए। मीडिया ने जो कहा वही मान लिए। कुंडा में गांव वालों ने डीएसपी की हत्या की, तो लोगों ने राजा भैया को दोषी ठहरा दिया। बिना यथास्थिति जाने हवाबाजी करने लगे। मीडिया ने भी अपना फैसला सुना दिया।

अब जरा उस स्थिति का अंदाजा लगाइए...गांव में विवाद होता है। उसमें ग्राम प्रधान की हत्या हो जाती है। इससे लोग पहले से ही उग्र हैं। उन्हें प्रशासन द्वारा समझाने या कूटनीतिक तरीके से नियंत्रण करने की बजाए पुलिस गोली चलाती है।

मृतक ग्राम प्रधान के भाई की गोली लगने से मौत हो जाती है। ऐसे में भीड़ और उग्र नहीं होगी तो क्या होगा। वो पुलिस पर हमला नहीं करेंगे तो क्या करेंगे। अरे आप यूपी पुलिस का बर्बर चेहरा भूल गए हैं क्या?

जो पुलिस कमजोरों को सताती है, सीधे-साधे लोगों को तड़पाती है, वर्दी के रसूख में अक्सर अपराधियों से बत्तर अपराध करती है। यह गुस्सा उस पुलिस के खिलाफ है। लोगों के जहन में उस पुलिस की तस्वीर छपी है। दुर्भाग्य से इसका शिकार हो गए जिया उल हक।

और तो और देखिए उनकी ही पुलिस उन्हें भीड़ के हवाले करके फरार हो गई। उन्हें मरने के लिए छोड़ गई। यह है यूपी पुलिस का असली चेहरा। हां...मैं मानता हूं...सलाम करता हूं कि इन वर्दीधारी गुंडों और अपराधियों के बीच कुछ दिलदार और नेक पुलिस वाले भी है, पर अफसोस वो अक्सर शहीद हो जाते हैं।

'हमें गर्व है जिया उल हक जैसे पुलिस अफसर पर, जो अपनी ही पुलिस के भाग जाने के बाद भी मैदान में डटे रहे'

Tuesday, November 27, 2012

आम आदमी की यह अजब दास्तान


उस दिन भी रोज की तरह बगीचे में टहल रहा था। मन में अजब बेचैनी थी। तरह-तरह के ख्याल आ रहे थे। तभी मेरी नजर एक पके आम पर पड़ी। आम को देखते ही जाने क्यों आम आदमी का ख्याल आ गया। भाषण, लेख, हिदायतों और नसीहतों के बीच बचपन से ही आम आदमी के बारे में सुनता आ रहा हूं।

लगा कि भले बदलाव की तेज आंधी ही क्यूं न चले, पर आम आदमी के हाथ न कभी कुछ लगा है, न लग पाएगा। जब आम आदमी का जिक्र आता है तो मन में एक अजीब सहानुभूति आ जाती है। मैं सोच में डूबा सड़क पर आ गया। सोचा चलो आज सबसे पूछते हैं कि ये आम आदमी है कौन?

सामने मोटरसाइकिल दनदनाते दरोगाजी दिख गए। दुआ-सलाम के बाद उनसे पूछ ही लिया आम आदमी के बाबत। आम आदमी का नाम आते ही साहब लार टपकाते बोले - आम आदमी यानी पका फल, जिसे चूसने के बाद गुठली की तरह फेंक दिया जाता है। भाई साहब हमें तो यही ट्रेनिंग दी जाती है कि जब चाहो आम आदमी का मैंगो शेक बना लो या अचार डालकर मर्तबान में सजा लो। वैसे हमें आम आदमी का मुरब्बा बहुत पसंद है।

अभी आगे बढ़ा ही था कि एक रिक्शेवाला मिला। सोचा इनके भी विचार जान लेते हैं। पूछने पर पता चला कि वह पोस्ट ग्रेजुएट है और नौकरी नहीं मिलने की वजह से जीवन-यापन के लिए यह काम कर रहा है। बातचीत के दौरान ही मैंने सवाल दाग दिया, तुम आम आदमी के बारे में क्या सोचते हो? रिक्शेवाले ने मुझे टेढ़ी नजरों से देखा और बोला- आम आदमी? वह तो मेरे रिक्शे की तरह होता है। सारी जिंदगी चूं-चूं करते बोझ ढोता है। जब किसी के काम नहीं आता तो अंधेरी कोठी में कबाड़ की तरह डाल दिया जाता है।

रास्ते में मेरा स्कूल दिख गया। बचपन के इस स्कूल को देखते ही मैंने रिक्शा रुकवाया, दस का नोट पकड़ाया। स्कूल पहुंचा तो देखा पहले की तरह ही लकड़ी की कुर्सी पर बैठे गुरुजी ऊंघ रहे थे। स्कूल के फंड और मिड-डे मील पर चर्चा हुई। यहां भी वही सवाल। गुरुजी बोले, आम आदमी को मैं कोल्हू का बैल मानता हूं, जो नून-तेल-लकड़ी के लिए एक चक्कर में घूमता रहता है, लेकिन कहीं पहुंचता नहीं।

