Pillar of True Journalism to save Public Domain

Monday, November 22, 2010

प्रेस की निष्पक्षता के लिए बहुआयामी संघर्ष छेडऩा होगा

16 नवंबर को राष्ट्रीय पत्रकारिता दिवस था। यह दिन भारत की पत्रकारिता के नाम था। पर यह भी अपने देश के अन्य दिवसों की तरह मनाया गया। जागरण जैसे अखबार ने अन्दर के पेज एक विज्ञापन छाप कर अपने जिम्मेदारी की इतिश्री समझ ली, तो जनसत्ता ने अगले दिन एक खबर लगाकर।
अन्य राष्ट्रीय दिवसों की तरह इस दिन भी एक गोष्ठी काआयोजन किया गया। केरल भवन में दिल्ली यूनियन ऑफजर्नलिस्ट्स (डीयूजे) और डीएमसीटी की ओर से इसकाआयोजन किया गया था। पत्रकारिता बचाओ के तहत हुएआयोजन में ज्यादातर की राय थी कि देश में बहुसंख्यकलोगों का आज भी भरोसा प्रिंट मीडिया पर ही है। इसलिएइसे बचाए रखने के लिए सभी मीडियाकर्मियों को एकजुटहोना होगा। पूर्व सांसद और वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नैयर नेकहा कि जब पत्रकारिता में थे तब आज की अपेक्षा बेहतर माहौल था। आज वे ठेके पर पत्रकारों की नियुक्ति औरविविध स्तरों पर पेड न्यूज का बोलबाला देख रहे हैं, उस पर उन्हें आश्चर्य है। ऐसे में जरूरी है कि देश में मजबूतलोकतंत्र की खातिर प्रिंट विजुअल और वेब से जुड़े तमाम मीडियाकर्मी
केवल प्रेस की निष्पक्षता बल्कि अपनेपेशे में भी अच्छा कर पाने के लिए हावी दिखें। उन्होंने कहा कि इसके लिए बहुआयामी संघर्ष छेडऩा होगा। इसकेलिए संसद को घेरना और अदालतों में न्याय की गुहार लगानी पड़ सकती है।
नैयर ने यहां डीयूजे और डीएमसीटी की ओर से प्रकाशित 'पे्रस फार सेल : वाच डाग अनमास्कड' (बिकाऊ है प्रेसपहरेदार का हुआ पर्दाफाश) पुस्तिका का लोकार्पण भी किया। उन्होंने कहा कि प्रेस को हर हालत में व्यवस्थाविरोधी होना चाहिए। प्रेस आज आजाद कतई नहीं है। ऐसे में हमें यह सोचना होगा कि ऐसे इसे लोकतंत्र की रक्षाकी खातिर बचाया जाए। उन्होंने कहा, यह जरूरी है कि भारत सरकार मीडिया पर एक व्यापक आयोग नियुक्त करे।मैं मानता हूं कि प्रेस को निडर, मजबूत और प्रामाणिक बनाने के लिए केवल सत्ता बल्कि विपक्ष केजनप्रतिनिधि भी इस आंदोलन में पत्रकारों के साथ होंगे। उन्होंने कहा कि आपातकाल के बाद प्रेस को वाकईआजादी मिली थी, लेकिन समय के साथ अखबार मालिकों के नजरिए में आए बदलाव के चलते लोकतंत्र का यहचौथा खंभा अब खासा दरक गया है। इसे बचाने की जिम्मेदारी अब पत्रकारों पर है। देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू कहा करते थे कि लोकतंत्र को बचाए रखने के लिए विपक्ष नहीं बल्कि एक मजबूत मीडिया जरूरी है।
पेड न्यूज मामलों की छानबीन के लिए प्रेस कौंसिल ऑफ इंडिया की ओर से बनी दो सदस्यीय कमेटी के एकसदस्य प्रणंजय गुहा ठाकुरता ने कहा हमने इस संबंध में पूरे देश का दौरा किया। कई सौ लोगों से बातचीत की।राजनीतिक लोगों ने बताया कि किस तरह चुनावों में प्रचार के लिए उनसे पैसों की फरमाइश की गई। कुछ नेफरमाइश पूरी की। उन्होंने सबूत भी दिए। लेकिन हमारी 35 हजार शब्दों की रपट के समांतर प्रेस परिषद केदवाबों के तहत 35 सौ शब्दों में एक दूसरी रपट तैयार की और जारी कर दी।
