Pillar of True Journalism to save Public Domain

Saturday, December 24, 2011

बज गई रणभेरी, चढ़ गई त्योरियां


बज गई चुनावी रणभेरी
चढ़ गईं उनकी त्योरियां...


नाचने लगी उनकी आंखें
बजने लगे उनके गाल...


बढ़ गई गरीबों की पूछ
आम आदमी हुआ खास...


बहुर गए इनके दिन
झोपड़ी में दिखे राजकुमार...


खड़ंजें पर चली सैंडिल
पगडंडियों पर दौड़ी साइकिल...


कीचड़ में खिला कमल
हाथ का मिला साथ


पर अफसोस...


फिर छा जाएगी मायूसी
फिर सूनी हो जाएगी झोपड़ी


फिर उखड़ जाएंगे खड़ंजें
छूट जाएगा हाथ का साथ


फिर आम आदमी रह जाएगा 'आम'
खास यूं ही बना रहेगा खास


(जैसा कि अभी तक का अनुभव रहा है)

Friday, December 16, 2011

औकात


रमेश शापिंग कर रहा था। अचानक उसकी नजर एक महिला से टकराई। दोनों ठिठक गए। वह मोना थी। रमेश को देखते ही वह बोली, 'ओह माई गॉड, रमेश तुम? कैसे हो? इट्स सरप्राइज फॉर मी। इनसे मिलो, ये मेरे हसबैंड सोहन हैं। बहुत बड़ी कंपनी में काम करते हैं।' मोना बोलती जा रही थी, रमेश उसकी बातें गौर से सुन रहा था। इस बीच हैरान सोहन पत्नी की बात बीच में ही काटते हुए बोल पड़ा।

सोहन बोला, 'सर...आप...यहां? कोई जरूरत थी तो बता दिया होता, किसी को भी भेज कर सामान मंगवा देता। अब आपको इतनी जहमत उठाने की क्या आवश्यकता थी।' अपनी पत्नी की तरफ तुरंत मुड़ते ही सोहन उत्साहित होकर बोला, 'मोना, ये मेरे बॉस हैं। पांच हजार करोड़ सालाना टर्नओवर वाली कंपनी के मालिक होते हुए भी सर बहुत सरल, सभ्य और सुशील हैं। इनके पास सबकुछ है। खुशियां कदम चूम रही हैं। पर पता नहीं क्यूं अभी तक शादी नहीं की।' रमेश बुत बना सब सुन रहा था। मोना की आंखें चौड़ी हो गईं। उसकी जबान हलक में अटक गई। आंखें खुलीं थी पर सामने दृश्य 10 साल पुराना था।

उस दिन कॉलेज का पहला दिन था। वह क्लास में अकेली बैठी थी। इतने में एक सीधा-साधा शर्मीला लड़का क्लास में आकर आगे की सीट पर बैठ गया। मोना ने तुरंत पूछा कि, 'इसी कोर्स में दाखिला लिया है तुमने? कहां से आए हो?' अचानक हुए सवालों के बौछार से रमेश सकपका गया। लड़की से इस तरह बातें करनी की उसे शायद आदत नहीं थी। फिर भी हिम्मत जुटाकर आंखे नीचे किए बोला, 'हां मैनें इसी कोर्स में दाखिला लिय़ा है। कानपुर से आया हूं। आप कहां से आई हैं?' मोना तपाक से बोली, 'यहीं फरीदाबाद से हूं। रहने वाली तो साउथ इंडिया की हूं, लेकिन यहां पापा जॉब करते हैं न इसलिए।'

इसी बीच दूसरे लड़के-लड़कियां भी आ गए। सबका इंट्रोडक्शन हुआ। उसके बाद हर कोई अपने पसंद के लड़के-लड़की के साथ बातें करने लगा। रमेश अकेला था। उससे कई लोगों ने बात करने की कोशिश लेकिन पता नहीं क्यूं वह खोया-खोया सा रहा।

इधर बुत बने रमेश की आंखों में भी वो दृश्य तैरने लगे। उसे याद आ रहा था कि छोटे शहर से निकल कर तब वह नया-नया दिल्ली आया था। उसका हाल कुछ उस मछली की तरह था, जिसे तलाब से निकालकर समंदर में डाल दिया गया हो। आंखों में एक बड़े सपने को संजोए। मां-बाप के नाम को और ऊंचा करने की शपथ लिए उसने दिल्ली विश्वविद्यालय में दाखिला लिया। कॉलेज का पहला दिन था। कैम्पस में सीनियर्स की रैगिंग से बचते-बचाते किसी तरह से क्लास में पहुंचा। उस समय तक केवल एक लड़की क्लास में मौजूद थी। मोना...उस लड़की से पहली मुलाकात से उसका दिल धड़क गया था।

मोना से बातचीत में पहला दिन तो जैसे पल में ही बीत गया। फिर तो सुबह उससे फिर मुलाकात हो। कुछ बात हो। बात ही बात में कोई बात बन जाए। ऐसे ख्याली पुलाव बनना तो रोज की बात हो गई। लेक्चर के समय मौका निकाल कर मोना को निहरता रहता था। छुट्टी का दिन तो जैसे काल बन गया था। बस एक ही काम, जब तक वो कॉलेज में है कभी पास तो कभी दूर से निहारना, बस निहारना।

पर कहते हैं न कि इश्क और मुश्क छुपाए नहीं छुपता। खासकर दोस्तों के बीच। हो गई मीठी नोक-झोंक शुरू। कभी कोई छेड़ता तो कभी कोई कहता, 'ओए होए क्या बात है। जनाब, मोना को बता दूं क्या? छुप कर उसे बहुत निहारते रहते हो।'

रमेश की तो जैसे जान ही निकल जाती। कभी-कभी मोना से हाय-हैलो कर लेता। जिस दिन नजरें टकरा जातीं और बात हो जाती तो माशाअल्लाह रात आंखों ही आंखों में ही कट जाती। सपनों के पंखों पर सवार होकर ख्वाब उड़ान भरने लगते। कभी-कभार बात करने वाला रमेश अब सेंटिमेंटल मैसेज भेजने लगा। मोना को भी दोस्तों की बातों पर यकीन होने लगा। फिर क्या? प्रेम की पंखुडियां पनपें नहीं इसलिए कन्नी काटने लगी। मोना के इस बदले बर्ताव से दुख हुआ। आहत रमेश का दिल उसके कन्नी काटने से और बेचैन हो गया। दोस्त भी रमेश को बार-बार जोर दे रहे थे। जो दिल में है वो बोल डाल।

दरअसल छोटे शहर के लड़कों के साथ यही समस्या होती है। बचपन मां-बाप के दबाव के कारण पढ़ने और रटने में गुजर जाता है। लड़के-लड़कियां बिगड़ें नहीं इसलिए अलग-अलग स्कूल कॉलेज होते हैं। जैसे रामाबाई कन्या विद्यालय यानी यहां सिर्फ लड़कियां पढ़ेंगी, महात्मा गांधी इंटर कॉलेज यानी यहां सिर्फ लड़के पढ़ेंगे। ऐसे माहौल से जब कोई लड़का पहली पहल दिल्ली जैसी जगह पर आ जाए, और उपर से बाबूजी की छत्रछाया ना हो तो ऐसा होना स्वभाविक ही है।

खैर, अगले दिन कॉलेज का फेस्ट था। मौका भी था, दस्तूर भी। सो, उस दिन प्रपोज करने की योजना बन ही गई। फेस्ट में सबने खूब एंजॉय किया। इस दौरान रमेश ने कई बार प्रपोज करने की हिम्मत जुटाई। पर असफल रहा। आखिरकार जब वह घर जाने के लिए चली तो उसके पीछे हो लिया। रास्ते में सही जगह देख कर उसने उसे आवाज दी। रमेश को पीछे आता देख वह आवाक रह गई।

कांपती हुई आवाज में रमेश बोला, 'हॉय कैसी हैं। वो मैं आपसे दोस्ती करना चाहता था।' वह बोली, 'ओके, हम दोस्त तो पहले से ही हैं।' रमेश बोला कि, 'अरे नहीं...वो अलग वाली दोस्ती करना चाहता हूं।' पहले से ही माजरा समझ रही मोना गुस्से से बोली, 'व्ह्वाट? क्या बात करते हो? देखो, तुमसे हंस कर कभी कभार बात कर लेती हूं, तो इसका मतलब यह नहीं कि तुम मेरे काबिल हो। तुम्हारे महीने भर का पॉकेट खर्च, मैं रोज अपने दोस्तों पर लूटा देती हूं। ऐसी फिजूल की बातें कभी सोचना भी मत। अपनी औकात तो देखी होती।'

इतना कहकर वह तेज कदमों से चली गई। उसका यह जवाब सुन कर रमेश को गहरा धक्का लगा। आंखों के सामने अंधेरा छा गया। सिर पर हाथ रखे वह सड़क किनारे ही बैठ गया। पता नहीं कितना समय गुजर गया। बाद में खोया-खोया सा रमेश हॉस्टल वापस आया। रात भर सोचता रहा। फिर उसने तय किया अब सिर्फ अमीर बनना है।

उतना अमीर जितना प्यार को पाने के लिए जरूरी है। उतनी दौलत कमाना है जितनी मोना के सपनों को पूरी कर सके। इतना पैसा जुटाना है जितनी से उसकी औकात मोना की खुशियों को संजोने के लिए काफी हो सके। उसी जद्दोजहद में गुजर गए कई बरस। सपना तो पूरा हुआ लेकिन मोना खो गई। आज मिली भी तो किन हालात में।

सीयू, बॉय सर, सोहन कह रहा था। बॉय, रमेश की तंद्रा टूटी। नजर सामने गई तो देखा कि मोना अवाक सी रमेश को देखते हुए सोहन के साथ पॉर्किंग की तरफ बढ़ रही थी। औकात...औकात.....मोना शर्म से सिर भी नहीं उठा पा रही थी।

उस भीड़ में चमकते चेहरे दिखाई दे रहे थे। चहकते जोड़े बाजू से गुजर रहे थे। किसी को खबर भी नहीं हुई और चमचमाती लाइटों के बीच एक सपना दरक गया। रमेश की आंखों से दर्द बह रहा था। पाने और पाकर खोने का दर्द। सच्ची मोहब्बत शायद बलिदान की मोहताज होती है....हमेशा से।

Sunday, November 27, 2011

ऐसे ही बचते रहे 'युवराज' तो बची हुई सीटें ही आएंगी 'हाथ'!

गरीबों के मसीहा। मजलूमों के मददगार। आम के साथ इनका 'हाथ'। भ्रष्टाचार और अत्याचार देख तमतमाया हुआ एंग्री यंगमैन। कुछ इसी अंदाज में कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी जब पूर्वांचल की यात्रा पर निकले तो लगा कि कांग्रेस की काया पलट हो जाएगी। आम आदमी की सहानुभूति मिलेगी। पर यह क्या आम आदमी की बात करने वाले राहुल ने अपनी पूरी यात्रा के दौरान एक बार भी उनकी बात नहीं की। उनसे जुड़े मुद्दों की बात नहीं की। उनसे बात नहीं की। 

राहुल ने बात की तो राजनीतिक प्रतिद्वंदियों की। सपा, बसपा और भाजपा की। उनकी कमियों की। एक बार भी आम आदमी के दुखों की बात नहीं की, बल्कि उनकी दुखती रग पर प्रहार किया। राहुल ने जब भी गरीबों का गाल सहला कर उनका भरोसा जीतने की कोशिश की, तब मंहगाई और मुश्किलों का तमाचा पड़ा। गरीबों की तरफदारी करने वाला मंहगाई पर मौन रहा।

ऐसे ही देंगे जवाब?

