Pillar of True Journalism to save Public Domain

Monday, October 24, 2011

कर्नल गद्दाफी और विद्रोहियों के आतंक की कहानी, सुनिए इस गवाह की जुबानी!


लीबिया के तानाशाह कर्नल गद्दाफी की मौत की पूरी दुनिया में चर्चा है। सभी इस पर अलग अलग तरह सोच रहे हैं। कोई इसे तानाशाही का अंत कह रहा है तो कोई इसे तेल का खेल। कुछ लोगों का कहना है कि पश्चिमी देशों ने तेल के कुओं पर अधिकार पाने के लिए गद्दाफी विरोधी लोगों को सह दिया था।


कुछ लोगों का कहना है कि गद्दाफी के तानाशाही रवैये के कारण वहां के लोगों में गुस्सा था। जिसकी परिणती उसके मौत के रूप में हुई। लीबिया के तानाशाह की मौत से कायम हुए शांति की वजह से केवल लीबियाई ही खुश नहीं है, बल्कि यह लहर यूपी तक पहुंच गई है।

उत्तर प्रदेश के महाराजगंज जिले के रहने वाले 34 वर्षीय अरविंद जायसवाल को गद्दाफी की मौत से न तो खुशी है ना गम। उनको तो वहां फैले अराजकता और खूनखराबे से मिली निजात से खुशी है। उनको आज भी वो मंजर भुलाए नहीं भूलता। पिछले आठ महीनों तक लीबिया में गद्दाफी विरोधी हिंसक आंदोलन में फंसे अरविंद को भयंकर मानसिक और शारीरिक पीड़ा का शिकार होना पड़ा था। अपने दुख में वह अकेले थे। कोई नहीं साथ देने वाला था। यहां तक की दूतावास के भारतीय अधिकारियों से भी उनको कोई मदद नहीं मिली।

अपनी सारी उम्मीदें खो चुके थे, लेकिन तभी चमत्कार हुआ और उनको घर आने का मौका मिला। अंतत: 15 सितंबर की शाम घर लौट आए। जायसवाल के साथ तीन बांग्लादेशी नागरिकों को भी इस विध्वंशक परिस्थिती से मुक्ति मिली। ये इनके साथ लीबिया में काम कर रहे थे।

अरविंद ने कहा कि, "मुझे विश्वास नहीं हो रहा है कि मैं सुरक्षित हूं। वहां की सड़क के किनारे पर गोलीबारी एक आम नजारा था। भगवान का शुक्र है कि हम जिंदा बच कर आ गए। 

18 जनवरी 2011 को लीबिया काम करने के लिए गए अरविंद अपने पीछे पत्नी सविता देवी और तीन बच्चों को छोड़ गए थे। उन्होंने कहा कि, ''वहां के हालात इतने खराब हैं कि हम अपने निवास में ही फंसे हुए थे। बाहर निकलने पर गोलिय़ों के शिकार होने का खतरा था। एक दिन कुछ बंदूकधारी हमारे घर आए। हमने उन्हें बताया कि हम पिछले दो दिनों से कुछ खाए नहीं हैं, तो उन्होंने हमें भोजन दिया और चले गए।''
  
अरविंद ने बताया कि, "पिछले तीन महीनों से हम लगातार भारत सरकार से भारतीय दूतावास के जरिए संपर्क में थे। लेकिन उनका कोई संतोषजनक जवाब नहीं मिलता था। मैं जिस कंपनी में काम करता था, उसी से वापस भारत जाने का अनुरोध किया तो उन्होंने मदद की और हम भारत लौटने में कामयाब रहे।


कटेंट साभार दैनिक साभार डॉट कॉम

Tuesday, October 18, 2011

मुझे शर्म आती है...


मुझे कभी कभी शर्म आती है। इस पेशे पर। अपने दोस्तों पर। लोगों पर। प्रसिद्ध साहित्यकार श्रीलाल शुक्ल कई दिनों से गम्भीर रूप से बीमार हैं। उनको अस्पताल में भर्ती कराया गया है। डॉक्टरों के मुताबिक उनकी हालत नाजुक है। ऐसे महान साहित्यकार की गंभीर तबियत खराब है, लेकिन अभी तक यह नेशनल मीडिया के लिए महत्वपूर्ण नहीं बन पाई है। 


भला बने भी कैसे इस स्टोरी पर टीआरपी (टीवी रेटिंग) और पेजव्यू (वेबसाइट में खबरों की रेटिंग) कम आने का जो खतरा है। मेरे हर मीडियाकर्मी मित्र को पता है कि ऐसी खबरें मुनाफेदार नहीं होती। चलिए मान लिया कि मीडिया को इस खबर से मुनाफा नहीं था इसलिए इसका महत्व नहीं दिया। लेकिन उन लोगों का क्या जो मीडिया से जुड़े नहीं हैं। जो खबरें पढ़ते और सुनते हैं। आखिरकार यही लोग तो तय करते हैं कि किसी खबर की टीआरपी या पेजव्यू क्या होगा।