उन्होंने इस बात पर अफसोस जताया कि ज्यादातर जिलों में उन्होंने ऐसे संवाददाता पाए जिन्हें पारिश्रामिक बतौरया तो कुछ भी नहीं या फिर महज पांच सौ रुपये मासिक तौर पर मिलते हैं। इसके साथ ही उन पर विज्ञापन भीलाने का दबाव होता है। ऐसे में वे पेड न्यूज के सहायक हो जाते है।
डीयूजे के महासचिव एसके पांडे ने कहा कि इसी विषय हिंदी में जारी हुई राम बहादुर राय की संपादित पुस्तककाली खबरों की कहानी' : '
खासी महत्वपूर्ण है। उन्होंने कहा कि पत्रकारिता से जुड़े तमाम मीडियाकर्मियों कोमिलकर एक संयुक्त मोर्चा बनाना चाहिए। जिससे देश में लोकतंत्र के चौथे खंभे के तौर पर प्रेस का महत्व बना रहसके और उसे खरीद सकने का दंभ तोड़ा जा सके।
इस तरह के आयोजन हर कुछ दिन के बाद हुआ करते हैं। हर वक्ता अपनी बात रखते हैं। लोग सराहते भी हैं। याद करें प्रभाष जोशी और विनोद दुआ की बातों को। इन लोगों ने पिछले लोकसभा चुनावों में पेड न्यूज की जम कर मुखालफत की, लेकिन हुआ क्या? उनकी आवाज भी दब गई। अब जरूरत बोलने की नहीं, कुछ कर दिखाने की है। नहीं तो वह दिन दूर नहीं जब दूसरों के हक लिए लडऩे वाला चौथा खंभा बिखर जाएगा।

Wednesday, November 3, 2010

महिला सशक्तिकरण की हकीकत

महिलाओं को आरक्षण देने से उनका सशक्तिकरण होगा, यहीं सोचकर पंचायती चुनावों में महिलाओं को 50 फीसद आरक्षण दिया गया। और लोकसभा में 33 फीसद आरक्षण देने की मुखालफत हो रही है। पर महिलाओं की वास्तविक स्थिति में क्या फर्क आया है, इसका अंदाजा इस विज्ञापन को देखकर लगाया जा सकता है।
देश की आधी आबादी को आरक्षण के सपने दिखाए गए, आरक्षण दिया गया और कानून को लागू भी किया गया। और लागू होने के बाद सरकार ने अपनी उपलब्धियां गिनवाने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी। लेकिन किसी ने भी कानून लागू होने के बाद यह जानने की जहमत नहीं उठाई कि आखिर योजनाओं का हाल क्या है?
जिस आरक्षण कानून को लेकर सरकार बड़ी-बड़ी डींगें हांक रही है उसे कहां तक क्रियांवित किया जा रहा है? आखिर जिस महिला वोट बैंक, को आरक्षण दिया गया है उसे इसका क्या और कितना फायदा मिल रहा है महिलाओं की पहचान बनाने और सशक्तिकरण के लिए यह कानून किस हद तक कारगर हैं? अगर इन सभी मुद्दों की जांच की जाए तो नतीजा वही निकलेगा ढांक के तीन पात। इसका सबसे बड़ा उदाहरण देखने को मिल रहा है उत्तर प्रदेश में चल रहे त्रिस्तरीय चुनावों में। यहां अखबारों में छपने वाले विज्ञापनों में महिला प्रत्याशी के साथ-साथ उसके पति और ससुर का नाम छापा जा रहा है और यहां तक कि किसी-किसी विज्ञापन में तो नाम है महिला प्रत्याशी का और फोटो है उसके पति का।
