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Friday, December 3, 2010

जर्जर इमारतें

मौत के साए में जिंदगी

दिल्ली के लक्ष्मी नगर में इमारत ढह जाने का जो दर्दनाक हादसा हुआ है, उसने सबको दहला कर रख दिया है। इसमें 70 लोगों की मौत हो गई और सैकड़ों लोग जख्मी हुए। ऐसा ही कुछ मंजर गाजियाबाद सहित पूरे वेस्ट यूपी में भी देखने को मिल सकता है। यहां लक्ष्मी नगर जैसी कई जर्जर इमारतें हैं, जो कभी भी ढह कर मलबे में तब्दील हो सकती हैं। इमारतों में नीचे दुकानें हैं और ऊपर लोग रहते हैं। अगर भविष्य में यह इमारतें गिरीं तो तय है कि बड़ी संख्या में जान-माल का नुकसान होगा। इन बातों से बाखबर प्रशासन कन्नी काटता नजर आ रहा है, तो वहीं इन इमारतों का जन्मदाता जीडीए नींद में है। इमारतों में भूकंप के मामूली झटके बर्दाश्त करने की जरा भी कूवत नहीं है। भूकंप के हल्के झटके भर से जर्जर इमारतें ताश के पत्तों की तरह कभी भी भरभरा सकती हैं।
हाई रिस्क जोन में बहुमंजिला इमारतें
भूकंप शब्द से ही लोगों में दहशत फैल जाती है। खासकर दिल्ली और एनसीआर के लोगों में। यह क्षेत्र हाईरिस्क जोन में आने के कारण सबसे ज्यादा संवेदनहै। बहुमंजिला इमारतों की भरमार होने से यहां भूकंप आने पर जान-माल का भारी नुकसान हो सकता है।
दिल्ली, नोएडा, गाजियाबाद, गुडग़ांव, फरीदाबाद जैसे शहरों में जगह की कमी के कारण ऊंची बिल्डिंग बनाने का चलन काफी समय से चल रहा है। लेकिन बहुमंजिला इमारत बनाने का यही चलन लोगों के लिए मुसीबत बन गया है। प्राधिकरण निजी बिल्डरों से भूकंपरोधी भवन नहीं बनवा पा रहे। भूकंप से बचाव के उपाय केवल कागजों तक सिमट कर रह गए हैं। गनीमत बस इतनी है कि अभी तक दिल्ली और एनसीआर में बड़ा भूकंप नहीं आया है।
विशेषज्ञों का कहना है कि इस क्षेत्र में रिक्टर स्केल पर 7 तक की तीव्रता का भूकंप आ सकता है। 4.5 से अधिक तीव्रता का भूकंप आने पर इमारतों को सबसे ज्यादा नुकसान होगा। भूस्खलन के साथ-साथ बड़े-बड़े भवन ढह सकते हैं। भूमिगत पाइप लाइनों के टूटने का खतरा बढ़ जाता है। भूकंप की तीव्रता बढऩे पर नदियों का मार्ग तक बदल सकता है।

यमुना तीरे इमारतों की बाढ़
यमुना के किनारे के रेतीले इलाकों में तेजी से बहुमंजिला इमारतें खड़ी की जा रहीं हंै। सबसे खतरनाक बात यह है कि यहां की ऐसी अनेक बहुमंजिला इमारतें हैं, जो भूकंप का हल्का झटका भी नहीं सह सकतीं। भूकंप वैज्ञानिकों के अनुसार अगर चार रिक्टर पैमाने की भी हलचल हुई तो ताश के पत्तों की तरह इस क्षेत्र की इमारतें ढह जाएंगी।
केन्द्र सरकार के शहरी भूकंप भेदता यूनीकरण कार्यक्रम (यूईवीआरपी) के अधिकारियों ने नदी में निर्माण को खतरनाक करार दिया है। ऐसी स्थिति में लोगों को यही कहा जाना चाहिए कि नदी के नहीं तो खुद के जीवन के लिए ही सही ऐसी जगहों पर बहुमंजिला इमारतें बनाने से बचें। आगरा भूकंपीय खतरे की दृष्टि से तीसरे स्थान पर है। यहां भूकंप का झटका कभी भी लग सकता है। यूपी के राहत आयुक्त के नेतृत्व में चल रही यूईवीआरपी के प्रोजेक्ट समन्वयक जीवन पंडित के मुताबिक ठोस मिट्टी पर बनी इमारतों पर भूकंप का असर कम होता है। जबकि यमुना और इसके तट रेत से भरे हंै। भूकंप होने पर रेत में भूजल मिल जाता है, इसे लिक्वफिकेशन कहते हैं। यह दलदल बनाने का काम करता है। इससे नींव कमजोर हो जाती है और भवन ध्वस्त हो सकते हंै। भूकंप की दृष्टि से कभी भी नदी के पास निर्माण नहीं करना चाहिए।

क्या कहता है जियोलॉजिकल सर्वे
जियोलॉजिकल सर्वे में यह बात सामने आई है कि गाजियाबाद सहित पूरा दिल्ली-एनसीआर फोर्थ जोन में है। यानि हल्का भूकंप का झटका भी तबाही ला सकता है। ट्रांस हिंडन क्षेत्र में रियल स्टेट कारोबार के फैलने से भारी मात्रा में जल दोहन हो रहा है। जिससे मिट्टी खिसकती है और अत्याधिक बारिश से इमारतों में दरार की संभावना है। जबकि भू-जल पर्याप्त मात्रा में होने से दबाव बना रहता है और मिट्टी नहीं खिसकती। सर्वे के अनुसार यदि प्राकृतिक तरीके से मिट्टी खिसकती है तो कोई खतरा नहीं, लेकिन दोहन से इमारतों की नींव कमजोर हो सकती है।
भूकंप से सुरक्षित बनाने के लिए इमारतों को रिक्टर स्केल मैग्निटयूड 6 की तीव्रता का भूकंप झेलने के लिए तैयार किया जाता है। इसके लिए बिल्डिंग के कंस्ट्रक्शन के वक्त ही उसे भूकंपरोधी बनाने के सभी उपाय किए जाते हैं। घर खरीदने के पहले किसी सर्टिफाइड स्ट्रक्चरल इंजीनियर का सर्टिफिकेट, जिसमें रिक्टर स्केल मैग्निटयूड कम से कम छह रखा गया हो, उसे जरूर देखना चाहिए।

भूकंप की वजह
भूकंप आज भी ऐसा प्रलय माना जाता है जिसे रोकने या काफी समय पहले सूचना देने की कोई प्रणाली वैज्ञानिकों के पास नहीं है। प्रकृति के इस तांडव के आगे सभी बेबस हो जाते हैं। सामने होता है तो बस तबाही का ऐसा मंजर जिससे उबरना आसान नहीं होता है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण चीन और हैती में आए भूकंप हैं।
भूकंपों की उत्पत्ति धरती की सतह से 30 से 100 किलोमीटर अंदर होती है। सतह के नीचे धरती की परत ठंडी होने और कम दबाव के कारण भंगुर होती है। ऐसी स्थिति में जब अचानक चट्टानें गिरती हैं तो भूकंप आता है। एक अन्य प्रकार के भूकंप सतह से 100 से 650 किलोमीटर नीचे होते हैं।
धरती की सतह से काफी गहराई में उत्पन्न अब तक का सबसे बड़ा भूकंप 1994 में बोलीविया में रिकॉर्ड किया गया। सतह से 600 किलोमीटर दर्ज इस भूकंप की तीव्रता रिक्टर पैमाने पर 8.3 मापी गई थी। हालांकि वैज्ञानिक समुदाय का अब भी मानना है कि इतनी गहराई में भूकंप नहीं आने चाहिए क्योंकि चट्टान द्रव रूप में होते हैं। वैज्ञानिकों का मानना है कि विभिन्न रासायनिकों क्रियाओं के कारण भूकंप आते होंगे।
जानवरों को होता है भूकंप का अहसास!
बचपन में बड़े बुजुर्गों से सुना था कि जब भूकंप आने को होता है तो पशु-पक्षी कुछ अजीब हरकतें करने लगते हैं। चूहे अपनी बिलों से बाहर आ जाते हैं। अगर यह सही है तो वैज्ञानिक पशु-पक्षियों की इस अद्भूत क्षमता को भूकंप की पूर्व सूचना प्रणाली में क्यों नहीं बदल सकते। अगर ऐसा संभव हो जाए तो प्रकृति की इस तबाही पर मानव विजय पा सकेगा। भुज में आए भूकंप के समय ऐसा देखा गया था कि पशु वहां से भागने लगे थे।

घर बनाने या खरीदने के पहले इन बातों का रखें ध्यान
निर्माण कार्य शुरू करने से पहले उस जगह की मिट्टी की जांच जरूरी होती है। इससे पता चलता है कि उसमें इमारत का वजन सहन करने की क्षमता है या नहीं। मिट्टी की क्षमता के आधार पर ही इमारत में फ्लोर्स की संख्या तय की जाती है। और डिजाइन तैयार किया जाता है।
अब सवाल उठता है कि मिट्टी की जांच कहां कराई जाए? मिट्टी की जांच की जिम्मेदारी सरकार से मान्यता प्राप्त प्राइवेट लैब संभालती है। इसके लिए वह बाकायदा एक तय फीस चार्ज करती है। यह 20 हजार से एक लाख रुपये तक हो सकती है। जांच के बाद लैब सर्टिफिकेट जारी करती है।
जांच में यह पता चलता है कि मिट्टी प्रति स्क्वेयर सेंटीमीटर कितना लोड झेल सकती है। वॉटर लेवल और बियरिंग कपैसिटी का सही अनुपात क्या है। मिट्टी की दशा क्या है यानी मिट्टी हार्ड है या सॉफ्ट।

बेसमेंट का ध्यान जरूरी
ललिता पार्क (दिल्ली) में गिरी इमारत के बेसमेंट में पानी भरा था। ऐसा माना जा रहा है कि नींव में पहुंचे पानी ने बिल्डिंग को कमजोर बना दिया। बेसमेंट इमारत का आधार होता है, इसलिए इसका मजबूत होना बहुत जरूरी है।
इमारत की वॉटर प्रूफिंग बहुत जरूरी होती है। इमारत का बिल्डर ही बेसमेंट की वॉटर प्रूफिंग के लिए जिम्मेदार होता है। जब उस इलाके में वॉटर लेबल ज्यादा हो, जैसे यमुना और हिंडन किनारे वाले इलाके, तब उसकी जिम्मेदारी और बढ़ जाती है। संबंधित जगह के वॉटर लेवल के अनुसार ही यह तय किया जाता है कि बेसमेंट को किस तरह की वॉटर प्रूफिंग सुरक्षित रख सकती है। ऊंचे वॉटर लेवल वाले इलाकों में आमतौर पर बॉक्स टाइप वॉटर प्रूफिंग की जाती है, जिसमें नींव और चारों तरफ की दीवारों पर कोटा स्टोन की परत चढाई जाती है।

निर्माण सामग्री की करें जांच
मिट्टी का ठीक होना ही इमारत की सुरक्षा की लिए काफी नहीं है। यह भी जरूरी है कि इमारत को तैयार करने में लगाए जाने वाले सामग्री की गुणवत्ता अच्छी हो। इस सामग्री में क्रंक्रीट, सीमेंट, ईंट, सरिये आदि शामिल होती हैं। निर्माण सामग्री के ठीक होने या नहीं होने के बारे में ज्यादातर संतुष्टि सिर्फ देखकर ही की जाती है। फिर भी कुछ हद तक सावधानी बरती जा सकती है।
सबसे पहले प्लास्टर की जांच करनी चाहिए। इसके लिए एक कील या गाड़ी की चाबी लें, इसे दीवार पर हाथ से गाढऩे की कोशिश करें। अगर कील दीवार में धंस जाती है तो रेत झड़ता है, तो साफ है कि खराब सामग्री लगाया गया है। यदि कील आसानी से नहीं धंसती, तो समझ सकते हैं कि सामग्री अच्छी है और काफी तराई भी की गई है।
यदि आप संतुष्ट नहीं हैं, तो जांच में प्रोफेशनल की मदद लें सकते हैं। कंक्रीट फ्रेमवर्क के तहत आने वाली चीजों की जांच किसी प्रफेशनल से कराई जा सकती है। इस फ्रेमवर्क के अंतर्गत पिलर, नींव, स्लैब्स आदि आते है। प्रोफेशनल स्ट्रक्चरल इंजीनियरिंग से सर्टिफिकेट लिया जा सकता है।
थर्ड पार्टी से गुणवत्ता जांची जा सकती है। इस प्रक्रिया के तहत बिल्डर मिट्टी समेत सभी निर्माण सामग्री आदि की गुणवत्ता की जांच कराता है। यह जांच प्राइवेट एजेंसियां तय मानकों के आधार पर करती हैं, जिन्हें मानना बिल्डर के लिए जरूरी होता है। सभी चीजों की जांच के बाद सर्टिफिकेट दिए जाते हैं, जिन्हें एक बार जरूर देख लेना चाहिए।

दस्तावेज जरूर लें
अगर आप इमारत की सुरक्षा के बारे में जांच-पड़ताल कर रहे हैं, लेकिन उसके वैध या अवैध होने पर लापरवाही कर जाते हैं, तो आप बड़ी भूल कर रहे हैं। कोई भी बिल्डर या सरकार तभी तक जिम्मेदार है, जब तक इमारत लीगल है।
नेशनल बिल्डिंग कोड के मानक, जो सीपीडब्ल्यूडी जैसी सरकारी संस्थाओं के पास या इंटरनेट पर उपलब्ध हैं।
सबके साथ यह भी जानना जरूरी है कि उस क्षेत्र में बिल्डिंग में कितने फ्लोर की इजाजत है, फ्लोर एरिया अनुपात के अनुसार कितनी जगह पर निर्माण किया जा सकता है, जोन के अनुसार, बिल्डिंग की अधिकतम ऊंचाई कितनी रखी जा सकती है, किस तारीख को प्रोजेक्ट लॉन्च किया गया, यानी बिल्डिंग कितनी पुरानी है।

अग्नि सुरक्षा
घर लेने से पहले यह संतुष्टि कर लेना भी जरूरी है कि बिल्डिंग को आग के खतरों से सुरक्षित बनाया गया है या नहीं। इसके यह जांच कर लें कि अगर मल्टीस्टोरी अपार्टमेंट है तो फायर डिपार्टमेंट से नो ऑब्जेक्शन सर्टिफिकेट मिला है कि नहीं।

स्ट्रक्चरल इंजीनियर से जरूर लें सलाह
इमारत बनवाने या फ्लैट खरीदने से पहले किसी स्ट्रक्चरल इंजीनियर से सलाह जरूर लें। यह सलाह ड्रॉइंग डिटेल्स बनवाने तक ही सीमित न रहे। उस डिटेल्स पर पूरी तरह अमल भी करें। घर के निर्माण के वक्त स्ट्रक्चरल इंजीनियर से यह चेक करवाते रहें कि निर्माण सही हो रहा है या नहीं। आर्किटेक्ट और स्ट्रक्चरल इंजीनियर का आपसी मेल-जोल होना बहुत जरुरी है। अगर खुद घर बनवा रहे हैं, तो निर्माण पर आने वाली कुल लागत का अनुमान लगाना आसान हो जाता है।

कानूनी प्रावधान
नेशनल बिल्डिंग कोड के अनुसार बिल्डिंग के डिजाइन व निर्माण का कार्य किया जाता है। इसके आधार पर तैयार की गई इमारत को सुरक्षा के आधार पर 100 फीसद खरा माना जा सकता है। इसे सबसे पहले 1970 में प्लानिंग कमिशन ने लागू किया था। 1983 में इसे संशोधित किया गया। इसके बाद दो बार 1987 में और एक बार 1993 में इसमें सुधार किए गए। बाद में नेशनल बिल्डिंग कोड ऑफ इंडिया 2005 लाया गया। 'एनबीसी 2005Ó का निर्माण ब्यूरो आफ इंडियन स्टैंडर्ड, म्यूनिसिपल एडमिस्ट्रिेशन, पब्लिक बॉडीज और प्राइवेट एजेंसी वगैरह ने मिलकर तैयार किया। इसका मकसद डेवलेपमेंट कंट्रोल रूल्स और बिल्डिंग की आम जरूरतों, फायर सेफ्टी जरूरतों, मटीरियल क्वॉलिटी, स्ट्रक्चरल डिजाइन, कंट्रक्शन और प्लंबिंग सर्विस आदि का ध्यान रखना है। जो बिल्डिंग कोड के मापदंड पर फिट नहीं बैठतीं, उन पर पेनल्टी भी ली जा सकती है या प्रोजेक्ट ही निरस्त भी किया जा सकता है।

कहां है लैबोरेट्रीज
देशभर में विभिन्न चीजों की जांच के लिए लैबोरेट्रीज को मान्यता 'नेशनल एक्रीडिशन बोर्ड फॉर टेस्टिंग एंड कैलिब्रेशन लैबोरेट्रीजÓ की ओर से दी जाती है। यह बोर्ड सरकार के विज्ञान एवं तकनीक मंत्रालय के तहत बनाया गया है, जिसका मुख्यालय न्यू महरौली रोड पर सत्संग विहार मार्ग पर स्थित है। बिल्डिंग मटीरियल और मिट्टी आदि की जांच के लिए बोर्ड ने दिल्ली-एनसीआर में कई लैब्स को अधिकृत किया के लिए फोन नंबर 011-46499999 पर भी संपर्क कर सकते हैं।

