Pillar of True Journalism to save Public Domain

Monday, May 16, 2011

मीडिया में गैर-हाजिर किसान

काश!

'सत्य सांई'

होते 'टिकैत'







इस शीर्षक को पढ़कर आप सोच रहे होंगे कि मैं कैसी बेतुकी बातें कर रहा हूं। भला महेंद्र सिंह टिकैत को सत्य सांई बनने की क्या जरूरत है। टिकैत एक किसान नेता थे और सांई प्रख्यात संत। सांई में आस्था रखने वालों में बड़ी-बड़ी हस्तियां शामिल थी। वहीँ टिकैत अभाव में जी रहे किसानो क़ि एकमात्र आवाज़ थे। सांई लोगों क़ि नज़रो में भगवान और टिकैत मामूली नेता किसान। फिर एक किसान को संत बनने की क्या जरूरत है। पर जरूरत है।

देश के दिग्गज किसान नेता महेंद्र सिंह टिकैत का निधन हो जाता है। उनके निधन की खबर शायद ही किसी न्यूज चैनल की ब्रेकिंग खबर बन पाती है। किसी ने भी इस खबर को अपने तेज-20 या 100 में जगह देना उचित नहीं समझा। कहीं खबर चली तो वह भी एक बार नाम के लिए। अखबारों में इस खबर के लिए एक कॉलम की जगह देकर जिम्मेदारी से छुट्टी पा ली गई। ( कुछ जिम्मेदार अखबारों और चैनलों को छोड़कर)


वहीं जब सत्य सांई का निधन हुआ था, तो सारा मीडिया टूट पड़ा था। चैनलों में प्राइम टाइम पैकेज चलाए गए, तो अखबारों के कई पेज भरे गए। उनकी बीमारी से लेकर संपत्ति के बटवारें तक की चर्चा की गई। उत्तराधिकारी के लिए बहसवाड़े का आयोजन किया गया। वसीयत पर एक्सक्लूसिव रिपोर्ट दी गई। ये है दो महान व्यक्तियों के निधन पर मीडिया कवरेज की असलियत।

इस बात पर अधिकतर मीडियावालों की दलील होती है कि, भईया हम कॉरपोरेट मीडिया युग में काम कर रहे हैं। भला एक किसान के मरने की खबर को इतनी प्रमुखता कैसे दे सकते हैं। मैं भी मानता हूं कि मोटी सैलरी के लिए पूंजी की जरूरत होती है। और पूंजी के लिए विज्ञापन की। और विज्ञापन के लिए वैसी खबरों की। इसलिए वैसी खबरें देना मजबूरी है। पर मेरा मानना है कि आप तेज-20 या 100 में ऐसी खबरों को एक जगह तो दे ही सकते हैं।

खैर, बिन मांगे सुझाव देने की क्या जरूरत। जो मीडिया पुलिस और प्रशासन के एंगल से खबर बनाता हो, वह भला इस बात को क्या समझेगा। हाल ही में ग्रेटर नोयडा के भट्टा-परसौल में हुए पुलिस-किसान संघर्ष में अधिकतर मीडिया घरानों ने प्रशासन के एंगल से खबर लगाई थी। अखबारों में शीर्षक था- 'पुलिस-किसान में खूनी संघर्ष, 2 पुलिस वालों सहित 4 की मौत'। इस शीर्षक में दो किसानों की मौत को छुपा लिया गया। क्या पुलिस वालों की जान, किसान की जान से ज्यादा कीमती है?

हम बचपन से पढ़ते आ रहे हैं कि हमारा देश को कृषि प्रधान देश है। गांवों का देश है। पर दुर्भाग्य है इस देश का कि जिसके बलबूते पर हैं, उसी की सबसे ज्यादा बेइज्जती करते हैं। किसान अपने हक क़ि आवाज़ उठाते हैं तो उनका दमन करते हैं। उस पर पड़ने वाली हर लाठी में अपनी जीत का जश्न मनाते हैं।

निर्दोष मौत के बाद भी उसको मीडिया में भी वो जगह नहीं मिल पाती. जो लोगो में किसान के प्रति संवेदना जगाये। जो ये बताये क़ि अपने हक के लिए लड़ने वाले के साथ ये सुलूक कहां का इन्साफ है। हर तरफ से उपेक्षित हुआ किसान अब मीडिया से भी कोई आस नहीं लगा सकता। लोकतंत्र और कमजोरों निरीहों का तथाकथित पहरेदार मीडिया भी आंखें बंद करके इस दमनचक्र का गवाह जो बना हुआ है।


http://www.samachar4media.com/


http://www.samachar4media.com/content/mukesh-kumar-artical-on-media-00091%20


http://vichar.bhadas4media.com/media-manthan/1276-2011-05-16-12-59-15.html

Monday, May 9, 2011

ओसामा के माफिक 'तेवतिया' के पीछे पड़े माया के वर्दीवाले गुंडे

वेस्ट यूपी के ग्रेटर नोएडा, अलीगढ़, मथुरा और आगरा के किसान हक के हवन कुंड में जल रहे हैं। खाकी खून की प्यासी हो गई है। बच्चे, बूढ़े, जवान सब पर वर्दी कहर बरपा रही है। जमीन की जंग में समूचे खेत और गांव जलाए जा रहे हैं। सियासत के सपेरें, तपते हुए इस मामले पर भी अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने भागे-भागे आ रहे हैं। यहां गिरफ्तारी देने की होड़ मची है। ऐसा लग रहा है, जैसे गिरफ्तारी के बाद मिलने वाले प्रसाद से इन सभी को मोक्ष मिल जाएगा।