बातचीत में बहुत देर हो गई। घर आते ही मां बरस पड़ीं - इतनी देर कहां लगा दी? पैर में दर्द हो रहा है, सुबह से दवा के लिए बोल रही हूं। मां सचमुच दर्द से कराह रही थीं। मैं तुरंत डॉक्टर के पास चल पड़ा।

दवा लेने के बाद डॉक्टर साहब से भी सवाल दाग दिया। कान से आला निकालते हुए साहब दार्शनिक हो गए। बोले - आम आदमी हमारे लिए टीबी, मलेरिया, बुखार है। हमारे लिए वही सबसे भला है, जिसका इलाज हमारे क्लिनिक में लंबा चला है।

शाम सुहानी थी। मोहल्ले के कुछ दोस्तों ने दावत का प्रोग्राम बना दिया। जगह तो हरदम की तरह मोहल्ले के नेताजी का बरामदा थी। खाने का आनंद लेते समय नेताजी से भी पूछ बैठा आम आदमी के बारे में। नेताजी के चेहरे पर चमक आ गई। बोले, आम आदमी हमारे बड़े काम का है। हम जो चुनावी महाभारत रचते हैं, उसमें आम आदमी विपक्ष को पछाड़ने के लिए नोट है, बस इतना जान लें कि आम आदमी हमारे लिए अदना-सा वोट है।

मैं हैरत में था। सोचने लगा क्या आम आदमी की यही परिभाषा है? मैंने तो सोचा था कि आम आदमी वह है, जो पैसों की गर्मी से फैलता और कमी से सिकुड़ता है। जो महंगाई की आहट से कांप जाता है। आम आदमी तो दुखों का ढेर है। अभावों का दलदल है। मुकम्मल बयान है, चेहरे पर दर्द का गहरा निशान है। तभी एक बात सोचकर मुस्करा दिया। किसी ने कहा था: फलों का राजा आम होता है। धत्, भला राजा भी कहीं ‘आम’ हो सकता है!

Thursday, November 15, 2012

विरोध की बिसात पर फहराया राजनीतिक परचम


मराठियों के 'नायक' तो उत्तरभारतीयों के लिए 'खलनायक' रहे हैं ठाकरे बंधु।

राजनीति के शेर बाल ठाकरे शनिवार दोपहर 3:30 बजे सदा के लिए शांत हो गए। चमत्कार की आस लगाए मातोश्री के बाहर खड़े लाखों शिवसैनिकों का भरोसा टूट गया। 86 साल के ठाकरे 14 नवंबर से ही बेहोशी की हालत में थे। सेहत सुधर रही थी, लेकिन दिल के दौरे ने सारी उम्मीदें तोड़ दी। रविवार को उनका अंतिम संस्कार हुआ है।  अपने कैरियर की शुरुआत एक कार्टूनिस्ट के रूप में करने वाले ठाकरे को उत्तर भारतीयों के खिलाफ घृणा और विरोध के लिए याद किया जाता है। उनका संपूर्ण राजनीतिक कैरियर हिन्दू और मराठी के इर्द-गिर्द घूमता रहा है।

उनकी राजनीतिक विचारधारा उपने पिता केशव सीताराम ठाकरे से काफी प्रभावित थी। भाषा के आधार पर महाराष्ट्र को एक अलग राज्य बनाने वाले आन्दोलन 'संयुक्त महाराष्ट्र मूवमेंट' के वह अग्रणी नेता थे। उन्होंने महाराष्ट्र में गुजरातियों, मारवाड़ियों और उत्तर भारतीयों के बढ़ते प्रभाव के खिलाफ आन्दोलन चलाया था। 1966 में बाल ठाकरे ने 'शिवसेना' के नाम से राजनीतिक दल का गठन किया। अपनी विचारधारा को लोगों तक पहुँचाने के लिए उन्होंने 1989 में 'सामना' नामक अखबार की शुरुआत की।

गौरतलब है कि महाराष्ट्र की राजनीति में अपनी प्रासंगिकता बनाए रखने के लिए शिवसेना मुंबई में रह रहे उत्तर भारतीयों को निशाना बनाती रही है। शिव सेना प्रमुख बाल ठाकरे ने अपने मुखपत्र ‘सामना’ में लिखा था कि मुंबई पर पहला हक मराठियों का है। उनके भतीजे राज ठाकरे भी मुंबई की सड़कों पर उत्तर भारतीय टैक्सी चालकों के खिलाफ काफी हल्ला बोल कर चुके हैं। यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि ठाकरे परिवार की राजनीतिक रोटी उत्तरभारतीयों मुद्दों की गरमाहट पर सिंकती रही है।