भुज और लातूर में भूकंप के बाद जिंदगी
26 जनवरी, 2001 का वो दिन भुलाए नहीं भूलता। इस दिन गुजरात के भुज में आए भूकंप ने हजारों लोगों को लील लिया। कितने घायल हुए, कितने अपनों से बिछड़ गए। यही कहर 30 सितंबर, 1993 में महाराष्ट्र के लातूर में बरपा था। भुज में 13 हजार 805 लोग मरे, तो लातूर में 7 हजार 928 लोग काल के गाल में समा गए। लेकिन इन दोनों घटनाओं में जीत जिंदादीली और हिम्मत की हुई थी। लोगों ने हिम्मत से काम लिया। उन्होंने इस घटना से सबक लेते हुए खुद को तैयार किया। आज इन दोनों जगहों पर भूकंपरोधी इमारतें बन चुकीं हैं। ये इमारतें हल्के -फुल्के भूकंप के झटके को यूं ही सह सकती हैं।


ऐसे बनाएं भूकंपरोधी इमारतें
आइए जानते हैं भूकंपरोधी इमारतों को किस तकनीक के सहारे बनाया जा सकता है। भूकंप के दौरान इमारतों को क्षतिग्रस्त होने से बचाने के लिए दो आधारभूत तकनीक को अपनाया जा सकता है। इनमें पहला, बेस आइसोलेसन डिवाइस और दूसरा सिसमिक डैंपर है।

बेस आइसोलेसन डिवाइस
इस तकनीक से इमारत को ग्राउंड से एक रोलर के सहारे अलग रखा जाता है। इससे भूकंप आने पर इमारत को प्रत्यक्ष रूप से झटका नहीं लगता है। और इमारत क्षतिग्रस्त नहीं हो पाती है।

सिसमिक डैंपर
इस तकनीक से एक विशेष डिवाइस के जरिए काम लिया जाता है। यह डिवाइस भूकंप के समय पैदा होने वाली एनर्जी को अवशोषित कर लेती है। इस तरह से भूकंप का झटका इमारत को महसूस नहीं होता है।
भुज में भूकंप के बाद इसी डिवाइस पर आधारित इमारते बनाई गईं हैं, जो सामान्य भूकंप के झटके को आसानी से सह सकती हैं।

क्या करें भूकंप के दौरान

भूकंप के दौरान जितना संभव हो सुरक्षित स्थान पर रुकें। ध्यान रखें कि अधिकतर भूकंप कम समय के लिए आते हंै। भूकंप आते ही खुद को सुरक्षित रखने के लिए निम्नलिखित कदम उठायें-

यदि अंदर हैं तो
किसी मेज के नीचे बैठ जाएं अथवा किसी फर्नीचर या लकड़ी के तख्ते से खुद को कवर कर लें। इस अवस्था में तब तक बैठे रहें जब तक कि भूकंपन खतम न हो जाए। यदि टेबल या फर्नीचर न हो तो कमरे के कोने में बैठकर अपने हाथों से चेहरे व सिर को ढक लें।
कांच की खिड़कीयों, बाहरी दरवाजों और बिजली के उपकरण जो से दूर रहें।
अगर आप पलंग पर हैं तो वहीं रहें और अपने सिर को तकिए से कवर करें। यदि आप किसी ऐसी चीज के नीचे हैं जो गिर सकती है तो किसी नजदीकी सुरक्षित स्थान पर जाएं।
यदि आप जानते हैं कि दरवाजे की चौखट मजबूत है और भार संभाल सकती है तो उसकी ओट लें।
तब तक अंदर रहें जब तक कि भूकंप रुक न जाए और बाहर निकलना सुरक्षित न हो जाए। यह सिद्ध हो चुका है कि सबसे ज्यादा दुर्घटनाएं तब होती है जब लोग बाहर की ओर या बिल्डिंग में ही इधर-उधर भागते हैं।
ध्यान रखें कि बिजली चली गई हो और फव्वारे और फायर अलार्म चालू हों।
लिफ्ट आदि का उपयोग न करें।

यदि बाहर हैं तो यदि आप घर से बाहर हैं तो वहीं रुकें।
इमारतों, स्ट्रीट लाइटों और बिजली के तारों से दूर रहें।
यदि खुले में हैं तो भूकंप रुकने तक वहीं ठहरें। सबसे ज्यादा खतरा इमारतों के ठीक बाहर होता है, बाहरी दरवाजों पर या बाहरी दीवारों के निकट।

गाड़ी चलाते वक्त
जितनी जल्दी हो रुक जाएं और गाड़ी के अंदर रहें। इमारत के समीप, पेड़ के नीचे, फ्लाईओवर के नीचे और बिजली की तारों के नीचे रुकने से बचें।
सावधानी से आगे बढ़ें। उन सड़कों, पुलों और ढलानों से बचें जोकि भूकंप से क्षतिग्रस्त हो सकते हैं।

यदि मलबे के नीचे दबे हैं
माचिस न जलाएं
मलबे में हिलें और ढकेले नहीं।
अपने मुंह को रुमाल या कपड़े से ढकें।
पाइप अथवा दीवार पर ठकठकाएं ताकि सुरक्षा दल आपको ढूंढ सकें। यदि सीटी है तो उसका उपयोग करें। केवल तभी चिल्लाएं जब कोई और चारा न हो। चिल्लाने से आपके मुंह में धूल जा सकती है. Photo by Ekkadamaage.

Monday, November 22, 2010

प्रेस की निष्पक्षता के लिए बहुआयामी संघर्ष छेडऩा होगा

16 नवंबर को राष्ट्रीय पत्रकारिता दिवस था। यह दिन भारत की पत्रकारिता के नाम था। पर यह भी अपने देश के अन्य दिवसों की तरह मनाया गया। जागरण जैसे अखबार ने अन्दर के पेज एक विज्ञापन छाप कर अपने जिम्मेदारी की इतिश्री समझ ली, तो जनसत्ता ने अगले दिन एक खबर लगाकर।
अन्य राष्ट्रीय दिवसों की तरह इस दिन भी एक गोष्ठी काआयोजन किया गया। केरल भवन में दिल्ली यूनियन ऑफजर्नलिस्ट्स (डीयूजे) और डीएमसीटी की ओर से इसकाआयोजन किया गया था। पत्रकारिता बचाओ के तहत हुएआयोजन में ज्यादातर की राय थी कि देश में बहुसंख्यकलोगों का आज भी भरोसा प्रिंट मीडिया पर ही है। इसलिएइसे बचाए रखने के लिए सभी मीडियाकर्मियों को एकजुटहोना होगा। पूर्व सांसद और वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नैयर नेकहा कि जब पत्रकारिता में थे तब आज की अपेक्षा बेहतर माहौल था। आज वे ठेके पर पत्रकारों की नियुक्ति औरविविध स्तरों पर पेड न्यूज का बोलबाला देख रहे हैं, उस पर उन्हें आश्चर्य है। ऐसे में जरूरी है कि देश में मजबूतलोकतंत्र की खातिर प्रिंट विजुअल और वेब से जुड़े तमाम मीडियाकर्मी
केवल प्रेस की निष्पक्षता बल्कि अपनेपेशे में भी अच्छा कर पाने के लिए हावी दिखें। उन्होंने कहा कि इसके लिए बहुआयामी संघर्ष छेडऩा होगा। इसकेलिए संसद को घेरना और अदालतों में न्याय की गुहार लगानी पड़ सकती है।
नैयर ने यहां डीयूजे और डीएमसीटी की ओर से प्रकाशित 'पे्रस फार सेल : वाच डाग अनमास्कड' (बिकाऊ है प्रेसपहरेदार का हुआ पर्दाफाश) पुस्तिका का लोकार्पण भी किया। उन्होंने कहा कि प्रेस को हर हालत में व्यवस्थाविरोधी होना चाहिए। प्रेस आज आजाद कतई नहीं है। ऐसे में हमें यह सोचना होगा कि ऐसे इसे लोकतंत्र की रक्षाकी खातिर बचाया जाए। उन्होंने कहा, यह जरूरी है कि भारत सरकार मीडिया पर एक व्यापक आयोग नियुक्त करे।मैं मानता हूं कि प्रेस को निडर, मजबूत और प्रामाणिक बनाने के लिए केवल सत्ता बल्कि विपक्ष केजनप्रतिनिधि भी इस आंदोलन में पत्रकारों के साथ होंगे। उन्होंने कहा कि आपातकाल के बाद प्रेस को वाकईआजादी मिली थी, लेकिन समय के साथ अखबार मालिकों के नजरिए में आए बदलाव के चलते लोकतंत्र का यहचौथा खंभा अब खासा दरक गया है। इसे बचाने की जिम्मेदारी अब पत्रकारों पर है। देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू कहा करते थे कि लोकतंत्र को बचाए रखने के लिए विपक्ष नहीं बल्कि एक मजबूत मीडिया जरूरी है।
पेड न्यूज मामलों की छानबीन के लिए प्रेस कौंसिल ऑफ इंडिया की ओर से बनी दो सदस्यीय कमेटी के एकसदस्य प्रणंजय गुहा ठाकुरता ने कहा हमने इस संबंध में पूरे देश का दौरा किया। कई सौ लोगों से बातचीत की।राजनीतिक लोगों ने बताया कि किस तरह चुनावों में प्रचार के लिए उनसे पैसों की फरमाइश की गई। कुछ नेफरमाइश पूरी की। उन्होंने सबूत भी दिए। लेकिन हमारी 35 हजार शब्दों की रपट के समांतर प्रेस परिषद केदवाबों के तहत 35 सौ शब्दों में एक दूसरी रपट तैयार की और जारी कर दी।
उन्होंने इस बात पर अफसोस जताया कि ज्यादातर जिलों में उन्होंने ऐसे संवाददाता पाए जिन्हें पारिश्रामिक बतौरया तो कुछ भी नहीं या फिर महज पांच सौ रुपये मासिक तौर पर मिलते हैं। इसके साथ ही उन पर विज्ञापन भीलाने का दबाव होता है। ऐसे में वे पेड न्यूज के सहायक हो जाते है।
डीयूजे के महासचिव एसके पांडे ने कहा कि इसी विषय हिंदी में जारी हुई राम बहादुर राय की संपादित पुस्तककाली खबरों की कहानी' : '
खासी महत्वपूर्ण है। उन्होंने कहा कि पत्रकारिता से जुड़े तमाम मीडियाकर्मियों कोमिलकर एक संयुक्त मोर्चा बनाना चाहिए। जिससे देश में लोकतंत्र के चौथे खंभे के तौर पर प्रेस का महत्व बना रहसके और उसे खरीद सकने का दंभ तोड़ा जा सके।
इस तरह के आयोजन हर कुछ दिन के बाद हुआ करते हैं। हर वक्ता अपनी बात रखते हैं। लोग सराहते भी हैं। याद करें प्रभाष जोशी और विनोद दुआ की बातों को। इन लोगों ने पिछले लोकसभा चुनावों में पेड न्यूज की जम कर मुखालफत की, लेकिन हुआ क्या? उनकी आवाज भी दब गई। अब जरूरत बोलने की नहीं, कुछ कर दिखाने की है। नहीं तो वह दिन दूर नहीं जब दूसरों के हक लिए लडऩे वाला चौथा खंभा बिखर जाएगा।

Wednesday, November 3, 2010

महिला सशक्तिकरण की हकीकत

महिलाओं को आरक्षण देने से उनका सशक्तिकरण होगा, यहीं सोचकर पंचायती चुनावों में महिलाओं को 50 फीसद आरक्षण दिया गया। और लोकसभा में 33 फीसद आरक्षण देने की मुखालफत हो रही है। पर महिलाओं की वास्तविक स्थिति में क्या फर्क आया है, इसका अंदाजा इस विज्ञापन को देखकर लगाया जा सकता है।
देश की आधी आबादी को आरक्षण के सपने दिखाए गए, आरक्षण दिया गया और कानून को लागू भी किया गया। और लागू होने के बाद सरकार ने अपनी उपलब्धियां गिनवाने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी। लेकिन किसी ने भी कानून लागू होने के बाद यह जानने की जहमत नहीं उठाई कि आखिर योजनाओं का हाल क्या है?
जिस आरक्षण कानून को लेकर सरकार बड़ी-बड़ी डींगें हांक रही है उसे कहां तक क्रियांवित किया जा रहा है? आखिर जिस महिला वोट बैंक, को आरक्षण दिया गया है उसे इसका क्या और कितना फायदा मिल रहा है महिलाओं की पहचान बनाने और सशक्तिकरण के लिए यह कानून किस हद तक कारगर हैं? अगर इन सभी मुद्दों की जांच की जाए तो नतीजा वही निकलेगा ढांक के तीन पात। इसका सबसे बड़ा उदाहरण देखने को मिल रहा है उत्तर प्रदेश में चल रहे त्रिस्तरीय चुनावों में। यहां अखबारों में छपने वाले विज्ञापनों में महिला प्रत्याशी के साथ-साथ उसके पति और ससुर का नाम छापा जा रहा है और यहां तक कि किसी-किसी विज्ञापन में तो नाम है महिला प्रत्याशी का और फोटो है उसके पति का।
आरक्षण के तहत बड़ी संख्या में महिलाएं भी पंचायत चुनाव में उतरी हैं। लेकिन इनकी हैसियत किसी मुखौटे से ज्यादा नहीं है। जो सीट महिला आरक्षण में चली गयी है, उस सीट पर नेताजी ने मजबूरी में अपनी पत्नि, बहन, मां या पुत्रवधु को पर्चा भरवा दिया है। इसलिए पोस्टरों, बैनरों और अखबार के विज्ञापनों में वह हाथ जोड़े खड़ी हैं। साथ में यह जरुर लिखा है कि उम्मीदवार किसी की पत्नी, बहु, मां या बेटी है। साथ में पति, ससुर, बेटे या भाई की तस्वीर भी हाथ जोड़े लगी हुई है।
सब जानते हैं कि चुनाव महिला नहीं लड़ रही बल्कि महिलाओं के आड़ में पुरुष लड़ रहा है। इसलिए महिला उम्मीदवारों की सूरत सिर्फ पोस्टरों, बैनरों और अखबारों में ही दिख रही है। कहीं-कहीं तो मुसलिम महिला उम्मीदवार की सूरत ही सिरे से गायब है। चुनाव प्रचार से भी महिलाएं दूर है। इसकी जिम्मेदारी पुरुषों ने संभाल रखी है। असली उम्मीदवार को तो पता ही नहीं कि बाहर क्या हो रहा है। वह तो आज भी घर के अन्दर चूल्हा झोंक रही है, भैंसों को सानी कर रही है या गोबर से उपले पाथ रही है। किसी महिला के निर्वाचित होने के बाद भी उनकी हैसियत कुछ नहीं होगी। सारा काम पुरुष ही करेगा। महिला तो सिर्फ रबर स्टाम्प होगी। सबने सोचा था कि महिलाओं को आरक्षण देने से महिलाओं का सशक्तिकरण होगा। क्या इन हालात में महिलाओं का सशक्तिकरण हो सकता है? कुछ लोग जब महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण देने की मुखालफत करते हैं तो इसके पीछे एक तर्क यह भी होता है कि इससे महिलाओं का सशक्तिकरण नहीं होगा, बल्कि पुरुष ही अपनी राजनैतिक महत्वकांक्षा को पूरा करेगा। यदि फायदा होगा भी तो शबाना आजमी, जया प्रदा या नजमा हैपतुल्ला जैसी महिलाओं का होगा, जो पहले से ही पुरुषों से भी ज्यादा सशक्त हैं। ग्राम पंचायत को तो छोड़ दें। मैट्रो शहरों के नगर-निगम में चुने जाने वाली ज्यादतर महिला पार्षद भी बस नाम की ही पार्षद होती हैं। सारा काम तो पार्षद पति ही करते हैं। इस तरह से पार्षद पति का एक पद स्वयं ही सृजित हो गया है। ऐसे कई वार्ड हैं जहां महिलाएं प्रतिनिधि तो हैं, पर किसी ने आज तक उनका चेहरा नहीं देखा है।
लोकसभा और विधान सभा के चुनाव लगातार महंगे होते गए। धन और बल वाला आदमी ही दोनों जगह जाने लगा। आम आदमी के लिए लोकसभा और विधानसभा में जाना सपना सरीखा हो गया है। नैतिकता, चरित्र, आदर्शवाद और विचारधारा अब गुजरे जमाने की बातें हो गयी हैं। अबकी बार जिला पंचायत और ग्राम पंचायत जैसे छोटे चुनाव में बहता पैसा इस बात का इशारा कर रहा है कि अब इन छोटे चुनावों में भी उतरने के लिए आम आदमी के लिए कोई गुंजाइश नहीं बची है। धन और बल ही आज के लोकतंत्र का असली चेहरा है।

Tuesday, November 2, 2010

सड़क पर रपट


अगर विकास का रास्ता सड़कों से ही होकर गुजऱता है, तो यह सवाल जेहन में बार-बार कौंधता है कि ऐसा क्यों हुआ कि देश की सबसे विकसित सड़कों के किनारे रहकर भी विकास के आधुनिक पैमाने पर वेस्ट यूपी के इलाके पिछड़े रह गए? दूसरी ओर अमेरीका का उदाहरण है, जहां सही मायने में सड़कों ने विकास की गति को ही बदल कर रख दिया। खासकर अमेरिका के 'रूट-66' ने इतिहास रच दिया। हमारी यात्रा का उद्देश्य भी यही समझना था कि आखिर सड़कों से विकास का कैसा नाता है?