राहुल जब यात्रा पर निकलने वाले थे तो पूरा यूपी 'जवाब हम देंगे' की होर्डिंग से पटा पड़ा था। राहुल ने लोगों को भरोसा दिलाया था कि आपकी परेशानियों पर जवाब हम देंगे। यहां तो लोगों को जवाब देना तो दूर अपने कार्यकर्ताओं तक को जवाब नहीं दिया गया। राहुल ने कहा कि आजादी की लड़ाई में अंग्रेजों की रीढ़ तोड़ देने वाला यूपी अब दूसरे राज्यों की ओर देख रहा है। परप्रांत में जाकर विकास में अपनी मेहनत मजदूरी से योगदान दे रहा है। बदले में उन्हें कुछ नहीं मिलता। पर खुद ही राहुल और उनके दिग्गज साथी महंगाई जैसे मुद्दे पर चुप्पी साधे हुए थे। जब खुद के कार्यकर्ताओं ने मंहगाई का मुद्दा उठाया तो खामोशी की चादर ओढ़ ली। सिद्धार्थनगर में गांव के लोगों ने रोका तो राहुल मुस्कराते हुए गाड़ी से उतरे। वहीं एक कांग्रेस कार्यकर्ता ने कहा कि ‘महंगाई को लेकर बहुत किरकिरी हो रही है, कुछ कीजिए। वर्ना जनता जीने नहीं देगी।’ इस मुस्कराते हुए राहुल मौन रहे। कोइ प्रतिक्रिया नही दी। 

बांसी रैली के भीड़ से आवाज आई ‘सांसदों के लिए संसद में एक रुपए की चाय, डेढ़ रुपए में दाल, एक रुपए में रोटी मिलती है। जबकि हम लोगों को इतने पैसे में सिर्फ रोटी मिलती है। ऐसी महंगाई क्यों।’ राहुल ने अनसुना कर दिया। सभा स्थल पर एक वरिष्ठ कांग्रेसी ने माला से स्वागत करने के साथ उन्हे एक पत्र थमाया। इस पत्र में महंगाई के मुद्दे पर बोलने का आग्राह था। यहां भी राहुल ने इस मुद्दे को नजर अंदाज कर दिया। दरअसल, महंगाई और उसके बाद एफडीआई संबंधित केन्द्र सरकार के फैसले ने राहुल गांधी के यूपी दौरे के दौरान बन रहे माहौल को बिगाड़ दिया। राहुल गांधी गरीबों के सबसे बड़े पैरोकार बन कर उभर रहे थे। केन्द्र के निर्णय ने विपक्ष को केन्द्र सरकार और कांग्रेस को घेरने का मंहगाई के साथ नया मुद्दा दे दिया। 

रहे थे ललकार, निकल गई खुद की हवा

इधर राहुल गांधी विपक्ष को ललकार रहे थे तो उधर विपक्ष इनकी यात्रा की हवा निकालने में जुटा हुआ था। राहुल की चुटकी लेते हुए भाजपा नेता उमा भारती ने कहा कि राहुल गांधी को बहुत गुस्सा आता है तो अब मुझे भी गुस्सा आ रहा है। गुस्सा इतना कि वालमॉर्ट का एक भी स्टोर खुला तो आग लगा दूंगी।

मायावती ने कहा कि वह विदेशी कंपनियां यूपी में नहीं खुलने देंगी। राहुल के विदेशी दोस्तों को फायदा पहुंचाने के लिए केंद्र सरकार ने रीटेल कारोबार में एफडीआई की अनुमति दी है। इससे छोटे व्यापारियों और किसानों को तो नुकसान होगा। महंगाई और बेरोजगारी बढ़ेगी।

पूर्वांचल के दौरे पर थे पर ज्वलंत समस्याओं पर चुप्पी साधे रहे। गोरखपुर जिले में स्थित बन्द पडा खाद कारखाना, दिमागी बुखार की भयावहता, बन्द सुगर मिल, गन्ना किसानों की बदहाली आदि मुद्दों का जिक्र तक नहीं किया। दिमागी बुखार से प्रतिदिन मौतें हो रही है इससे विकलांग हुए लोगों की अलग समस्या है। बाबा राघवदास मेडिकल कालेज संसाधनों की मार झेल रहा है, राष्ट्रीय राजमार्ग की बुरी हालत है। प्रदेश का विभाजन हो रहा है। पर इन तमाम मुद्दों पर राहुल की खामोशी ने पूर्वांचल के लोगों को मायूस किया है। यही कारण था जनता के आक्रोश का सामना करना पड़ा।


ऐसे ही बचते रहे, तो बची हुई सीटें आएंगी 'हाथ'


राजनीति में एक-दूसरे पर छींटाकशी आम बात है, लेकिन सिद्धांतों को तिलांजली दे देना यह साबित करता है कि इस हमाम में सब नंगे हैं। हर राजनेता और राजनीतिक पार्टी कोरी राजनीति करते हैं। किसी को न तो आम आदमी की फिक्र है ना किसी को विकास, महंगाई और बेरोजगारी जैसी भयंकर समस्याओं से मतलब। एक एक करके हर किसी के चेहरे से मुखौटा उतर जाता है। वही हाल राहुल का है। 

राहुल गांधी कांग्रेस पार्टी का चेहरा बनकर विधान सभा के मैदान में उतरे हैं। राज्य में सरकार बनाने पार्टी ख्वाब देख रही है। पर जिनके कंधों पर कांग्रेस के उद्धार का भार है, वही नाजुक मुद्दे पर बोलने से इस कदर बचता रहा है। यदि राहुल ऐसे ही बचते रहे, तो इनके हिस्से बची बचाईं सीटें ही हाथ आने वाली हैं। अपने राजनीतिक सलाहकारों की वजह से वह एक बार बिहार चुनाव खो चुके हैं। अब यूपी की बारी है। उसके बाद केंद्र भी हाथ से निकलता दिख रहा है। राहुल का तो कुछ नहीं होगा, लेकिन दिग्गी राजा की गर्दन कटनी तय है। 

Friday, November 25, 2011

थप्पड़...ना 'ये' भगत सिंह की 'क्रांति' है, ना 'वो' बापू की 'गांधीगीरी'!


‘वह भ्रष्ट है। मैं यहां मंत्री को थप्पड़ मारने ही आया था। वे सभी भ्रष्ट हैं। मैंने ही रोहिणी कोर्ट में सुखराम को भी मारा था। मैं सिख हूं, चप्पल नहीं मारूंगा। सिर्फ भाषण देते हो। भगत सिंह को भूल गए जिसने कुर्बानी दी। मारो-मारो मुझे खूब मारो।....पागल हूं मैं.....। इनके पास घोटाले के अलावा कुछ नहीं है। मैं गलत नहीं हूं।’


यह कहते हुए ट्रांसपोर्ट व्यवसायी हरविंदर सिंह ने एनडीएमसी सेंटर में आयोजित समारोह में भाग लेने के बाद लौट रहे 71 वर्षीय शरद पवार पर हमला बोल दिया। अचानक हुए वार से वे बच नहीं सके। संतुलन भी खो बैठे। जैसे-तैसे संभले और रवाना हो गए।


इस थप्पड़ से पूरा देश गूंज उठा। हर तरफ इसकी चर्चा होने लगी। जहां नेताओं इसकी जमकर भर्त्सना की, वहीं कुछ लोगों ने हरविंदर की सराहना की। एक संगठन ने तो 11 हजार का इनाम तक घोषित कर दिया।


पवार पर हुए हमले की जानकारी जब अन्ना हजारे को मिली तो उनके मुंह से निकला-‘उन्हें थप्पड़ पड़ा! सिर्फ एक?’ लेकिन इसके थोड़ी देर बाद वे बयान से पलट गए। उन्होंने संयत शब्दों का इस्तेमाल किया। वे बोले, ‘वह बहुत गुस्से में होगा। यह ठीक नहीं है। अन्ना ने बयान को बदल कर स्थिति संभाल ली। उनके पहले बयान से साफ झलक रहा था कि वो यही कह रहे थे कि एक ही थप्पड़ क्यों मारा। इससे पहले भी अन्ना ने कहा था कि शराबियों को बांध कर मारो। क्या ये गांधीगिरी है या आधुनिक अन्नागिरी।


अब सवाल यह उठता है कि क्या ऐसे लोग जरूरत से ज्यादा प्रचार पाने में सफल रहते हैं। इनके मन में कानून का कोई डर नहीं है? यदि जरा भी डर होता तो हरविंदर सिंह थप्पड़ ना मारता। और शरद पवार के समर्थक दंगा नहीं करते। लोग यह कह रहे हैं कि ये घटना भ्रष्टाचार और महंगाई के खिलाफ आम जनता के गुस्से का नतीजा है। ऐसा कहकर गलत दिशा में जा रहे हैं। इसे सनक और सुरक्षा में कमी मानना चाहिए। पर हां, आम आदमी के मन में भ्रष्टाचार और महंगाई प्रति रोष को भी नकारा नहीं जा सकता।


आम आदमी बढ़ती महंगाई और भ्रष्टाचार पर अंकुश न लग पाने से परेशान है। उसमें भी विरोध जताने का ये कैसा तरीका कि आप किसी पर जूते-चप्पल फेंके, उसे थप्पड़ मारे। अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति जार्ज डब्ल्यू बुश पर चले नफरत के जूते का जो सिलसिला शुरू हुआ था, वह आज केंद्रीय मंत्री शरद पवार पर गुस्से के थप्पड़ पर आ गया।


भारत के अलावा दुनिया के कई देशों में कभी नेताओं को जूता तो कभी थप्पड़ जड़ा गया है। एक इराकी पत्रकार मुंतजर अल जैदी ने तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश पर 2008 में जूता फेंका था। इसके अलावा, गृहमंत्री पी चिदंबरम, पाकिस्तान के राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी और चीनी राष्ट्रपति वेन जियाबाओ पर भी जूते फेंके जा चुके हैं।


मानता हूं कि हमारी सरकार बहरी है। उसे कम सुनाई देता है। इसका मतलब ये नहीं कि उसके कानों तले बम विस्फोट किया जाय। हिंसा किया जाय। जरा याद करें बापू को उन्होंने कब हिंसा की। पर सैकड़ों सालों से राज कर रहे अंग्रेजों को नाकों चने चबवा दिया। उन्हें देश छोड़ने पर मजबूर कर दिया।


भगत सिंह बनने वालों, क्या उनके विचारों को पढ़ा है। जिसने पढ़ा भी है तो उसे अपने अनुसार समझा है। यदि हम इस तरह की घटनाओं का सपोर्ट करेंगे तो वह दिन दूर नहीं जब हमारी युवा पीढ़ी हिंसक हो जाएगी। और ऐसे समय में यदि गलती से भी उनका रास्ता भटक गया, तो समूची सृष्टी पर संकट आ जाएगा।

Monday, November 21, 2011

हम जाहिल हैं, आरोप अच्छा है: आशुतोष

मीडिया लोकतंत्र का चौथा खंभा है। वह अपनी भूमिका ठीक से निभाएगा तभी सरकारों और नेताओं को तकलीफ होगी। नेताओं को तकलीफ होगी तो लोकतंत्र जिंदा रहेगा। वरना नेता तो चाहते हैं कि लोकतंत्र सोता रहे। 


नया-नया जर्नलिज्म में आया था। अयोध्या का आंदोलन उफान पर था। बनारस में दंगे हुए थे। मुझे कवर करने के लिए भेजा गया था। वहां कुछ वरिष्ठ पत्रकारों से बातचीत हो रही थी। वे कह रहे थे कि पत्रकारिता की नई गंगा अब बनारस से निकलेगी। दंगों के दौरान की रिपोर्टिंग देख मैं पहले से ही सदमे में था। सब के सब उग्र हिंदूवादी रंग मे रंगे थे। 

रिपोर्ट के नाम पर अफवाहें खबर बन रही थीं। दिल्ली से जाने के बाद उन खबरों की पुष्टि मैंने कई बार करने की कोशिश की। हर बार प्रशासन ने कहा, तथ्यहीन। नामी-गिरामी अखबारों की खबर एक खास समुदाय को टारगेट करके, उनको विलेन बताने के मकसद से लिखी जाती थी। लौटकर मैंने एक छोटा-सा बॉक्स बनाया था, जिस पर एक अखबार के मालिक इतने नाराज हो उठे कि मेरी शिकायत संपादक से कर दी। संपादक जी की कृपा से मैं बच गया। 

अयोध्या विवाद खत्म होते-होते मैं टीवी में आ गया। पहले सिर्फ दूरदर्शन था, सरकार का प्रेस रिलीज विभाग। निजी प्रोड्यूसरों ने खबरों को नया तेवर दिया। देखते-देखते दूरदर्शन के ये बुलेटिन फिनामिना बन गए। बुलेटिन से निकल कर टीवी चैनल में तब्दील हो गया। 2004 तक सब ठीक-ठाक चला। अचानक नंबर एक बनने की दौड़ शुरू हो गई और नई तरह की खबरों को परोसने का सिलसिला भी। सबसे पहले एमएमएस का बाजार गरम हुआ था। 