मैंने सोशल नेटवर्किंग साइट फेसबुक पर इस संबंध में एक पोस्ट डाली। लिखा कि, ''प्रसिद्ध साहित्यकार श्रीलाल शुक्ल गम्भीर रूप से बीमार है। उनको लखनऊ के गोमतीनगर स्थित सहारा अस्पताल में भर्ती कराया गया है। खबर है कि उनको साहित्य जगत का सर्वोच्च सम्मान ज्ञानपीठ पुरस्कार आज अस्पताल में ही दिया जाएगा। डॉक्टरों का कहना है कि उनकी हालत नाजुक है। आइए हम सब मिलकर उनके स्वास्थ्य लाभ की कामना करें; क्योंकि दुआएं दवा से ज्यादा कारगर होती हैं।'' करीब चार घंटे बीत गए, लेकिन एक भी व्यक्ति ने इस पोस्ट पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दिया। मुझे बहुत ग्लानि हुई।


मैं सोचने लगा कि इतना प्रखर साहित्यकार जिसे अस्पताल में ज्ञानपीठ पुरस्कार जैसा साहित्य जगत का सर्वोच्च सम्मान मिलने वाला है। उससे संबंधित पोस्ट पर एक भी साथी ने कमेंट करना मुनासिब क्यों नहीं समझा। आखिरकार जो लोग खुद को साहित्यकार या साहित्य का प्रेमी समझते हैं वो इतना संवेदना शून्य कैसे हो गए हैं। जबकि मेरे फेसबुक फ्रेंड लिस्ट में कई साहित्कार और साहित्य प्रेमी मित्र भी हैं।


खैर, अपनी पहली पोस्ट के चार घंटे के बाद मुझे रहा नहीं गया तो मैने एक और पोस्ट डाली। इंतजार किया। लगा कि इस बार तो लोगों की प्रतिक्रिया जरूर मिलेगी। पर निराशा हाथ लगी। मेरा एक इंजीनियर मित्र ने इसके लिए अफसोस जाहिर किया, लेकिन और किसी भी मित्र का एक भी कमेंट नहीं आया। यह भी तय था कि यदि पूनम पांडे से संबंधित कोई पोस्ट डाला होता तो कमेंट्स की भरमार हो जाती। बता दूं कि पूनम पांडे के एक वीडियो को एक हफ्ते में 70 लाख लोगों ने देखा था।


भई, अब मैं इतना समझ चुका हूं कि ऐसे मुद्दों पर हमारे मीडियाकर्मी मित्रों से ज्यादा वो लोग दोषी हैं, जो खुद को संवेदनशील होने का ढ़ोंग करते हैं। यदि आप ऐसी खबरों को पढ़ना शुरू कर देते हैं। जो निश्चित ही टीआरपी और पेजव्यू अधिक रहेंगे। ऐसे में पत्रकारिता और ड्यूटी दोनों हो जाएगी।


बताता चलूं कि श्रीलाल शुक्ल को सांस लेने में तकलीफ की शिकायत है। उनके फेफड़े में संक्रमण है। फिलहाल वह आईसीयू में भर्ती हैं। उनको 20 सितम्बर को वर्ष 2009 के लिए 45वां ज्ञानपीठ पुरस्कार कहानीकार अमरकांत के साथ संयुक्त रूप से देने की घोषणा की गई थी।




उनके लिए जिन्हें नहीं पता कि कौन है  श्रीलाल शुक्ल 


हिन्दी के प्रमुख साहित्यकार श्रीलाल शुक्ल का जन्म उत्तर प्रदेश में सन् 1925 में हुआ था। उनका पहला प्रकाशित उपन्यास 'सूनी घाटी का सूरज' (1957) तथा पहला प्रकाशित व्यंग 'अंगद का पांव' (1958) है। स्वतंत्रता के बाद के भारत के ग्रामीण जीवन की मूल्यहीनता को परत दर परत उघाड़ने वाले उपन्यास 'राग दरबारी' (1968) के लिये उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। उनके इस उपन्यास पर एक दूरदर्शन-धारावाहिक का निर्माण भी हुआ। श्री शुक्ल को भारत सरकार ने 2008 मे पद्मभूषण पुरस्कार से सम्मानित किया है।


उपन्यास:  सूनी घाटी का सूरज · अज्ञातवास · रागदरबारी · आदमी का ज़हर · सीमाएँ टूटती हैं। कहानी संग्रह:  यह घर मेरा नहीं है · सुरक्षा तथा अन्य कहानियां · इस उम्र में। व्यंग्य संग्रह:  अंगद का पांव · यहां से वहां · मेरी श्रेष्ठ व्यंग्य रचनायें · उमरावनगर में कुछ दिन · कुछ जमीन पर कुछ हवा में · आओ बैठ लें कुछ देर। आलोचना: अज्ञेय: कुछ राग और कुछ रंग




         
http://bhadas4media.com/book-story/13541-------------.html

Sunday, October 16, 2011

30000 'बच्चों' के इस बाप की कहानी वाकई में है दिल छू लेने वाली!