कहा जाता है कि विकास का पहिया सड़कों पर दौड़ता है। जिस देश में अच्छी सड़कों का विस्तार जितना ज्यादा होता है, उसका विकास दर भी उतना ही तेज होता है। इतिहास गवाह है कि जबसे सड़कों का विस्तार हुआ, तभी से सभ्यता, संस्कृति और व्यापार का भी विकास हुआ। पहले किसी देश के भीतर आमतौर पर सभ्यताएं नदियों के किनारे विकसित हुआ करती थीं। यातायात और परिवहन के लिए भी नदियां ही सहारा थीं। लेकिन यातायात के नए साधनों के विकास के बाद सभ्यताएं सड़कों के किनारे भी विकसित होने लगीं।
इन्हीं सड़कों की स्थिति और उसके किनारे विकसित हो रही जिंदगी का जायजा लेने के लिए हम गाजियाबाद के वसुन्धरा प्लाजा स्थित अपने कार्यालय से निकल पड़े। सुबह के नौ बज रहे थे। पीक ऑवर होने की वजह से सड़क पर भारी यातायात था। हम अभी मोहन नगर ही पहुंचे थे कि हमारी बाइक पंचर हो गई। जिस सड़क की दुर्दशा का जायजा लेने हम निकले थे, उसका पहला नमूना हमारे सामने था। हमने बाइक ठीक कराई और सफर में आगे चल दिए।
आपको बताते चलें कि भारत का 3.32 मिलियन किलोमीटर का सड़क नेटवर्क हैं, जो दुनिया में दूसरा सबसे बड़ा है। परिवहन व्यवस्था में सड़कों का प्रमुख स्थान हैं। करीब 65 फीसद माल और 85 फीसद सवारी यातायात के लिए सड़कों का इस्तेमाल करते हंै। सड़क पर यातायात की वृद्धि प्रति वर्ष 7 से 10 फीसद की दर से हो रही है, जबकि पिछले कुछ वर्षों से वाहन संख्या वृद्धि 12 फीसद प्रतिवर्ष है। हमारी सरकार हर दिन 12 किमी. सड़क विस्तार का दावा करती है, पर सच्चाई तो सबके सामने है।
हमारा यात्रा का पहला पड़ाव था मोदीनगर। मोदीनगर, गाजियाबाद जिले की एक तहसील है। मोदीनगर उत्तर-पश्चिम नेशनल हाईवे-58 (दिल्ली-देहरादून) पर मेरठ और गाजियाबाद के ठीक बीच में बसा हुआ है। दिल्ली से तकरीबन इसकी दूरी 50 किमी. है। सड़क के दोनों और रचे-बसे इस शहर की आबादी काफी अच्छी है। इस शहर के संस्थापक और इंडस्ट्रीयलिस्ट रायबहादुर गूजरमल मोदी थे। इसी वजह से मोदीनगर एक इंडस्ट्रीयल एरिया भी है। हमने जैसे ही शहर में प्रवेश किया हमको लग गया कि यह शहर काफी भीड़-भाड़ वाला है। सड़क के दोनों ओर व्यस्त बाजार हैं, और लोगों की भीड़ हर वक्त वहां मौजूद रहती है। आसपास के गांववाले भी खरीदारी करने के लिए शहर की और ही रुख करते हैं। जिस वजह से शहर की भीड़ में काफी इजाफा हो जाता है।
एक बात जो हमको सबसे ज्यादा खटकी वो थी शहर की चरमराई यातायात व्यव्स्था। हर जगह जाम की स्थिति ही हमको दिखाई दी। लोग परेशान थे। सड़क पर दुनिया जहान का ट्रैफिक था। ऐसा कोई वाहन नहीं था जो वहां से गुजर ना रहा हो। ट्रक से लेकर रिक्शा तक वहां सबके दर्शन हुए। लेकिन एक बात जो सबसे ज्यादा खाए जा रही थी कि किसी को यातायात के कानून के बारे में पता ही नहीं था। हर कोई बस अपना वाहन सड़क से किसी भी तरह से निकालने पर आमादा था किसी को नियम-कायदे की जरा भी परवाह नहीं था। मानो ऐसा प्रतीत हो रहा था कब कोई बड़ा हादसा ना हो जाए।
जैसे-तैसे बाजार से निकल कर जब हम मोदीनगर तहसील पहुंचे और वहां पर कुछ अधिकारियों से मिलने की सोची तो पता चला, ना तो तहसीलदार ना ही नायब तहसीलदार और ना ही पुलिस उपाधीक्षक। सब एक साथ नदारद थे, इतना सब कुछ देखा तो रहा नहीं गया तो कार्यलय के एक जूनियर कर्मचारी से पूछ ही बैठे क्यों भाई कहां गए आप लोगों के सब अफसरान तो किसी का कुछ कहना था और किसी का कुछ। लेकिन किसी ने सटीक जवाब नहीं दिया। शहर की यातायात व्यव्स्था तो चरमराई दिखाई दी साथ ही प्रशासन भी ढीला ही जान पड़ा। शहर में टै्रफिक का हाल इस कदर बुरा है और शासन-प्रशासन सोया पड़ा है। नगर की ट्रैफिक समस्या पर अगर काबू पाने के लिए शहर को एक बाईपास की सख्त जरुरत है।
जब सड़कों की बात होती है तो भारत में शेर शाह सूरी को जरूर याद किया जाता है। ग्रैंड ट्रंक रोड (जीटी रोड) का निर्माण एक ऐसा योगदान था, जिसने भारत के इतिहास में एक सुनहरा पन्ना जोड़ दिया। जीटी रोड के निर्माण के लिए उसने इतना पुख्ता भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण करवाया था कि उसके बाद के किसी शासक को जीटी रोड के अलावा कोई विकल्प नहीं दिखा। यह सड़क सदियों बाद भी उपयोग में आ रहा है। हम इसी ऐतिहासिक जीटी रोड पर थे। पर दुख इस बात का था कि यदि शेर शाह सूरी जिंदा होता, तो वह भी अपने द्वारा बनाई गई सड़क की दुर्दशा को देखकर रो देता।

मेरठ गेट- मौत का स्वागत करता द्वार

मोदीनगर से निकल कर हमने सीधा मेरठ की ओर रुख किया। मेरठ शहर में दाखिल होने के लिए अभी हमने फ्लाईओवर चढ़ा ही था कि हमारी नजर एकाएक मेरठ के स्वागत द्वार पर चली गई। लेकिन ये क्या स्वागत द्वार तो स्वागत कम और मौत को ज्यादा न्यौता देने के लिए तैयार था। जब गौर से देखा तो मानो कब यह स्बागत द्वार गिर जाए कुछ नहीं पता और कितना बड़ा हादसा हो इसका भी अंदाजा नहीं लगाया जा सकता। शहर में दाखिल होने से पहले ही शुरूआत में यह सब देख मन परेशान हो गया और शहर की नकारा प्रशासनिक व्यव्स्था पर का पता चला।
खैर, हमने सोचा आगे बढ़ा जाए, हम शहर को थोड़ा और करीब से जानने पहचानने के लिए चल दिए। अभी कुछ ही दूरी पर पहुंचे थे कि एक रेलवे फाटक आ गया। ट्रैफिक का इतना बुरा हाल था की निकलने में पसीने छूट गए। मेरे साथी ने मुझझे बोला जरा रोककर लोगों से बात करते है। हमने वहां के स्थानीय लोगों से बातचीत की और पूछा भाई यह कौन सा फाटक है, जो इतना व्यस्त रहता है। तो पता चला यह मेवला फाटक है। जब लोगों से पूछा गया ट्रैफिक की क्या स्थिति है, तो हर कोई नाराज दिखाई दिया। सबको इस फाटक पर एक फ्लाईओवर की जरूरत थी ताकि रोज लगने वाले लंबे जाम से लोग निजात पा सकें।
इतना सब पूछने पर हमने आगे बढऩे की सोची की तभी एक भले मानस ने कहा अरे सर चाय का आर्डर दे दिया है पीकर जाइएगा। हमने सोचा चलो इतनो के बीच किसी को तो हमारा ख्याल आया। चाय की चुसकियों के बीच हमारी मांगेराम नाम के इस शख्स से थोड़ी गूफ्तगू हो गई। बातों बातों में मांगेराम से हम उसके पेशे के बारे में पूछ बैठे तो इत्तफाकन वो ड्राइवर निकला। हमारे मन में थोड़ी उत्सुकता हुई कि शहर की यातायात व्यव्स्था के बारे में उससे अच्छा कौन बता सकता था। चाय पीने की रफ्तार थोड़ी धीरे कर उससे पूछना शुरु किया। शहर के ट्रैफिक का जो हाल उसने बताया सुनकर बड़ा अफसोस हुआ। मांगेराम ने बताया मेरठ का ट्रंासपोर्ट नगर, मलियाना पुल, रेलवे रोड, हापुड़ अड्डा जाम के केंद्र बिंदु हैं। 15-20 दिन में कोई ना कोई बड़ा हादसा हो ही जाता है। हाईवे पर एक-एक फुट के गडढ़े हैं बरसात में पानी भर जाता है और हादसों को लगातार न्यौता देता है। मांगेराम ने कहा सर ज्यादा पढ़ा-लिखा नहीं हूं लेकिन देश में विकास का पहिया जितना घूमेगा उतना अच्छा होगा। सुनकर काफी अच्छा लगा कि सरकार को होश हो ना हो जनता पूरे होश-ओ-हवास में है। हम मांगेराम को चाय के लिए शुक्रिया कर आगे बढ़ते है।
कुछ ही दूर चलने पर रेलवे रोड चौक के दर्शन होते हैं। लेकिन वहां का नजारा थोड़ा अलग सा था। अब भाई रेलवे रोड है तो व्यस्त भी होगा और प्रशासन की और से इंतजामात भी किए जाएंगे। लेकिन जैसा सोच रहे थे वैसा कुछ भी नहीं था, टै्रफिक का सबसे बुरा हाल वही देखने को मिला। चौक पर ही पवन स्वीटस कार्नर के पास हम जाकर खड़े हो गए। सबकुछ आराम से देखते रहे। मिठाई वाले से पूछा तो पता चला छह-सात पुलिस वालों की ड्यूटी लगती है और कभी भी चौक एक या दो पुलिसवालों से ज्यादा के दर्शन नहीं हुए हैं। और जो एक दो आते हैं वो पेड़ की छांव में खड़े होकर बतियाते रहते हैं। ऐसा प्रतीत हो रहा था, प्रशासन के इस गैरजिम्मेदाराना रवैये से जनता आजिज आ चुकी है.
इन सब के बावजूद थोड़ा सूकुन ढूंढने की कोशिश की तो शहर के कैंट इलाके में बने गांधी पार्क के दर्शन होते हैं। चारों तरफ हरियाली ही हरियाली। यातायात की कुछ व्यव्स्था भी दिखाई पड़ी। गांधी पार्क चौक पर दुश्मन को पस्त कर उससे कब्जाए गए टैंक का भी नजारा देखेने को मिलता है। गांधी पार्क चार अलग-अलग रास्तों के बीच में बना है। पार्क का पश्चिमी द्वार करियप्पा रोड पर जाता है, उत्तरी द्वार सिटी रोड पर जाता है, पूर्वी द्वार मेरठ-रूड़की मार्ग पर, दक्षिणी द्वार माल रोड पर जाकर खुलता है। पार्क मेें प्रवेश किया तो पता चला यहां पर एक कुंआ है जो सन् 1888 में लाल कृष्ण सहाय ने बनवाया था। जो अब तक लोगों की प्यास बुझाने के काम आता है।
सांई धाम
मेरठ से 18 किमी. दूर मेरठ-देहरादून हाईवे पर सड़क के बांयी तरफ विशाल सांई राधा कृष्ण बैकुंठ धाम है। इस मंदिर की स्थापाना श्री पवन पराशर और उनकी पत्नी नीता जी ने करावा है। नीता जी खुद एक प्रशासनिक अधिकारी हैं, लेकिन लोगों की सेवा के लिए उन्होंने इस आश्रम की स्थापना की है। इस आश्रम में पूरे सावन कावडिय़ों को लिए भंडारा चलाया जाता है। आश्रम की देखभाल करने वाले मनोज शास्त्री ने बताया कि, यहां पर देशी-विदेशी यात्री रुककर आराम करते हैं। सभी के लिए मुफ्त में रहने और खाने की व्यवस्था की जाती है।
सड़क ने छीन ली सुहाग
सांई धाम के ठीक बगल में स्थित एक चाय की दुकान को सतवीरी सिंह चलाती हैं। सतवीरी का पूरा परिवार इसी दुकान पर आश्रित है। उनके परिवार में एक लड़का और एक लड़की हैं। दो साल पहले उनके पति ने उनका साथ छोड़ दिया। जिस सड़क किनारे वह दुकान चला कर अपना पेट पालती हैं, उसी ने उनका सुहाग उजाड़ दिया। आज घर में बेटी शादी के लायक हो चुकी है, पर आर्थिक स्थिति ऐसी कि चाह के भी बेटी की डोली विदा नहीं कर सकती।
खतौली
सतवीरी की दुख भरी कहानी सुनकर हमने भारी मन के साथ मुजफ्फरनगर की ओर कूच किया। लेकिन बीच में एक और मुसीबत से हमको रू -ब-रू होना पड़ा। मेरठ और मुजफ्फरनगर के बीच पडऩे वाले खतौली से वास्ता क्या पड़ा कि नानी-दादी याद आ गई। पूरे दिन भारी वाहनों से व्यस्त रहने वाली खतौली सड़क की दुर्दशा देखकर मानो ऐसा लगा जैसे अंधेर नगरी और चौपट राजा वाला माहौल यहां पर हो। सड़क का ऐसा बुरा हाल कभी देखने को नहीं मिला। जाम की तो बात ही मत करिए सड़क थी नहीं, वो तो लगना लाजिमी था। चलते-चलते पूरी तरह से कोफ्त खा चुके थे हम। बस आंखों को तलाश थी, तो सड़क की।
चीतल- गंगा किनारे का सुख
खतौली से करीब दो किमी. आगे है चीतल। खतौली की जानलेवा सड़क पर यात्रा करने के बाद यही वह स्थान है, जहां हम सुकून की सांस ले सके। गंगा नहर किनारे बने इस रिजार्ट में प्रकृति की अनुपम छटा देखने को मिलती है। यहां हरे-हरे पेड़-पौधों के बीच हिरण, सांभर और खरगोश अपनी तरफ बरबस आकृष्ट करते है। यहां महाभारत की पंक्तियां, 'किन्नर, नाग, राक्षस, देवता, गन्धर्व, मनुष्य और ऋषियों के समुदाय-ये सभी वृक्षों का आश्रय लेते हैं।Ó साफ शब्दों में हमें यह संदेश दे रही थी कि पेड़-पौधों का महत्व आदिकाल से है। आज मनुष्य को प्रकृत की गोद में आकर ही सुकून मिलता है, जैसा कि हमें मिल रहा था।
मुजफ्फरनगर
चीतल पर कुछ देर आराम करने के बाद हम लोग फिर मुजफ्फरनगर की ओर चल पड़े। मुजफ्फरनगर सिटी से चार किमी. पहले वहलना चौक पर सडक के दोनों किनारों पर सरियों से लदे ट्रक तो ऐसे खड़े थे कि मानो किसी को मौत का डर ही ना हो। 15-20 फुट चौड़ी उस सड़क से भारी वाहन आ भी रहे थे और जा भी रहे थे। किसी भी वक्त तेजी गुजरता कोई भी वाहन इन खड़े ट्रकों की चपेट में आ सकता है। और शायद जो उसके बाद हो उसका तो भगवान ही मालिक है। रात के वक्त अगर आप इन सड़को पर निकल जाए कहने को हाईवे हैं तो आपको अंधेरे के अलावा कुछ दिखाई नहीं देने वाला। ट्रैफिक की समस्या हो या सड़क की दोनों ही वहां के लोगों की फेहरिस्त में अव्वल हैं। शहर के बीचोंबीच जो जाम लगता है उसे आप देख लें तो आप दंग रह जाएंगे। लोग अपनी मंजिल तक पहुंचने में इस कदर परेशान हो जाते हैं कि गुस्सा उनके सिर चढ़कर बोलता है। फ्लाईओवर तो तैयार हैं लेकिन दोनों किनारों को बिना बनाए छोड़ दिया गया है क्योंकि वो हिस्सा नगरपालिका के कार्यक्षेत्र में आता है। लोग त्रस्त हैं कुछ ऐसे ही समस्याओं से और प्रशासन सिर्फ मूकदर्शक है।
मुजफ्फरनगर से गाजियाबाद वाया शामली और बागपत
सुबह हमारे टीम लीडर सचिन जी ने हमें शामली, बागपत होते हुए गाजियाबाद आने को कहा। हम मुजफ्फरनगर से शामली के लिए चल दिए। इस यात्रा में हमें भारतीय सड़कों की दुर्दशा की बानगी दिखनी शुरू हो गई। अब हमें समझ में आने लगा था कि सचिन जी ने हमें इस रास्ते से ही आने के लिए क्यों कहा। हम जिस दुरव्यवस्था का जायजा लेने के लिए निकले थे, उसको हम अनुभव कर रहे थे। हमने बघरा गांव में रुक कर लोगों की नब्ज टटोलनी शुरू की। यहां तो लोग जैसे फूट ही पड़े। सभी लोग नेताओं और अधिकारियों से नाराज थे। लोगों का कहना था कि यह सड़क पांच साल पहले बनी थी। तबसे कोई भी इन सड़कों का हाल जानने नहीं आया। हां, चुनावों के समय नेता इसी समस्या पर लोगों से वोट जरूर मांग लेते हैं। फिर मुड़ कर कोई नहीं देखता है। यह सड़क दो शहरों को ही नहीं दो राज्यों (यूपी और हरियाण) को जोड़ती है। फिर भी इसकी यह हालत। बघरा के पवन ने बताया कि सड़क पर आए दिन दुर्घटना होती रहती है। अभी कुछ ही दिन ही बीता है कि एक बाइक सवार इस गड्ढे में गिर गया था। उसकी हेलमेट फट गई और शरीर पर चोट आई। ऐसी घटनाएं यहां सामान्य हैं। यहां के अनवर जमाल ने बताया कि, पहली कोई सड़कों का हाल जानने के लिए आया है। उनका मानना है कि भारत में सभी भ्रष्ट हैं। भ्रष्टाचार के बीच कभी विकास नहीं हो सकता।
ऐसी यात्रा जो भुलाए नहीं भुलती
शामली से गाजियाबाद 102 किमी. है। हम 10.45 बजे गाजियाबाद के लिए चल दिए। जैसे ही शहर से बाहर निकले सड़क गायब हो चुकी थी। केवल और केवल गड्ढे नजर आ रहे थे। सड़क पर धूल ऐसे उड़ रही थी, जैसे दिसंबर के महीने में कोहरा। सब कुछ धुधंला। बाइक के ठीक आगे भी कुछ भी नजर नहीं आ रहा था। मेरे साथी, जो बाइक ड्राइव कर रहे थे, उनका बुरा हाल था। बाइक जब गड्ढे में जाकर बाहर निकल रही थी, तब मुंह से आहें निकल रही थीं। हम जैसे-तैसे 3 बजे अपने कार्यालय पहुंचे। हमारे शरीर की हड्डियों में दर्द दो रहा था। शरीर की सारी उर्जा समाप्त हो चुकी थी। हमने संपादक जी को रिपोर्ट किया। और फिर घर के लिए चल दिए।
सड़क बनाम विकास
विश्व बैंक के एक अध्ययन मुताबिक देश के जिन देहाती इलाकों का सम्पर्क पक्की सड़कों से है, उन इलाकों के घरों में सन् 2000 से लेकर 2009 के बीच आमदनी में 50 से 1000 फीसद तक की बढ़ोतरी हुई। केवल आय में ही नहीं, बल्कि साक्षरता दर में भी 10 फीसद की बढ़ोतरी हुई। साथ ही उन गांवों में लड़कियों को शिक्षा मिलना आसान हुआ। इसके साथ उन क्षेत्रों की जमीन की कीमतों में भी 60 से 80 फीसद तक की बढ़ोतरी हुई।
विश्व बैंक के मुताबिक ग्रामीण क्षेत्रों में सड़क के निर्माण में जब 10 लाख रुपये का निवेश किया जाता है तो उससे 163 लोग गरीबी के दल-दल से बाहर निकल जाते हैं। लेकिन इन सच्चाइयों के बावजूद हमारे देश में अब भी औसतन करीब 30 फीसद निवास स्थान पक्की सड़कों से जुड़े ही नहीं हैं। इस मामले में भी हमारे देश के भीतर काफी असमानता है। इसका अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि मध्य प्रदेश, वेस्ट बंगाल, अरुणाचल प्रदेश, असम और बिहार ऐसे राज्य हैं जहां अब भी 55 फीसद से अधिक निवास स्थान ऐसे हैं, जो पक्की सड़कों से नहीं जुड़े हुए हैं। उड़ीसा, उत्तराखण्ड, मेघालय औैर छत्तीसगढ़ ऐसे राज्य हैं जहां के 45 फीसद , झारखण्ड, मणिपुर और हिमाचल प्रदेश के 44 फीसद, जम्मू-कश्मीर के 37.9 फीसद, मिजोरम के 34.1, उत्तर प्रदेश के 32.9, सिक्किम के 28.7 त्रिपुरा के 26.5 और राजस्थान के 21.8 फीसद निवास स्थान पक्की सड़कों से अब तक नहीं जुड़ सके हैं।