हर चैनल पर एमएमएस की खबरें ही दिखने लगीं। अपराध जगत की खबरों को सनसनीखेज तरीके से पेश करने का अंदाज भी इस दौर में ईजाद किया गया। नाट्य रूपांतरण होने लगे। मुझे याद है इस बीच एक वीडियो क्लिप करीना और शाहिद कपूर का कहीं सेलफोन वाले के हाथ लग गया था। ‘लिप टू लिप किस’ एक चैनल पर चला तो दूसरे भी कहां पीछे रहते। न तस्वीर को धुंधला किया गया और न पहचान छिपाने की कोशिश। न्यूजरूम में पहली बार विरोध के स्वर संपादकों को सुनने पड़े। असल रिपोर्टर दंग थे। नकल रिपोर्टर मस्त। 

किसी चैनल पर चला कि फलां आदमी शाम चार बजे मरने वाला है। ओबी वैन दौडऩे लगीं। बेशर्म होकर पत्रकारों ने दिन भर उस शख्स पर लाइव किया। किसी ने एक और खबर निकाल ली। एक शख्स यमराज से मिल कर आया था। उसका लाइव भी खूब हुआ। इस बीच पुनर्जन्म की भी लॉटरी निकल आई। स्टूडियो में ऐसे गेस्ट लाने के लिए चैनलों के बीच मारपीट होने लगी। मंदिर का रहस्य सफलता की गांरटी हो गया। 

नंबर वन की रेस और तेज हुई तो सांप-बिच्छू और भूत-प्रेत ने सोनिया गांधी, मनमोहन सिंह, आडवाणी की जगह ले ली। एलियन भी टीवी पर छाने लगे। नंबर वन की इस रेस में जब कुछ चैनल कामयाब हुए तो बाकी चैनलों ने भी यही आसान रास्ता पकड़ लिया। अब न्यूजरूम में हर शख्स खबरों की जगह टीआरपी की जुगाड़ में लग गया। एडिट मीटिंग्स में खबरों की जगह आधे घंटे के प्रोग्राम की बात होने लगी। रिपोर्टर की जगह स्ट्रिंगरों ने ले ली। चैनल अब एडिटर के हाथ से निकल कर असिस्टेंट प्रोड्यूसर के हाथ में चला गया। 

शायद ही कोई चैनल हो, जिसने ये रास्ता न पकड़ा हो या किसी न किसी रूप में इस रास्ते पर चलने की कोशिश न की हो। कुछ कामयाब थे और कुछ नाकामयाब। कोशिश सभी ने की थी। इन दिनों मंै अक्सर बनारस के उन दिनों को याद कर लिया करता था। खबरों की बलि तब भी चढ़ी थी। उस वक्त भी खबरों की जगह कहानी-किस्सों ने ली थी और इस दौर में भी। तब विचारधारा की आड़ में, इस दौर में टीआरपी की आड़ में बिसात बिछाई गई। 

ऐसा नहीं था कि उस दौर में अच्छे अखबार और अच्छे पत्रकार नहीं थे। इस दौर में भी अच्छे चैनल और अच्छे पत्रकार थे। इस दौर में भी टीवी ने कुछ बहुत अच्छे काम किए थे। दहेज हत्या, स्त्री उत्पीडऩ, भ्रूण हत्या के खिलाफ जबरदस्त कैंपेन, सांप्रदायिकता का तगड़ा विरोध। दंगों को सनसनीखेज बनाने की कोशिश नहीं हुई। टीवी ने आम आदमी को बात कहने का एक मजबूत प्लेटफार्म दिया। घूस और भ्रष्टाचार के खिलाफ बड़े-बड़े स्टिंग ऑपरेशन किए गए। पहली बार मैंने कैमरे को देख कर पुलिस और नौकरशाहों को कांपते देखा। 

देश के एक कोने के त्योहार को देश के दूसरे कोने तक पहुंचाने का काम भी टीवी ने किया। गुजरात का गरबा बिहार पहुंच गया और बिहार का छठ महाराष्ट्र। दही-हांड़ी की तस्वीरें पूरे देश को रोमांचित करने लगीं। टीवी ने करवाचौथ को फैशनेबल बना दिया। नए तरह के सांस्कृतिक धागे में पूरे देश को बांधने का काम टीवी ने किया। लेकिन एलियन और सांप ने ऐसा बदनाम किया कि टीवी वालों के लिए मुंह छिपाना मुश्किल हो गया। 

हैरत की बात यह है कि जब तक टीवी राखी सावंत और राजू श्रीवास्तव में व्यस्त था, सरकार की नींद नहीं टूटी लेकिन जैसे ही टीवी ने मुंबई हमलों पर सरकार की धज्जियां उड़ानी शुरू कीं, सरकार को लगा टीवी हदें पार कर रहा है। रेगुलेशन की बहस गति पकडऩे लगी। 

सरकार जानती है अखबार और प्रेस की ताकत। उसे ऐसा मीडिया अच्छा लगता है जो उसकी तरफ ध्यान न दे। वह टीआरपी के खेल में उलझा रहेगा तो सरकार की कमजोरियों को नहीं उघाड़ेगा। उसके घोटाले नहीं दिखाएगा। लेकिन, मुंबई हमले ने टीवी के दिमाग को बदला। मैं नहीं कहता कि सारे टीवी वाले बदल गए लेकिन कुछ लोग सोचने के लिए मजबूर हुए।

 इंडस्ट्री के अंदरूनी दबाव ने भी धीरे-धीरे असर दिखाना शुरू किया। टीवी 2009 आने तक पटरी पर आता दिखा। अब सरकार के कान खड़े होने लगे। टीवी एक के बाद एक घोटालों को उजागर करने लगा। आईपीएल, कॉमनवेल्थ, आदर्श, २जी स्पेक्ट्रम घोटाले सामने आने लगे। टीवी ने बढ़-चढ़ के दिखाना शुरू किया। सरकार परेशान होने लगी। उसके खिलाफ माहौल बनने लगा। घाव में मिर्च लगी, जब अन्ना अनशन पर बैठे। टीवी ने उन्हें रातोरात उठा लिया। 

अब टीवी पर लोकतंत्र विरोध के आरोप लगने लगे। रेगुलेशन की आवाज बुलंद होने लगी। कुछ ऐसे लोगों को छोड़ा जाने लगा, जो टीवी को जनहित विरोधी बताने लगे, सांप्रदायिकता बढ़ाने का दोष देने लगे। पत्रकार रिपोर्टर अपढ़ हो गए। जाहिल। लेकिन ये आरोप उन आरोपों से बेहतर हैं।

 उन आरोपों को सुनकर शर्म आती थी और आज गर्व से सीना चौड़ा होता है। मीडिया लोकतंत्र का चौथा खंभा है। वह अपनी भूमिका ठीक से निभाएगा तभी सरकारों और नेताओं को तकलीफ होगी। नेताओं को तकलीफ होगी तो लोकतंत्र जिंदा रहेगा। वरना नेता तो चाहते हैं कि लोकतंत्र सोता रहे।


साभार: दैनिक भास्कर

Friday, November 18, 2011

आपको पता है कि क्या होती है नौटंकी?

'नौटंकी मत करो' ऐसा बार-बार लोगों को बोलते हुए आपने सुना होगा। पर क्या आपको पता है क्या होती है नौटकी? आइए हम आपको बताते हैं। नौटंकी एक जीवंत, लोकप्रिय और प्रभावशाली लोककला है।


यह कला जन-मानस से जुड़ी है। इस विधा में अभिनय थोड़ा लाउड किया जाता था। ठीक पारसी थियेटर की तरह। विषय कई बार बोल्ड रखे जाते थे, डायलॉग तीखे चुभने वाले होते थे। समयांतर इस विधा में विकृति आ गई औऱ इसे अश्लीलता का भी पर्याय माना जाने लगा।


विद्वानों के मुताबिक, यह कहना कठिन है कि नौटंकी का मंच कब स्थापित हुआ और पहली बार कब इसका प्रदर्शन हुआ। किंतु यह सभी मानते हैं कि नौटंकी स्वांग शैली का ही एक विकसित रूप है। भरत मुनि ने नाट्य शास्त्र में जिस सट्टक को नाटक का एक भेद माना है, इसके विषय में जयशंकर प्रसाद और हज़ारी प्रसाद द्विवेदी का कहना है कि सट्टक नौटंकी के ढंग के ही एक तमाशे का नाम है।


संगीत प्रधान लोकनाट्य नौटंकी सदियों तक उत्तर भारत में प्रचलित स्वांग और भगत का मिश्रित रूप है। स्वांग और भगत में इस प्रकार घुलमिल गई है कि इसे दोनों से अलग नहीं किया जा सकता। संगीत प्रधान इस लोक नाट्य के नौटंकी नाम के पीछे एक लोक प्रेमकथा प्रचलित है। इसकी जन्मस्थली उत्तर प्रदेश है। हाथरस और कानपुर इसके प्रधान केंद्र है।


हाथरस और कानपुर की नौटंकियों के प्रदर्शन से प्रेरित होकर राजस्थान, मध्य प्रदेश, मेरठ और बिहार में भी इसका प्रसार हुआ। मेरठ, लखनऊ, मथुरा में भी अलग-अलग शैली की नौटंकी कंपनियों की स्थापना हुई। आज नौटंकी खत्म होती जा रही है, थोड़ा-बहुत जहां बचा है वहां इसका अश्लील पर्याय ही देखने को मिलता है। सरकार की ओर से इसे संरक्षण और प्रोत्साहन मिलना चाहिए। इस कला के प्रेमी आज भी बीते दिनों की याद करते हैं, जब नौटंकी प्रदर्शन जगह-जगह होते थे। उनका मानना हैं कि, बाहर से उजड़ी है, दिल में बसी है- नौटंकी।

साभार: दैनिक भास्कर डॉट कॉम

Monday, November 14, 2011

बाल दिवस: कितनी हकीकत, कितना फसाना


आज पूरे देश में बाल दिवस बड़े धूमधाम से मनाया जा रहा है। सुविधासंपन्न बच्चों के लिए तो आज का दिन वाकई ख़ास है. पर उन बच्चों का क्या, जो हर सुविधा से महरूम हैं। उनका भोला चेहरा जब हमारी तरफ आशा की नज़र से देखता है तो क्या हमारे मन में टीस नहीं उठती ? 


चाचा नेहरू के इस देश में लगभग 5 करोड़ बच्चे बाल श्रमिक हैं। जो चाय की दुकानों पर नौकरों के रूप में, फैक्ट्रियों में मजदूरों के रूप में या फिर सड़कों पर भटकते भिखारी के रूप में नजर आ ही जाते हैं। कुछेक ही बच्चे ऐसे हैं, जिनका उदाहरण देकर हमारी सरकार सीना ठोककर देश की प्रगति के दावे को सच होता बताती है। 


यही नहीं आज देश के लगभग 53.22 प्रतिशत बच्चे शोषण का शिकार है। इनमें से अधिकांश बच्चे अपने रिश्तेदारों या मित्रों के यौन शोषण का शिकार है। शारीरिक और मानसिक प्रताड़ना झेल रहे इन मासूमों के लिए भला बाल दिवस के क्या मायने हो सकते हैं? अपने अधिकारों के प्रति अनभिज्ञता व अज्ञानता के कारण ये बच्चे शोषण का शिकार होकर जाने-अनजाने कई अपराधों में लिप्त होकर अपने भविष्य को अंधकारमय भी कर रहे हैं। 


इनकी फिक्र अगर किसी को होती तो इनका बचपन इनसे न छिना होता। ये भी बेफिक्र होकर, खिलखिला कर हसना जानते। ये भी अपने सपने बुनते और सुनहरे भविष्य की और अग्रसर होते।


सुविधासंपन्न बच्चे तो सब कुछ कर सकते हैं परंतु यदि सरकार देश के उन नौनिहालों के बारे में सोचे, जो गंदे नालों के किनारे कचरे के ढ़ेर में पड़े हैं या फुटपाथ की धूल में सने हैं। उन्हें न तो शिक्षा मिलती है और न ही आवास। सर्व शिक्षा के दावे पर दंभ भरने वाले भी इन्हें शिक्षा की मुख्यधारा से जोड़ नहीं पाते।


पैसा कमाना इन बच्चों का शौक नहीं बल्कि मजबूरी है। ये मासूम तो एक बंधुआ मजदूर की तरह अपने जीवन को काम में खपा देते हैं और देश के ये नौनिहाल शिक्षा, अधिकार, जागरुकता व सुविधाओं के अभाव में, अपने सपनों की बलि चढ़ा देते है। 


यदि हमें 'बाल दिवस' मनाना है तो सबसे पहले हमें गरीबी व अशिक्षा के गर्त में फँसे बच्चों के जीवनस्तर को ऊँचा उठाना होगा और उनके अँधियारे जीवन में शिक्षा का प्रकाश फैलाना होगा। यदि हम सभी केवल एक गरीब व अशिक्षित बच्चे की शिक्षा का बीड़ा उठाएँगे तो निसंदेह ही भारत प्रगति के पथ पर अग्रसर होगा तथा हम सही मायने में 'बाल दिवस' मनाने का हक पाएँगे।


इसके साथ ही हमारे अंदर जो संवेदना मर चुकी है उसे फिर से जिलाना होगा। नहीं देखना चाहते अब हम बच्चो को इस हालत में। उनका बचपन उन्हें लौटाना है। उनका भविष्य सवारना है.ऐसा माहौल बनाना है की हर बच्चे को देखकर हम गर्व करें।

Monday, October 24, 2011

कर्नल गद्दाफी और विद्रोहियों के आतंक की कहानी, सुनिए इस गवाह की जुबानी!