यूपी के बुंदेलखण्ड में रहने वाली इस शख्स की कहानी दिल छू लेने वाली है। बेटे की मौत के बाद तड़प रहे इस शख्स ने गम को खुशी में बदलने का एक नायाब तरीका अपनाया। फिर क्या था, उसके बाद उसके एक नहीं, दो नहीं, पूरे 30 हजार बच्चे हो गए। जी हां, उसने अपनी सूखी जिन्दगी में संकल्प लिया धरती को हरा-भरा बनाने का।

चित्रकूट के रहने वाले भैयाराम अब चालीस बसंत पार कर चुके हैं। वह पिछले तीन सालों से जिले के पहरा वनक्षेत्र के करीब 30,000 वृक्षों की अपनी संतान की तरह सेवा और देखरेख कर रहे हैं। झोपड़ी में रह रहे भैयाराम पेड़ों को काटने वाले चोरों से उनकी रक्षा करने से लेकर उनकी निराई-गुड़ाई, कीड़ों से बचाव और सिंचाई तक का पूरा ख्याल रखते हैं।

उनके मुताबिक, 'ये पेड़ ही मेरे बेटे हैं। आज की तारीख में मेरे लिए इनसे बढ़कर कोई नहीं है। मेरे दिन और रात इन्हीं पेड़ों के साथ गुजरता है। मैं इन्हीं के बीच अपनी आखिरी सांस लेना चाहता हूं। उन्होंने इस बात का गर्व है कि इन हरे-भरे वृक्षों से पर्यावरण संरक्षण में मदद के साथ-साथ लोगों को सांस लेने के लिए स्वच्छ हवा मिलेगी। पर्यावरण और मानव जाति का कल्याण मेरा इकलौता पुत्र शायद दुनिया में होकर भी नहीं कर पाता।'

तीन साल पहले इकलौते बेटे की मौत के बाद भैयाराम ने इन पेड़ों को अपनी संतान मानकर इनकी सेवा को अपने जीवन का लक्ष्य बनाया। वह बताते हैं, 'पुत्र के जन्म के समय दस साल पहले मेरी पत्नी की मौत हो गई थी। उसके बाद मैंने अपने बेटे को पाल-पोषकर सात साल का किया। एक दिन अचानक रात को उसे उल्टियां हुईं और अस्पताल ले जाते समय रास्ते में उसकी मौत हो गई। पत्नी और फिर इकलौते बेटे की मौत के बाद मैं पूरी तरह से टूट गया। बिना किसी मकसद के अकेलेपन में जिंदगी गुजारने लगा।'

जुलाई 2008 में राज्य वन विभाग की तरफ से इस इलाके में विशेष पौधरोपण अभियान के तहत 30 हजार शीशम, नीम, चिलवल और सागौन जैसे पेड़ों को लगाया गया था। तब भैयाराम ने श्रमिक के तौर पर पेड़ों को रोपित कराया था। इसी दौरान उनके मन में ख्याल आया कि क्यों न इन पेड़ों को ही वह अपनी संतान मानकर इनकी देखभाल करें। उन्होंने स्थानीय वन अधिकारियों से अपने दिल की बात कही तो थोड़ी मान मनौवल के बाद वे राजी हो गए।

Tuesday, October 11, 2011

आडवाणी जी...कहीं ये प्रधानमंत्री बनने की आखिरी कोशिश तो नहीं!!!


महा'रथी' आडवाणी की एक और रथ यात्रा...



भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी ने बिहार के सिताबदियारा से अपनी 'जन चेतना यात्रा' की शुरुआत कर दी है। यात्रा से पहले ही राजनीतिक दांव पेंच और प्रधानमंत्री बनने के कयासों में उलझे आडवाणी ने साफ करना चाहा कि देश में सत्ता परिवर्तन से अधिक व्यवस्था परिवर्तन की आवश्यकता है और इस यात्रा का उद्देश्य आम जनमानस के मन में भ्रष्टाचार के खिलाफ चेतना पैदा करना है। उन्होने साफ किया कि इस यात्रा की शुरुआत भ्रष्टाचार को मिटाने के लिए की जा रही है। देश में सत्ता परिवर्तन से अधिक व्यवस्था परिवर्तन की आवश्यकता है। चलिए मान लेते हैं आडवाणी जी की बात। वह सत्ता के लिए नहीं व्यवस्था के लिए यात्रा निकाल रहे हैं। पर कौन समझाए इनको कि व्यवस्था परिवर्तन यात्राओं से नहीं होता, मजबूत इच्छाशक्ति से होता है। जो इन राजनेताओं में होना चाहिए। जिसका इनमें सर्वथा आभाव है।