Tuesday, October 19, 2010

रच दिया इतिहास


19वें कॉमनवेल्थ गेम्स में पदकों का शतक लगाकर भारत ने इतिहास रच दिया है। पहली बार भारत ने पदक तालिका में दूसरा स्थान हासिल किया है। वह भी अंग्रेजों को पछाड़ करके। इस गेम्स में 38 स्वर्ण, 27 रजत और 36 कांस्य पदक मिले। गेम्स इतिहास पर नजर डालें तो भारत ने 1934 में हुए कॉमनवेल्थ गेम्स में कांस्य पदक जीत कर अपना खाता खोला था। पदकों का शतक लगाने में पूरे 76 साल लग गए।
अब बात करते हैं देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश की। यह ना जाने कितनी ही प्रतिभाओं को जन्म दे चुका है और ना जाने कितनी और प्रतिभाएं इसमें छुपी हैं । अलग-अलग क्षेत्रों से कितने ही दिग्गज इस प्रदेश का नाम देश-विदेश में रोशन कर चुके हैंं और आगे भी करते रहेंगे। चाहे वो राजनीति का अखाड़ा हो या फिर खेल का मैदान, सभी जगह से शोहरत ही बटोरी है।
इसी प्रदेश का एक और हिस्सा है, जहां कामयाबियों का सिलसिला बदस्तूर जारी है। जी हां पश्चिमी उत्तर प्रदेश। आज वेस्ट यूपी की तस्वीर बिलकुल बदल चुकी है। यहां से भी लोग देश विदेश में अपना और अपने इलाके का नाम रोशन कर रहे हैं । तरह तरह की प्रतिभाओं का हुनर रखने वाले ये लोग अब आगे आकर अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहे हैं। बात अगर वेस्ट यूपी से निकलती खेल हस्तियों की जाए तो भी यह पीछे नहीं है। अभी हाल ही में दिल्ली कॉमनवेल्थ गेम्स 2010 में मेरठ की अलका तोमर जिन्होंने महिला कुश्ती प्रतियोगिता 59 किग्रा.भार वर्ग में स्वर्ण जीतकर देश और राज्य दोनों का नाम रोशन किया। अलका को सन् 2007 में अर्जुन अवार्ड से भी सम्मानित किया जा चुका है। इसी तरह बागपत के दामाद इमरान हसन ने भी पुरुष 50 मी. राइफल तीन पोजीशन पेयर में स्वर्ण जीता। कामयाबी की स्याही से इतिहास के पन्नों पर रोज नए आयाम गढ़े जा रहे हैं।
अब बात करते हैं वेस्ट यूपी की उन प्रतिभाओं की जो तैयार हैं अपने जोश-ओ-खरोश के साथ किसी भी मुकाम को हासिल करने के लिए। मुजफ्फरनगर के बॉडी बिल्डर विकास चौधरी ने अपनी मेहनत और लगन के दम पर वल्र्ड बॉडी बिल्डिंग चैंपियनशिप में अपनी जगह बनाकर जिले का नाम रोशन किया है। लाखों दिलों की धड़कन क्रिकेट में भी वेस्ट यूपी पीछे नहीं है। अंडर-19 महिला क्रिकेट टीम के चयन में सहारनपुर की भावना तोमर को टीम का कप्तान बनाया गया है। निशानेबाजी में मुजफ्परनगर के नीरज राणा ने नौंवी निशानेबाजी स्टेट चैंपियनशिप में शानदार प्रदर्शन करते हुए एक स्वर्ण समेत पांच पदक हासिल किए।
प्रदेश में तैयार होती प्रतिभाओं की यह नई पौध आने वाले वक्त में खेल जगत के लिए वरदान साबित होंगी। अगर इनकी दिशा और दशा दोनों पर ध्यान दिया जाए तो कल ये भी देश का नाम रोशन करने में कोई कमी नहीं छोडेंगे। बशर्त कि राज्य और केंद्र सरकार दोनों इन पर ध्यान आकर्षित करे, और इनको आगे बढऩे का हौसला दें।
उत्तर प्रदेश की गणना राजनीतिक रूप से सशक्त राज्यों में की जाती है। इसने देश को कई प्रधानमंत्री सहित अनेक मजबूत राजनेता दिए हैं। पर इस प्रदेश में राजनेताओं की कमजोर इछाशक्ति के कारण यहां का चौमुखी विकास नहीं हो पाया। मसलन खेल को ही लें। प्रदेश से गिने-चुने खिलाड़ी ही नेशनल या इंटरनेशनल लेवल पर खेल पाएं हैं। वह भी अपनी बदौलत। उनकी उपलब्धी में प्रदेश सरकार का कोई रोल नहीं होता है। इस बार के कॉमनवेल्थ गेम्स का ही उदाहरण लें। इस गेम्स में यूपी के अलका तोमर (कुश्ती), ओंकार (निशानेबाजी), रेणु बाला (भारोत्तोलन) और इमरान हसन खान (निशानेबाजी) को स्वर्ण पदक मिला। रितुराज चटर्जी (तीरन्दाजी), सोनिया चानू (भारोत्तोलन) को रजत तथा आशीष (जिम्नास्टिक) में रजत और कांस्य पदक मिला है। इन सभी खिलाडिय़ों ने अपने दम इस पदक को हासिल किया है। इसमें सरकार का सहयोग नामात्र का ही रहा है। खिलाडिय़ों के पदक जीतने पर केवल मुक्तकंठ से सराहना करने वाली यूपी सरकार ने भारी दबाव के बीच आखिरकार पदक विजेताओं के लिए पुरस्कारों की घोषणा कर ही दी।
इस घोषणा के तहत पदक जीतने वाले उत्तर प्रदेश के मूल निवासी विजेताओं को कांशीराम अंतरराष्ट्रीय खेल पुरस्कार योजना के तहत पुरस्कृत किया जाएगा। इस पुरस्कार योजना के तहत खेलों की एकल प्रतियोगिताओं में स्वर्ण, रजत व कांस्य पदक जीतने वाले प्रदेश के मूल निवासियों को क्रमश 15 लाख, 10 लाख व आठ लाख रुपये दिये जाएंगे। वहीं टीम खेलों में स्वर्ण पदक के लिए 10 लाख रुपये, रजत के लिए आठ लाख रुपये और कांस्य पदक के लिए छह लाख रुपये दिये जाएंगे।
गौरतलब है कि ओलम्पिक, कॉमनवेल्थ एशियन, विश्व कप खेलों में पदक जीतने वाले यूपी के मूल निवासी खिलाडिय़ों को प्रोत्साहन देने के लिए राज्य सरकार ने कांशीराम अंतरराष्ट्रीय खेल पुरस्कार योजना शुरू की थी। योजना के तहत पुरस्कृत होने के लिए यूपी का मूल निवासी उस व्यक्ति को माना जाएगा जो यूपी का वास्तविक मूल निवासी है। यूपी के किसी मान्यताप्राप्त विद्यालय या महाविद्यालय या विश्वविद्यालय या स्पोर्ट्स हॉस्टल का कम से कम दो वर्ष तक छात्र रहा हो। किसी मान्यताप्राप्त शिक्षण संस्थान की तरफ से अंतरराष्ट्रीय खेलकूद प्रतियोगिताओं में भाग ले चुका हो या जो यूपी के किसी मान्यताप्राप्त क्रीड़ा संघ या स्पोर्ट्स बोर्ड द्वारा नामित होकर राष्ट्रीय खेलकूद प्रतियोगिता में प्रदेश का प्रतिनिधित्व कर चुका हो। इस शासनादेश के तहत किसी भी खिलाड़ी को उसके द्वारा एक से अधिक पदक जीतने की दशा में केवल एक पदक के अनुरूप पुरस्कार राशि दी जाएगी।
खेलों पर डोपिंग का 'डंक'
किसी भी देश के खिलाडिय़ों का डोपिंग में पकड़े जाना बहुत ही शर्म की बात है। इसका खामियाजा न सिर्फ खिलाडिय़ों को बल्कि उस खेल से जुड़ी फेडरेशन और देश को भी भुगतना पड़ता है। दिल्ली कॉमनवेल्थ गेम्स में डोपिंग केकई मामले सामने आए। पहला मामला था महिलाओं की 100 मीटर दौड़ में स्वर्ण पदक विजेता नाइजीरिया की ओसयेमी ओलुडमोला का। आस्ट्रेलिया की सैली पियर्सन को अयोग्य करार दिये जाने के बाद स्वर्ण पदक जीतने वाली ओसयेमी को शक्तिवर्धक दवा लेने के टेस्ट कारण पॉजीटिव पाया गया था। डोपिंग के दूसरे मामले में नाइजीरिया के ही 110 मीटर बाधा दौड़ के एथलीट सैमुअल ओकोन का डोप टेस्ट पॉजिटिव पाया गया है। ओकोन को मेथिलहेक्साएमीन लेने का दोषी पाया गया था। डोपिंग के तीसरे मामले में फंसी भारत की एथलीट रानी यादव। रानी यादव पैदल चाल स्पर्धा में छठे स्थान पर रही थी। पाजीटिव पाए जाने के बाद रानी को राष्ट्रमंडल खेलों से निलंबित कर दिया गया है।
सबसे ज्यादा शर्मनाक बात यह है कि भारत खुद आयोजक देश है। इससे लगता है कि कुछ खिलाड़ी न तो इस आयोजन को लेकर गंभीर हैं और न ही उन्हें देश की बदनामी की कोई परवाह है। खेलों में जब से डोप टेस्ट की व्यवस्था बनी है और उसे अनिवार्य किया गया है, तकरीबन सभी देशों में यह सावधानी बरती जाती है कि उनके खिलाड़ी गलती से भी वे प्रतिबंधित दवाएं नहीं लें जिनसे डोप टेस्ट में उन्हें पॉजिटिव पाए जाने की संभावना बने। लेकिन ऐसा लगता है कि कई खिलाड़ी अभी भी डोप टेस्ट को काफी हल्के में लेते हैं।
भारत की मेडलों की लिस्ट और लंबी होती अगर भारत के खिलाड़ी गेम्स शुरू होने से पहले ही टेस्ट में पॉजीटिव न पाए जाते। गेम्स शुरू होने से पहले ही पश्चिमी यूपी के जिला बागपत के पहलवान राजीव तोमर डोप टेस्ट में पाजीटिव पाए गए थे। पहलवान तोमर से भारत को गोल्ड की उम्मीद थी जो अधूरी रह गई।
खिलाड़ी सामान्य सर्दी जुकाम की दवाई लेते समय भी इस बात की सावधानी नहीं बरतते कि वह दवा प्रतिबंधित दवाओं की लिस्ट में है या नहीं। यह भी यकीनी बनाया जाना चाहिए कि खिलाडिय़ों के डोप में पॉजीटिव पाए जाने का असल गुनहगार कौन है। अगर कोच या टीम के डॉक्टर की तरफ से ऐसी लापरवाही हुई है, तो उन्हें भी दंडित किया जाना चाहिए। सिर्फ दोषी खिलाडिय़ों का निलंबन ही पर्याप्त नहीं है।

Monday, October 18, 2010

हैं तैयार हम...

महाआयोजन में शामिल होने वाले लोगों के चेहरों की चमक ने बता दिया कि कॉमनवेल्थ गेम्स का आयोजन न सिर्फ सफल रहा, बल्कि तमाम मानकों व सुविधाओं के नजरिये से भी पूरी तरह फिट। राष्ट्रमंडल खेलों के शानदार आगाज और समापन समारोह के बाद आलोचकों के सुर बदले हुए नजर आ रहे थे।

इंडिया एंड इंडियंस आर ग्रेट, यह कहना है राष्ट्रमंडल खेलों में शिरकत करने पहुंचे दुनियाभर की 71 टीमों के करीब तीन हजार सदस्यों का। जी हां, तमाम आलोचाओं और विवादों के बावजूद राष्ट्रमंडल खेलों के सफल आयोजन ने न सिर्फ विदेशी मीडिया, राजनीतिक बड़बोलों और आयोजन के लिए दूसरे देशों से सलाह लेने वालों, बल्कि पूरी दुनिया का मुंह बंद कर दिया है। महाआयोजन में शामिल होने वाले लोगों के चेहरों की चमक ने बता दिया कि कॉमनवेल्थ गेम्स का आयोजन न सिर्फ सफल रहा, बल्कि तमाम मानकों व सुविधाओं के नजरिये से भी पूरी तरह फिट। राष्ट्रमंडल खेलों के शानदार उद्घाटन और समापन समारोह के बाद आलोचकों के सुर बदले हुए नजर आ रहे थे। आलम यह है कि खेल शुरू होने से पहले तक जो आयोजन में लेट-लतीफी व बदइंतजामी का रोना रो रहे थे, आज वही इसकी भव्यता और उत्कृष्टता से अभिभूत हैं। इतना ही नहीं इसका श्रेय लेने से भी पीछे नहीं हट रहे। दूसरा गौर करने वाला पहलू है 2020 में ओलंपिक की मेजबानी के लिए भारत की दावेदारी और मजबूत होना। इससे आलोचना करने वाली विदेशी मीडिया और प्रतिद्वंद्वी भी सकते में हैं।
19वें दिल्ली कॉमनवेल्थ गेम्स-2010 के उदघाटन से पहले नकारात्मक प्रचार अभियान चला कर देशी व विदेशी मीडिया, विपक्षी नेताओं और तमाम आलोचकों ने देश की इज्जत पर बट्टा लगाने की कोशिश की। तीन अक्टूबर को उद्घाटन समारोह के भव्यतम आयोजन से लेकर 14 अक्टूबर की शाम रंगीन रोशनी में नहाए जवाहरलाल नेहरू स्टेडियम की अप्रीतम छटा तक का सफर इतना खूबसूरत और यादगार रहा कि तमाम नकारात्मक प्रचारक खुद ही इस महाआयोजन की कामयाबी के कसीदे पढऩे को मजबूर हो गए। जो लोग कल तक दिल्ली को बीजिंग से सीख लेने की नसीहत दे रहे थे, आज इस पड़ताल में जुटे हैं बीजिंग ओलंपिक को किस तरह 19वें कॉमनवेल्थ गेम्स से बेहतर बनाया जाए। भारत ने सफल आयोजन से न सिर्फ अपनी क्षमताएं साबित की हैं बल्कि यह भी जता दिया कि सिर्फ कॉमनवेल्थ ही नहीं भारत किसी भी बड़े आयोजन को सफलता के साथ पूरा करने का माद्दा रखता है। जी हां, कॉमनवेल्थ के सफल आयोजन के बाद अब एक ही सवाल है कि क्या हम ओलंपिक की मेजबानी के लिए भी तैयार हैं। भारतीय ओलंपिक संघ पहले ही अनौपचारिक ढंग से 2020 ओलंपिक खेलों की मेजबानी की दावेदारी के संकेत दे चुका है। अब भारत सरकार की ओर से इस पर सहमति मिलने का इंतजार है। दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने भी कहा है कि दिल्ली, ओलंपिक खेलों की मेजबानी के लिए तैयार है, लेकिन सबसे बड़ा सवाल भी यही है कि क्या सचमुच दिल्ली ओलंपिक खेलों की मेजबानी के लिए तैयार है?