लीबिया के तानाशाह कर्नल गद्दाफी की मौत की पूरी दुनिया में चर्चा है। सभी इस पर अलग अलग तरह सोच रहे हैं। कोई इसे तानाशाही का अंत कह रहा है तो कोई इसे तेल का खेल। कुछ लोगों का कहना है कि पश्चिमी देशों ने तेल के कुओं पर अधिकार पाने के लिए गद्दाफी विरोधी लोगों को सह दिया था।


कुछ लोगों का कहना है कि गद्दाफी के तानाशाही रवैये के कारण वहां के लोगों में गुस्सा था। जिसकी परिणती उसके मौत के रूप में हुई। लीबिया के तानाशाह की मौत से कायम हुए शांति की वजह से केवल लीबियाई ही खुश नहीं है, बल्कि यह लहर यूपी तक पहुंच गई है।

उत्तर प्रदेश के महाराजगंज जिले के रहने वाले 34 वर्षीय अरविंद जायसवाल को गद्दाफी की मौत से न तो खुशी है ना गम। उनको तो वहां फैले अराजकता और खूनखराबे से मिली निजात से खुशी है। उनको आज भी वो मंजर भुलाए नहीं भूलता। पिछले आठ महीनों तक लीबिया में गद्दाफी विरोधी हिंसक आंदोलन में फंसे अरविंद को भयंकर मानसिक और शारीरिक पीड़ा का शिकार होना पड़ा था। अपने दुख में वह अकेले थे। कोई नहीं साथ देने वाला था। यहां तक की दूतावास के भारतीय अधिकारियों से भी उनको कोई मदद नहीं मिली।

अपनी सारी उम्मीदें खो चुके थे, लेकिन तभी चमत्कार हुआ और उनको घर आने का मौका मिला। अंतत: 15 सितंबर की शाम घर लौट आए। जायसवाल के साथ तीन बांग्लादेशी नागरिकों को भी इस विध्वंशक परिस्थिती से मुक्ति मिली। ये इनके साथ लीबिया में काम कर रहे थे।

अरविंद ने कहा कि, "मुझे विश्वास नहीं हो रहा है कि मैं सुरक्षित हूं। वहां की सड़क के किनारे पर गोलीबारी एक आम नजारा था। भगवान का शुक्र है कि हम जिंदा बच कर आ गए। 

18 जनवरी 2011 को लीबिया काम करने के लिए गए अरविंद अपने पीछे पत्नी सविता देवी और तीन बच्चों को छोड़ गए थे। उन्होंने कहा कि, ''वहां के हालात इतने खराब हैं कि हम अपने निवास में ही फंसे हुए थे। बाहर निकलने पर गोलिय़ों के शिकार होने का खतरा था। एक दिन कुछ बंदूकधारी हमारे घर आए। हमने उन्हें बताया कि हम पिछले दो दिनों से कुछ खाए नहीं हैं, तो उन्होंने हमें भोजन दिया और चले गए।''
  
अरविंद ने बताया कि, "पिछले तीन महीनों से हम लगातार भारत सरकार से भारतीय दूतावास के जरिए संपर्क में थे। लेकिन उनका कोई संतोषजनक जवाब नहीं मिलता था। मैं जिस कंपनी में काम करता था, उसी से वापस भारत जाने का अनुरोध किया तो उन्होंने मदद की और हम भारत लौटने में कामयाब रहे।


कटेंट साभार दैनिक साभार डॉट कॉम

Tuesday, October 18, 2011

मुझे शर्म आती है...


मुझे कभी कभी शर्म आती है। इस पेशे पर। अपने दोस्तों पर। लोगों पर। प्रसिद्ध साहित्यकार श्रीलाल शुक्ल कई दिनों से गम्भीर रूप से बीमार हैं। उनको अस्पताल में भर्ती कराया गया है। डॉक्टरों के मुताबिक उनकी हालत नाजुक है। ऐसे महान साहित्यकार की गंभीर तबियत खराब है, लेकिन अभी तक यह नेशनल मीडिया के लिए महत्वपूर्ण नहीं बन पाई है। 


भला बने भी कैसे इस स्टोरी पर टीआरपी (टीवी रेटिंग) और पेजव्यू (वेबसाइट में खबरों की रेटिंग) कम आने का जो खतरा है। मेरे हर मीडियाकर्मी मित्र को पता है कि ऐसी खबरें मुनाफेदार नहीं होती। चलिए मान लिया कि मीडिया को इस खबर से मुनाफा नहीं था इसलिए इसका महत्व नहीं दिया। लेकिन उन लोगों का क्या जो मीडिया से जुड़े नहीं हैं। जो खबरें पढ़ते और सुनते हैं। आखिरकार यही लोग तो तय करते हैं कि किसी खबर की टीआरपी या पेजव्यू क्या होगा।


मैंने सोशल नेटवर्किंग साइट फेसबुक पर इस संबंध में एक पोस्ट डाली। लिखा कि, ''प्रसिद्ध साहित्यकार श्रीलाल शुक्ल गम्भीर रूप से बीमार है। उनको लखनऊ के गोमतीनगर स्थित सहारा अस्पताल में भर्ती कराया गया है। खबर है कि उनको साहित्य जगत का सर्वोच्च सम्मान ज्ञानपीठ पुरस्कार आज अस्पताल में ही दिया जाएगा। डॉक्टरों का कहना है कि उनकी हालत नाजुक है। आइए हम सब मिलकर उनके स्वास्थ्य लाभ की कामना करें; क्योंकि दुआएं दवा से ज्यादा कारगर होती हैं।'' करीब चार घंटे बीत गए, लेकिन एक भी व्यक्ति ने इस पोस्ट पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दिया। मुझे बहुत ग्लानि हुई।


मैं सोचने लगा कि इतना प्रखर साहित्यकार जिसे अस्पताल में ज्ञानपीठ पुरस्कार जैसा साहित्य जगत का सर्वोच्च सम्मान मिलने वाला है। उससे संबंधित पोस्ट पर एक भी साथी ने कमेंट करना मुनासिब क्यों नहीं समझा। आखिरकार जो लोग खुद को साहित्यकार या साहित्य का प्रेमी समझते हैं वो इतना संवेदना शून्य कैसे हो गए हैं। जबकि मेरे फेसबुक फ्रेंड लिस्ट में कई साहित्कार और साहित्य प्रेमी मित्र भी हैं।


खैर, अपनी पहली पोस्ट के चार घंटे के बाद मुझे रहा नहीं गया तो मैने एक और पोस्ट डाली। इंतजार किया। लगा कि इस बार तो लोगों की प्रतिक्रिया जरूर मिलेगी। पर निराशा हाथ लगी। मेरा एक इंजीनियर मित्र ने इसके लिए अफसोस जाहिर किया, लेकिन और किसी भी मित्र का एक भी कमेंट नहीं आया। यह भी तय था कि यदि पूनम पांडे से संबंधित कोई पोस्ट डाला होता तो कमेंट्स की भरमार हो जाती। बता दूं कि पूनम पांडे के एक वीडियो को एक हफ्ते में 70 लाख लोगों ने देखा था।


भई, अब मैं इतना समझ चुका हूं कि ऐसे मुद्दों पर हमारे मीडियाकर्मी मित्रों से ज्यादा वो लोग दोषी हैं, जो खुद को संवेदनशील होने का ढ़ोंग करते हैं। यदि आप ऐसी खबरों को पढ़ना शुरू कर देते हैं। जो निश्चित ही टीआरपी और पेजव्यू अधिक रहेंगे। ऐसे में पत्रकारिता और ड्यूटी दोनों हो जाएगी।


बताता चलूं कि श्रीलाल शुक्ल को सांस लेने में तकलीफ की शिकायत है। उनके फेफड़े में संक्रमण है। फिलहाल वह आईसीयू में भर्ती हैं। उनको 20 सितम्बर को वर्ष 2009 के लिए 45वां ज्ञानपीठ पुरस्कार कहानीकार अमरकांत के साथ संयुक्त रूप से देने की घोषणा की गई थी।




उनके लिए जिन्हें नहीं पता कि कौन है  श्रीलाल शुक्ल 


हिन्दी के प्रमुख साहित्यकार श्रीलाल शुक्ल का जन्म उत्तर प्रदेश में सन् 1925 में हुआ था। उनका पहला प्रकाशित उपन्यास 'सूनी घाटी का सूरज' (1957) तथा पहला प्रकाशित व्यंग 'अंगद का पांव' (1958) है। स्वतंत्रता के बाद के भारत के ग्रामीण जीवन की मूल्यहीनता को परत दर परत उघाड़ने वाले उपन्यास 'राग दरबारी' (1968) के लिये उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। उनके इस उपन्यास पर एक दूरदर्शन-धारावाहिक का निर्माण भी हुआ। श्री शुक्ल को भारत सरकार ने 2008 मे पद्मभूषण पुरस्कार से सम्मानित किया है।


उपन्यास:  सूनी घाटी का सूरज · अज्ञातवास · रागदरबारी · आदमी का ज़हर · सीमाएँ टूटती हैं। कहानी संग्रह:  यह घर मेरा नहीं है · सुरक्षा तथा अन्य कहानियां · इस उम्र में। व्यंग्य संग्रह:  अंगद का पांव · यहां से वहां · मेरी श्रेष्ठ व्यंग्य रचनायें · उमरावनगर में कुछ दिन · कुछ जमीन पर कुछ हवा में · आओ बैठ लें कुछ देर। आलोचना: अज्ञेय: कुछ राग और कुछ रंग




         
http://bhadas4media.com/book-story/13541-------------.html

Sunday, October 16, 2011

30000 'बच्चों' के इस बाप की कहानी वाकई में है दिल छू लेने वाली!



यूपी के बुंदेलखण्ड में रहने वाली इस शख्स की कहानी दिल छू लेने वाली है। बेटे की मौत के बाद तड़प रहे इस शख्स ने गम को खुशी में बदलने का एक नायाब तरीका अपनाया। फिर क्या था, उसके बाद उसके एक नहीं, दो नहीं, पूरे 30 हजार बच्चे हो गए। जी हां, उसने अपनी सूखी जिन्दगी में संकल्प लिया धरती को हरा-भरा बनाने का।

चित्रकूट के रहने वाले भैयाराम अब चालीस बसंत पार कर चुके हैं। वह पिछले तीन सालों से जिले के पहरा वनक्षेत्र के करीब 30,000 वृक्षों की अपनी संतान की तरह सेवा और देखरेख कर रहे हैं। झोपड़ी में रह रहे भैयाराम पेड़ों को काटने वाले चोरों से उनकी रक्षा करने से लेकर उनकी निराई-गुड़ाई, कीड़ों से बचाव और सिंचाई तक का पूरा ख्याल रखते हैं।

उनके मुताबिक, 'ये पेड़ ही मेरे बेटे हैं। आज की तारीख में मेरे लिए इनसे बढ़कर कोई नहीं है। मेरे दिन और रात इन्हीं पेड़ों के साथ गुजरता है। मैं इन्हीं के बीच अपनी आखिरी सांस लेना चाहता हूं। उन्होंने इस बात का गर्व है कि इन हरे-भरे वृक्षों से पर्यावरण संरक्षण में मदद के साथ-साथ लोगों को सांस लेने के लिए स्वच्छ हवा मिलेगी। पर्यावरण और मानव जाति का कल्याण मेरा इकलौता पुत्र शायद दुनिया में होकर भी नहीं कर पाता।'

तीन साल पहले इकलौते बेटे की मौत के बाद भैयाराम ने इन पेड़ों को अपनी संतान मानकर इनकी सेवा को अपने जीवन का लक्ष्य बनाया। वह बताते हैं, 'पुत्र के जन्म के समय दस साल पहले मेरी पत्नी की मौत हो गई थी। उसके बाद मैंने अपने बेटे को पाल-पोषकर सात साल का किया। एक दिन अचानक रात को उसे उल्टियां हुईं और अस्पताल ले जाते समय रास्ते में उसकी मौत हो गई। पत्नी और फिर इकलौते बेटे की मौत के बाद मैं पूरी तरह से टूट गया। बिना किसी मकसद के अकेलेपन में जिंदगी गुजारने लगा।'

जुलाई 2008 में राज्य वन विभाग की तरफ से इस इलाके में विशेष पौधरोपण अभियान के तहत 30 हजार शीशम, नीम, चिलवल और सागौन जैसे पेड़ों को लगाया गया था। तब भैयाराम ने श्रमिक के तौर पर पेड़ों को रोपित कराया था। इसी दौरान उनके मन में ख्याल आया कि क्यों न इन पेड़ों को ही वह अपनी संतान मानकर इनकी देखभाल करें। उन्होंने स्थानीय वन अधिकारियों से अपने दिल की बात कही तो थोड़ी मान मनौवल के बाद वे राजी हो गए।

Tuesday, October 11, 2011

आडवाणी जी...कहीं ये प्रधानमंत्री बनने की आखिरी कोशिश तो नहीं!!!