आडवाणी जी कोई पहली बार रथयात्रा नहीं निकाल रहे हैं। इससे पहले वह 1990 में सोमनाथ से लेकर अयोध्या तक की राम रथयात्रा निकाल चुके हैं। इस यात्रा को देशव्यापी समर्थन मिला था। भारतीय जनता पार्टी इस रथयात्रा से अपने लक्ष्य को साधने में सफल रही। इस राजनीतिक रथयात्रा ने उसे अन्य दलों से अलग एक राष्ट्रीय पहचान और चरित्र भी दिया। कई राज्यों में भाजपा की सरकारें भी बनी। आडवाणी की इस रथयात्रा की सफलता ने भाजपा को केंद्रीय सत्ता तक पहुंचने की राह भी आसान कर दी। इसके बाद आडवाणी ने 1993 में जनादेश यात्रा निकाली। इस यात्रा में उनके साथ पार्टी के दिग्गज मुरली मनोहर जोशी, भैरो सिंह शेखावत और कल्याण सिंह मौजूद थे। इस यात्रा का भी व्यापक प्रभाव देखने को मिला।

सन 1997 में आजादी के पचास साल पूरे होने पर आडवाणी ने स्वर्ण जयंती रथयात्रा निकाली। यह यात्रा भी सफल रही। इसके बाद लोकसभा चुनाव 2004 से ठीक पहले भारत उदय रथयात्रा निकाली। यह यात्रा लोगों को रास नहीं आई। उस समय केंद्र में भाजपा शासित सरकार थी। सरकार जनता की अपेक्षाओं पर खरी नहीं उतरी थी। जमीन पर कार्यकरने की बजाय इस सरकार ने हवा में ज्यादा पुल बांधे थे। जिसका नतीजा यह हुआ कि तत्कालिक चुनाव में भाजपा के राजग गठबंधन को करारी शिकस्त मिली।

इस बार 2004 से माहौल जुदा है। भ्रष्टाचार और महंगाई को लेकर लोगों में गजब का गुस्सा है। अन्ना के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन ने पूरे देश को एक कर दिया। लोगों का आक्रोश रामलीला मैदान से ज्यादा देश की सड़कों पर दिखा। क्या बच्चे, क्या बूढ़े सब इस आंदोलन के रंग में रंग गए। राजनीतिक दलों ने लोगों का गुस्सा भांप लिया। भाजपा भी इस मौके को भुनाने के ताक पर लग गई। ऐसे में महारथी आडवाणी को अपनी यात्रा निकालने का यह बेहतर मौका लगा। अभी कुछ दिनों के बाद ही यूपी सहित देश के पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव और 2014 में लोकसभा का चुनाव होने हैं। राजगकी सरकार बनीं तो प्रधानमंत्री बनने का मौका मिल सकता है। राजग और देश में अपनी स्वाकार्यता बनाने के लिए सही अवसर है; और प्रधानमंत्री बनने के सपने को पूरा करने की आखिरी कोशिश भी। इस तरह आडवाणी का रथयात्रा पर जाने का ऐलान करना रथयात्रा के व्यापक मर्म और उसके राजनीतिक निहितार्थ को संदर्भित करता है।




हाईटेक यात्रा के लिए हाईटेक इंतजाम

सोमनाथ से शुरू पिछली रथयात्रा जिसमें मोदी भी थे  साथ

'जन चेतना यात्रा' में इस्तेमाल की जा रही हाईटेक बस आधुनिक सुख-सुविधा संपन्न है। जापानी बस में वे सभी सुविधाएं हैं जो आडवाणी की यात्रा को सुगम और आरामदायक बनाएंगे। इसमें आडवाणी के लिए एक एलसीडी लगाया गया है, जिसपर वह देश और दुनिया की खबरों से अवगत होते रहेंगे। 'मूविंग चेयर' और लिफ्ट की सुविधा है। यात्रा मार्ग में जहां भी आडवाणी को जन समूह को सम्बोधित करने की जरूरत पड़ेगी वह लिफ्ट की सहायता से ऊपर आ जाएंगे।

बस एक मंच के रूप में तब्दील हो जाएगा। इसके लिए लाउडस्पीकर और माइक जैसी चीजों का भी इंतजाम किया गया है। करीब 50 लाख रुपये की बस को आधुनिक सुविधाओं से लैस करने में और 50 लाख रुपये खर्च हुए हैं। मीडियाकर्मियों के लिए एक बस और एक एम्बूलेंस की भी व्यवस्था है। एक बस में खाने-पीने की चीजें हैं। ड्राइवर के नजदीक स्टीयरिंग के पास वाले स्थान पर भी कैमरे लगाए गए हैं। इनके जरिए ड्राइवर हर वक्त चारों ओर नजर रख सकता है।