आरक्षण के तहत बड़ी संख्या में महिलाएं भी पंचायत चुनाव में उतरी हैं। लेकिन इनकी हैसियत किसी मुखौटे से ज्यादा नहीं है। जो सीट महिला आरक्षण में चली गयी है, उस सीट पर नेताजी ने मजबूरी में अपनी पत्नि, बहन, मां या पुत्रवधु को पर्चा भरवा दिया है। इसलिए पोस्टरों, बैनरों और अखबार के विज्ञापनों में वह हाथ जोड़े खड़ी हैं। साथ में यह जरुर लिखा है कि उम्मीदवार किसी की पत्नी, बहु, मां या बेटी है। साथ में पति, ससुर, बेटे या भाई की तस्वीर भी हाथ जोड़े लगी हुई है।
सब जानते हैं कि चुनाव महिला नहीं लड़ रही बल्कि महिलाओं के आड़ में पुरुष लड़ रहा है। इसलिए महिला उम्मीदवारों की सूरत सिर्फ पोस्टरों, बैनरों और अखबारों में ही दिख रही है। कहीं-कहीं तो मुसलिम महिला उम्मीदवार की सूरत ही सिरे से गायब है। चुनाव प्रचार से भी महिलाएं दूर है। इसकी जिम्मेदारी पुरुषों ने संभाल रखी है। असली उम्मीदवार को तो पता ही नहीं कि बाहर क्या हो रहा है। वह तो आज भी घर के अन्दर चूल्हा झोंक रही है, भैंसों को सानी कर रही है या गोबर से उपले पाथ रही है। किसी महिला के निर्वाचित होने के बाद भी उनकी हैसियत कुछ नहीं होगी। सारा काम पुरुष ही करेगा। महिला तो सिर्फ रबर स्टाम्प होगी। सबने सोचा था कि महिलाओं को आरक्षण देने से महिलाओं का सशक्तिकरण होगा। क्या इन हालात में महिलाओं का सशक्तिकरण हो सकता है? कुछ लोग जब महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण देने की मुखालफत करते हैं तो इसके पीछे एक तर्क यह भी होता है कि इससे महिलाओं का सशक्तिकरण नहीं होगा, बल्कि पुरुष ही अपनी राजनैतिक महत्वकांक्षा को पूरा करेगा। यदि फायदा होगा भी तो शबाना आजमी, जया प्रदा या नजमा हैपतुल्ला जैसी महिलाओं का होगा, जो पहले से ही पुरुषों से भी ज्यादा सशक्त हैं। ग्राम पंचायत को तो छोड़ दें। मैट्रो शहरों के नगर-निगम में चुने जाने वाली ज्यादतर महिला पार्षद भी बस नाम की ही पार्षद होती हैं। सारा काम तो पार्षद पति ही करते हैं। इस तरह से पार्षद पति का एक पद स्वयं ही सृजित हो गया है। ऐसे कई वार्ड हैं जहां महिलाएं प्रतिनिधि तो हैं, पर किसी ने आज तक उनका चेहरा नहीं देखा है।
लोकसभा और विधान सभा के चुनाव लगातार महंगे होते गए। धन और बल वाला आदमी ही दोनों जगह जाने लगा। आम आदमी के लिए लोकसभा और विधानसभा में जाना सपना सरीखा हो गया है। नैतिकता, चरित्र, आदर्शवाद और विचारधारा अब गुजरे जमाने की बातें हो गयी हैं। अबकी बार जिला पंचायत और ग्राम पंचायत जैसे छोटे चुनाव में बहता पैसा इस बात का इशारा कर रहा है कि अब इन छोटे चुनावों में भी उतरने के लिए आम आदमी के लिए कोई गुंजाइश नहीं बची है। धन और बल ही आज के लोकतंत्र का असली चेहरा है।

Tuesday, November 2, 2010

सड़क पर रपट


अगर विकास का रास्ता सड़कों से ही होकर गुजऱता है, तो यह सवाल जेहन में बार-बार कौंधता है कि ऐसा क्यों हुआ कि देश की सबसे विकसित सड़कों के किनारे रहकर भी विकास के आधुनिक पैमाने पर वेस्ट यूपी के इलाके पिछड़े रह गए? दूसरी ओर अमेरीका का उदाहरण है, जहां सही मायने में सड़कों ने विकास की गति को ही बदल कर रख दिया। खासकर अमेरिका के 'रूट-66' ने इतिहास रच दिया। हमारी यात्रा का उद्देश्य भी यही समझना था कि आखिर सड़कों से विकास का कैसा नाता है?