महा'रथी' आडवाणी की एक और रथ यात्रा...



भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी ने बिहार के सिताबदियारा से अपनी 'जन चेतना यात्रा' की शुरुआत कर दी है। यात्रा से पहले ही राजनीतिक दांव पेंच और प्रधानमंत्री बनने के कयासों में उलझे आडवाणी ने साफ करना चाहा कि देश में सत्ता परिवर्तन से अधिक व्यवस्था परिवर्तन की आवश्यकता है और इस यात्रा का उद्देश्य आम जनमानस के मन में भ्रष्टाचार के खिलाफ चेतना पैदा करना है। उन्होने साफ किया कि इस यात्रा की शुरुआत भ्रष्टाचार को मिटाने के लिए की जा रही है। देश में सत्ता परिवर्तन से अधिक व्यवस्था परिवर्तन की आवश्यकता है। चलिए मान लेते हैं आडवाणी जी की बात। वह सत्ता के लिए नहीं व्यवस्था के लिए यात्रा निकाल रहे हैं। पर कौन समझाए इनको कि व्यवस्था परिवर्तन यात्राओं से नहीं होता, मजबूत इच्छाशक्ति से होता है। जो इन राजनेताओं में होना चाहिए। जिसका इनमें सर्वथा आभाव है।

आडवाणी जी कोई पहली बार रथयात्रा नहीं निकाल रहे हैं। इससे पहले वह 1990 में सोमनाथ से लेकर अयोध्या तक की राम रथयात्रा निकाल चुके हैं। इस यात्रा को देशव्यापी समर्थन मिला था। भारतीय जनता पार्टी इस रथयात्रा से अपने लक्ष्य को साधने में सफल रही। इस राजनीतिक रथयात्रा ने उसे अन्य दलों से अलग एक राष्ट्रीय पहचान और चरित्र भी दिया। कई राज्यों में भाजपा की सरकारें भी बनी। आडवाणी की इस रथयात्रा की सफलता ने भाजपा को केंद्रीय सत्ता तक पहुंचने की राह भी आसान कर दी। इसके बाद आडवाणी ने 1993 में जनादेश यात्रा निकाली। इस यात्रा में उनके साथ पार्टी के दिग्गज मुरली मनोहर जोशी, भैरो सिंह शेखावत और कल्याण सिंह मौजूद थे। इस यात्रा का भी व्यापक प्रभाव देखने को मिला।

सन 1997 में आजादी के पचास साल पूरे होने पर आडवाणी ने स्वर्ण जयंती रथयात्रा निकाली। यह यात्रा भी सफल रही। इसके बाद लोकसभा चुनाव 2004 से ठीक पहले भारत उदय रथयात्रा निकाली। यह यात्रा लोगों को रास नहीं आई। उस समय केंद्र में भाजपा शासित सरकार थी। सरकार जनता की अपेक्षाओं पर खरी नहीं उतरी थी। जमीन पर कार्यकरने की बजाय इस सरकार ने हवा में ज्यादा पुल बांधे थे। जिसका नतीजा यह हुआ कि तत्कालिक चुनाव में भाजपा के राजग गठबंधन को करारी शिकस्त मिली।

इस बार 2004 से माहौल जुदा है। भ्रष्टाचार और महंगाई को लेकर लोगों में गजब का गुस्सा है। अन्ना के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन ने पूरे देश को एक कर दिया। लोगों का आक्रोश रामलीला मैदान से ज्यादा देश की सड़कों पर दिखा। क्या बच्चे, क्या बूढ़े सब इस आंदोलन के रंग में रंग गए। राजनीतिक दलों ने लोगों का गुस्सा भांप लिया। भाजपा भी इस मौके को भुनाने के ताक पर लग गई। ऐसे में महारथी आडवाणी को अपनी यात्रा निकालने का यह बेहतर मौका लगा। अभी कुछ दिनों के बाद ही यूपी सहित देश के पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव और 2014 में लोकसभा का चुनाव होने हैं। राजगकी सरकार बनीं तो प्रधानमंत्री बनने का मौका मिल सकता है। राजग और देश में अपनी स्वाकार्यता बनाने के लिए सही अवसर है; और प्रधानमंत्री बनने के सपने को पूरा करने की आखिरी कोशिश भी। इस तरह आडवाणी का रथयात्रा पर जाने का ऐलान करना रथयात्रा के व्यापक मर्म और उसके राजनीतिक निहितार्थ को संदर्भित करता है।




हाईटेक यात्रा के लिए हाईटेक इंतजाम

सोमनाथ से शुरू पिछली रथयात्रा जिसमें मोदी भी थे  साथ

'जन चेतना यात्रा' में इस्तेमाल की जा रही हाईटेक बस आधुनिक सुख-सुविधा संपन्न है। जापानी बस में वे सभी सुविधाएं हैं जो आडवाणी की यात्रा को सुगम और आरामदायक बनाएंगे। इसमें आडवाणी के लिए एक एलसीडी लगाया गया है, जिसपर वह देश और दुनिया की खबरों से अवगत होते रहेंगे। 'मूविंग चेयर' और लिफ्ट की सुविधा है। यात्रा मार्ग में जहां भी आडवाणी को जन समूह को सम्बोधित करने की जरूरत पड़ेगी वह लिफ्ट की सहायता से ऊपर आ जाएंगे।

बस एक मंच के रूप में तब्दील हो जाएगा। इसके लिए लाउडस्पीकर और माइक जैसी चीजों का भी इंतजाम किया गया है। करीब 50 लाख रुपये की बस को आधुनिक सुविधाओं से लैस करने में और 50 लाख रुपये खर्च हुए हैं। मीडियाकर्मियों के लिए एक बस और एक एम्बूलेंस की भी व्यवस्था है। एक बस में खाने-पीने की चीजें हैं। ड्राइवर के नजदीक स्टीयरिंग के पास वाले स्थान पर भी कैमरे लगाए गए हैं। इनके जरिए ड्राइवर हर वक्त चारों ओर नजर रख सकता है।

BIRTH DAY SPECIAL: कवि के घर पैदा हुआ कलाकार


सन्‌ 1942 की सर्दियों में इलाहाबाद में जन्मे बिग बी की पूरे फिल्म इंडस्ट्री में तूती बोलती है। बचपन में उनके साथ एक बड़ी मनोरंजक घटना घटी थी। बात तब की है जब वह ढाई साल के थे। उस समय अमिताभ अपने माता-पिता के साथ नाना के घर जा रहे थे।

तभी लाहौर रेलवे स्टेशन पर अपने माता-पिता से बिछड़कर ओवरब्रिज पर पहुंच गए। उस समय मां तेजी टिकट लेने गई थीं और अमित पिता का हाथ छूट जाने से भीड़ में खो गए। मां-बाप के होश उड़ गए। बाद में अमिताभ मिल गए।



सांड ने ऐसा दी पटखनी कि बन गए हिम्मत वाले



अमिताभ बच्चन की बचपन की फोटो
खानदानी परंपरा के अनुसार अमित का मुंडन संस्कार विंध्य पर्वत पर देवी की प्रतिमा के आगे बकरे की बलि के साथ होना था, लेकिन बच्चनजी ने ऐसा कुछ नहीं किया। हां, उस दिन भी एक अद्भूत घटना घटी। अमितजी के मुंडन के दिन ही एक सांड उनके दरवाजे पर आया और उनको पटखनी देकर चला गया। अमितजी रोए नहीं। उनके सिर में गहरा जख्म हुआ था। कुछ टांके भी लगे थे। इस घटना पर परिवार वालों का कहना था कि यह भिड़ंत उनकी उस सहन शक्ति का 'ट्रायल रन' थी, जिसने उनको जिंदगी का सलीका सिखाया।



कवि के घर पैदा हुआ कलाकार



अमिताभ का जन्म 11 अक्तूबर को इलाहाबाद के हिंदू कायस्थ परिवार में हुआ था। उनके पिता, डॉ. हरिवंश राय बच्चन प्रसिद्ध हिन्दी कवि थे, जबकि उनकी माँ तेजी बच्चन कराची के सिख परिवार से संबंध रखती थीं। पहले बच्चन का नाम इंकलाब रखा गया था जो भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान प्रयोग में किए गए प्रेरित वाक्यांश इंकलाब जिंदाबाद से लिया गया था। लेकिन बाद में इनका फिर से अमिताभ नाम रख दिया गया जिसका अर्थ है, "ऐसा प्रकाश जो कभी नहीं बुझेगा"।


बात अब से कोई 23 साल पहले की है. राजीव गाँधी ने अपने पारिवारिक मित्र और फ़िल्म स्टार अमिताभ बच्चन को लोकसभा चुनाव लड़ाने का फ़ैसला किया.
अमिताभ लखनऊ आए. उनसे मेरी मुलाकात हुई इलाहबाद के कैबिनेट मंत्री श्याम सूरत उपाध्याय के घर पर. राजनीति मे अमिताभ का यह पहला क़दम था.


रास नहीं आई राजनीति


अमिताभ बच्चन ने इलाहाबाद से लोकसभा चुनाव लड़कर राजनीति में कदम रखा। इस चुनाव में वह रेकॉर्ड 62 फीसदी मतों के अंतर से जीते। राजनीति के मंजे हुए खिलाड़ी हेमवती नंदन बहुगुणा के लिए यह बहुत करारी हार थी।


ऐसा कहा जाता है कि अमिताभ के पिता हरिवंश राय बच्चन और माँ तेजी बच्चन को प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू का पारिवारिक मित्र होने का भरपूर लाभ मिला था।
लोक सभा का चुनाव प्रचार करते बिग बी


इंदिरा जी के शासन मे अमिताभ को फिल्मी बिजनेस में फायदा मिला। राजीव के राज मे अमिताभ को संसद की सदस्यता मिली।


मगर जब छोटे भाई के साथ-साथ उनका नाम भी बोफोर्स घोटाले मे उछला तो वह राजीव को गाँधी को अकेला छोड़ कर किनारे हो लिए. संसद सदस्यता से इस्तीफा दे दिया।




तथ्य साभार: भास्कर डॉट कॉम, विकीपीडिया

Monday, October 10, 2011

कहां तुम चले गए...