BIRTH DAY SPECIAL: कवि के घर पैदा हुआ कलाकार


सन्‌ 1942 की सर्दियों में इलाहाबाद में जन्मे बिग बी की पूरे फिल्म इंडस्ट्री में तूती बोलती है। बचपन में उनके साथ एक बड़ी मनोरंजक घटना घटी थी। बात तब की है जब वह ढाई साल के थे। उस समय अमिताभ अपने माता-पिता के साथ नाना के घर जा रहे थे।

तभी लाहौर रेलवे स्टेशन पर अपने माता-पिता से बिछड़कर ओवरब्रिज पर पहुंच गए। उस समय मां तेजी टिकट लेने गई थीं और अमित पिता का हाथ छूट जाने से भीड़ में खो गए। मां-बाप के होश उड़ गए। बाद में अमिताभ मिल गए।



सांड ने ऐसा दी पटखनी कि बन गए हिम्मत वाले



अमिताभ बच्चन की बचपन की फोटो
खानदानी परंपरा के अनुसार अमित का मुंडन संस्कार विंध्य पर्वत पर देवी की प्रतिमा के आगे बकरे की बलि के साथ होना था, लेकिन बच्चनजी ने ऐसा कुछ नहीं किया। हां, उस दिन भी एक अद्भूत घटना घटी। अमितजी के मुंडन के दिन ही एक सांड उनके दरवाजे पर आया और उनको पटखनी देकर चला गया। अमितजी रोए नहीं। उनके सिर में गहरा जख्म हुआ था। कुछ टांके भी लगे थे। इस घटना पर परिवार वालों का कहना था कि यह भिड़ंत उनकी उस सहन शक्ति का 'ट्रायल रन' थी, जिसने उनको जिंदगी का सलीका सिखाया।



कवि के घर पैदा हुआ कलाकार



अमिताभ का जन्म 11 अक्तूबर को इलाहाबाद के हिंदू कायस्थ परिवार में हुआ था। उनके पिता, डॉ. हरिवंश राय बच्चन प्रसिद्ध हिन्दी कवि थे, जबकि उनकी माँ तेजी बच्चन कराची के सिख परिवार से संबंध रखती थीं। पहले बच्चन का नाम इंकलाब रखा गया था जो भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान प्रयोग में किए गए प्रेरित वाक्यांश इंकलाब जिंदाबाद से लिया गया था। लेकिन बाद में इनका फिर से अमिताभ नाम रख दिया गया जिसका अर्थ है, "ऐसा प्रकाश जो कभी नहीं बुझेगा"।


बात अब से कोई 23 साल पहले की है. राजीव गाँधी ने अपने पारिवारिक मित्र और फ़िल्म स्टार अमिताभ बच्चन को लोकसभा चुनाव लड़ाने का फ़ैसला किया.
अमिताभ लखनऊ आए. उनसे मेरी मुलाकात हुई इलाहबाद के कैबिनेट मंत्री श्याम सूरत उपाध्याय के घर पर. राजनीति मे अमिताभ का यह पहला क़दम था.


रास नहीं आई राजनीति


अमिताभ बच्चन ने इलाहाबाद से लोकसभा चुनाव लड़कर राजनीति में कदम रखा। इस चुनाव में वह रेकॉर्ड 62 फीसदी मतों के अंतर से जीते। राजनीति के मंजे हुए खिलाड़ी हेमवती नंदन बहुगुणा के लिए यह बहुत करारी हार थी।


ऐसा कहा जाता है कि अमिताभ के पिता हरिवंश राय बच्चन और माँ तेजी बच्चन को प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू का पारिवारिक मित्र होने का भरपूर लाभ मिला था।
लोक सभा का चुनाव प्रचार करते बिग बी


इंदिरा जी के शासन मे अमिताभ को फिल्मी बिजनेस में फायदा मिला। राजीव के राज मे अमिताभ को संसद की सदस्यता मिली।


मगर जब छोटे भाई के साथ-साथ उनका नाम भी बोफोर्स घोटाले मे उछला तो वह राजीव को गाँधी को अकेला छोड़ कर किनारे हो लिए. संसद सदस्यता से इस्तीफा दे दिया।




तथ्य साभार: भास्कर डॉट कॉम, विकीपीडिया

Monday, October 10, 2011

कहां तुम चले गए...


गजल सम्राट जगजीत सिंह अब हमारे बीच नहीं रहे। उन्होंने मुंबई के लीलावती अस्पताल में दम तोड़ दिया। करीब दो सप्ताह पहले ही उन्हे यहां भर्ती कराया गया था। उनकी आखिरी सांस के साथ ही मौशिकी की दुनिया का एक कालखंड समाप्‍त हो गया। 


जगजीत जिंदगी के आखिरी वक्‍त तक गाते रहे। जिस दिन उन्‍हें अस्‍पताल में भर्ती कराया गया, उस दिन भी मुंबई में उन्‍हें एक कार्यक्रम देना था। 70 साल के जगजीत सिंह को उस दिन पाकिस्तान के गजल गायक गुलाम अली के साथ एक कंसर्ट में हिस्सा लेना था। 