ठाकरे, विवाद और बयान


यूपी की मुख्यमंत्री मायावती द्वारा अपने राज्य को चार भागों में बांटने की घोषणा के बाद शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे ने धमकी भरे लहजे में कहा था कि यूपी के चाहे जितने भी टुकड़ करो, परंतु महाराष्ट्र अखंड रहेगा। उन्होंने पार्टी के मुखपत्र में लिखा था कि यूपी में भले ही मायावती ने गाय मारी हो, मगर हम महाराष्ट्र में विदर्भ रूपी बछड़े को नहीं मारने देंगे। महाराष्ट्र में भी खुछ लोगों ने दिन में ही राज्य का टुकड़ा कर स्वतंत्र विदर्भ बनाने का सपना देखना शुरू कर दिया होगा। मगर ऐसे सपने देखने वालों के मुंह पर शिवसैनिक और जनता जोरदार तमाचा जड़े बिना नहीं रहेंगे।

बाल ठाकरे के भतीजे महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना प्रमुख राज ठाकरे ने आज एक बार फिर उत्तर भारतीयों को निशाना बनाते हुए कहा था कि मुंबई में आपराधिक वारदातों के लिए बिहार, उत्तर प्रदेश और झारखंड के मजदूर जिम्मेदार हैं। उन्होंने कहा था कि मुंबई में हो रहे अपराधों के लिए बिहार, उत्तर प्रदेश और झारखंड से यहां आने वाले मजदूर जिम्मेदार हैं।

उनके बेटे उद्धव ठाकरे ने मुंबई में रहने वाले बिहार के लोगों के लिए 'परमिट सिस्टम' लागू करने की मांग उठाई थी। उनका कहना था कि महाराष्ट्र में क्राइम कर बिहार जाने वाले के खिलाफ कार्रवाई करने के लिए मुंबई पुलिस को अगर बिहार सरकार की परमिशन की जरूरत है तो हमें भी बिहारियों के लिए मुंबई में 'परमिट सिस्टम' लागू करना चाहिए।

Monday, October 29, 2012

'मीडिया ट्रायल की बात निराधार'


ट्रायल मुकदमे का होता है, आरोपी का होता है, वह भी जांच के बाद। ट्रायल अदालत में होता है, वह भी तब जबकि पुलिस या ऐसी कोई अन्य राज्य शक्तियों से निष्ठ संस्था मामला वहां ले जाए या अदालत स्वयं संज्ञान लेकर जांच कराए। ट्रायल के बाद किसी को सजा मिलती है, तो कोई छूट जाता है। बहुस्तरीय न्याय व्यवस्था होने के कारण कई बार नीचे की अदालतों का फैसला ऊपर की अदालतें खारिज ही नहीं करतीं बल्कि यह कहकर कि निचली अदालत ने कानून की व्याख्या करने में भूल की, फैसला उलट भी देती हैं। ऐसा भी होता है कि कई बार सर्वोच्च न्यायालय उच्च न्यायालय के फैसले को न केवल उलट देता है बल्कि निचली अदालत की समझ की तारीफ भी करता है। तात्पर्य यह कि जहां सत्य जानने और जानने के बाद अपराधी को सजा दिलाने की इतनी जबरदस्त प्रक्रिया हो, वहां क्या मीडिया ट्रायल हो सकता है?

ट्रायल अखबारों या टीवी चैनलों के स्टूडियो में नहीं होना चाहिए। क्या भारतीय मीडिया अदालतों की इस मूल भूमिका को हड़प रही है? एक उदाहरण लें। चुनाव के महज कुछ वक्त पहले सांप्रदायिक रूप से संवेदनशील एक जिले के मुख्य चौराहे पर एक बम विस्फोट होता है। एक चैनल के कैमरे में एक दृश्य कैद होता है, जिसमें दिखाई देता है कि दो लोग एक कार में भाग रहे हैं। चैनल के रिपोर्टर द्वारा यह भी पता लगाया जाता है कि इस कार का नंबर जिस व्यक्ति का है, वह राज्य के एक प्रभावशाली नेता का भतीजा है। वह नेता उस क्षेत्र से चुनाव लड़ रहा है।

क्या सीआरपीसी की धारा 39 का अनुपालन करते हुए चुपचाप यह टेप क्षेत्र के पुलिस अधिकारी को देने के बाद मीडिया के दायित्य की इति-श्री हो जाती है? क्या यह खतरा नहीं है कि पूरे मामले को वह नेता महोदय दबा दें? यह संभव है कि जो लोग भाग रहे हों, वे निर्दोष दुकानदार हों या फिर अपराधियों ने ही उस कार को हाइजैक कर लिया हो, जो बाद की तफ्तीश से पता चले। लेकिन क्या यह उचित नहीं होगा कि सारे तथ्य जन संज्ञान में इसलिए लाए जाएं ताकि कोई सत्ताधारी प्रभाव का इस्तेमाल कर बच न सके? दोनों खतरों को तौलना होगा। एक तरफ व्यक्ति गरिमा का सवाल है और दूसरी तरफ जनता के विश्वास का या यूं कहें कि संवैधानिक व्यवस्था पर और प्रजातंत्र पर जनता की आस्था का सवाल।