गजल सम्राट जगजीत सिंह अब हमारे बीच नहीं रहे। उन्होंने मुंबई के लीलावती अस्पताल में दम तोड़ दिया। करीब दो सप्ताह पहले ही उन्हे यहां भर्ती कराया गया था। उनकी आखिरी सांस के साथ ही मौशिकी की दुनिया का एक कालखंड समाप्‍त हो गया। 


जगजीत जिंदगी के आखिरी वक्‍त तक गाते रहे। जिस दिन उन्‍हें अस्‍पताल में भर्ती कराया गया, उस दिन भी मुंबई में उन्‍हें एक कार्यक्रम देना था। 70 साल के जगजीत सिंह को उस दिन पाकिस्तान के गजल गायक गुलाम अली के साथ एक कंसर्ट में हिस्सा लेना था। 




गजल गायकी को नया अंदाज देने के लिए जगजी‍त सिंह को हमेशा याद किया जाता रहेगा। जगजीत सिंह ने 1999 में आई फिल्‍म ‘सरफरोश’ के गीत ‘होश वालों को खबर क्‍या...’ को आवाज दी थी। 


मशहूर गायिका लता मंगेशकर के मुताबिक उन्‍होंने गजल गायकी में हर चीज बदल ली। बोल, सुर, ताल, आवाज...सब कुछ। उन्‍होंने गजल गाकर यह भी साबित किया कि गायिकी में दौलत-शोहरत कमाने के लिए बॉलीवुड से भी बाहर दुनिया है। 


जीवन की राह पर मजबूती से बढ़ाते रहे कदम


जगजीत सिंह राजस्थान के श्रीगंगानगर में जन्मे। उनके पिता संगीतकार बनने में असफल रहे, अत: अपने पुत्र के माध्यम से अपने सपने को साकार करना चाहते थे। लिहाजा वे जगजीत को संगीत गुरुओं के पास ले गए और सेन बंधुओं की शिक्षा उन्हें लंबे समय तक मिली। जालंधर के कॉलेज में पढ़ते हुए उनके गायन के कई लोग कायल हुए और वे मुंबई आए। उन्होंने लंबा संघर्ष किया। 


वह संगीत की शिक्षा देने कई जगह जाते थे और दत्ता की विवाहिता तथा कन्या मोनिका की मां चित्रा को उनसे प्रेम हो गया। हारमोनियम की पट्टी पर सीखने-सिखाने के समय दोनों की अंगुलियां टकराईं और प्रेम का संदेश आत्मा तक जा पहुंचा। दत्ता साहब ने नजाकत समझी और दृश्य पटल से पटाक्षेप कर गए। 




जगजीत-चित्रा का विवाह हुआ और विवेक नामक पुत्र का जन्म हुआ। मोनिका की भी शादी हो गई। निदा फाजली ने बताया कि एक बार लता मंगेशकर ने कहा था कि पाकिस्तान के गजल गायक मेहंदी हसन के गले में ईश्वर विराजते हैं। इसी तर्ज पर निदा का ख्याल है कि जगजीत सिंह के गले में अल्लाह विराजते हैं।


 मेहंदी हसन और जगजीत सिंह ने गजल गायकी में महारत हासिल की है। जगजीत सिंह और चित्रा ने लंदन में मिलकर गाया और उसी लाइव शो की रिकॉर्डिग जारी होकर अत्यंत लोकप्रिय हुई। उसमें निदा फाजली की प्रसिद्ध गजल ‘दुनिया जिसे कहते हैं, जादू का खिलौना है। 


'सबसे मधुर है गीत वही जो हम दर्द की धुन में गाते हैं'




जगमोहन से बने जगजीत
मिल जाए तो मिट्टी है, खो जाए तो सोना है’ गाया और बाद के अनेक रिकॉर्डस में उन्होंने निदा को गाया है। ‘इनसाइट’ नामक रचना में तमाम दोहे और गजलें निदा फाजली की हैं, जो उन्होंने खुद चुनीं। ज्ञातव्य है कि जगजीत सिंह उर्दू पढ़ते हैं। युवा पुत्र विवेक की कार दुर्घटना में हुई मृत्यु के बाद जगजीत सिंह ने अपने दर्द को अपने काम में डुबो दिया और उनका माधुर्य बढ़ गया। याद आता है अंग्रेजी कवि शैली का विश्वास ‘वी लुक बिफोर एंड आफ्टर, एंड पाइन फॉर व्हाट इज नॉट, अवर सिंसेयर लाफ्टर विद सम पेन इज फ्रॉट, अवर स्वीटेस्ट सांग्स आर दोज, दैट टेल ऑफ सेडेस्ट थॉट।’ इसी भाव को शैलेंद्र ने दोहराया है- सबसे मधुर है गीत वही जो हम दर्द की धुन में गाते हैं।




दरअसल सृजन दर्द के अंधे कुएं से ही उपजता है। एक ओर साहसी जगजीत सिंह ने गायन के रूप में अपनी आराधना जारी रखी, दूसरी ओर चित्रा बिखर गईं। मोनिका ने भी दो लड़कों को जन्म देकर 


जाने क्यों आत्महत्या कर ली और फिर ईश्वर ने जगजीत सिंह को आजमाया। वे हमेशा खरे उतरे। कैफी साहब का लिखा गीत ही जगजीत सिंह की जीवन शैली बना- ‘तुम इतना जो मुस्करा रहे हो, क्या गम है जिसको छुपा रहे हो।’




साभार: daininbhaskar.com

Saturday, October 8, 2011

मौत के क्रूर पंजों में जकड़ा मासूमों का जीवन, खत्म हो चुकीं हैं 400 जिंदगियां


पूर्वी यूपी में अधिकतर मां-बाप की रातें आंखों में कट जा रही है। मन बैचेन है। डर सता रहा है कि कहीं 'नौकी बीमारी' उनके लाल को न निगल जाए। डर इतना कि लाडले को छींक भी आ जाए तो कंठ सूख जाता है।


ऐसा हो भी क्यों ना। पूरे इलाके में मौत बनकर तांडव मचाने वाली नौकी बीमारी यानी जापानी इंसेफ्लाइटिस ने इस साल अब तक 400 मासूम बच्चों की सांसे छीन ली है। इतने ही करीब अस्पताल में भर्ती हैं। अकेले गोरखपुर के बीआरडी मेडिकल कालेज में ही करीब 2500 मरीज आ चुके हैं।


बताते चलें कि पूर्वी यूपी के गोरखपुर और आसपास के जिलों में 1978 से इंसेफ्लाइटिस महामारी के रूप में कहर ढा रही है। इसके सबसे आसान शिकार मासूम बच्चे है।


मरने वालों से कई गुना ज्यादा विकलांग और मानसिक बीमारों की संख्या है। सरकारी रिकार्ड में अब तक दस हजार बच्चों की मौतें हो चुकी हैं। जबकि तमाम मरीज ऐसे है जो निजी अस्पतालों में इलाज कराते रहें है जिनका सरकार के पास कोई रिकार्ड नही है।

पिछले 33 सालों में इस बीमारी से मरने वालों का अनुमानित आंकड़ा 25 हजार मौत और लाखों को विकलांग होने का है। इस साल गोरखपुर के बीआरडी मेडिकल कॉलेज और अन्य अस्पतालों में लगातार नये मरीज भर्ती हो रहें है।


                    खून से लिखा खत, ताकी पसीज जाए दिल




पूर्वी यूपी में इंसेफ्लाइटिस उन्मूलन अभियान चला रहें डा. आरएन सिंह के मुताबिक, पूर्वांचल के किसानों के मासूमों को एंसेफ्लाइटिस के क्रूर पंजों से बचाने के लिए एक ‘खून से खत का महाभियान’ चलाया गया।


‘खून से लिखे खत’ देश के प्रधानमंत्री, स्वास्थ्यमंत्री, योजना आयोग, सोनिया गांधी, राहुल गांधी व स्थानीय ‘पूर्वांचल’ के संवेदनशील सांसदों को लिखा गया।


पर फर्क किसी को नहीं पड़ा। यदि किसी ने पहल की भी तो अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने के लिए। बच्चों की चिताओं पर राजनीतिक रोटियां सेंक रहे इन राजनेताओं को शर्म भी नहीं आ रही है। सरकार तो पहले से ही असंवेदनशील है।




साभार: तथ्य दैनिक भास्कर डॉट कॉम

Thursday, October 6, 2011

एक लड़की के 'दर्द' की दर्दनाक कहानी, सुन आंखे छलक जाएंगी आपकी!


दर्द जब बेदर्द बन जाता है तो इंसान जीने की चाह छोड़ देता है। कोई शख्स कितना भी हिम्मती क्यों ना हो, लेकिन असहनीय दर्द को सहने की बजाय मौत को गले लगाना उचित समझता है। कुछ ऐसा ही हाल है कानपुर की रहने वाली अलका का। एप्लास्टी एनीमिया नामक बीमारी से पीड़ित 21 साल की एक अलका ने कोर्ट से इच्छा मृत्यु की गुहार लगाई है।

उनका कहना है कि सरकार या तो उसका इलाज कराने में मदद करे या फिर उसे इच्छा मृत्यु की इजाजत दे दी जाये। कानपुर शहर के पहाड़ी लाइन में झुग्गी में रहने वाली अलका नौ साल से एप्लास्टी एनीमिया से पीड़ित है। उसके पिता की मौत 1998 में हो चुकी थी। घर पर उनकी बूढ़ी मां सूरजमुखी और एक भाई ब्रज बिहारी रहते हैं। भाई ट्यूशन पढ़ाकर घर का खर्च चलाता है। ऐसे में इतनी खतरनाक और महंगे इलाज की दरकार रखने वाली बीमारी के इलाज के लिए उनके पास धन नहीं है।

भयंकर दर्द से कराहने वाली अलका का इलाज पहले कानपुर के उर्सला और हैलट अस्पताल में हुआ। कोई फायदा न होने पर यहां के डॉक्टरों ने उसका ब्लड टेस्ट कराया तो उसे ब्लड कैंसर की पुष्टि हो गयी। तब डाक्टरों ने उसे मुंबई जाने की सलाह दी। परिवार अपने खेत आदि बेचकर मुंबई गया लेकिन वहां के महंगे इलाज से परेशान हो कर लौट आया। जून 2011 में अलका के मुंह से खून आने पर शहर के डाक्टरों ने उसे तुरंत वेल्लोर के क्रिश्चियन मेडिकल कालेज जाने को कहा। वेल्लोर जाने पर डाक्टरों ने उसकी जांच कर बताया कि इसका इलाज केवल बोन मैरो ट्रांसप्लांट है। इस इलाज के लिए 20 लाख रूपये का खर्च होना है।

परिवार इतनी रकम कहां से जुटा पाएगा, यह सोचते हुए अलका ने अदालत से गुहार लगायी गई है कि सरकार इलाज के लिए पर्याप्त रकम दे या उन्हे इच्छा मृत्यु दे दी जाये। अब उसका दर्द असहनीय हो गया है। हालत दिन पर दिन ब दिन खराब होती जा रही है। जल्द इलाज न कराया गया तो दर्द से झटपटाती यह लड़की मर जाएगी।

अलका तिवारी की हालत बिगड़ने पर पीजीआई अस्पताल में भर्ती करा दिया गया है। वहीं कानपुर से सांसद श्रीप्रकाश जायसवाल ने उसे दिल्ली के एम्स में भर्ती कराने के प्रयास शुरु कर दिये हैं। बसपा के राज्यसभा सांसद गंगाचरण राजपूत इलाज के लिये सांसद निधि से 20 लाख रूपये दिलाने का वायदा किया है।


सूचना साभार dainikbhaskar.com

Wednesday, October 5, 2011

ये है माया की 'माया': जिसने भी लगाई इज्जत की बाट, उसकी खड़ी कर दी खाट!