कहा जाता है कि विकास का पहिया सड़कों पर दौड़ता है। जिस देश में अच्छी सड़कों का विस्तार जितना ज्यादा होता है, उसका विकास दर भी उतना ही तेज होता है। इतिहास गवाह है कि जबसे सड़कों का विस्तार हुआ, तभी से सभ्यता, संस्कृति और व्यापार का भी विकास हुआ। पहले किसी देश के भीतर आमतौर पर सभ्यताएं नदियों के किनारे विकसित हुआ करती थीं। यातायात और परिवहन के लिए भी नदियां ही सहारा थीं। लेकिन यातायात के नए साधनों के विकास के बाद सभ्यताएं सड़कों के किनारे भी विकसित होने लगीं।
इन्हीं सड़कों की स्थिति और उसके किनारे विकसित हो रही जिंदगी का जायजा लेने के लिए हम गाजियाबाद के वसुन्धरा प्लाजा स्थित अपने कार्यालय से निकल पड़े। सुबह के नौ बज रहे थे। पीक ऑवर होने की वजह से सड़क पर भारी यातायात था। हम अभी मोहन नगर ही पहुंचे थे कि हमारी बाइक पंचर हो गई। जिस सड़क की दुर्दशा का जायजा लेने हम निकले थे, उसका पहला नमूना हमारे सामने था। हमने बाइक ठीक कराई और सफर में आगे चल दिए।
आपको बताते चलें कि भारत का 3.32 मिलियन किलोमीटर का सड़क नेटवर्क हैं, जो दुनिया में दूसरा सबसे बड़ा है। परिवहन व्यवस्था में सड़कों का प्रमुख स्थान हैं। करीब 65 फीसद माल और 85 फीसद सवारी यातायात के लिए सड़कों का इस्तेमाल करते हंै। सड़क पर यातायात की वृद्धि प्रति वर्ष 7 से 10 फीसद की दर से हो रही है, जबकि पिछले कुछ वर्षों से वाहन संख्या वृद्धि 12 फीसद प्रतिवर्ष है। हमारी सरकार हर दिन 12 किमी. सड़क विस्तार का दावा करती है, पर सच्चाई तो सबके सामने है।
हमारा यात्रा का पहला पड़ाव था मोदीनगर। मोदीनगर, गाजियाबाद जिले की एक तहसील है। मोदीनगर उत्तर-पश्चिम नेशनल हाईवे-58 (दिल्ली-देहरादून) पर मेरठ और गाजियाबाद के ठीक बीच में बसा हुआ है। दिल्ली से तकरीबन इसकी दूरी 50 किमी. है। सड़क के दोनों और रचे-बसे इस शहर की आबादी काफी अच्छी है। इस शहर के संस्थापक और इंडस्ट्रीयलिस्ट रायबहादुर गूजरमल मोदी थे। इसी वजह से मोदीनगर एक इंडस्ट्रीयल एरिया भी है। हमने जैसे ही शहर में प्रवेश किया हमको लग गया कि यह शहर काफी भीड़-भाड़ वाला है। सड़क के दोनों ओर व्यस्त बाजार हैं, और लोगों की भीड़ हर वक्त वहां मौजूद रहती है। आसपास के गांववाले भी खरीदारी करने के लिए शहर की और ही रुख करते हैं। जिस वजह से शहर की भीड़ में काफी इजाफा हो जाता है।
एक बात जो हमको सबसे ज्यादा खटकी वो थी शहर की चरमराई यातायात व्यव्स्था। हर जगह जाम की स्थिति ही हमको दिखाई दी। लोग परेशान थे। सड़क पर दुनिया जहान का ट्रैफिक था। ऐसा कोई वाहन नहीं था जो वहां से गुजर ना रहा हो। ट्रक से लेकर रिक्शा तक वहां सबके दर्शन हुए। लेकिन एक बात जो सबसे ज्यादा खाए जा रही थी कि किसी को यातायात के कानून के बारे में पता ही नहीं था। हर कोई बस अपना वाहन सड़क से किसी भी तरह से निकालने पर आमादा था किसी को नियम-कायदे की जरा भी परवाह नहीं था। मानो ऐसा प्रतीत हो रहा था कब कोई बड़ा हादसा ना हो जाए।