फिर अगर मीडिया की गलत रिपोर्टिंग से किसी का सम्मान आहत हुआ है तो उसके लिए मानहानि का कानून है लेकिन अगर सत्ता में बैठा कोई नेता आपराधिक कृत्य के जरिए सांप्रदायिक भावना भड़का कर फिर जीत जाता है और मंत्री बनता है, उसके लिए बाद में कोई इलाज नहीं है। ऐसे में क्या यह मीडिया का दायित्व नहीं बनता कि तथ्यों को लेकर जनता में जाए और जनमत के दबाव का इस्तेमाल राजनीति में शुचिता के लिए करे? क्या मीडिया मानहानि के कानून से ऊपर है?

जब संस्थाओं पर अविश्वास का आलम यह हो कि मंत्री से लेकर विपक्ष तक विवादित दिखाई दें तो क्या मीडिया तथ्यों को भी न दिखाए? आज हर राजनेता जो भ्रष्टाचार का आरोपी है एक ही बात कह रहा है - 'जांच करवा लो, मीडिया ट्रायल हो रहा है।' मूल आरोप का जवाब नहीं दिया जा रहा है कि संपत्ति तीन साल में 600 गुना कैसे हो जाती है। कैसे एक कंपनी झोपड़पट्टी में ऑफिस का पता देकर करोड़ों का खेल करती है। जांच करवाने की वकालत करने वाले यह जानते हैं कि जांच के मायने अगले कई वर्षों तक के लिए मामले को खटाई में डालना है। अगर आरोपपत्र दाखिल भी हो जाए तो तीन स्तर वाली भारतीय अदालतों में वह कई दशकों तक मामले को घुमाते रह सकता है और कहीं इस बीच उसकी सरकार आ गई तो सब कुछ बदला जा सकता है।

दरअसल, यह सब देखना कि कहीं कोई गड़बड़ी तो नहीं हो रही है, वित्तीय व कानून की संस्थाओं का काम था। जब उन्होंने नहीं किया तब मीडिया को इसे जनता के बीच लाना पड़ा। अगर ये संस्थाएं अपना काम करतीं तो न तो किसी की संपत्ति तीन साल में 600 गुना बढ़ती, न ही ड्राइवर डायरेक्टर बनता और न ही फर्जी कंपनियां किसी नेता की कंपनी में पैसा लगातीं। यहां एक बात मीडिया के खिलाफ कहना जरूरी है। मीडिया को केवल तथ्यों को या स्थितियों को जनता के समक्ष लाने की भूमिका में रहना चाहिए। जब स्टूडियो में चर्चा करा कर एंकर खुद ही आरोपी से इस्तीफे की बात करता है तो वह अपनी भूमिका को लांघता है। मीडिया की भूमिका जन-क्षेत्र में तथ्यों को रखने के साथ ही खत्म हो जाती है, बाकी काम जनता और उसकी समझ का होता है। अगर इसे मीडिया ट्रायल की संज्ञा दी जाती है तो वह सही है।

एक अन्य प्रश्न भी है। क्या वजह है कि आज भी भ्रष्टाचार के मामलों में सजा की दर बेहद कम है? और जिन पर आरोप सालों से रहा है, वो या तो सरकर में हैं या सरकार बना -बिगाड़ रहे हैं। यह सही है कि मीडिया का किसी के मान-सम्मान को ठेस पहुंचाना बेहद गलत है। यह भी उतना ही सही है कि अगर किसी पर मीडिया ने ऐसे आरोप लगाए जो बाद में अदालत से निर्दोष साबित हों तो, मीडिया को कठघरे में होना चाहिए क्योंकि वह गलत सिद्ध हुआ, पर अगर यही आरोप ऊपर की अदालत से फिर सही सिद्ध हो जाए, तब क्या कहा जाएगा? क्या यह नहीं माना जाना चाहिए कि मीडिया सही साबित हुआ? एक और स्थिति लें।

अगर इसी मामले में सुप्रीम कोर्ट फिर से हाईकोर्ट के फैसले को उलट दे तो, मीडिया एक बार फिर गलत साबित होगा। कहने का मतलब यह कि मीडिया सही था या गलत यह इस बात पर निर्भर करेगा कि आरोपी में सीढ़ी दर सीढ़ी लडऩे का माद्दा कितना है। यानी, सत्य उसके सामथ्र्य पर निर्भर करेगा। यही कारण है कि आज देश में जहां तीन अपराध के मामले हैं, वहीं केवल एक सिविल मामला। ठीक इसके उलट ऊपरी अदालतों में यानी हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में अगर तीन मामले सिविल के होते हैं तो केवल एक अपराध का। कारण साफ है, जो समर्थ है, वह किसी स्तर तक अदालतों के दरवाजे खटखटा सकता है। अपराध में सजा पाने वाला अपनी मजबूरी के कारण निचली अदालतों से सजा पाने के बाद जेल की सलाखों को ही अपनी नियति मान लेता है। उसके लिए सत्य की खोज की सीमा है। ऐसे में मीडिया क्या करे? क्या तथ्यों को देना बंद कर दे?