गजल गायकी को नया अंदाज देने के लिए जगजी‍त सिंह को हमेशा याद किया जाता रहेगा। जगजीत सिंह ने 1999 में आई फिल्‍म ‘सरफरोश’ के गीत ‘होश वालों को खबर क्‍या...’ को आवाज दी थी। 


मशहूर गायिका लता मंगेशकर के मुताबिक उन्‍होंने गजल गायकी में हर चीज बदल ली। बोल, सुर, ताल, आवाज...सब कुछ। उन्‍होंने गजल गाकर यह भी साबित किया कि गायिकी में दौलत-शोहरत कमाने के लिए बॉलीवुड से भी बाहर दुनिया है। 


जीवन की राह पर मजबूती से बढ़ाते रहे कदम


जगजीत सिंह राजस्थान के श्रीगंगानगर में जन्मे। उनके पिता संगीतकार बनने में असफल रहे, अत: अपने पुत्र के माध्यम से अपने सपने को साकार करना चाहते थे। लिहाजा वे जगजीत को संगीत गुरुओं के पास ले गए और सेन बंधुओं की शिक्षा उन्हें लंबे समय तक मिली। जालंधर के कॉलेज में पढ़ते हुए उनके गायन के कई लोग कायल हुए और वे मुंबई आए। उन्होंने लंबा संघर्ष किया। 


वह संगीत की शिक्षा देने कई जगह जाते थे और दत्ता की विवाहिता तथा कन्या मोनिका की मां चित्रा को उनसे प्रेम हो गया। हारमोनियम की पट्टी पर सीखने-सिखाने के समय दोनों की अंगुलियां टकराईं और प्रेम का संदेश आत्मा तक जा पहुंचा। दत्ता साहब ने नजाकत समझी और दृश्य पटल से पटाक्षेप कर गए। 




जगजीत-चित्रा का विवाह हुआ और विवेक नामक पुत्र का जन्म हुआ। मोनिका की भी शादी हो गई। निदा फाजली ने बताया कि एक बार लता मंगेशकर ने कहा था कि पाकिस्तान के गजल गायक मेहंदी हसन के गले में ईश्वर विराजते हैं। इसी तर्ज पर निदा का ख्याल है कि जगजीत सिंह के गले में अल्लाह विराजते हैं।


 मेहंदी हसन और जगजीत सिंह ने गजल गायकी में महारत हासिल की है। जगजीत सिंह और चित्रा ने लंदन में मिलकर गाया और उसी लाइव शो की रिकॉर्डिग जारी होकर अत्यंत लोकप्रिय हुई। उसमें निदा फाजली की प्रसिद्ध गजल ‘दुनिया जिसे कहते हैं, जादू का खिलौना है। 


'सबसे मधुर है गीत वही जो हम दर्द की धुन में गाते हैं'




जगमोहन से बने जगजीत
मिल जाए तो मिट्टी है, खो जाए तो सोना है’ गाया और बाद के अनेक रिकॉर्डस में उन्होंने निदा को गाया है। ‘इनसाइट’ नामक रचना में तमाम दोहे और गजलें निदा फाजली की हैं, जो उन्होंने खुद चुनीं। ज्ञातव्य है कि जगजीत सिंह उर्दू पढ़ते हैं। युवा पुत्र विवेक की कार दुर्घटना में हुई मृत्यु के बाद जगजीत सिंह ने अपने दर्द को अपने काम में डुबो दिया और उनका माधुर्य बढ़ गया। याद आता है अंग्रेजी कवि शैली का विश्वास ‘वी लुक बिफोर एंड आफ्टर, एंड पाइन फॉर व्हाट इज नॉट, अवर सिंसेयर लाफ्टर विद सम पेन इज फ्रॉट, अवर स्वीटेस्ट सांग्स आर दोज, दैट टेल ऑफ सेडेस्ट थॉट।’ इसी भाव को शैलेंद्र ने दोहराया है- सबसे मधुर है गीत वही जो हम दर्द की धुन में गाते हैं।




दरअसल सृजन दर्द के अंधे कुएं से ही उपजता है। एक ओर साहसी जगजीत सिंह ने गायन के रूप में अपनी आराधना जारी रखी, दूसरी ओर चित्रा बिखर गईं। मोनिका ने भी दो लड़कों को जन्म देकर 


जाने क्यों आत्महत्या कर ली और फिर ईश्वर ने जगजीत सिंह को आजमाया। वे हमेशा खरे उतरे। कैफी साहब का लिखा गीत ही जगजीत सिंह की जीवन शैली बना- ‘तुम इतना जो मुस्करा रहे हो, क्या गम है जिसको छुपा रहे हो।’




साभार: daininbhaskar.com

Saturday, October 8, 2011

मौत के क्रूर पंजों में जकड़ा मासूमों का जीवन, खत्म हो चुकीं हैं 400 जिंदगियां


पूर्वी यूपी में अधिकतर मां-बाप की रातें आंखों में कट जा रही है। मन बैचेन है। डर सता रहा है कि कहीं 'नौकी बीमारी' उनके लाल को न निगल जाए। डर इतना कि लाडले को छींक भी आ जाए तो कंठ सूख जाता है।