यूपी की मुख्यमंत्री मायावती का तेवर इन दिनों देखते ही बन रहा है। पिछले कुछ महिने के हालात पर गौर करें तो माया के फैसलों ने न केवल लोगों को चौंकाया है, बल्कि विपक्षी पार्टियों के हाथ से भी चुनावी मुद्दा करीब छीन लिया है। हाल ही में माया ने माध्यमिक शिक्षा मंत्री रंगनाथ मिश्र तथा श्रम मंत्री बादशाह सिंह को मंत्री पद से तब तक के लिए हटा दिया है, जब तक की ये दोनों मंत्री जांच में निर्दोष साबित नहीं हो जाते। इससे पहले भी वह कई मंत्रियों, बसपा कार्यकर्ताओं और अधिकारियों को दंडित या पदच्यूत कर चुकीं हैं। चुनाव से एन वक्त पहले मायावती का यह रुख चौंकाने वाला है। कोई इसे ऑपरेशन क्लीन का नाम दे रहा है, तो कोई राजनीतिक स्टंट।




जिसने भी लगाई इज्जत की वाट, उसकी खड़ी कर दी खाट





मायावती ने बहुजन समाज पार्टी की छवि को धक्का पहुंचाने वालों को बिना माफ किए तत्काल बाहर का रास्ता दिखा दिया। मई 2007 में राज्य की चौथी बार बागडोर सम्भालने मायावती ने अपने कार्यकाल के दौरान 26 प्रभावशाली लोगों को सरकार या पार्टी से निकाल बाहर किया है। इस हिट लिस्ट में तमाम मंत्री, सांसद, विधायक, पार्टी के बडे पदाधिकारी शामिल हैं। लोगों का मानना है कि माया पार्टी या सरकार की छवि को धक्का पहुंचाने वालों को वह बर्दाश्त नहीं करतीं हालांकि निकालने से पहले वह चेतावनी जरुर दे देती हैं। हाल में सांसद धनंजय सिंह और विधायक योगेन्द्र सागर के निलंबन और विधायक अशोक चन्देल की पार्टी से बर्खास्तगी से उन्होंने सबसे पहला झटका सांसद उमाकांत यादव को दिया था। फैजाबाद जिले के मिल्कीपुर विधानसभा सीट से विधायक आनन्द सेन यादव का खाद्य प्रसंस्करण मंत्री बनाने के कुछ ही महीनो बाद शशि नाम की युवती के अपहरण मामले में नाम आने पर उन्हें तत्काल मंत्री पद से हटा दिया था।


करीबी लोगों को भी नहीं बक्शा


ऐसा माना जाता है कि मायावती कुछ मामलों में अपने करीबियों को भी नहीं छोड़ती। प्रदेश की राजनीति में भूचाल ला देने वाले दो-दो मुख्य चिकित्साधिकारियों की हत्या के बाद मायावती ने अपने सबसे नजदीकी मंत्री बाबू सिंह कुशवाहा और अनन्त कुमार मिश्र को भी एक झटके में मंत्रिमंडल से निकाल दिया। उनके साथ ही भूमि विकास एवं जल संसाधन मंत्री अशोक कुमार दोहरे, मुस्लिम एवं समाज कल्याण राज्य मंत्री विद्या चौधरी. सूचना मंत्री सुधीर गोयल. राज्य मंत्री का दर्जा प्राप्त पन्ना लाल कश्यप. राज्य मंत्री रघुनाथ प्रसाद शंखवार. राज्य मंत्री का दर्जा प्राप्त इन्तजार आब्दी से भी अलग अलग समय पर विभिन्न वजहों से इस्तीफे ले लिये गये।


विकीलीक्स के तूफान से भी नहीं डगमगाई



मायावती अपने मजबूत इच्छाशक्ति के कारण विकीलीक्स के तूफान को भी यूं ही झेल गईं। इस केबल ने दावा किया था कि मायावती को 'अव्वल दर्जे की अति अहंकारी' है। इन पर प्रधानमंत्री बनने की धुन सवार है। अमरीकी कूटनयिकों की ओर से भेजे गए इस दस्तावेज़ में मायावती के धन एकत्रित करने के तरीक़ों पर चर्चा की गई है और साथ ही उनके व्यवहार की भी। केबल ने माया के करीबियों को भी दगाबाज बताया था। इनके सबसे विश्वासपात्र सतीश चंद्र मिश्र पर भी आरोप लगाया था। पर माया ने विकीलीक्स के आरोपो को बकवास बताते हुए निराधार बताया था।




मायावती को कोई राजनीतिक विरासत नहीं मिली है। उन्होंने अपने दम चार बार मुख्यमंत्री की गद्दी हासिल की है। दलितों की महारानी नाम से ख्यात माया ने कभी भी परिस्थितियों से समझौता नहीं किया है। इनके जीवन में जितने बार तूफान आया, उतनी बार उभरी हैं। एक राजनेता से ज्यादा एक महिला के रूप में मायावती की तारीफ होनी चाहिए।

तथ्य साभार दैनिक भास्कर डॉट कॉम

Saturday, June 18, 2011

राहुल बाबा तुम कहां हो???

राहुल गांधी इन दिनों नजर नहीं आ रहे हैं। पता नहीं कहां चले गए। गरीबों और कमजोरों पर अत्याचार हो रहा है, लेकिन राहुल बाबा के कानों तक उनकी आवाज शायद नहीं पहुंच रही है। जब भट्टा-पारसौल में यूपी पुलिस ने लोगों के साथ अत्याचार किया था, तो झट से राहुल बाबा लोगों से मिलने गांव चले गए। उनके साथ चौपाल पर अनशन किया। गांव में धारा 144 का जमकर विरोध किया। यूपी सरकार से पूछा कि धारा 144 क्यों लगाया।



वहीं जब रामलीला मैदान में अहिंसात्मक आंदोलन और सत्याग्रह कर रहे लोगों पर लाठियां बरसाई गईं। लोगों के हाथ-पांव तोड़ा दिए गए। सो रहे लोगों पर गोलियां बरसाई गईं। तब हमारे राहुल बाबा कहां थे? जब एक वृद्ध लाठी की मार खाने के बाद अस्पताल में दम तोड़ रही थी तब राहुल बाबा कहां थे? हमें आश थी कि यहां भी राहुल पहुंचेंगे। लोगों के दुख में शरीक होंगे। अपनी सरकार द्वारा लगाए गए धारा 144 का विरोध करेंगे। पर दुख कि वो नहीं आए। दिल टूट गया।



किसी ने बताया कि यूपी और दिल्ली के धारा 144 में अंतर है (यूपी में चुनाव होने वाले हैं)। दोनों घटनाओं में शामिल आम आदमी में अंतर है। वो शायद पहचानते हैं। इसलिए नहीं आए।



हमने तो सोचा था कि आप अन्य राजनीतिज्ञों से अलग हो। आप में देश का भविष्य देखा। पर ये भूल गया कि राजनीति के कीचड़ में कभी कमल नहीं खिल सकता। इस हमाम में सब नंगे हैं।

Friday, June 3, 2011

आम आदमी की यह अजब दास्तान

मैंने तो सोचा था कि आम आदमी वह है, जो पैसों की गर्मी से फैलता और कमी से सिकुड़ता है। जो महंगाई की आहट से कांप जाता है। आम आदमी तो दुखों का ढेर है। अभावों का दलदल है। मुकम्मल बयान है, चेहरे पर दर्द का गहरा निशान है। तभी एक बात सोचकर मुस्करा दिया। किसी ने कहा था: फलों का राजा आम होता है। धत्, भला राजा भी कहीं ‘आम’ हो सकता है!

उस दिन भी रोज की तरह बगीचे में टहल रहा था। मन में अजब बेचैनी थी। तरह-तरह के ख्याल आ रहे थे। तभी मेरी नजर एक पके आम पर पड़ी। आम को देखते ही जाने क्यों आम आदमी का ख्याल आ गया। भाषण, लेख, हिदायतों और नसीहतों के बीच बचपन से ही आम आदमी के बारे में सुनता आ रहा हूं।

लगा कि भले बदलाव की तेज आंधी ही क्यूं न चले, पर आम आदमी के हाथ न कभी कुछ लगा है, न लग पाएगा। जब आम आदमी का जिक्र आता है तो मन में एक अजीब सहानुभूति आ जाती है। मैं सोच में डूबा सड़क पर आ गया। सोचा चलो आज सबसे पूछते हैं कि ये आम आदमी है कौन?

सामने मोटरसाइकिल दनदनाते दरोगाजी दिख गए। दुआ-सलाम के बाद उनसे पूछ ही लिया आम आदमी के बाबत। आम आदमी का नाम आते ही साहब लार टपकाते बोले - आम आदमी यानी पका फल, जिसे चूसने के बाद गुठली की तरह फेंक दिया जाता है। भाई साहब हमें तो यही ट्रेनिंग दी जाती है कि जब चाहो आम आदमी का मैंगो शेक बना लो या अचार डालकर मर्तबान में सजा लो। वैसे हमें आम आदमी का मुरब्बा बहुत पसंद है।

अभी आगे बढ़ा ही था कि एक रिक्शेवाला मिला। सोचा इनके भी विचार जान लेते हैं। पूछने पर पता चला कि वह पोस्ट ग्रेजुएट है और नौकरी नहीं मिलने की वजह से जीवन-यापन के लिए यह काम कर रहा है। बातचीत के दौरान ही मैंने सवाल दाग दिया, तुम आम आदमी के बारे में क्या सोचते हो? रिक्शेवाले ने मुझे टेढ़ी नजरों से देखा और बोला- आम आदमी? वह तो मेरे रिक्शे की तरह होता है। सारी जिंदगी चूं-चूं करते बोझ ढोता है। जब किसी के काम नहीं आता तो अंधेरी कोठी में कबाड़ की तरह डाल दिया जाता है।

रास्ते में मेरा स्कूल दिख गया। बचपन के इस स्कूल को देखते ही मैंने रिक्शा रुकवाया, दस का नोट पकड़ाया। स्कूल पहुंचा तो देखा पहले की तरह ही लकड़ी की कुर्सी पर बैठे गुरुजी ऊंघ रहे थे। स्कूल के फंड और मिड-डे मील पर चर्चा हुई। यहां भी वही सवाल। गुरुजी बोले, आम आदमी को मैं कोल्हू का बैल मानता हूं, जो नून-तेल-लकड़ी के लिए एक चक्कर में घूमता रहता है, लेकिन कहीं पहुंचता नहीं।


बातचीत में बहुत देर हो गई। घर आते ही मां बरस पड़ीं - इतनी देर कहां लगा दी? पैर में दर्द हो रहा है, सुबह से दवा के लिए बोल रही हूं। मां सचमुच दर्द से कराह रही थीं। मैं तुरंत डॉक्टर के पास चल पड़ा।


दवा लेने के बाद डॉक्टर साहब से भी सवाल दाग दिया। कान से आला निकालते हुए साहब दार्शनिक हो गए। बोले - आम आदमी हमारे लिए टीबी, मलेरिया, बुखार है। हमारे लिए वही सबसे भला है, जिसका इलाज हमारे क्लिनिक में लंबा चला है।

शाम सुहानी थी। मोहल्ले के कुछ दोस्तों ने दावत का प्रोग्राम बना दिया। जगह तो हरदम की तरह मोहल्ले के नेताजी का बरामदा थी। खाने का आनंद लेते समय नेताजी से भी पूछ बैठा आम आदमी के बारे में। नेताजी के चेहरे पर चमक आ गई। बोले, आम आदमी हमारे बड़े काम का है। हम जो चुनावी महाभारत रचते हैं, उसमें आम आदमी विपक्ष को पछाड़ने के लिए नोट है, बस इतना जान लें कि आम आदमी हमारे लिए अदना-सा वोट है।

मैं हैरत में था। सोचने लगा क्या आम आदमी की यही परिभाषा है? मैंने तो सोचा था कि आम आदमी वह है, जो पैसों की गर्मी से फैलता और कमी से सिकुड़ता है। जो महंगाई की आहट से कांप जाता है। आम आदमी तो दुखों का ढेर है। अभावों का दलदल है। मुकम्मल बयान है, चेहरे पर दर्द का गहरा निशान है। तभी एक बात सोचकर मुस्करा दिया। किसी ने कहा था: फलों का राजा आम होता है। धत्, भला राजा भी कहीं ‘आम’ हो सकता है!

Monday, May 16, 2011

मीडिया में गैर-हाजिर किसान

काश!