लेखक- एनके सिंह, वरिष्ठ पत्रकार (दैनिक भास्कर से साभार)

Sunday, October 28, 2012

मीडिया की ताकत!


आज समाज में विश्वास का संकट है. हर संस्था या इससे जुड़े लोग अपने कामकाज के कारण सार्वजनिक निगाह में हैं. इसलिए मौजूदा धुंध में मीडिया को विश्वसनीय बनने के लिए अभियान चलाना चाहिए. इस दिशा में पहला कदम होगा, ईमानदार मीडिया के लिए नया आर्थिक मॉडल, जिसमें मुनाफा भी हो, शेयरधारकों को पैसा भी मिले, निवेश पर सही रिटर्न भी हो और यह मीडिया व्यवसाय को भी अपने पैरों पर खड़ा कर दे. यह आर्थिक मॉडल असंभव नहीं है.

मीडिया की ताकत क्या है? अगर मीडिया के पास कोई शक्ति है, तो उसका स्रोत क्या है? क्यों लगभग एक सदी पहले कहा गया कि जब तोप मुकाबिल हो, तो अखबार निकालो? सरकार को संवैधानिक अधिकार प्राप्त है. न्यायपालिका अधिकारों के कारण ही विशिष्ट है. विधायिका की संवैधानिक भूमिका है, उसे संरक्षण भी है. पर संविधान में अखबारों, टीवी चैनलों या मीडिया को अलग से एक भी अधिकार है? फिर मीडिया का यह महत्व क्यों?

जिसके पीछे सत्ता है, जिसे कानूनी अधिकार मिले हैं, सीमित-असीमित, वह तो समाज में सबसे विशिष्ट या महत्वपूर्ण है ही, पर मीडिया के पास तो न संवैधानिक अधिकार है, न संरक्षण. फिर भी उसे लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाता है. क्यों?
मीडिया के पास महज एक और एक ही शक्ति स्रोत है. वह है उसकी साख. मीडिया का रामबाण भी और लक्ष्मण रेखा भी. छपे पर लोग यकीन करते हैं. लोकधारणा है कि शब्द, सरस्वती के प्रसाद हैं. सरस्वती देवी, विद्या, ज्ञान की देवी या अधिष्ठात्री हैं. वे सबसे पूज्य, पवित्र और ईश्वरीय हैं. ज्ञान का संबंध जीवन के प्रकाश (सच, तथ्यपूर्ण, हकीकत, यथार्थ वगैरह) से है, अंधेरे (झूठ, छल, प्रपंच, छद्म वगैरह) से नहीं.

सरस्वती हमारे मानस में प्रकाश की, ज्ञान की, मनुष्य के अंदर जो भी सर्वश्रेष्ठ-सुंदर है, उसकी प्रतीक हैं. इसलिए छपे शब्द, ज्ञान या प्रकाशपुंज के प्रतिबिंब हैं. इसलिए हमारे यहां माना गया है कि छपे शब्द गलत हो ही नहीं सकते. सरस्वती के शब्दों पर तिजारत नहीं हो सकती. यही और यही एकमात्र मीडिया की ताकत है. शक्ति- स्रोत है. लोग मानते हैं कि जो छपा, वही सही है. टीवी चैनल, रेडियो, इंटरनेट, ब्लाग्स वगैरह सब इसी ‘प्रिंट मीडिया’ (छपे शब्दों) के ‘एक्सटेंशन’ (विस्तार) हैं. इसलिए इनके पास भी वही ताकत या शक्ति-स्रोत है, जो प्रिंट मीडिया के पास थी.

इस तरह, मीडिया के पास लोक साख की अपूर्व ताकत है. यह संविधान से भी ऊपर है. इसलिए संविधान के अन्य महत्वपूर्ण स्तंभ (जिन्हें संवैधानिक अधिकार प्राप्त हैं) भी मीडिया की इस अघोषित साख के सामने झुकते हैं. न चाहते हुए भी उसकी ताकत-महत्व को मानने-पहचानने के लिए बाध्य हैं. पर, मीडिया जगत को महज अपनी असीमित ताकत, भूमिका और महत्व का ही एहसास है, लक्ष्मण रेखा का नहीं. और लक्ष्मण रेखा के उल्लंघन का बार-बार अवसर नहीं मिलता! यह लोक जीवन का यथार्थ है. मीडिया अपनी एकमात्र पूंजी साख को बार-बार दावं पर लगाने लगे, तो क्या होगा? दावं पर लगाने के लिए फिर कोई दूसरी पूंजी नहीं है. ‘91 के उदारीकरण के दोनों असर हुए, अच्छे व बुरे भी. जीवन-देश के हर क्षेत्र में. मीडिया में भी. 1991 से ही शुरू हुई, पेज-थ्री संस्कृति. यह नयी बहस कि मीडिया का काम मनोरंजन करना है और सूचना देना भर है. इसी दौर में मीडिया में बड़ी पूंजी आयी, नौकरी की शर्तें बेहतर हुईं, पर यह सिद्धांत भी आया कि अब यह शुद्ध व्यवसाय है. विज्ञापन का व्यवसाय. खबरों का धंधा. इसका मकसद भी ‘अधिकतम मुनाफा’ (प्राफिट मैक्सिमाइजेशन) है.