ऐसा हो भी क्यों ना। पूरे इलाके में मौत बनकर तांडव मचाने वाली नौकी बीमारी यानी जापानी इंसेफ्लाइटिस ने इस साल अब तक 400 मासूम बच्चों की सांसे छीन ली है। इतने ही करीब अस्पताल में भर्ती हैं। अकेले गोरखपुर के बीआरडी मेडिकल कालेज में ही करीब 2500 मरीज आ चुके हैं।


बताते चलें कि पूर्वी यूपी के गोरखपुर और आसपास के जिलों में 1978 से इंसेफ्लाइटिस महामारी के रूप में कहर ढा रही है। इसके सबसे आसान शिकार मासूम बच्चे है।


मरने वालों से कई गुना ज्यादा विकलांग और मानसिक बीमारों की संख्या है। सरकारी रिकार्ड में अब तक दस हजार बच्चों की मौतें हो चुकी हैं। जबकि तमाम मरीज ऐसे है जो निजी अस्पतालों में इलाज कराते रहें है जिनका सरकार के पास कोई रिकार्ड नही है।

पिछले 33 सालों में इस बीमारी से मरने वालों का अनुमानित आंकड़ा 25 हजार मौत और लाखों को विकलांग होने का है। इस साल गोरखपुर के बीआरडी मेडिकल कॉलेज और अन्य अस्पतालों में लगातार नये मरीज भर्ती हो रहें है।


                    खून से लिखा खत, ताकी पसीज जाए दिल




पूर्वी यूपी में इंसेफ्लाइटिस उन्मूलन अभियान चला रहें डा. आरएन सिंह के मुताबिक, पूर्वांचल के किसानों के मासूमों को एंसेफ्लाइटिस के क्रूर पंजों से बचाने के लिए एक ‘खून से खत का महाभियान’ चलाया गया।


‘खून से लिखे खत’ देश के प्रधानमंत्री, स्वास्थ्यमंत्री, योजना आयोग, सोनिया गांधी, राहुल गांधी व स्थानीय ‘पूर्वांचल’ के संवेदनशील सांसदों को लिखा गया।


पर फर्क किसी को नहीं पड़ा। यदि किसी ने पहल की भी तो अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने के लिए। बच्चों की चिताओं पर राजनीतिक रोटियां सेंक रहे इन राजनेताओं को शर्म भी नहीं आ रही है। सरकार तो पहले से ही असंवेदनशील है।




साभार: तथ्य दैनिक भास्कर डॉट कॉम

Thursday, October 6, 2011

एक लड़की के 'दर्द' की दर्दनाक कहानी, सुन आंखे छलक जाएंगी आपकी!


दर्द जब बेदर्द बन जाता है तो इंसान जीने की चाह छोड़ देता है। कोई शख्स कितना भी हिम्मती क्यों ना हो, लेकिन असहनीय दर्द को सहने की बजाय मौत को गले लगाना उचित समझता है। कुछ ऐसा ही हाल है कानपुर की रहने वाली अलका का। एप्लास्टी एनीमिया नामक बीमारी से पीड़ित 21 साल की एक अलका ने कोर्ट से इच्छा मृत्यु की गुहार लगाई है।

उनका कहना है कि सरकार या तो उसका इलाज कराने में मदद करे या फिर उसे इच्छा मृत्यु की इजाजत दे दी जाये। कानपुर शहर के पहाड़ी लाइन में झुग्गी में रहने वाली अलका नौ साल से एप्लास्टी एनीमिया से पीड़ित है। उसके पिता की मौत 1998 में हो चुकी थी। घर पर उनकी बूढ़ी मां सूरजमुखी और एक भाई ब्रज बिहारी रहते हैं। भाई ट्यूशन पढ़ाकर घर का खर्च चलाता है। ऐसे में इतनी खतरनाक और महंगे इलाज की दरकार रखने वाली बीमारी के इलाज के लिए उनके पास धन नहीं है।

भयंकर दर्द से कराहने वाली अलका का इलाज पहले कानपुर के उर्सला और हैलट अस्पताल में हुआ। कोई फायदा न होने पर यहां के डॉक्टरों ने उसका ब्लड टेस्ट कराया तो उसे ब्लड कैंसर की पुष्टि हो गयी। तब डाक्टरों ने उसे मुंबई जाने की सलाह दी। परिवार अपने खेत आदि बेचकर मुंबई गया लेकिन वहां के महंगे इलाज से परेशान हो कर लौट आया। जून 2011 में अलका के मुंह से खून आने पर शहर के डाक्टरों ने उसे तुरंत वेल्लोर के क्रिश्चियन मेडिकल कालेज जाने को कहा। वेल्लोर जाने पर डाक्टरों ने उसकी जांच कर बताया कि इसका इलाज केवल बोन मैरो ट्रांसप्लांट है। इस इलाज के लिए 20 लाख रूपये का खर्च होना है।