'सत्य सांई'

होते 'टिकैत'







इस शीर्षक को पढ़कर आप सोच रहे होंगे कि मैं कैसी बेतुकी बातें कर रहा हूं। भला महेंद्र सिंह टिकैत को सत्य सांई बनने की क्या जरूरत है। टिकैत एक किसान नेता थे और सांई प्रख्यात संत। सांई में आस्था रखने वालों में बड़ी-बड़ी हस्तियां शामिल थी। वहीँ टिकैत अभाव में जी रहे किसानो क़ि एकमात्र आवाज़ थे। सांई लोगों क़ि नज़रो में भगवान और टिकैत मामूली नेता किसान। फिर एक किसान को संत बनने की क्या जरूरत है। पर जरूरत है।

देश के दिग्गज किसान नेता महेंद्र सिंह टिकैत का निधन हो जाता है। उनके निधन की खबर शायद ही किसी न्यूज चैनल की ब्रेकिंग खबर बन पाती है। किसी ने भी इस खबर को अपने तेज-20 या 100 में जगह देना उचित नहीं समझा। कहीं खबर चली तो वह भी एक बार नाम के लिए। अखबारों में इस खबर के लिए एक कॉलम की जगह देकर जिम्मेदारी से छुट्टी पा ली गई। ( कुछ जिम्मेदार अखबारों और चैनलों को छोड़कर)


वहीं जब सत्य सांई का निधन हुआ था, तो सारा मीडिया टूट पड़ा था। चैनलों में प्राइम टाइम पैकेज चलाए गए, तो अखबारों के कई पेज भरे गए। उनकी बीमारी से लेकर संपत्ति के बटवारें तक की चर्चा की गई। उत्तराधिकारी के लिए बहसवाड़े का आयोजन किया गया। वसीयत पर एक्सक्लूसिव रिपोर्ट दी गई। ये है दो महान व्यक्तियों के निधन पर मीडिया कवरेज की असलियत।

इस बात पर अधिकतर मीडियावालों की दलील होती है कि, भईया हम कॉरपोरेट मीडिया युग में काम कर रहे हैं। भला एक किसान के मरने की खबर को इतनी प्रमुखता कैसे दे सकते हैं। मैं भी मानता हूं कि मोटी सैलरी के लिए पूंजी की जरूरत होती है। और पूंजी के लिए विज्ञापन की। और विज्ञापन के लिए वैसी खबरों की। इसलिए वैसी खबरें देना मजबूरी है। पर मेरा मानना है कि आप तेज-20 या 100 में ऐसी खबरों को एक जगह तो दे ही सकते हैं।

खैर, बिन मांगे सुझाव देने की क्या जरूरत। जो मीडिया पुलिस और प्रशासन के एंगल से खबर बनाता हो, वह भला इस बात को क्या समझेगा। हाल ही में ग्रेटर नोयडा के भट्टा-परसौल में हुए पुलिस-किसान संघर्ष में अधिकतर मीडिया घरानों ने प्रशासन के एंगल से खबर लगाई थी। अखबारों में शीर्षक था- 'पुलिस-किसान में खूनी संघर्ष, 2 पुलिस वालों सहित 4 की मौत'। इस शीर्षक में दो किसानों की मौत को छुपा लिया गया। क्या पुलिस वालों की जान, किसान की जान से ज्यादा कीमती है?

हम बचपन से पढ़ते आ रहे हैं कि हमारा देश को कृषि प्रधान देश है। गांवों का देश है। पर दुर्भाग्य है इस देश का कि जिसके बलबूते पर हैं, उसी की सबसे ज्यादा बेइज्जती करते हैं। किसान अपने हक क़ि आवाज़ उठाते हैं तो उनका दमन करते हैं। उस पर पड़ने वाली हर लाठी में अपनी जीत का जश्न मनाते हैं।

निर्दोष मौत के बाद भी उसको मीडिया में भी वो जगह नहीं मिल पाती. जो लोगो में किसान के प्रति संवेदना जगाये। जो ये बताये क़ि अपने हक के लिए लड़ने वाले के साथ ये सुलूक कहां का इन्साफ है। हर तरफ से उपेक्षित हुआ किसान अब मीडिया से भी कोई आस नहीं लगा सकता। लोकतंत्र और कमजोरों निरीहों का तथाकथित पहरेदार मीडिया भी आंखें बंद करके इस दमनचक्र का गवाह जो बना हुआ है।


http://www.samachar4media.com/


http://www.samachar4media.com/content/mukesh-kumar-artical-on-media-00091%20


http://vichar.bhadas4media.com/media-manthan/1276-2011-05-16-12-59-15.html

Monday, May 9, 2011

ओसामा के माफिक 'तेवतिया' के पीछे पड़े माया के वर्दीवाले गुंडे

वेस्ट यूपी के ग्रेटर नोएडा, अलीगढ़, मथुरा और आगरा के किसान हक के हवन कुंड में जल रहे हैं। खाकी खून की प्यासी हो गई है। बच्चे, बूढ़े, जवान सब पर वर्दी कहर बरपा रही है। जमीन की जंग में समूचे खेत और गांव जलाए जा रहे हैं। सियासत के सपेरें, तपते हुए इस मामले पर भी अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने भागे-भागे आ रहे हैं। यहां गिरफ्तारी देने की होड़ मची है। ऐसा लग रहा है, जैसे गिरफ्तारी के बाद मिलने वाले प्रसाद से इन सभी को मोक्ष मिल जाएगा।

इनाम की घोषणा कर ओसामा की माफिक यूपी पुलिस कथित किसान नेता 'तेवतिया' को ढूढ़ रही है। अपनी मांग को लेकर विद्रोह करने वाले शख्स को अपराधी घोषित कर दिया गया है। इस शख्स की पत्नी का कहना है कि, उसका पति अपराधी नहीं समाजसेवी हैं। यदि वह अपराधी हैं, तो अन्ना और केजरीवाल क्या हैं? पुलिस इलाके में डेरा डाले हुए है। उनके आतंक का आलम यह है कि किसान गांव छोड़कर भाग गए हैं। इस रवैये से साफ जाहिर हो रहा है कि मायावती के वर्दीवाले गुंडों ने आंदोलनकारी किसानों को सबक सिखाने का फैसला कर लिया है।

उदाहरण पेश करना चाहती है सरकार
कोशिश है कि किसानों का ऐसा दमन करो कि मिसाल कायम हो जाए। फिर कोई दूसरा सरकार के खिलाफ सर उठाने की कोशिश ना करें। जैसा अमेरिका ने ओसामा को मारकर विश्व के सामने एक उदाहरण पेश किया कि हमसे पंगा लोगे तो ऐसा ही होगा, कुछ इसी तरह यूपी सरकार तेवतिया को पकड़ कर उदाहरण देना चाहती है।

विकास के नाम पर कत्ल
पश्चिम उत्तरप्रदेश के विभिन्न इलाकों में अधिग्रहण और उसके विद्रोह का मामला कोई नया नहीं है। दिल्ली के फैलने के साथ आस-पास के इलाकों में शहरी क्षेत्र बसाने की प्रक्रिया शुरू हो गई थी। इस क्षेत्र के लोगों की जरूरत पूरी करने के लिए सड़क और उद्योग बसाने के लिए जमीन की जरूरत पड़ी। ऐसे में पहले नोएडा फिर ग्रेटर नोएडा का जन्म हुआ।

वेस्ट यूपी के इलाके की धरती सोना उगलती है। हरित क्रांति को सफल बनाने में इस क्षेत्र की बड़ी भूमिका रही है। इस उपजाऊं धरती को किसानों से छीनकर सरकार कंक्रीट का जहां बसाना चाहती है। सरकार ने बिल्डरों, रीयल इस्टेट कंपनियों और देशी-विदेशी बड़ी कंपनियों के हक में किसानों के खिलाफ एक तरह से हल्ला-बोल दिया है। सीधे-सीधे सरकार की अगुवाई में बड़े पैमाने पर किसानों की जमीन लूटी जा रही है।

क्या करें किसान
पेट मार लात मार रही सरकार से झल्लाये किसान विद्रोह ना करें तो क्या करें? विकास के नाम पर किसी की रोजी-रोटी छीनने की कोशिश की जाएगी तो यही हाल होगा। इन इलाकों के किसानों का कहना है कि मुआवजा तो एक समय तक चलता है, फिर इसके बाद का क्या होगा। कुछ किसानों का कहना है कि मुआवजा मिलने से हमारी आगामी पीढी़ भी खराब हो रही है। अचानक आए धन का नकारात्मक प्रभाव इन पर पड़ रहा है।

दलाली ना करे सरकार
यहीं, कुछ किसानों का मानना है कि, यदि विकास के लिए जमीन की जरूरत है तो उन्हें मुआवजा बाजार भाव के हिसाब से दिया जाए। सरकार जमीन की दलाली छोड़ दे। किसान, व्यापारियों से सीधे डील करना चाहते हैं। लेकिन पता नहीं क्यों सरकार को इससे आपत्ति है? अपनी ताकत की बदौलत वह किसानों की आवाज दबाना चाहती है।

कहीं लीबीया और मिश्र जैसा ना हो जाए हश्र
यूपी सरकार को नहीं भूलना चाहिए कि जब आवाम ठान लेती है तो बड़ी से बड़ी ताकत घुटने टेकने पर मजबूर हो जाती है। इसका ताजा उदाहरण लीबीया और मिश्र में हुई क्रांति है। अब समय रहते सरकार को चेत जाना चाहिए, वरना गद्दाफी और मुबारक जैसा हश्र होने में देर नहीं लगेगी।

Wednesday, April 27, 2011

जर्जर योजनाओं से हिचकोले खाता विकास का पहिया

अपने एक दोस्त की शादी में शामिल होने के लिए बिहार के गोपालगंज जिले में गया हुआ था। रात के तीन बज रहे थे। दोस्त अपने जीवन संगनी संग सात फेरे ले रहा था। उसका ससुराल हजारों बल्ब की रौशनी में जगमगा रहा था। हलवाई सुबह के नाश्ते का इंतजाम करने में लगे थे। मैं शोर से थोड़ा निजात पाने के लिए मंडप से बाहर निकला।

सड़के के उस पार लालटेन की धीमी रौशनी टीमटीमा रहीथी। साथ ही टार्च की हल्की लाइट में कोई कुछ लिखने की कोशिश कर रहा था। कौतुहलवश मैं उस रौशनी की तरफखिंचता चला गया। पास जाने पर देखा कि एक 55 साल के व्यक्ति बड़े-बड़े पन्नों पर कुछ लिख रहे थे। पूछने परपता चला कि वह गांव के स्कूल में टीचर हैं। और जनगणना से संबंधित काम कर रहे हैं।

पूरी रात काम करने वाले मास्टर साहब से जब पूछा कि आप कल बच्चों को कैसे पढाएंगे, तो उन्होंने कहा कि, जबतक यह काम चलेगा तब तक स्कूल में छुट्टी रहेगी। और कुरेदने पर तो उनके दिल का दर्द ही छलक उठा। उन्होंनेजो बयां किया, वो आप भी जान लीजिए। एक लम्बी सांस छोड़ते हुए कहने लगे क़ि जनगणना के काम का बोझहम शिक्षको पर लाद दिया गया है।

हमें तो कुछ कहने तक का अवसर नहीं दिया गया। अब हम बच्चो को पढाये या जनगणना के काम में अपनीचप्पलें घिसे। हमारी हालत फिल्म 'थ्री ईडियट्स' के प्रोफेसर कि तरह हो गयी है जो एक समय में अपने दोनों हाथोंसे लिखता था और दो अलग-अलग काम एक साथ कर सकता था।


जनगणना जैसे अतिरिक्त काम ने तो हमारे जीवन कागणित ही बिगाड़ दिया है। अब इससे ज्यादा क्या कहे क़िहमारी निजी ज़िन्दगी भी कभी थी, इसको ही भूल बेठे हैं।स्कूल के बच्चो के लिए तो समय निकालना दीगर बात है, अपने बच्चों के चेहरे देखने तक का वक़्त नहीं मिलता।खाने-पीने की तो सुध ही नहीं, नींद भी पूरी नहीं हो पाती।

आंखों पर मोटा चश्मा लगाए ठण्ड से कांपते मास्टर साहबने बताया कि हमें तो दोहरी जिम्मेदारी दे दी गयी है। थोड़ीसंवेदना तो रखी होती हमसे भी। सर्दी जब कहर बरपा रही थी तब हम घर-घर के चक्कर काट रहे थे।

हमें शुरुआत में काफी दिक्कते आई। हर दरवाजे पर इंतज़ार करना मन में चिडचिडाहट भी पैदा कर देता था। कुछलोग तो अंदर आने को भी पूछ लेते हैं पर कुछ बाहर से ही रुखसत कर देते हैं। धीरे-धीरे इस बातों की आदत सीहोने लगी है। स्कूल में भी हमारे साथी एक दूसरे क़ि हालत पूछ कर खुद को तसल्ली देने क़ि कोशिश करते रहते हैं।कभी ना कभी तो काम निपटेगा इसी आस में लगे हैं कोल्हू के बैल की तरह। एक से दूसरे घर, दूसरे से तीसरे औरफिर यही क्रम रोज़ चलता रहता है।

काम निपटने को आ गया पर नींद अब भी हराम है। एक अनचाहा डर सताने लगा है क़ि सरकार आने वाले दिनों मेंऔर कौन-कौन से काम हमसे करवाएगी। हमारे उपर तो देश के भविष्य क़ि ज़िम्मेदारी है फिर हमें क्यूं ऐसे कामोंमें लगाया गया। कोई कुछ भी कहे पर सौ क़ि एक बात कहूंगा क़ि शायद ही कोई शिक्षक इस अनुभव को दोबाराजीने के लिए उत्सुक होगा।

अब बताइए कि देश के भविष्य के साथ ये क्या हो रहा है। जिस व्यक्ति का काम पढ़ना और पढ़ाना है, वह रात-दिन जनगणना का काम कर रहा है। यह नजारा केवल बिहार का ही नहीं कमोवेश पूरे देश का है।

 
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