इनाम की घोषणा कर ओसामा की माफिक यूपी पुलिस कथित किसान नेता 'तेवतिया' को ढूढ़ रही है। अपनी मांग को लेकर विद्रोह करने वाले शख्स को अपराधी घोषित कर दिया गया है। इस शख्स की पत्नी का कहना है कि, उसका पति अपराधी नहीं समाजसेवी हैं। यदि वह अपराधी हैं, तो अन्ना और केजरीवाल क्या हैं? पुलिस इलाके में डेरा डाले हुए है। उनके आतंक का आलम यह है कि किसान गांव छोड़कर भाग गए हैं। इस रवैये से साफ जाहिर हो रहा है कि मायावती के वर्दीवाले गुंडों ने आंदोलनकारी किसानों को सबक सिखाने का फैसला कर लिया है।

उदाहरण पेश करना चाहती है सरकार
कोशिश है कि किसानों का ऐसा दमन करो कि मिसाल कायम हो जाए। फिर कोई दूसरा सरकार के खिलाफ सर उठाने की कोशिश ना करें। जैसा अमेरिका ने ओसामा को मारकर विश्व के सामने एक उदाहरण पेश किया कि हमसे पंगा लोगे तो ऐसा ही होगा, कुछ इसी तरह यूपी सरकार तेवतिया को पकड़ कर उदाहरण देना चाहती है।

विकास के नाम पर कत्ल
पश्चिम उत्तरप्रदेश के विभिन्न इलाकों में अधिग्रहण और उसके विद्रोह का मामला कोई नया नहीं है। दिल्ली के फैलने के साथ आस-पास के इलाकों में शहरी क्षेत्र बसाने की प्रक्रिया शुरू हो गई थी। इस क्षेत्र के लोगों की जरूरत पूरी करने के लिए सड़क और उद्योग बसाने के लिए जमीन की जरूरत पड़ी। ऐसे में पहले नोएडा फिर ग्रेटर नोएडा का जन्म हुआ।

वेस्ट यूपी के इलाके की धरती सोना उगलती है। हरित क्रांति को सफल बनाने में इस क्षेत्र की बड़ी भूमिका रही है। इस उपजाऊं धरती को किसानों से छीनकर सरकार कंक्रीट का जहां बसाना चाहती है। सरकार ने बिल्डरों, रीयल इस्टेट कंपनियों और देशी-विदेशी बड़ी कंपनियों के हक में किसानों के खिलाफ एक तरह से हल्ला-बोल दिया है। सीधे-सीधे सरकार की अगुवाई में बड़े पैमाने पर किसानों की जमीन लूटी जा रही है।

क्या करें किसान
पेट मार लात मार रही सरकार से झल्लाये किसान विद्रोह ना करें तो क्या करें? विकास के नाम पर किसी की रोजी-रोटी छीनने की कोशिश की जाएगी तो यही हाल होगा। इन इलाकों के किसानों का कहना है कि मुआवजा तो एक समय तक चलता है, फिर इसके बाद का क्या होगा। कुछ किसानों का कहना है कि मुआवजा मिलने से हमारी आगामी पीढी़ भी खराब हो रही है। अचानक आए धन का नकारात्मक प्रभाव इन पर पड़ रहा है।

दलाली ना करे सरकार
यहीं, कुछ किसानों का मानना है कि, यदि विकास के लिए जमीन की जरूरत है तो उन्हें मुआवजा बाजार भाव के हिसाब से दिया जाए। सरकार जमीन की दलाली छोड़ दे। किसान, व्यापारियों से सीधे डील करना चाहते हैं। लेकिन पता नहीं क्यों सरकार को इससे आपत्ति है? अपनी ताकत की बदौलत वह किसानों की आवाज दबाना चाहती है।

कहीं लीबीया और मिश्र जैसा ना हो जाए हश्र
यूपी सरकार को नहीं भूलना चाहिए कि जब आवाम ठान लेती है तो बड़ी से बड़ी ताकत घुटने टेकने पर मजबूर हो जाती है। इसका ताजा उदाहरण लीबीया और मिश्र में हुई क्रांति है। अब समय रहते सरकार को चेत जाना चाहिए, वरना गद्दाफी और मुबारक जैसा हश्र होने में देर नहीं लगेगी।

 
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