जैसे-तैसे बाजार से निकल कर जब हम मोदीनगर तहसील पहुंचे और वहां पर कुछ अधिकारियों से मिलने की सोची तो पता चला, ना तो तहसीलदार ना ही नायब तहसीलदार और ना ही पुलिस उपाधीक्षक। सब एक साथ नदारद थे, इतना सब कुछ देखा तो रहा नहीं गया तो कार्यलय के एक जूनियर कर्मचारी से पूछ ही बैठे क्यों भाई कहां गए आप लोगों के सब अफसरान तो किसी का कुछ कहना था और किसी का कुछ। लेकिन किसी ने सटीक जवाब नहीं दिया। शहर की यातायात व्यव्स्था तो चरमराई दिखाई दी साथ ही प्रशासन भी ढीला ही जान पड़ा। शहर में टै्रफिक का हाल इस कदर बुरा है और शासन-प्रशासन सोया पड़ा है। नगर की ट्रैफिक समस्या पर अगर काबू पाने के लिए शहर को एक बाईपास की सख्त जरुरत है।
जब सड़कों की बात होती है तो भारत में शेर शाह सूरी को जरूर याद किया जाता है। ग्रैंड ट्रंक रोड (जीटी रोड) का निर्माण एक ऐसा योगदान था, जिसने भारत के इतिहास में एक सुनहरा पन्ना जोड़ दिया। जीटी रोड के निर्माण के लिए उसने इतना पुख्ता भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण करवाया था कि उसके बाद के किसी शासक को जीटी रोड के अलावा कोई विकल्प नहीं दिखा। यह सड़क सदियों बाद भी उपयोग में आ रहा है। हम इसी ऐतिहासिक जीटी रोड पर थे। पर दुख इस बात का था कि यदि शेर शाह सूरी जिंदा होता, तो वह भी अपने द्वारा बनाई गई सड़क की दुर्दशा को देखकर रो देता।

मेरठ गेट- मौत का स्वागत करता द्वार

मोदीनगर से निकल कर हमने सीधा मेरठ की ओर रुख किया। मेरठ शहर में दाखिल होने के लिए अभी हमने फ्लाईओवर चढ़ा ही था कि हमारी नजर एकाएक मेरठ के स्वागत द्वार पर चली गई। लेकिन ये क्या स्वागत द्वार तो स्वागत कम और मौत को ज्यादा न्यौता देने के लिए तैयार था। जब गौर से देखा तो मानो कब यह स्बागत द्वार गिर जाए कुछ नहीं पता और कितना बड़ा हादसा हो इसका भी अंदाजा नहीं लगाया जा सकता। शहर में दाखिल होने से पहले ही शुरूआत में यह सब देख मन परेशान हो गया और शहर की नकारा प्रशासनिक व्यव्स्था पर का पता चला।
खैर, हमने सोचा आगे बढ़ा जाए, हम शहर को थोड़ा और करीब से जानने पहचानने के लिए चल दिए। अभी कुछ ही दूरी पर पहुंचे थे कि एक रेलवे फाटक आ गया। ट्रैफिक का इतना बुरा हाल था की निकलने में पसीने छूट गए। मेरे साथी ने मुझझे बोला जरा रोककर लोगों से बात करते है। हमने वहां के स्थानीय लोगों से बातचीत की और पूछा भाई यह कौन सा फाटक है, जो इतना व्यस्त रहता है। तो पता चला यह मेवला फाटक है। जब लोगों से पूछा गया ट्रैफिक की क्या स्थिति है, तो हर कोई नाराज दिखाई दिया। सबको इस फाटक पर एक फ्लाईओवर की जरूरत थी ताकि रोज लगने वाले लंबे जाम से लोग निजात पा सकें।
इतना सब पूछने पर हमने आगे बढऩे की सोची की तभी एक भले मानस ने कहा अरे सर चाय का आर्डर दे दिया है पीकर जाइएगा। हमने सोचा चलो इतनो के बीच किसी को तो हमारा ख्याल आया। चाय की चुसकियों के बीच हमारी मांगेराम नाम के इस शख्स से थोड़ी गूफ्तगू हो गई। बातों बातों में मांगेराम से हम उसके पेशे के बारे में पूछ बैठे तो इत्तफाकन वो ड्राइवर निकला। हमारे मन में थोड़ी उत्सुकता हुई कि शहर की यातायात व्यव्स्था के बारे में उससे अच्छा कौन बता सकता था। चाय पीने की रफ्तार थोड़ी धीरे कर उससे पूछना शुरु किया। शहर के ट्रैफिक का जो हाल उसने बताया सुनकर बड़ा अफसोस हुआ। मांगेराम ने बताया मेरठ का ट्रंासपोर्ट नगर, मलियाना पुल, रेलवे रोड, हापुड़ अड्डा जाम के केंद्र बिंदु हैं। 