1991 के उदारीकरण के बाद नया दर्शन था, हर क्षेत्र में निवेश पर कई गुणा रिटर्न या आमद यानी प्राफिट मैक्सिमाइजेशन. पर, जीवन के यथार्थ कुछ और भी हैं. जैसे रेत से तेल नहीं निकलता. उसी तरह मीडिया व्यवसाय में भी नैतिक ढंग से, वैधानिक ढंग से, स्वस्थ मूल्यों के साथ ‘अधिकतम वैधानिक कमाई’ की सीमा थी. चाहे प्रिंट मीडिया हो या न्यूज चैनल या रेडियो वगैरह.

तब शुरू क्या हुआ?

साख से सौदेबाजी. अपनी एकमात्र नैतिक ताकत की नीलामी! हुआ तो बहुत कुछ है, पर इसके पहले बताते चलें कि हो क्या सकता था? ईमानदारी से मीडिया के धुरंधर और बड़े लोग कोशिश करते कि ‘मीडिया का ईमानदार आर्थिक मॉडल’ ढ़ूंढ़ा जाये. इसके रास्ते थे, बड़ी तनख्वाहों पर पाबंदी लगती या कटौती होती. अखबारों की कीमतें बढ़ायी जातीं. समाज को बताया जाता कि ईमानदार मीडिया चाहते हैं, तो अखबार की अधिक कीमत देनी पड़ेगी. मुफ्त अखबार (दो-तीन रुपये में) चाहिए और ईमानदार पत्रकारिता, यह संभव नहीं. पाकिस्तान के अखबार आज भारत के अखबारों से काफी महंगे है, पर वे बिकते हैं. यह उल्लेख करना सही होगा कि पाकिस्तान की मीडिया ने वहां के तानाशाहों के खिलाफ जो साहस दिखाया, वह साहस तो भारत में है ही नहीं. वह भी भारतीय लोकतंत्र के अंदर. फिर भी गरीब पाकिस्तानी अधिक कीमत देकर अपनी ईमानदार मीडिया को बचाये हुए है.

गांधी ने जब अपनी पत्रिका ‘इंडियन ओपिनियन’ शुरू की थी, तो उन्हें इस द्वंद्व से गुजरना पड़ा. वगैर विज्ञापन, पत्रिका घाटे का सौदा थी. विज्ञापन से समझौते की शर्तें शुरू होती थीं. साख या मीडिया की एकमात्र नैतिक ताकत से सौदेबाजी, उन्हें पसंद नहीं आयी. इस द्वंद्व पर उन्होंने बहुत सुंदर विवेचन किया है. उदारीकरण के बाद उनका यह विवेचन, भारतीय मीडिया के लिए आदर्श हो सकता था. रोल मॉडल या लाइट हाउस की तरह पथ प्रदर्शक. पर हमने क्या रास्ता चुना? आसान-सुविधाजनक!
इसकी शुरुआत भी बड़े लोगों ने की. पहले ‘एडवरटोरियल’ छपने लगे. खबर या रिपोर्ट की शक्ल में विज्ञापन. फिर पार्टियों की तसवीरें छपने लगीं, पैसे लेकर. फिर शेयर बाजार का उफान (‘बूम’) आया. कंपनियों के शेयर लेकर उन्हें प्रमोट करने का काम मीडिया जगत करने लगा. इस प्रक्रिया में हर्षद मेहता, केतन पारिख, यूएस-64 जैसे न जाने कितने लूट या सार्वजनिक डाका प्रकरण हुए. कितने हजार या लाखों करोड़ डूब गये या लूटे गये? मीडिया का तो फर्ज था, इन लोभी ताकतों से देश को आगाह करना. यह सवाल मीडिया उठाता कि रजत गुप्ता जैसे इंसान (जिस आदमी ने उल्लेखनीय बड़े काम किये, इंडियन बिजनेस स्कूल, हैदराबाद की स्थापना के अतिरिक्त अनेक काम) ने भी गलती की, तो अमेरिकी कानून ने दोषी माना. सख्त सजा दी. उस इंसान को जिसका समाज के प्रति बड़ा योगदान रहा है. देश-विदेश के कारपोरेट वर्ल्‍ड में.