यदि भारत में आयोजित हुए अंतरराष्ट्रीय स्तर के आयोजनों के इतिहास पर नजर डालें तो दिल्ली ने आजादी मिलने के चार साल से भी कम समय में 1951 में पहले एशियन गेम्स का सफल आयोजन किया था। फिर 1982 में 9 वे एशियन गेम्स का भव्य आयोजन दिल्ली में हुआ। दो एशियन गेम्स और फिर कॉमनवेल्थ गेम्स के आयोजन के बाद दिल्ली ने अपनी क्षमताओं का लोहा तो मनवा ही लिया है लेकिन एशियन या कॉमनवेल्थ गेम्स के मुकाबले ओलंपिक का स्वरुप काफी बड़ा है। कॉमनवेल्थ में जहां कुल 71 देश शामिल है। वहीं ओलंपिक में दुनिया के लगभग सभी 205 देश शामिल होते हैं। कॉमनवेल्थ में कुल 17 खेल शामिल है जबकि ओलंपिक में 30 से ज्यादा। इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि ओलंपिक खेलों के आयोजन में कितने वृहद पैमाने पर तैयारियों और आधारभूत सरंचनाओं की जरुरत पडेगी। दूसरी ओर ऐसे बडे आयोजनों का विरोध करने वाले लोग इसे भारत जैसे विकासशील देश के लिए पैसे की बर्बादी से ज्यादा कुछ नहीं मानते। उनका मानना है कि इन खेल आयोजनों पर हजारों करोड रुपया बहाने के बदले यही पैसा यदि देश के विकास में लगाया जाए तो करोडों देशवासियों को इसका लाभ मिलेगा। साथ ही अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत के खिलाडिय़ों की नाकामी का भी हवाला दिया जाता है। ओलंपिक खेलों के 114 साल के इतिहास में भारत ने अब तक कुल 20 पदक जीते हैं, जिसमें व्यक्तिगत स्वर्ण पदक मात्र एक है। आलोचकों का एकमात्र सवाल यही है कि खेलों में इस लचर प्रदर्शन के बल पर क्या आम जनता की गाढ़ी कमाई के हजारों करोड़ रुपये फूंक देना तर्कसंगत है?
इसमें कोई दो राय नहीं कि भारत विश्व पटल पर आज बड़ी तेजी से एक आर्थिक महाशक्ति के रुप में उभर रहा है। किसी भी बड़े अंतरराष्ट्रीय आयोजन की सफल मेजबानी का पूरा माददा हम रखते हैं। यदि ओलंपिक की मेजबानी हमें मिलती है तो हम इसका आयोजन भी पूरी सफलता के साथ कर सकते हैं लेकिन इससे जुड़े खर्च की उपयोगिता और प्रासंगिकता से जुड़े सवाल भी बेमानी नहीं हैं।
ओलंपिक खेलों की मेजबानी सौंपने के संबंध में अंतरराष्ट्रीय ओलंपिक संघ का कहना है कि मेजबानी किसी शहर को सौंपने का फैसला किसी भी खतरे को नजरअंदाज कर नहीं लिया जा सकता क्योंकि खेलों के इतने बड़े आयोजन में बहुत बड़ी जिम्मेदारी दांव पर लगी होती है। अंतरराष्ट्रीय ओलंपिक संघ के अध्यक्ष जैक्स रोगे का कहना है कि भले ही हमारी प्राथमिकता खेलों को दुनिया के हर छोर तक पहुंचाने की रही है लेकिन हमारी पहली चिंता खिलाडिय़ों के लिए सुरक्षित माहौल मुहैया कराने की है। ओलंपिक खेलों का एकमात्र उददेश्य है खिलाडिय़ों को विश्वस्तरीय अनुभव दिलाना। हमारी पहली प्राथमिकता होती है गुणवत्ता। यदि गुणवत्ता के लिए हमें अधिक विकसित देशों में जाना पड़े तो इसमें कोई बुराई नहीं है। खिलाडिय़ों के पास अपना सपना पूरा करने के लिए मात्र एक या दो मौके होते हैं। हम उन्हें यह नहीं कह सकते कि 'ओह, हमने इस बार किसी ऐसी वैसी जगह में खेलों का आयोजन कर लिया है अगली बार तुम्हें ज्यादा बढिय़ा मौका मिलेगा।Ó एक खिलाड़ी के लिए अगली बार कभी नहीं आता। लेकिन रोगे ने दिल्ली को सिरे से खारिज नहीं किया है। कुछ शुरुआती परेशानियों के बावजूद दिल्ली ने जिस भव्यता और दक्षता के साथ कॉमनवेल्थ गेम्स का सफल आयोजन किया हे, उससे रोगे काफी प्रभावित हैं। कॉमनवेल्थ गेम्स के उद्घाटन समारोह में शामिल होने के बाद उन्होंने फिर से दुहराया है कि भारत ने भविष्य में ओलंपिक की मेजबानी की दावेदारी के लिए मजबूत नींव रखी है। उनका कहना है कि 2004 के एथेंस ओलंपिक शुरू होने के पहले की स्थिति काफी डरावनी थी। लेकिन आखिरकार ग्रीसवासियों ने अपनी लगन और कड़ी मेहनत से एक सफल और अच्छे खेलों का आयोजन कर दिखाया। अंतिम समय में जाकर एथेंस ओलंपिक काफी सफल साबित हुआ। इसलिए दिल्ली में भी ऐसा हो सकता है।
कॉमनवेल्थ गेम्स के आयोजन के लिए दिल्ली में 15 विश्वस्तरीय स्टेडियम हैं जो अंतरराष्ट्रीय मानकों के अनुरुप हैं। इसके अलावा अन्य विश्वस्तरीय सुविधाएं यहां उपलब्ध हैं। राजधानी दिल्ली की गिनती दुनिया के कुछ गिने चुने शहरों में होती है। हाल ही में बना इंदिरा गांधी अंतरराष्ट्रीय हवाई अडडे का टी-3 टर्मिनल, आकार और सुवधिाओं के लिहाज से दुनिया के पांच बेहतरीन हवाई अडडों में शामिल है। हवाई मार्ग से दिल्ली दुनिया के हर कोने से सीधी जुड़ी है। मेट्रो टे्रन के विस्तार के बाद अब दिल्ली में भी सार्वजनिक परिवहन की विश्वस्तरीय सुविधा उपलब्ध है। सड़कों और फ्लाइओवरों के विस्तार से यातायात व्यवस्था बेहतरीन हुई है। दिल्ली के बाजारों की गिनती दुनिया के मशहूर बाजारों में होती है। यहां के पांच और सात सितारा होटलों की भव्यता और मेहमानवाजी की पूरी दुनिया कायल है। दिल्ली के लोगों ने अपने जोश, जूनून और अपनी मेहमानबाजी और अनुशासन की झलक इन कॉमनवेल्थ गेम्स के दौरान दुनिया को दिखा दी है। सितम्बर से लेकर मार्च तक दिल्ली का मौसम किसी भी तरह के आयोजन के लिए खुशगवार होता है। दिल्ली में मौजूद बुनियादी और स्वास्थ्य सुविधाएं किसी भी विकसित देश में उपलब्ध सुविधाओं को चुनौती देेने की स्थिति में हैं। इस तरह हम कह सकते हैं कि दिल्ली ओलंपिक खेलों की मेजबानी के लिए तैयार है।

ओलंपिक खेलों की मेजबानी करने को तैयार है दिल्ली

दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के मुताबिक दिल्ली ओलंपिक खेलों की मेजबानी कर सकती है। उनका कहना है कि दिल्ली में विश्वस्तर के स्टेडियम एवं अन्य आधारभूत ढांचे तैयार हो चुके हैं और दिल्ली को अब ओलंपिक की मेजबानी करनी है। हालांकि उन्होंने साफ तौर पर कहा है कि उन्हें तो पूरा भरोसा है लेकिन ओलंपिक गेम्स की मेजबानी का निर्णय अंतरराष्ट्रीय ओलंपिक समिति और भारत सरकार को करना है। मुख्यमंत्री ने यह भी कहा है कि कॉमनवेल्थ गेम्स के लिए किए गए तमाम विकास कार्यों के बाद दिल्ली ने अपने आप को इस स्थिति में खड़ा कर लिया है कि यदि ओलंपिक खेलों का यहां आयोजन होता है तो वे पूरी तरह तैयार है और अब उन खेलों के लिए कोई अलग से काम नहीं करना पडेगा क्योंकि हमारा बुनियादी ढांचा न केवल विश्वस्तरीय हो गया है बल्कि कई मायनों में हम कई देशों से आगे हो गए है। श्रीमति दीक्षित ने कहा कि ओलंपिक खेलों के लिए हमारी तरफ से पूरी तैयार है।
भारतीय ओलंपिक संघ और कॉमनवेल्थ गेम्स आयोजन समिति के अध्यक्ष सुरेश कलमाड़ी के मुताबिक कॉमनवेल्थ गेम्स की मेजबानी से दिल्ली बुनियादी ढांचे और सुविधाओं के मामले में पांच साल आगे निकल चुकी है और किसी भी बड़े आयोजन की मेजबानी का इसमें माद्दा है।

एक कदम आगे से साभार

Tuesday, October 5, 2010

दगाबाज 'ड्रैगन'

भारतीय सेना की उत्तारी कमांड के कमांडर लेफ्टिनेंट जनरल बीएस जसवाल को वीजा देने से इनकार कर चीन ने साफ कर दिया है कि उसकी दीर्घकालीन रणनीतिया मेलमिलाप की फौरी कोशिशों से प्रभावित नहीं होतीं। गुलाम कश्मीर में चीन के सैनिकों का जमावड़ा भी इसकी पुष्टि कर रहा है। चीन ने जनरल जसवाल को वीजा देने से यह कहकर इनकार किया है कि वह विवादास्पद कश्मीर में तैनात हैं। जनरल जसवाल जनरलों के स्तर पर होने वाली रक्षा वार्ताओं की प्रक्रिया में शामिल होने वाले थे। जनरल जसवाल को जवाब देकर चीन ने द्विपक्षीय वार्ताओं की गरिमा को कम कर दिया है। शायद वह वार्ताओं का एजेंडा, भागीदारी और स्वरूप तय करने को अपना एकाधिकार समझता है। कश्मीर को लेकर चीन के रवैये में पिछले दो-एक सालों में आया बदलाव बताता है कि भारत के संदर्भ में चीन की विदेश नीति का एक बड़ा हिस्सा पाकिस्तान के हितों को ध्यान में रखते हुए संचालित हो रहा है।
चीन मुद्दे पर पूरी बात से पहले एक पॉलिटिकल फ्लैश बैक। 1958 में जी. पार्थसारथी को चीन में भारत का राजदूत बनाया गया था। पार्थसारथी ने अपनी डायरी में लिखा है-चीन रवाना होने से पहले वह 18 मार्च 1958 को प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू से रस्मी मुलाकात करने गए। पार्थसारथी के मुताबिक नेहरू ने कहा था-'तो जीपी जैसा कि फॉरेन ऑफिस ने तुमको बताया होगा 'हिंदी चीनी भाई-भाई', तुम इस पर यकीन नहीं करना। पंचशील और दीगर बातों के बावजूद मैं चीनियों पर यकीन नहीं करता। चीनी मगरूर, मक्कार, धोखा देने वाले वाले हैं। इनपर यकीन नहीं किया जा सकता है।'
सब जानते हैं कि 1962 में अपने भारत दौरे के दस दिन बाद ही तब के चीनी प्रधानमंत्री ने हिंदुस्तान पर हमले का आदेश दे दिया था। इस दगाबाजी से पंडित नेहरू को गहरा सदमा लगा। पहले तो उन पर फालिज का असर हुआ। फिर कुछ दिन बाद हार्ट अटैक, जिसने उनकी जान ले ली।
यह सब बताने का केवल इतना मतलब हैै कि चीन काफी लंबे वक्त से हमें धोखा दे रहा है। इस सच्चाई से हमारे हुक्मरां वाकिफ भी हैं। पेइचिंग तब से छल कर रहा है, जब से मुल्क पर अंग्रेजों की हुकूमत थी। अरुणाचल प्रदेश, असम और कश्मीर के कई हिस्सों में उसकी दखलंदाजियों पर ब्रिटिश सरकार ने इसलिए कोई तवज्जो नहीं दी, क्योंकि उनके लिए इन जगहों की कोई अहमियत नहीं थी। दूसरे वह चीन से उलझना नहीं चाहते थे। तो इस तरह भूखा ड्रैगन लगातार हमारी जमीने हड़पता रहा है। वैसे तो चीन भारत की लाखों स्वक्वायर किलोमीटर जमीन दबाए बैठा है, लेकिन हाल के दिनों में जिस तरह उसने पाकिस्तान के साथ साठगांठ कर पाक के कब्जे वाले इलाके में सड़क, सुरंग और रेल लाइन बिछाने का काम शुरू किया है, वह काबिल-ए गौर है। पीओके के गिलगिट और बाल्टिस्तान में चीन के ग्यारह हजार फौजी तैनात हो चुके हैं। बड़े-बड़े अर्थ मूवर, बुलडोजर और खुदाई की दीगर मशीनें गिलगिट पहुंचाई जा रही हैं। इस इलाके में आम पाकिस्तानियों को जाने की मनाही है।
आजकल पाकिस्तान और चीन में काफी छन रही है। दरअसल, गिलगिट और बाल्टिस्तान में चीन और पाकिस्तान की अपनी-अपनी जरूरतें हैं। इन दोनों इलाके में पाकिस्तान सरकार के खिलाफ लोगों में बहुत गुस्सा है। और उनकी नाराजगी का लावा बहकर अक्वाम-ए-मुत्ताहिदा तक पहुंचे। पाकिस्तान सरकार उसको दबा देना चाहती है, भले ही इसके लिए उसे चीन की मदद लेनी पडï़े। चीनी आर्मी की वहां मुस्तैदी की वजह भी शायद यही है। दूसरे पाकिस्तान को चीन से एटमी तकनीक चाहिए। चीन के भी ढेरों मतलब उस इलाके में है। गिलगिट और बाल्टिस्तान में वह जो सुरंगें बिछा रहा है, उसका सीधा मतलब खाड़ी के मुमालिक से गैस और दीगर पेट्रोलियम अशिया की सप्लाई का रास्ता हासिल करना है। इसके साथ ही चीन अपने यहां बने खिलौने, इलेक्ट्रानिक्स के साज-ओ-सामान और कपड़े सीधे खाड़ी के मुल्कों तक पहुंचा सकेगा।
गिलगिट और बाल्टिस्तान में चीन की चहलकदमी का खुलासा करने वाले अमेरिकी अखबार 'द न्यूयार्क टाइम्सÓ को शक है कि चीन गिलगिट और बाल्टिस्तान में जो सुरंगें बना रहा है, उनमें से कुछ का इस्तेमाल वह फौजी साज-ओ-सामान और हथियार छिपाने के लिए भी कर सकता है। पड़ोसी और उसकी नजर में उसका दुश्मन नंबर वन भारत का आगे बढऩा उसे रास नहीं आ रहा है। भारत में आईटी और आउटसोर्सिंग पर मजबूत पकड़ ने चीन को चिढ़ा दिया है। चीन चाहता है कि आर्थिक विकास को छोड़ हिंदुस्तान अंदेशों में घिरा रहे। फौजी तैयारियों में अपना वक्त और पैसा जाया करे। शायद यही वजह है कि चीनी सरकार हिंदुस्तान को नीचा दिखाने और परेशान करने का कोई मौका चूकता नहीं। कुछ ही महीने पहले की बात है, चीन ने अपनी ऑफिशियल वेबसाइट पर एक संदेश जारी किया था, जिसमें सह गया था कि भारत कमजोर जम्हूरियत है। ऐसे हालात में इसे टुकड़ों में बांटा जा सकता है। इसके बाद शरारत की वहां के सरकारी अखबार पीपुल्स डेली ने। इस अखबार की वेबसाइट पर संदेश डाला गया, 'भारत पर चीन के हमले के कितने इम्कानात हैं।Ó वैसे तो यह जताने के लिए यह संदेश जारी किया गया कि कुछ देश चीन और हिंदुस्तान के बीच जंग छिड़वाना चाहते हैं। क्यों जंग चाहते हैं, इसका कोई जिक्र अखबार ने मुनासिब नहीं समझा। इस आर्टिकल पर चीनी अवाम की राय भी मांगी गई। रायशुमारी में आधे से ज्यादा लोग हमले का समर्थन किए।
चीन जम्मू-कश्मीर को लेकर बड़ी सधी हुई चालें चल रहा है। वह हिंदुस्तान के इस हिस्से को विवादित राज्य मानता है, लेकिन खुलकर नहीं कहता। इसके पीछे बड़ी साफ वजह है। भारत का अक्साई चिन इलाका चीन के कब्जे में है। इसके अलावा 1963 से पचास हजार स्क्वैयर मील शक्सगाम इलाके को चीन ने पाकिस्तान से हड़प लिया है, वह जम्मू-कश्मीर का ही हिस्सा है। अब अगर चीन जम्मू-कश्मीर को भारत का विवादित हिस्सा मानता है, तो उसे शक्सगाम और अक्साई चिन पर से अपने दावों को खारिज करना होगा।
कश्मीर को लेकर चीन घिनौनी चाले चलता रहा है। चीन की इन तमाम कारस्तानियों को समझने के लिए हमें इतिहास के पन्ने पलटने होंगे। तिब्बत पर चीन पिछले कई सौ सालों से अपने पैने दांत पेवस्त किए हुए है। कभी एक बहाने तो कभी दूसरे, वह वहां अपने दखल को बनाए रखने में कामयाब होता रहा है। आजादी के बाद हिंदुस्तान ने मान लिया था के तिब्बत चीन का ही हिस्सा हैै। पता नहीं वह कौन-सी मजबूरी थी कि 1954 में पंडित जवाहर लाल नेहरू ने इसकी पुष्टी भी कर दी थी। गाहे-बगाहे नई दिल्ली पेइचिंग को बताता रहता है कि तिब्बत को लेकर उसके नजरिये में कोई बदलाव नहीं आया है। जब-जब चीन की सरकार ने भारत में रह रहे रूहानी गुरु दलाई लामा पर ऐतराज जताया, अपने जवाब में भारत यह बात नत्थी करना नहीं भूूला कि तिब्बत को लेकर उसके नजरिये में किसी तरह का बदलाव नहीं आया है। दरअसल चीनी दलाई लामा को पनाह दिए जाने के मसले पर भारत से बुरी तरह चिढ़ा हुआ है। हिंदुस्तान में रहते हुए दलाई लामा चीन की सरकार के खिलाफ जो मुहिम चला रहे हैं, उससे पूरी दुनिया में चीन की किरकिरी हो रही है। जाने-अंजाने दलाई लामा कई बार चीन के खिलाफ अमेरिकी कूटनीति की वजह बन जाते हैं। हॉलीवुड अभिनेता रिचर्ड गेर सबसे ज्यादा बार दलाई लामा से मिल चुके हैं। चीन चाहता है कि भारत दलाई लामा को ल्हासा लौटने पर मजबूर कर दे, लेकिन नई दिल्ली अपने स्टैंड पर कामय है कि दलाई लामा जब तक चाहें हिंदुस्तान में रह सकते हैं। भारत की यह नीति चीन को चिढï़ाए हुए है।
जहां तक सरहदी झगड़ों का सवाल है, चीन बड़ी चालाकी भरे कदम उठा रहा है। कुछ साल पहले तक भारत का कोई भी नेता अरुणाचल प्रदेश के दौरे पर चला जाए तो चीन की पेशानी पर बल पडï़ जाते थे। फिर उसे लगा कि अरुणाचल के लोगों का रुझान तो पूरी तरह हिंदुस्तान की तरफ है, सो उसने धीरे-धीरे कर अरुणाचल पर अपने दावे से पीछे हटना शुरू कर दिया। साथ ही उसने उकसाने वाली शरारतें भी जारी रखीं। चीन ने अरुणाचल और लद्दाख में एलओसी पर कब्जे की कोशिशें और घुसपैठ की साजिशों को अंजाम देना शुरू कर दिया। आप को याद होगा कि कुछ दिन पहले, इन इलाकों की चट्टानों पर दर्ज पाया गया था-पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चायना। साथ ही उसने अपने चरवाहों को भारत की सरहद की तरफ भेजने की कोशिशें भी कीं। चूंकि हिंदुस्तानी फौज चीन के खेल को समझ रही है, इसलिए भड़कने के बजाय वह मामले को फ्लैग मीटिंग्स में उठा रही है।
अमेरिका एशिया के इस हिस्से में हो रही तमाम हलचलों पर पैनी नजर रखे हुए है। पेंटागन की हर हरकत पर नजर है। पेटांगन की यह रिपोर्ट परेशान करने वाली है कि चीन ने भारत से जुड़ी सरहदी चौकियों पर तैनात पुरानी मिसाइलों को हटाकर नए वर्जन की मिसाइलें भेजी हैं। कुछ लोगों को इस रिपोर्ट में अमेरिकी चालबाजी की बू मिल रही है। उनका मानना है कि दक्षिण एशिया में चीन की जबरदस्त फौजी तैयारियों का खौफ दिखाकर वह भारत को हथियार बेचने की जमीन तैयार कर रहा है।