15-20 दिन में कोई ना कोई बड़ा हादसा हो ही जाता है। हाईवे पर एक-एक फुट के गडढ़े हैं बरसात में पानी भर जाता है और हादसों को लगातार न्यौता देता है। मांगेराम ने कहा सर ज्यादा पढ़ा-लिखा नहीं हूं लेकिन देश में विकास का पहिया जितना घूमेगा उतना अच्छा होगा। सुनकर काफी अच्छा लगा कि सरकार को होश हो ना हो जनता पूरे होश-ओ-हवास में है। हम मांगेराम को चाय के लिए शुक्रिया कर आगे बढ़ते है।
कुछ ही दूर चलने पर रेलवे रोड चौक के दर्शन होते हैं। लेकिन वहां का नजारा थोड़ा अलग सा था। अब भाई रेलवे रोड है तो व्यस्त भी होगा और प्रशासन की और से इंतजामात भी किए जाएंगे। लेकिन जैसा सोच रहे थे वैसा कुछ भी नहीं था, टै्रफिक का सबसे बुरा हाल वही देखने को मिला। चौक पर ही पवन स्वीटस कार्नर के पास हम जाकर खड़े हो गए। सबकुछ आराम से देखते रहे। मिठाई वाले से पूछा तो पता चला छह-सात पुलिस वालों की ड्यूटी लगती है और कभी भी चौक एक या दो पुलिसवालों से ज्यादा के दर्शन नहीं हुए हैं। और जो एक दो आते हैं वो पेड़ की छांव में खड़े होकर बतियाते रहते हैं। ऐसा प्रतीत हो रहा था, प्रशासन के इस गैरजिम्मेदाराना रवैये से जनता आजिज आ चुकी है.
इन सब के बावजूद थोड़ा सूकुन ढूंढने की कोशिश की तो शहर के कैंट इलाके में बने गांधी पार्क के दर्शन होते हैं। चारों तरफ हरियाली ही हरियाली। यातायात की कुछ व्यव्स्था भी दिखाई पड़ी। गांधी पार्क चौक पर दुश्मन को पस्त कर उससे कब्जाए गए टैंक का भी नजारा देखेने को मिलता है। गांधी पार्क चार अलग-अलग रास्तों के बीच में बना है। पार्क का पश्चिमी द्वार करियप्पा रोड पर जाता है, उत्तरी द्वार सिटी रोड पर जाता है, पूर्वी द्वार मेरठ-रूड़की मार्ग पर, दक्षिणी द्वार माल रोड पर जाकर खुलता है। पार्क मेें प्रवेश किया तो पता चला यहां पर एक कुंआ है जो सन् 1888 में लाल कृष्ण सहाय ने बनवाया था। जो अब तक लोगों की प्यास बुझाने के काम आता है।
सांई धाम
मेरठ से 18 किमी. दूर मेरठ-देहरादून हाईवे पर सड़क के बांयी तरफ विशाल सांई राधा कृष्ण बैकुंठ धाम है। इस मंदिर की स्थापाना श्री पवन पराशर और उनकी पत्नी नीता जी ने करावा है। नीता जी खुद एक प्रशासनिक अधिकारी हैं, लेकिन लोगों की सेवा के लिए उन्होंने इस आश्रम की स्थापना की है। इस आश्रम में पूरे सावन कावडिय़ों को लिए भंडारा चलाया जाता है। आश्रम की देखभाल करने वाले मनोज शास्त्री ने बताया कि, यहां पर देशी-विदेशी यात्री रुककर आराम करते हैं। सभी के लिए मुफ्त में रहने और खाने की व्यवस्था की जाती है।
सड़क ने छीन ली सुहाग
सांई धाम के ठीक बगल में स्थित एक चाय की दुकान को सतवीरी सिंह चलाती हैं। सतवीरी का पूरा परिवार इसी दुकान पर आश्रित है। उनके परिवार में एक लड़का और एक लड़की हैं। दो साल पहले उनके पति ने उनका साथ छोड़ दिया। जिस सड़क किनारे वह दुकान चला कर अपना पेट पालती हैं, उसी ने उनका सुहाग उजाड़ दिया। आज घर में बेटी शादी के लायक हो चुकी है, पर आर्थिक स्थिति ऐसी कि चाह के भी बेटी की डोली विदा नहीं कर सकती।