पर भारत में कितने हर्षद मेहता, केतन पारिख या यूएस-64 के लुटेरे या राजा या कनिमोझी या कलमाड़ी जैसे लोगों को सजा मिली? सार्वजनिक लूट के लिए आज तक भारत में किसी को सजा मिली है? मीडिया का धर्म था यह देखना. मीडिया ने 1991-2010 के बीच यह नहीं देखा. परिणाम आज देश में घोटालों का भूचाल-विस्फोट का दौर आ गया है.

पर, मीडिया में भी खबरें बिकने लगीं. ‘पेड न्यूज’ की शुरुआत का दौर. खबर, जिसपर लोग यकीन करते हैं, वही बिकने लगी. एकमात्र साख से सौदेबाजी. फिर 2जी प्रकरण हुआ. मीडिया जगत के बड़े स्तंभ, नाम और घराने इसमें घिरे. अब ताजा प्रकरण जिंदल और जी न्यूज विवाद का है. इसके पहले भी इंडियन एक्सप्रेस में कुछ राज्यों के मुख्यमंत्री, कुछ अन्य चैनलों के बारे मे कह चुके हैं कि कैसे उनके टॉप लोग आकर धमकी देते हैं. विज्ञापन मांगते हैं! हम नहीं जानते कौन सही है या कौन गलत! हम यह भी स्पष्ट करना चाहते हैं कि मीडिया में होने के कारण, हम सब इसके लिए जिम्मेवार हैं. कुछेक दोषी, कुछेक पाक-साफ, यह कहना या बताना भी हमारा मकसद नहीं.

पर, मीडिया अपनी आभा खो रही है. उसका सात्विक तेज खत्म हो रहा है. समाज में उसके प्रति अविश्वास ही नहीं, नफरत भी बढ़ रही है. यह किसी बाहरी सत्ता के कारण या हस्तक्षेप के कारण नहीं, खुद हम मीडिया के लोग कालिदास की भूमिका में हैं. साख की जिस एकमात्र डाल पर बैठे हैं, उसे ही काट रहे हैं. क्या मीडिया के अंदर से यह आवाज नहीं उठनी चाहिए कि हम अपनी एकमात्र पूंजी, साख बचायें? यह सवाल आज बहस का विषय नहीं. एक दूसरे पर दोषारोपण का भी नहीं. हम सही, आप गलत के आरोप-प्रत्यारोप का भी नहीं. हर मीडियाकर्मी अपनी अंतरात्मा से आज यह सवाल करे, तो शायद बात बने!

आज समाज में विश्वास का संकट है. हर संस्था या इससे जुड़े लोग अपने कामकाज के कारण सार्वजनिक निगाह में हैं. इसलिए मौजूदा धुंध में मीडिया को विश्वसनीय बनने के लिए अभियान चलाना चाहिए. इस दिशा में पहला कदम होगा, ईमानदार मीडिया के लिए नया आर्थिक मॉडल, जिसमें मुनाफा भी हो, शेयरधारकों को पैसा भी मिले, निवेश पर सही रिटर्न भी हो और यह मीडिया व्यवसाय को भी अपने पैरों पर खड़ा कर दे. यह आर्थिक मॉडल असंभव नहीं है. इसके लिए बड़े मीडिया घरानों को एक मंच पर बैठना होगा. निजी हितों और पूर्वग्रह से ऊपर उठना होगा. अपने लोभ और असीमित धन कमाने की इच्छा को रोकना होगा. इस प्रयास से मीडिया को अपनी साख पुन: बनाने का अवसर मिलेगा. मीडिया की साख बढ़ेगी, आर्थिक विकास तेज होगा, तो इसका लाभ मीडिया उद्योग जगत को भी मिलेगा.

मुद्दा है, संयम से काम करने का, अनुशासन में काम करने का और अचारसंहिता बना कर मीडिया की सही भूमिका में उतरने का. इसके साथ ही मीडिया की पहल पर कोई कारगर संवैधानिक व्यवस्था बने, तो मीडिया में वैल्यूज-इथिक्स (मूल्य-अचारसंहिता) की मानिटरिंग (निगरानी) करे. अगर मीडिया की सहमति से यह सब हो, तो मीडिया सचमुच भारत बदलने की प्रभावी भूमिका में होगी. याद करिए, कुछेक वर्ष पहले चंडीगढ़ प्रेस क्लब में आयोजित एक कार्यक्रम में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने बिजनेस पेपर (पिंक पेपर्स) के बारे में क्या कहा था? बड़े संगीन और गंभीर आरोप लगाये थे. उदाहरण समेत. कहा, कैसे खराब कंपनियों के शेयर भाव अचानक बढ़ाये जाते हैं और अच्छी कंपनियों के भाव गिराये जाते हैं? यह खेल कौन और कैसे अखबार करते हैं, यह सबको पता है.