बदलते रिश्ते

भारतीयों के लिए चीन का बार-बार बदलता रुख एक अजीब किस्म की पहेली है। 1988 में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गाधी की चीन यात्रा के समय दोनों देशों के शत्रुतापूर्ण संबंधों में बदलाव आना शुरू हुआ था। उसी वर्ष सीमा विवाद का हल सुझाने के लिए संयुक्त कार्यबल बना। सन 1993 में उन्होंने आपसी तनाव घटाने और वास्तविक नियंत्रण रेखा का सम्मान करने पर सहमति जताई और 1996 में आपसी विश्वास बहाली के उपाय करने पर। अगर 90 के दशक से तुलना करें तो भारत और चीन के संबंधों में अहम बदलाव आ चुका है। आज चीन भारत का सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार भी है।

बार-बार शत्रुतापूर्ण व्यवहार

वर्ल्ड एक्सपो-2010 शंघाई में भारतीय पैवेलियन में घुसकर चीनी अधिकारियों ने भारत की प्रचार सामग्री जब्त कर ली थी, क्योंकि उसमें भारत के मानचित्र थे। यह बात जुलाई, 2010 की है। मुद्दा अरुणाचल प्रदेश का था। लेकिन चीनी अधिकारियों का बर्ताव बेहद गैरजिम्मेदाराना था। चाहते तो वे एक पत्र लिखकर नाराजगी जताते, परंतु उन्होंने बिना बात करे सीधे कार्रवाई कर दी।
इसके पहले भी चीनी सेना के जवान हिमाचल प्रदेश के स्पीति और जम्मू-कश्मीर के लद्दाख-तिब्बत में घुसपैठ कर स्थानीय लोगों को डरा-धमकाकर हमारे इलाके में अपने निशान छोड़ कर जा चुके हैं। इन सभी घटनाओं के बाद भी केंद्र सरकार चीन-भारत संबंधों में कोई खटास आई हो ऐसा नहीं मानती, यह आश्चर्य है। चीन विश्व ताकत बनने के सपने लगातार देख रहा है। वह अमेरिका की भी परवाह न करते हुए अपने सपनों को अंजाम देने में लगा हुआ है।
सामरिक संबंधों में वह पाकिस्तान के अधिक करीब आ रहा है। यदि पाकिस्तान और चीन मिलकर भारत को चुनौती देते हैं, तो यह बड़ा अंतरराष्ट्रीय मुद्दा बन सकता है। इसमें भारत को अमेरिका की मदद की आवश्यकता जरूर पड़ेगी। भारत के विदेश नीति-नियंताओं को चाहिए कि चीन की हर गतिविधि पर वे खुफिया नजर रखें। और समय रहते ठोस कार्रवाई करें वरना देश के लिए यह स्थिति बड़ी घातक है।

Monday, October 4, 2010

सहकारी बना सरकारी

हम अन्नदाता हैं, लेकिन हमारे पेट खाली हैं। भूख इतनी की आत्महत्या तक से गुरेज नहीं। बच्चे न तो स्कूल जा पा रहे हैं और न विकास की दौड़ से कदम मिला पा रहे हैं। आंकड़ों पर गौर करें तो बीते दो दशक में हजारों अन्नदाता, अन्न की कमी के कारण काल के गाल में समा गए। किसान को कभी वक्त पर खाद-बीज नहीं, तो कभी फसल का खरीददार नहीं मिलता। विकास को योजनाएं बनीं तो बहुत, पर धरातल पर सब फुस्स साबित हुई। किसानों को आर्थिक रूप से मजबूत बनाने के लिए साठ के दशक में सहकारी आंदोलन की शुरूआत हुई। किसानों ने इसे एक पहल के रूप में देखा। सुखद कल की उम्मीद भी जगी। पर करीब 45 साल बीतने के बाद क्या हकीकत में किसान मजबूत हो पाया? क्या उसे उसकी फसल की सही कीमत मिल पाई? क्या सहकारी आंदोलन और समितियों ने दलालों की ताकत कम की? इन सभी सवालों के जवाब खोजती मुकेश कुमार गजेंद्र की रिपोर्ट :-

अपने देश को 'भारतÓ और 'इंडियाÓ दो नामों से पुकारा जाता है। 'इंडियाÓ, जो शाइन कर रहा है। जहां दमकते मॉल्स में थिरकती जिंदगियां आबाद रहती हैं। जहां करोड़पतियों और अरबपतियों की संख्या तेजी से बढ़ रही है। वहीं 'भारतÓ, जो आज भी गांवों का देश है। जिसकी 70 फीसद जनसंख्या गांवों में रहती है। जहां के बड़े-बड़े महानगरों में किसी कोने-किनारे पर बसी झुग्गियां हैं, जहां गांवों से रोजगार की तलाश में आए लोग रहते हैं, जहां बिजली, पानी या स्वास्थ्य की सुविधाओं का खस्ताहाल है। जहां मानवाधिकारों की हालत चिंताजनक है। जहां देश का भविष्य कहे जाने वाले नौनिहाल शिक्षा से फिलहाल वंचित हैं। सहकारिता का वास्तविक संबंध इसी दुनिया से है।
सहकारी आंदोलन के विकास की गति बहुत धीमी रही है। अनेक विद्वानों और समितियों ने सहकारी आंदोलन की कमजोरियों की जांच की। कुछ ने तो इसके सुधार या इसकी पुनर्रचना के सुझाव भी दे डाले। जिस तरीके से विकास कुछ दूसरे क्षेत्रों में एकांगी हो गया, कुछ उसी तरीके से सहकारिता क्षेत्र में भी हुआ। मसलन, खेल को ही लें। तमाम छोटी-बड़ी और सरकारी-गैरसरकारी कोशिशों के बावजूद क्या हम क्रिकेट के अलावा अन्य खेलों में भी विश्वस्तरीय पहचान बना पाए? हो सकता है कि एकाध खिलाडिय़ों ने विश्व-स्तरीय नाम कमाया हो, लेकिन क्रिकेट के सूर्य के आगे ये शायद कुछ-कुछ जुगनुओं की ही तरह हैं। क्या वजहें हुआ करती हैं कि हम फुटबाल के विश्व कप में प्रदर्शन नहीं कर पाते? यहां सवाल जनता में लोकप्रियता का है। और यह छोटी बात नहीं है। इसी तरह हमारे यहां सहकारी आंदोलन जनता के बीच सहज रूप से विकसित नहीं हुआ। स्वेच्छा से प्रेरित न होने की वजह से जनता ने अपनी जरूरतों के लिए समितियों के गठन में तेजी नहीं दिखाई। इनका स्वरूप कुछ ऐसा रहा कि एक आम किसान मानता रहा कि सहकारी साख समितियां आमतौर पर कर्ज देने वाली सरकारी एजेंसियां ही हैं।

असफलता की वजह

यदि हम सहकारिता के आर्थिक आंकड़ो को छोड़ कर वास्तविक रूप में उसकी समीक्षा करें तो पाएंगे कि देश के कई भागों में आज भी इसका विस्तार नहीं हो पाया है। लगभग 40 से 50 फीसद ग्रामीण परिवार अभी भी सहकारी समितियों के क्षेत्र से बाहर है। सहकारी समितियो में आपसी वाद-विवाद बढ़ते जा रहे है। राजनीतिक प्रभाव इनमें दृष्टिगत हो रहा है। यद्यपि समितियों ने देश के आर्थिक विकास में विशेष रूप से ग्रामीण विकास में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है, लेकिन इसके बावजूद भी ये अनेक क्षेत्रों में दोषपूर्ण रही हैं। सहकारी समितियों की असफलता का एक ये महत्वपूर्ण कारण यह रहा है कि इन समितियों में प्रशिक्षित व कुशल प्रबंधा का अभाव रहा है। फलस्वरूप इनकी आय, व्यय, ऋण आदि के हिसाब में अनियमितताएं एवं अन्य अनेक कमियां परिलक्षित होती हैं। सहकारी समितियों का उद्देश्य आर्थिक के साथ-साथ सामाजिक व नैतिक विकास करना भी था, लेकिन देखने में यह आया है कि ये सहकारी समितियां मात्र वित्तीय समितियां बन कर रह गई है, इनके द्वारा सामाजिक व नैतिक विकास का लक्ष्य अधारा रह गया है। सहकारी साख समितियों के पास पर्याप्त संसाधानों की कमी है। कई जगह वित्तीय संसाधानों ग्रामीण किसानों एवं कारीगरों को उपलब्धा करायी गईं, वह अपर्याप्त रूप में रहीं।
प्रमुख कमजोरियां निम्नलिखित प्रकार से हैं -
- साहूकारों को अभी तक समाप्त नहीं किया जा सका है।
- सहकारी समितियों को वित्त की कमी का सामना करना पड़ रहा है।
- यह आंदोलन विपणन और विधायन के पारस्परिक संबंधों को समझने में नाकाम रहा।
- इन्हें-सरकारी अभिकरणों और निहित स्वार्थों से गलाकाट प्रतिस्पर्धा झेलनी पड़ी है।
- इसका प्रबंध और नेतृत्व प्राय अकुशल और दोषपूर्ण ही रहा।

सहकारिता विभाग

कृषि एवं सहकारिता विभाग, कृषि मंत्रालय के तीन संघटक विभागों में से एक है। दो दूसरे विभाग हैं- पशुपालन एवं डेयरी विभाग और कृषि अनुसंधान एवं शिक्षा विभाग। राज्यमंत्री की सहायता से कृषि मंत्री विभाग का काम-काज देखते हैं। कृषि एवं सहकारिता सचिव इस विभाग के प्रशासनिक प्रमुख हैं और विभाग में नीति और प्रशासन संबंधी सभी मामलों में मंत्री के प्रमुख सलाहकार हैं। इस विभाग में चौबीस प्रभाग और एक तिलहन, दलहन तथा मक्का से जुड़ा प्रौद्योगिकी मिशन है।
कृषि एवं सहकारिता विभाग देश की भूमि, जल, मिट्टी और पौध संसाधनों के अनुकूलतम उपयोग के जरिये तेज कृषि वृद्धि और विकास हासिल करने के लिए प्रयास करता है। यह किसानों को आदानों और सेवाओं जैसे (कृषि ऋण, उर्वरक, कीटनाशक, बीज, कृषि उपस्कर वगैरह) की आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए प्रयास भी करता है। फसल बीमा से संबंधित योजना चलाना, खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करना या किसानों को लाभकारी मूल्य दिलाना। सहकारिता से जुड़ी सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि विभाग समुचित नीतिगत उपायों तथा राष्ट्रीय सहकारी विकास निगम (एन.सी.डी.सी.), भारतीय राष्ट्रीय कृषि सहकारी विपणन संघ (नेफेड) और भारतीय राष्ट्रीय सहकारी संघ (एन.सी.यू.आई) जैसे संगठनों के माध्यम से सहकारी आंदोलन को मजबूत बनाने के उपाय भी करता है।