खतौली
सतवीरी की दुख भरी कहानी सुनकर हमने भारी मन के साथ मुजफ्फरनगर की ओर कूच किया। लेकिन बीच में एक और मुसीबत से हमको रू -ब-रू होना पड़ा। मेरठ और मुजफ्फरनगर के बीच पडऩे वाले खतौली से वास्ता क्या पड़ा कि नानी-दादी याद आ गई। पूरे दिन भारी वाहनों से व्यस्त रहने वाली खतौली सड़क की दुर्दशा देखकर मानो ऐसा लगा जैसे अंधेर नगरी और चौपट राजा वाला माहौल यहां पर हो। सड़क का ऐसा बुरा हाल कभी देखने को नहीं मिला। जाम की तो बात ही मत करिए सड़क थी नहीं, वो तो लगना लाजिमी था। चलते-चलते पूरी तरह से कोफ्त खा चुके थे हम। बस आंखों को तलाश थी, तो सड़क की।
चीतल- गंगा किनारे का सुख
खतौली से करीब दो किमी. आगे है चीतल। खतौली की जानलेवा सड़क पर यात्रा करने के बाद यही वह स्थान है, जहां हम सुकून की सांस ले सके। गंगा नहर किनारे बने इस रिजार्ट में प्रकृति की अनुपम छटा देखने को मिलती है। यहां हरे-हरे पेड़-पौधों के बीच हिरण, सांभर और खरगोश अपनी तरफ बरबस आकृष्ट करते है। यहां महाभारत की पंक्तियां, 'किन्नर, नाग, राक्षस, देवता, गन्धर्व, मनुष्य और ऋषियों के समुदाय-ये सभी वृक्षों का आश्रय लेते हैं।Ó साफ शब्दों में हमें यह संदेश दे रही थी कि पेड़-पौधों का महत्व आदिकाल से है। आज मनुष्य को प्रकृत की गोद में आकर ही सुकून मिलता है, जैसा कि हमें मिल रहा था।
मुजफ्फरनगर
चीतल पर कुछ देर आराम करने के बाद हम लोग फिर मुजफ्फरनगर की ओर चल पड़े। मुजफ्फरनगर सिटी से चार किमी. पहले वहलना चौक पर सडक के दोनों किनारों पर सरियों से लदे ट्रक तो ऐसे खड़े थे कि मानो किसी को मौत का डर ही ना हो। 15-20 फुट चौड़ी उस सड़क से भारी वाहन आ भी रहे थे और जा भी रहे थे। किसी भी वक्त तेजी गुजरता कोई भी वाहन इन खड़े ट्रकों की चपेट में आ सकता है। और शायद जो उसके बाद हो उसका तो भगवान ही मालिक है। रात के वक्त अगर आप इन सड़को पर निकल जाए कहने को हाईवे हैं तो आपको अंधेरे के अलावा कुछ दिखाई नहीं देने वाला। ट्रैफिक की समस्या हो या सड़क की दोनों ही वहां के लोगों की फेहरिस्त में अव्वल हैं। शहर के बीचोंबीच जो जाम लगता है उसे आप देख लें तो आप दंग रह जाएंगे। लोग अपनी मंजिल तक पहुंचने में इस कदर परेशान हो जाते हैं कि गुस्सा उनके सिर चढ़कर बोलता है। फ्लाईओवर तो तैयार हैं लेकिन दोनों किनारों को बिना बनाए छोड़ दिया गया है क्योंकि वो हिस्सा नगरपालिका के कार्यक्षेत्र में आता है। लोग त्रस्त हैं कुछ ऐसे ही समस्याओं से और प्रशासन सिर्फ मूकदर्शक है।
मुजफ्फरनगर से गाजियाबाद वाया शामली और बागपत
सुबह हमारे टीम लीडर सचिन जी ने हमें शामली, बागपत होते हुए गाजियाबाद आने को कहा। हम मुजफ्फरनगर से शामली के लिए चल दिए। इस यात्रा में हमें भारतीय सड़कों की दुर्दशा की बानगी दिखनी शुरू हो गई। अब हमें समझ में आने लगा था कि सचिन जी ने हमें इस रास्ते से ही आने के लिए क्यों कहा। हम जिस दुरव्यवस्था का जायजा लेने के लिए निकले थे, उसको हम अनुभव कर रहे थे। हमने बघरा गांव में रुक कर लोगों की नब्ज टटोलनी शुरू की। यहां तो