प्रधानमंत्री के इस बयान को लेकर एडीटर्स गिल्ड ने तब कमेटी भी बनायी. इससे अजीत भट्टाचार्जी जैसे पत्रकार भी जुड़े. कमेटी की रिपोर्ट आयी. उस रिपोर्ट को मीडिया में लागू करने की बात उठी, पर सबकुछ भुला दिया गया. मीडिया घराने सार्वजनिक क्षेत्र या जीवन से जुड़े हैं. आज के माहौल में जरूरत है कि वे सभी अपने कामकाज को सावजनिक और पारदर्शी बनाये. अंतत: इससे, इनके प्रति आस्था बढ़ेगी. इसी तरह यह काम आज मीडिया के हित में तो है ही, समाज के हित में है और देश के हित में भी.

हरिवंश - (लेखक प्रभात खबर के प्रधान संपादक हैं) प्रभात खबर से साभार

Tuesday, October 23, 2012

हाईप्रोफाइल मच्छर: डेंगू का 'डंक'


डेंगू नामक बीमारी को कौन नहीं जानता है? हर साल हजारों लोग इस बीमारी के शिकार होते हैं। लेकिन इन दिनों डेंगू कुछ ज्यादा ही हाईप्रोफाइल हो गया है। इसने देश के जाने-माने फिल्मकार यश चोपड़ा को डंक मारने का दुस्साहस किया है। उसके डंक की चोट से यश जी तो चले गए, लेकिन देश में चर्चा का विषय छोड़ गए। चारों तरफ डेंगू की चर्चा हो रही है। कभी इसे गरीबों की बीमारी मानकर दुत्कार दिया गया था, अब इससे बड़े-बड़े लोग डरने लगे हैं। डेंगू फेसबुक और ट्विटर पर ट्रेंड करने लगा है। यश जी की मौत से ज्यादा पब्लिसिटी बटोर चुका है।

बताते चलें कि पूरे भारत में अब तक 17 हजार से अधिक डेंगू के मरीज सामने आ चुके हैं। देश में इस साल अब तक 100 से अधिक मौते डेंगू से हो चुकी हैं। इस साल मुंबई में 650 और दिल्ली में 700 से अधिक डेंगू के मामले सामने आ चुके हैं। डेंगू के बारे में एक गलतफहमी यह है कि यह गंदगी भरे इलाकों में ज्यादा होता है लेकिन मुंबई और दिल्ली में 60 फीसदी से अधिक डेंगू के मामले पॉश कॉलोनियों में सामने आए हैं।

डेंगू का मच्छर साफ पानी में ही जन्म लेता है। घर के अंदर लगे मनी प्लांट, फव्वारों, कूलर आदि में भरा पानी इसके पैदा होने के लिए आदर्श जगह होता है। डेंगू का मच्छर 50 मीटर से 200 मीटर तक ही उड़ान भर पाता है इसलिए ज्यादातर मच्छर मरीजों के घर में ही पनपते हैं और पड़ोसियों पर हमला करने की उनकी संभावना बेहद कम होती है।

Wednesday, October 3, 2012

सचान-आरुषि मर्डर: CBI की 'साख' पर सवाल

सीबीआई को देश की सबसे बड़ी जांच एजेंसी माना जाता है। किसी भी घटना में तह तक जाने या इंसाफ पाने के लिए उस पर सबसे ज्यादा भरोसा किया जाता है। यही कारण है कि जब भी कोई वारदात या घोटाला होता है तो लोगों की जुबां पर सीबीआई का नाम होता है। पर यूपी के दो सबसे चर्चित और सनसनीखेज मुद्दों पर उसकी नाकामी अब उसके विश्वसनीयता पर ही सवाल खड़े कर रही है। 

सचान और आरुषि हत्याकांड का केस जब सीबीआई को सौंपा गया तो लोगों को आस बंधी कि अपराधी जरूर पकड़े जाएंगे। पर 14 महीने की जांच के बाद डॉ सचान केस में कुछ भी नया सबूत नहीं मिला। सीबीआई ने मामले में क्‍लोजर रिपोर्ट दाखिल कर कहा कि डॉ वाइएस सचान की हत्‍या के सबूत नहीं मिले हैं। इसी तरह से आरुषि हत्‍याकांड में भी सीबीआई ने यूपी पुलिस की थ्‍योरी को गलत साबित किया था, लेकिन नतीजा सिफर रहा।

दबी जुबान से ही सही अक्सर राजनीतिक पार्टियों द्वारा सीबीआई के गलत इस्तेमाल की बात कही जाती रही है। विपक्षी पार्टियों का तो यहां तक कहना है कि यूपीए सरकार उसकी बदौलत चल रही है। उसका भय दिखाकर बहुमत के आंकड़े जुटाए जाते हैं। ऐसे में सीबीआई जैसी बड़ी जांच एजेंसी की विश्वसनीयता पर सवाल खड़ा हो उठता है।

 
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