सहकारी समितियां

सहकारिता को शुरू में ग्रामीण इलाकों के दलित वर्गों की प्रगति के एक उपाय के रूप में देखा गया था। कृषि हमारी अर्थव्यवस्था की रीढ़ है और एक आम किसान की जिंदगी और जीविका खेती-किसानी से ही चलती है। सहकारी समितियां हमारी खेती-किसानी और ग्रामीण अर्थव्यवस्था के आर्थिक विकास को बढ़ावा देने के लिए एक पद्धति हैं। बेहद महत्वपूर्ण संस्थानिक पद्धति। ये तमाम आर्थिक गतिविधियों में लगी हुई हैं। मसलन- कर्जों के वितरण में, बीजों, उर्वरकों या कृषि आदानों के वितरण में या फिर कृषि उत्पादों के विपणन, भण्डारण या प्रसंस्करण में।
सहकारिता समितियों का शोषण रहित चरित्र या 'एक आदमी एक वोटÓ का सिद्धांत कुछ ऐसी बातें थीं जो इन्हें चौतरफा विकास का एक उपकरण बना सकती थीं। पर ऐसा हुआ नहीं। आज सरकार खुद स्वीकार करती है कि इनमें संगठनात्मक दुर्बलताओं और क्षेत्रीय असंतुलन जैसी कुछ कमियां रह गईं। हमारी सरकार मानती है कि ऐसी कमियों का कारण अत्यधिक संख्या में सुषुप्त या निष्क्रिय किस्म की सदस्यता, सरकारी सहायता पर निर्भरता और बढ़ती हुई अतिदेयताएं हैं। हालांकि कमियों की वजहें सिर्फ इतनी ही नहीं हैं। कुछ दूसरे कारण भी हैं। इन्हें जानना इसलिए जरूरी है ताकि इन कारणों को दूर किया जा सके। फिर धीरे-धीरे कमियों से छुटकारा पाया जा सके। सदस्यों से कम डिपाजिट की व्यवस्था कर पाना या व्यावसायिक प्रबंध का अभाव कुछ दूसरे कारण हैं।
सरकार का यह कदम प्रशंसनीय है जिसमें सहकारी समितियों के पुनरोद्धार के लिए ठोस उपाय किए गए हैं। इसमें इन समितियों को जीवंत लोकतांत्रिक संगठन बनाने के साथ-साथ सदस्यों की सक्रिय भागीदारी पर जोर दिया गया था। यू.पी.ए. सरकार के राष्ट्रीय साझा न्यूनतम कार्यक्रम में इस बात का उल्लेख किया गया है कि यूपीए सरकार सहकारी समितियों की लोकतांत्रिक, स्वायत्तशासी और व्यावसायिक कार्यप्रणाली सुनिश्चित करने के लिए संवैधानिक संशोधन प्रस्तुत करेगी। दिसंबर 2004 में राज्य सहकारी मंत्रियों के सम्मेलन इस विषय पर महत्वपूर्ण चर्चा
प्रस्ताविक संवैधानिक संशोधन करने और सहकारी समितियों पर महत्वपूर्ण प्रभाव डालने वाले अन्य संबंधित विषयों पर चर्चा करने के लिए दिसंबर 2004 में राज्य सहकारी मंत्रियों का सम्मेलन भी आयोजित किया गया था। सम्मेलन में जिन प्रस्तावों को स्वीकार कर लिया गया है, वे निम्नलिखित हैं-
1. संविधान में संशोधन करना
2. सहकारी आंदोलन के सामने खड़ी विभिन्न चुनौतियों पर विचार करने के लिए और आंदोलन को नई दिशा प्रदान करने के लिए एक उच्च स्तरीय समिति का गठन करना।

बहरहाल साझा कार्यक्रम की प्रतिबद्धताओं के अनुसरण में सहकारी समितियों में संवैधानिक संशोधन करने वाला प्रस्ताव अभी कृषि एवं सहकारिता विभाग के विचाराधीन है। सहकारी समितियों संबंधी एक उच्च अधिकारिता समिति का भी गठन किया गया है। यह इसकी सांस्थानिक मौजूदगी के सौ सालों के दौरान सहकारी आंदोलन की उपलब्धियों, इसके समक्ष की चुनौतियों और उनको पूरा करने के लिए उपायों की समीक्षा करेगी। समिति आंदोलन के लिए भी सुझाव देगी।

उत्तर प्रदेश में सहकारिता

सहकारी साख अधिनियम 1912 के लागू होने के साथ पूरे देश में सहकारी समितियों के गठन की प्रक्रिया से सहकारी आंदोलन की शुरुआत हुई थी। बाद में उत्तर प्रदेश सहकारी समिति अधिनियम 1965 बनाया गया। इसे 1968 में लागू किया गया।
उत्तर प्रदेश में सहकारी आंदोलन के माध्यम से संचालित योजनाएं निम्नलिखित प्रकार से हैं-

1- सहकारी ऋण एवं अधिकोषण योजना
इस योजना के अंतर्गत किसानों को कृषि विकास के लिए उचित दर पर ऋण उपलब्ध कराया जाता है। यह ऋण प्रदेश स्तर पर शीर्ष बैंक, जिला स्तर पर जिला सहकारी बैंक और पंचायत स्तर पर सहकारी समितियों द्वारा उपलब्ध कराया जाता है।

2- सहकारी कृषि निवेश योजना
किसानों को कृषि कार्य में सहूलियत के लिए न्यूनतम दर कृषि निवेश उपलब्ध कराया जाता है। इसके तहत रासायनिक उर्वरक जैसे यूरिया, डीएपी, एनपीके और एमएपी आदि उपलब्ध कराई जाती है।

3- सहकारी शिक्षा प्रशिक्षण प्रसार
इस योजना के तहत सहकारी विभाग कार्यरत सदस्यों की कार्यकुशलता बढ़ाने के लिए प्रशिक्षण देने का कार्य किया जाता है।

4- सहकारी क्रय-विक्रय योजना
किसानों को बिचौलियो से बचाने और उचित मूल्य दिलाने के लिए सहकारी क्रय-विक्रय समिति का गठन किया गया। इस योजना के तहत जिला स्तर पर 57 जिला सहकारी संघ और तहसील स्तर पर 258 क्रय-विक्रय समितियां गठित हैं।

5- सहकारी उपभोक्ता योजना
इस योजना के तहत 2347 सहकारी समितियों द्वारा उपभोक्ता सामग्री की आपूर्ति की जा रही है। इसमें से 1768 समितियां ग्रामीण क्षेत्र में तथा 579 समितियां नगर क्षेत्र में कार्यरत हैं।

प्रदेश की प्रमुख सहकारी संस्थाएं

उत्तर प्रदेश कोआपरेटिव यूनियन लिमिटेड, सहकारी संघ, कोआपरेटिव बैंक लिमिटेड, सहकारी ग्राम विकास बैंक लिमिटेड, उपभोक्ता सहकारी संघ लिमिटेड, सहकारी श्रम एवं निर्माण संघ लिमिटेड, सहकारी विधायन एवं शीतगृह संघ लिमिटेड, आलू विकास एवं विपणन सहकारी संघ लिमिटेड फतेहगढ़, राज्य भंडारण निगम

सबसे बड़ा सहकारी क्षेत्र

भारत का सहकारी क्षेत्र संसार के सबसे बड़े सहकारी क्षेत्रों में आता है। आंकड़ों की बात करें तो ताजी जानकारी के मुताबिक 31 मार्च 2003 की स्थिति के हिसाब से हमारे यहां तकरीबन साढ़े पांच लाख सहकारी समितियां हैं। इनकी सदस्यता 22.95 करोड़ से ज्यादा है और कार्यशील पूंजी करीब 38,000 हजार करोड़ रुपये से अधिक है। सहकारिता के अंतर्गत लगभग सौ फीसदी गांव कवर किए गए हैं। करीब तीन-चौथाई ग्रामीण परिवार सहकारी संस्थाओं के सदस्य हैं।
देश की लगभग 50 फ़ीसदी चीनी उत्पादन में सहकारी समितियों योगदान देती हैं। दरअसल, विभिन्न पंचवर्षीय योजनाओं में सहकारी समितियों को सार्वजनिक और निजी क्षेत्र के बीच संतुलन की जि़म्मेदारी सौंपी गई थी। सन् 1963 में केंद्रीय आपूर्ति और सहकारिता मंत्रालय ने राष्ट्रीय सहकारिता विकास निगम का गठन किया था ताकि वह सहकारिता आंदोलन को बढ़ा सके। दूध के क्षेत्र में खेड़ा सहकारी दु्ग्ध उत्पादन संघ (अमूल) की सफलता को देश के अन्य हिस्सों में दोहराने के लिए 1965 में राष्ट्रीय डेयरी विकास बोर्ड का गठन किया गया। अब मदर डेयरी जैसे संगठन इसका हिस्सा हैं। अमूल ने तो सफलता के झंडे गाड़ दिए हैं और इसकी श्वेत क्रांति में अहम भूमिका रही है। बारह हज़ार से अधिक गांवों के 26 लाख से अधिक किसानों की सदस्यता वाली इस संस्था ने सहकारिता के क्षेत्र में दुग्ध उत्पाद में इतिहास रचा है। सहकारी समितियों ने खेती के आधुनिक तरीकों के इस्तेमाल में मदद की है। 1990-91 में इन समितियों ने कुल कृषि ऋणों का 43.4 फीसदी मुहैया कराया। किसानों को भण्डार सुविधाएं मिलीं। इसने शहरी क्षेत्रों में लोगों के लिए जमीन और मकान की व्यवस्था की। कमजोर वर्गों को सेवाएं उपलब्ध कराने का जरिया बनीं। बाद के दिनों में कभी सफलता के झंडे गाडऩे वाली सहकारी समितियां का राजनीतिक अदूरदर्शिता तथा अकुशल प्रबंधन की वजह से पतन होने लगा।

सहकारिता में महिलाएं

आधी दुनिया को छोड़कर कोई क्षेत्र विकास नहीं कर सकता। महिलाओं के संबंध में विकासात्मक गतिविधियों की दरकार है। अनौपचारिक दृष्टिकोण के जरिए महिलाओं को निचले स्तर से सहकारी क्षेत्रों में लाने की जरूरत है। इसके साथ-साथ सामूहिक गतिविधियों में महिलाओं की सहभागिता को बढ़ावा दिया जाना भी अनिवार्य है। भारतीय राष्ट्रीय सहकारी संघ सहकारिता की दृष्टि से अल्पविकसित राज्यों में सहकारी शिक्षण में तेजी लाने से संबंधित विशेष स्कीम भी चला रहा है। चार विशेष महिला विकास परियोजनाएं शिमोगा (कर्नाटक), बहरामपुर (उड़ीसा), मणिपुर (इम्फाल) और भोपाल (मध्य प्रदेश) में चलाई जा रही हैं। इनका लक्ष्य चुनिंदा प्रखंडों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति में सुधार लाना है।
इसके अलावा प्रत्येक क्षेत्रीय परियोजना में एक-एक महिला विकास घटक भी शामिल किया गया है। इस कार्यक्रम के अंतर्गत महिलाओं को स्व-सहायता दलों के रूप में संगठित किया जाता है और उनको सहायता दी जाती है जिससे उनमें बचत करने की प्रवृत्ति पैदा हो सके।
राष्ट्रीय सहकारी विकास निगम से सहायता प्राप्त करने के लिए विशेष तौर पर महिला सहकारी समितियों को प्रोत्साहित किया गया है।

ग्रामीण विकास में योगदान

भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में तो सहकारिता की भावना कूट-कूट कर भरी हुई है। यह बात अलग है कि इस भावना में निरंतर कमी होती जा रही है जिसका कारण यह है कि समाज का ढांचा व्यक्तिवादिता की ओर बढ़ रहा है। वर्तमान में समूह के स्थान पर व्यक्तिगत भावना का बोलबाला अधिक है, जिसका प्रभाव सहकारिता पर पड़ रहा है। सहकारी समितियों को महत्व विकास कार्यक्रमों के संचालन में अधिक है। साथ-साथ काम करने से जहां एक ओर काम बंट जाता है, तो इसका प्रभाव उत्पादन एवं उत्पादकता पर भी पड़ता है। इन समितियों की एक विशिष्ट विशेषता यह होती है कि इसमें आर्थिक हितों के साथ-साथ सामाजिक एवं नैतिक हितों पर भी धयान दिया जाता है। सहकारी समितियों का उद्देश्य होता है कि वे न्यूनतम लागत पर अधिकतम सुविधााएं अपने समुदाय के लोगों को सुलभ कराएं।
आज की व्यक्तिवादी अर्थव्यवस्था में सहकारिता का महत्व अधिक बढ़ गया है। आर्थिक विकास की गति को तीव्र करने में इसका महत्व विशेष रूपसे रहा है। विगत चार दशकों में सहकारिता ने ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है। देश के आर्थिक एवं सामाजिक विकास के लिए जिन प्रमुख संस्थाओं की आवश्यकता महसूस की गई, उसमें सहकारी समिति प्रमुख हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में सहकारी समितियों की स्थापना का मतलब है कि ग्रामीण निर्बल व्यक्ति भी अपना विकास करने में समर्थ हो जाते हैं क्योंकि इन समितियों का सदस्य बनने में धानी व निर्धान के बीच कोई भेदभाव नहीं किया जाता । सभी को समान अवसर,अधिकार व उत्तरदायित्व प्राप्त होते हैं। सहकारी समितियों का समाज में इसीलिए अधिक महत्व है, क्योंकि यह संगठन शोषण रहित सामाजिक आर्थिक व्यवस्था स्थापित करने में सहायक है। ग्रामीण समुदाय में सहकारिता का लाभ विशेष रूप से मिलता है क्योंकि देश का ग्रामीण क्षेत्र विकास की धारा में पीछे रह जाता है। इस प्रकार आर्थिक विकास को इन क्षेत्रोंमें तीव्र करने का यह मुख्य साधान है। इन समितियों के माधयम से ग्रामीण क्षेत्रों को बहुत लाभ होते है,जैसे-सस्ती साख,ग्रामीण एवं लघु उद्योगों का विकास,कृषि का विकास, फिजूल खर्ची में कमी, संपत्ति का समान वितरण, सामाजिक कल्याण, श्रमिकों के साथ अच्छे संबंधा, आर्थिक सुरक्षा आदि। सहकारिता के विश्लेषण से ग्रामीण विकास में उसकी समर्पित भूमिका परिलक्षित होती है।

सहकारिता के जनक

विश्व में सहकारिता का जनक राबर्ट ओवेन को माना जाता है। 14 मई 1771 को जन्मे ओवेन एक समाज-सुधारक एवं उद्यमी थे। उनकी गणना समाजवाद एवं सहकारिता आन्दोलन के संस्थापकों में की जाती है। उन्होंने सहकार को व्यावहारिकता के धरातल पर साकार करने की कोशिश अपनी पूरी ईमानदारी और सामथ्र्य के साथ की। अपने विचारों के लिए सदैव समर्पित भाव से काम करता रहा। हालांकि उसे अंतत: असफलता ही हासिल हुई; मगर तब तक दुनिया सहकार के सामथ्र्य से पूरी तरह परिचित हो चुकी थी।
ओवेन का उद्देश्य मात्रा आर्थिक-सामाजिक विषमताओं का निर्मूलीकरण नहीं था, बल्कि समाज के चरित्र में परिवर्तन के माध्यम से मनुष्य की सहयोगकारी प्रवृत्ति को सभी कर्तव्यों के लिए नियामक बनाना था। ओवेन को एक ओर जहां सहकारिता आंदोलन का पितामह होने का गौरव प्राप्त है, वहीं शिशु पाठशालाओं को आरंभ करने का श्रेय भी उसी को जाता है। ओवेन ने सहकारी आंदोलन का सूत्रपात किया, किंतु आजीवन कोशिश तथा तमाम संसाधनों को झोंक देने के बाद भी उसे अपेक्षित सफलता नहीं मिल पाई थी। कारण संभवत: यह रहा कि समाज के बाकी लोगों का विश्वास जिनसे वह सहकार की अपेक्षा रखता था, जिनके माध्यम से आंदोलन को आगे बढ़ाना चाहता था और कदाचित जिन्हें उसकी सर्वाधिक आवश्यकता भी थी, उनका विश्वास जीत पाने में वह असमर्थ रहा था।
राबर्ट ओवेन ने सहकरिता के क्षेत्र में मौलिक प्रयोग किए। उसने अपनी मिलों में काम करने वाले कारीगरों को मानवीय वातावरण प्रदान करने की कोशिश की। मजदूर बच्चों को शिक्षा देने के लिए पाठशालाएं खुलवाईं, इसीलिए उसको सहकारिता के साथ-साथ शिशु शिक्षा केंद्रों का जनक भी माना जाता है। ओवेन के प्रयासों का मजदूरों की ओर से भी स्वागत किया गया, जिससे उसका उत्पादन स्तर लगातार बढ़ता चला गया। यहां तक कि इंग्लैंड में आई भयंकर मंदी के दौर में उसकी मिलें मुनाफा उगल रही थीं। उनीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में सहकारिता आंदोलन को पूरे विश्व में प्राथमिकता मिलने के पीछे एक कारण सरकारों का यह डर भी था, कि बढ़ती लोकचेतना के दबाव के आगे आम नागरिकों की उपेक्षा लंबे समय तक कर पाना संभव न होगा। क्योंकि उन्हीं दिनों राजनीति पर अस्तित्ववादी एवं साम्यवादी विचारों की झलक साफ दिखने लगी थी।