लोग जैसे फूट ही पड़े। सभी लोग नेताओं और अधिकारियों से नाराज थे। लोगों का कहना था कि यह सड़क पांच साल पहले बनी थी। तबसे कोई भी इन सड़कों का हाल जानने नहीं आया। हां, चुनावों के समय नेता इसी समस्या पर लोगों से वोट जरूर मांग लेते हैं। फिर मुड़ कर कोई नहीं देखता है। यह सड़क दो शहरों को ही नहीं दो राज्यों (यूपी और हरियाण) को जोड़ती है। फिर भी इसकी यह हालत। बघरा के पवन ने बताया कि सड़क पर आए दिन दुर्घटना होती रहती है। अभी कुछ ही दिन ही बीता है कि एक बाइक सवार इस गड्ढे में गिर गया था। उसकी हेलमेट फट गई और शरीर पर चोट आई। ऐसी घटनाएं यहां सामान्य हैं। यहां के अनवर जमाल ने बताया कि, पहली कोई सड़कों का हाल जानने के लिए आया है। उनका मानना है कि भारत में सभी भ्रष्ट हैं। भ्रष्टाचार के बीच कभी विकास नहीं हो सकता।
ऐसी यात्रा जो भुलाए नहीं भुलती
शामली से गाजियाबाद 102 किमी. है। हम 10.45 बजे गाजियाबाद के लिए चल दिए। जैसे ही शहर से बाहर निकले सड़क गायब हो चुकी थी। केवल और केवल गड्ढे नजर आ रहे थे। सड़क पर धूल ऐसे उड़ रही थी, जैसे दिसंबर के महीने में कोहरा। सब कुछ धुधंला। बाइक के ठीक आगे भी कुछ भी नजर नहीं आ रहा था। मेरे साथी, जो बाइक ड्राइव कर रहे थे, उनका बुरा हाल था। बाइक जब गड्ढे में जाकर बाहर निकल रही थी, तब मुंह से आहें निकल रही थीं। हम जैसे-तैसे 3 बजे अपने कार्यालय पहुंचे। हमारे शरीर की हड्डियों में दर्द दो रहा था। शरीर की सारी उर्जा समाप्त हो चुकी थी। हमने संपादक जी को रिपोर्ट किया। और फिर घर के लिए चल दिए।
सड़क बनाम विकास
विश्व बैंक के एक अध्ययन मुताबिक देश के जिन देहाती इलाकों का सम्पर्क पक्की सड़कों से है, उन इलाकों के घरों में सन् 2000 से लेकर 2009 के बीच आमदनी में 50 से 1000 फीसद तक की बढ़ोतरी हुई। केवल आय में ही नहीं, बल्कि साक्षरता दर में भी 10 फीसद की बढ़ोतरी हुई। साथ ही उन गांवों में लड़कियों को शिक्षा मिलना आसान हुआ। इसके साथ उन क्षेत्रों की जमीन की कीमतों में भी 60 से 80 फीसद तक की बढ़ोतरी हुई।
विश्व बैंक के मुताबिक ग्रामीण क्षेत्रों में सड़क के निर्माण में जब 10 लाख रुपये का निवेश किया जाता है तो उससे 163 लोग गरीबी के दल-दल से बाहर निकल जाते हैं। लेकिन इन सच्चाइयों के बावजूद हमारे देश में अब भी औसतन करीब 30 फीसद निवास स्थान पक्की सड़कों से जुड़े ही नहीं हैं। इस मामले में भी हमारे देश के भीतर काफी असमानता है। इसका अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि मध्य प्रदेश, वेस्ट बंगाल, अरुणाचल प्रदेश, असम और बिहार ऐसे राज्य हैं जहां अब भी 55 फीसद से अधिक निवास स्थान ऐसे हैं, जो पक्की सड़कों से नहीं जुड़े हुए हैं। उड़ीसा, उत्तराखण्ड, मेघालय औैर छत्तीसगढ़ ऐसे राज्य हैं जहां के 45 फीसद , झारखण्ड, मणिपुर और हिमाचल प्रदेश के 44 फीसद, जम्मू-कश्मीर के 37.9 फीसद, मिजोरम के 34.1, उत्तर प्रदेश के 32.9, सिक्किम के 28.7 त्रिपुरा के 26.5 और राजस्थान के 21.8 फीसद निवास स्थान पक्की सड़कों से अब तक नहीं जुड़ सके हैं।

 
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