सहकारिता का विकास

सहकारिता समितियों के विषय में कहा जाता है कि ये 'समान आर्थिक कठिनाइयों का सामना करने वाले व्यक्तियों के ऐसे संगठन हैं, जिसमें समान अधिकारों एवं उत्तरदायित्वों के आधार पर स्वेच्छापूर्वक मिलकर इसके सदस्य कठिनाइयों को दूर करने का प्रयास करते हैं। इस प्रकार बनाए गए समूह के संचालन का आधार सदस्यों के परस्पर सहयोग में निहित होता है और इस प्रक्रिया में शामिल जोखिम भी उन्हीं का होता है। इसका भौतिक एवं नैतिक लाभ संगठन के सदस्यों को बराबर मिलता रहे, ऐसी अपेक्षा होती है।Ó
हालांकि 20 वीं सदी के आरंभिक वर्षों में जब देश को अकाल के भीषण दौर से गुजरना पड़ा तो प्राचीन सहकारिता की स्थापित परिपाटी को नई जरूरत और समय के साथ स्थापित करना आवश्यक हो गया। 1901 अंग्रेजों ने अकाल आयोग का गठन किया। 1901 में अकाल आयोग की रिपोर्ट एवं एडवर्ड मैक्लेगन की सिफारिशों के आधार पर एडवर्ड ला की अध्यक्षता में अंग्रेजी सरकार ने सहकारी साख समितियों के गठन पर मुहर लगा दी। सन् 1903 में सेन्ट्रल असेम्बली में एक बिल लाया गया। 1904 में 'सहकारी साख अधिनियमÓ अस्तित्व में आया। भारत में नए सहकारिता आंदोलन का आरंभ कृषि एवं इससे संबंधित सहायक क्षेत्रों से माना जाता है।
1904 में बने सहकारी साख अधिनियम के बाद भारतीय सहकारिता आंदोलन की हवा चली। इस अधिनियम का उद्देश्य किसानों, कारीगरों तथा सीमित साधानों वाले व्यक्तियों में बचत, स्व-सहायता तथा सहकारिता की भावना को जागृत करना था, जिससे वे निर्धनता से उबर सकें। इस अधिनियम की कमियों में सुधार हेतु Óसहकारी समिति अधिनियम 1912? पारित किया गया। वर्ष 1914 में एडवर्ड मैक्ग्लेन की अध्यक्षता में बनाई गई समिति की सिफारिशों के आधार पर किसी भी सहकारी समिति के गठन में पूरी तरह से सावधानी बरतने की बात कही गई। सन् 1919 तक सहकारिता की जड़ें और भी मजबूत होने लगी थीं। इसी वर्ष सहकारिता को मोंटेग्यू चेम्सफोर्ड रिपोर्ट में राज्य के विषय के रूप में शामिल कर लिया गया और उन्हें अपनी सुविधानुसार कानून बनाने का अधिकार भी दे दिया गया।
भारतीय सहकारिता आंदोलन में सहकारी समितियों की अहम् भूमिका मानी जाती है। भारत का सहकारी क्षेत्र विश्व के वृहदतम सहकारी क्षेत्रों में शुमार किया जाता है। मार्च 2003 के आंकड़ों के मुताबिक 5.41 लाख समितियां भारतीय सहकारी क्षेत्र का हिस्सा थीं, जिनकी पहुंच देश के शत् प्रतिशत गांवों तक बताई जाती है। इन समितियों के 22.15 करोड़ सदस्य होने की बात भी कही जाती है।
1954 में 'आल इंडिया रूरल क्रेडिट सर्वे कमेटीÓ की रिपोर्ट में सहकारी समितियों द्वारा उपलब्ध कराए जाने वाले ऋण को ग्रामीण आर्थिक संरचना के सुदृढ़ीकरण की दिशा में महत्वपूर्ण बताते हुए इसमें सरकार की भागीदारी की सिफारिश भी की गई थी। सन् 1958 में राष्ट्रीय विकास परिषद ने सहकारिता को लेकर एक राष्ट्रीय नीति बनाने की अनुशंसा की और इस तरह से भारतीय सहकारिता आंदोलन गति पकडऩे लगा था। 1950-51 में सभी प्रकार के सहकारी संस्थानों की संख्या 1.81 लाख आंकी गई। जबकि, 1996-97 में 4.53 लाख संस्थानों के होने की बात कही जाती है। इसी तरह इन समितियों के सदस्यों में भी खासी बढ़ोत्तरी देखने को मिलती है। इसी कालखंड में सदस्यों की संख्या 1.55 करोड़ से बढ़कर 20.45 करोड़ हो गई।
इस विशेष और विशाल सहकारी आंदोलन को सरकारी समर्थन देने के लिए 'राष्ट्रीय सहकारी विकास निगमÓ का गठन किया गया है। निगम का उद्देश्य कृषि सहकारी समितियों को सुदृढ़ और विकसित करना है और उनकी आय को बढ़ाने के लिए फसलोपरांत सुविधाएं मुहैया करवाना है। निगम ग्रामीण क्षेत्रों में कृषि आदानों, प्रसंस्करण, भंडारण एवं कृषि उत्पादों के विपणन तथा उपभोक्ता वस्तुओं की आपूर्ति संबंधी कार्यक्रम पर ध्यान दे रहा है। गैर कृषि क्षेत्र में कमजोर तबकों को प्रोत्साहन देने के लिए भी निगम प्रयासरत है।
इसके लिए वह हथकरघा, कुक्कुट पालन, मात्स्यिकी, अनुसूचित जनजाति की सहकारी समितियों से संबंधित कमजोर वर्गों पर विशेष ध्यान दे रहा है। 'राष्ट्रीय सहकारी विकास निगमÓ (संशोधान) अधिनियम, 2002 के पारित हो जाने के पश्चात 'राष्ट्रीय सहकारी विकास निगमÓ का कार्यक्षेत्र बढ़ गया है। इसमें पशुधन, कुक्कुट और ग्रामीण उद्योग, हस्तशिल्प, ग्रामीण शिल्प तथा कुछ अधिसूचित सेवाओं को भी शामिल कर लिया गया है। इस अधिनियम के तहत सहकारी समितियों को ज्यादा स्वायत्तता दी गई है।
इसी दिशा में एक और पहल के रूप में राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के परामर्श से केंद्र सरकार ने राष्ट्रीय सहकारिता नीति तैयार की है। इसका उद्देश्य देश में सहकारी समितियों के चौतरफा विकास को बढ़ावा देना है। इसके अंतर्गत सहकारिताओं को आवश्यक समर्थन, प्रोत्साहन और सहायता दी जाएगी ताकि वे स्वायत्तशासी, आत्मनिर्भर और लोकतांत्रिक संस्थाओं के रूप में कार्य कर सकें। वे अपने सदस्यों के प्रति पूर्ण रूप से जवाबदेह हों। वे राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में, विशेषकर देश में गरीबी रेखा के नीचे रहने वाले बड़े वर्ग (जिनके लिए सार्वजनिक भागीदारी और सामुदायिक प्रयासों की जरूरत होती है) के उत्थान में एक विशेष योगदान कर सकें।
सहकारी साख (नाबार्ड), सहकारी विपणन (नैफेड), खाद एवं प्रसंस्करण सहकारिता (कृभको, इफको), दुग्ध सहकारिता (अमूल), महिला सहकारिता (एनएफआईसी), आदिवासी सहकारिता (ट्राइफेड), खाद्य सहकारिता (फिश काफेड), श्रमिक सहकारिता (नेशनल फेडरेशन आफ लेबर को-आपरेटिव) और सहकारिता संगठन (एनसीडीसी तथा एनसीयूआई), भारत में सहकारिता की सफलता की गाथा दर्ज करवा चुके हैं। सहकारी समितियों के उत्थान के लिए उनमें समयबद्धता, पारदर्शिता, व्यवहारशीलता तथा सहभागिता का समावेश होना आवश्यक है। गांवों और किसानों के विकास के सपने को साकार करने के लिए 11वीं पंचवर्षीय योजना में सहकारिता को अधिक महत्व दिया जाएगा। कृषि ऋण को बढ़ावा देने के लिए सहकारिता एक बेहतर माध्यम है। सहकारिता कृषि और ग्रामीण विकास एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। कृषि ऋण के विभिन्न आयामों मसलन-क्रेडिट, उत्पादन, प्रसंस्करण, मार्किटिंग, इन्पुट्स का वितरण, हाउसिंग, डेयरी और टेक्सटाईल इत्यादि में आज सहकारी संस्थानों की महत्वपूर्ण भागीदारी है।
कुछ क्षेत्रों जैसे-डेयरी, शहरी बैंकिग एवं आवास, चीनी तथा हैण्डलूम इत्यादि में सहकारी संस्थानों ने अपनी उपलब्धि दर्ज करवाई है। देश में सहकारी आंदोलन की असफलता के पीछे इसके सदस्यों की निष्क्रियता एवं प्रबंधन में सक्रिय सहभागिता का अभाव रहा है। सहकारी साख समितियों की उधारी बाकी, आंतरिक संसाधनों को इक_ा करने की इच्छाशक्ति का अभाव, सहकारी सहायता पर अधिक निर्भरता, व्यावसायिक प्रबंध तंत्र का अभाव, प्रशासनिक अंकुश, प्रबंधन में अनावश्यक सरकारी दखलंदाजी भी इसकी असफलता के लिए कम दोषी नहीं हैं। निहित स्वार्थी लोगों के सहकारी समितियों पर छाए रहने के कारण भी आम लोगों तक सहकारी आंदोलन का प्रभाव महसूस नहीं होता। इस कारण यह अपने उद्देश्य को पाने में असफल रहती है। इस आंदोलन को जन-जन तक पहुंचाने के लिए समुचित वैधानिक एवं नीतिगत उपाय करने होंगे।

अन्तरराष्ट्रीय सहकारिता

दुनिया की पहली सहकारी समिति राकडेल तथा क्विटेबल सोसायटी ऑफ पायोनियर्स मानी जाती है। राकडेल इंग्लैण्ड के लंकाशायर व यार्कशायर की सीमा पर स्थित एक कस्बा है जो अपनी प्रगतिशील विचारधारा के लिए जाना जाता था। इस समिति में 28 व्यक्तियों ने बैठक में भाग लेकर सहकारिता की शुरूआत 26 जून सन् 1844 को औपचारिक बैठक में हुई थी। इसमें सभी 28 व्यक्तियों ने एक-एक पौण्ड की पूंजी देकर आरंभ किया था। इस सोसायटी की गठन के बाद प्रथम बैठक 11 अगस्त सन् 1844 दिन रविवार को हुई थी। राकडेल क्विटेबल सोसायटी ऑफ पायोनियर्स विश्व की प्रथम सहकारी समिति थी कि जिसने समिति संचालक के कुछ नियमों व सिद्धान्तों का निरूपण किया जो आगें चलकर विश्व सहकारिता आंदोलन के आधार बनें। वर्तमान में दुनिया के 100 से अधिक देशों में सहकारी आंदोलन समय परिवर्तन एवं आवश्यकता के अनुकूल विभिन्न उद्देश्यों वाली सहकारी संस्थाओं के रूप में विकसित हो रहा है।
फ्रांस में सहकारिता आन्दोलन की प्रगति और विकास का श्रेय केवल वहां के कृषक संगठनों को जाता है। कृषकों की आवश्यकताओं की पूर्ति 'एग्रीकल्चर फायनेंसियल बैंकÓ द्वारा ही की जाती है। फ्रांस में जितने भी सहकारी बैंक कार्यरत हैं वे सभी बहुद्देश्यीय ऋण प्रदान कर रही हैं। जर्मनी में सहकारिता आन्दोलन की प्रगति सन् 1927 में निर्मित हुई जो भंयकर मुद्रा स्फिति की ही देन है। आस्ट्रेलिया, इटली में सहकारी आन्दोलन प्रजातांत्रिक प्रणाली का पर्याय है। फलस्वरूप आम नागरिकों में सहकारिता का अत्याधिक लगाव बढऩे लगा जिससे विवश होकर सरकार को शासकीय शिकंजे से सहकारिता को मुक्त करना पड़ा। वर्तमान में जर्मनी में 768 को सहकारी बैंक हंै, जिनकी 3 लाख से अधिक सदस्य संख्या हैैं।
आयरलैण्ड का सहकारी आंदोलन यूरोप के सबसे सफल और मजबूत अभियान का रूप ले चुका है। कनाडा में भी आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग की रूचि सहकारिता आन्दोलन के प्रति निरंतर विकसित हो रही है। बेल्जियम में श्री सी.आर. फेकी की पहल पर कृषकों का एक ऐसा संगठन बना जिसने अल्प समय में ही काफी लोकप्रियता अर्जित करते हुए सदस्यों के हित में अनेकों कार्य किए उससे प्रभावित होकर क्षेत्रीय शासकों ने वोरेनबाण्ड शहर में एक मुख्य क्रेडिट कोआपरेटिव बैंक की स्थापना की जिसके माध्यम से डेरी उत्पादन के सीमित बाजार का समुचित विकास हुआ है। इसी तरह नीदरलैण्ड में भी सहकारी बैंको की तरह सहकारी मार्केटिंग सोसायटी का विकास हुआ। स्वीडन, रोमानिया, स्पेन, पुर्तगाल व इटली के सहकारिता आन्दोलन ने कृषि व साख के क्षेत्र से काफी ऊपर उठकर चिकित्सा के क्षेत्र में अपंग बच्चों की देखरेख सहकारिता के माध्यम से घरों की देखभाल के साथ-साथ बुजुर्ग, शारीरिक रूप से अक्षम व्यक्तियों व बच्चों की पूर्ण जिम्मेदारी समाजसेवी सहकारी संगठनों के माध्यम से सफलतापूर्वक की जा रही है।

आजादी के बाद लोग नेतृत्व की तरफ उपदेशिता की दृष्टि से देखते थे। लोगों में नेतृत्व के प्रति आशा और विश्वास था। उनका मानना था कि सरकार उनके लिए जो करेगी वह ठीक होगा। बाद में धीरे-धीरे इस धारणा में परिवर्तन आना शुरू हो गया। जब सहकारिता आंदोलन शुरू हुआ। उस समय इसके दो पक्ष सामने आए। पहला, जो सीधे-सीधे कृषि से जुड़ा हुआ था। तत्कालिन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की सोच अतिवादी थी। इससे लोगो में शंका पैदा हो गया। लोगों को लगा कि उनकी जमीन सरकार छीन लेगी। नागपुर सम्मेलन के दौरान सहकारी खेती का विरोध हुआ था। उस समय चौं चरण सिंह ने सहकारी खेती और इसके प्रति सरकारी नीति का खुलकर विरोध किया था। कांग्रेस ने इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया था। यह नेहरू नीति की करारी हार थी। दूसरी बात, हमारे देश में किसान और उपभोक्ता दोनों कम आय वर्ग के लोग हैं। कुटीर उद्योगों के पास पूंजी की कमी है। इस स्थिति को देखते हुए श्रम और पूंजी को जोडऩे की वकालत की गई। ताकि उनको लाभ मिल सके। इस पद्घति के तहत सहकारी चीनी मिलों की स्थापान हुई थी। मिलों में किसानों को पूर्ण भागीदीरी दी गई। किसानों को बराबर का शेयर दिया गया। इसी पद्घति से गुजरात और महाराष्ट्र में गन्ने और दूध के मामले में यह आंदोलन सबसे ज्यादा सफल था।

बुआई के समय खाद और बीज उपलब्ध नही होता है। समिति अधिकारी इस सम्बन्ध में स्पष्ट जवाब नही दे पाते। खाद बीज आज इन समितियों में जरूरतमंद किसानो को न देकर ब्लैक में बेच दिया जाता है। सहकारी समिति के डायरेक्टर और चैयरमेन अपने किसी दुकानदार रिश्तेदार आदि को बेच देते हंै। इससे इसका समुचित वितरण नही हो पाता। समितियों में किसानो से ऋण देने के ऐवज में अधिकारी रिश्वत लेते है। कुछ किसानों को बिना ऋण लिए ही उनके खातों में ऋण चढ़ा मिलता है।
सतपाल सिंह, किसान, गौरीपुर जवाहरनगर

सहकारी समितियां शासन और प्रशासन की लापरवाही से भ्रष्टाचार का गढ़ बन चुकी हैं। मिल सोसायटी से खाद लेने पर यदि आपने पैसा एक महीने बाद चुकता कर दिया तो भी ब्याज कम से कम छह महिने या एक साल का लगेगा। खाद भी जरूरत के समय नहीं मिलता है। बीज तब आता है जब फसल कटने वाली होती है। सोसायटियों में प्रबन्धन इस प्रकार है कि जिन लोगों पर समिति का कर्ज है, में खुद उगाहने आते है। पैसे लिए और रसीद बाद में देने की बात होती है जो कि कई बार नहीं मिलती। पैसे देने के बावजूद कर्ज ज्यों का ज्यों रहता है।
राजकुमार, किसान, ग्राम बाघू

किसानों को समितियों से आज भी बहुुत फायदे मिलते है। आज किसान की जोत घटती जा रही है। उसके पास इतन समय नहीं है कि वह सहकारी समिति में खाद बीज जो कि एक प्रक्रिया द्वारा मिलता है। वह उसे प्राप्त कर सके। समिति की गतिविधियां आज संदिग्ध है। इस बात को वे भी स्वीकार करते हंै। यदि किसान मिलकर समितियों में सहभागिता निभाये भ्रष्ट अधिकारियों के खिलाफ आन्दोलन करें तो ये समितियों एक बार फिर किसान के लिए वरदान सािबत हो सकती है। जरूरत है किसानों को इसके प्रति जागरूक होने की तथा इनमें पदों को संभालने की।
नैन सिंह , निदेशक, गूर्जर सहकारी समिति, निरोजपुर

सहकारिता आंदोलन महाराष्ट्र, गुजरात सहित कुछ राज्यों में सफल तो रहा लेकिन उत्तर के राज्यों में सफल नहीं हो सका। इसकी प्रमुख वजह सांस्कृतिक खाई थी। यहां के लोगों में सहकारिता के लिए उपयुक्त संस्कृति का अभाव था। सरकार भी सहकारिता के मूल स्वरूप को बनाए रखने में नाकाम साबित रही। इसलिए उत्तर के राज्यों में सहकारिता का स्वरूप सहकारी की बजाय सरकारी हो गया।
डॉ. सोमपाल, पूर्व केंद्रिय कृषि मंत्री


 
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