परिवार इतनी रकम कहां से जुटा पाएगा, यह सोचते हुए अलका ने अदालत से गुहार लगायी गई है कि सरकार इलाज के लिए पर्याप्त रकम दे या उन्हे इच्छा मृत्यु दे दी जाये। अब उसका दर्द असहनीय हो गया है। हालत दिन पर दिन ब दिन खराब होती जा रही है। जल्द इलाज न कराया गया तो दर्द से झटपटाती यह लड़की मर जाएगी।

अलका तिवारी की हालत बिगड़ने पर पीजीआई अस्पताल में भर्ती करा दिया गया है। वहीं कानपुर से सांसद श्रीप्रकाश जायसवाल ने उसे दिल्ली के एम्स में भर्ती कराने के प्रयास शुरु कर दिये हैं। बसपा के राज्यसभा सांसद गंगाचरण राजपूत इलाज के लिये सांसद निधि से 20 लाख रूपये दिलाने का वायदा किया है।


सूचना साभार dainikbhaskar.com

Wednesday, October 5, 2011

ये है माया की 'माया': जिसने भी लगाई इज्जत की बाट, उसकी खड़ी कर दी खाट!

यूपी की मुख्यमंत्री मायावती का तेवर इन दिनों देखते ही बन रहा है। पिछले कुछ महिने के हालात पर गौर करें तो माया के फैसलों ने न केवल लोगों को चौंकाया है, बल्कि विपक्षी पार्टियों के हाथ से भी चुनावी मुद्दा करीब छीन लिया है। हाल ही में माया ने माध्यमिक शिक्षा मंत्री रंगनाथ मिश्र तथा श्रम मंत्री बादशाह सिंह को मंत्री पद से तब तक के लिए हटा दिया है, जब तक की ये दोनों मंत्री जांच में निर्दोष साबित नहीं हो जाते। इससे पहले भी वह कई मंत्रियों, बसपा कार्यकर्ताओं और अधिकारियों को दंडित या पदच्यूत कर चुकीं हैं। चुनाव से एन वक्त पहले मायावती का यह रुख चौंकाने वाला है। कोई इसे ऑपरेशन क्लीन का नाम दे रहा है, तो कोई राजनीतिक स्टंट।




जिसने भी लगाई इज्जत की वाट, उसकी खड़ी कर दी खाट





मायावती ने बहुजन समाज पार्टी की छवि को धक्का पहुंचाने वालों को बिना माफ किए तत्काल बाहर का रास्ता दिखा दिया। मई 2007 में राज्य की चौथी बार बागडोर सम्भालने मायावती ने अपने कार्यकाल के दौरान 26 प्रभावशाली लोगों को सरकार या पार्टी से निकाल बाहर किया है। इस हिट लिस्ट में तमाम मंत्री, सांसद, विधायक, पार्टी के बडे पदाधिकारी शामिल हैं। लोगों का मानना है कि माया पार्टी या सरकार की छवि को धक्का पहुंचाने वालों को वह बर्दाश्त नहीं करतीं हालांकि निकालने से पहले वह चेतावनी जरुर दे देती हैं। हाल में सांसद धनंजय सिंह और विधायक योगेन्द्र सागर के निलंबन और विधायक अशोक चन्देल की पार्टी से बर्खास्तगी से उन्होंने सबसे पहला झटका सांसद उमाकांत यादव को दिया था। फैजाबाद जिले के मिल्कीपुर विधानसभा सीट से विधायक आनन्द सेन यादव का खाद्य प्रसंस्करण मंत्री बनाने के कुछ ही महीनो बाद शशि नाम की युवती के अपहरण मामले में नाम आने पर उन्हें तत्काल मंत्री पद से हटा दिया था।


करीबी लोगों को भी नहीं बक्शा


ऐसा माना जाता है कि मायावती कुछ मामलों में अपने करीबियों को भी नहीं छोड़ती। प्रदेश की राजनीति में भूचाल ला देने वाले दो-दो मुख्य चिकित्साधिकारियों की हत्या के बाद मायावती ने अपने सबसे नजदीकी मंत्री बाबू सिंह कुशवाहा और अनन्त कुमार मिश्र को भी एक झटके में मंत्रिमंडल से निकाल दिया। उनके साथ ही भूमि विकास एवं जल संसाधन मंत्री अशोक कुमार दोहरे, मुस्लिम एवं समाज कल्याण राज्य मंत्री विद्या चौधरी. सूचना मंत्री सुधीर गोयल. राज्य मंत्री का दर्जा प्राप्त पन्ना लाल कश्यप. राज्य मंत्री रघुनाथ प्रसाद शंखवार. राज्य मंत्री का दर्जा प्राप्त इन्तजार आब्दी से भी अलग अलग समय पर विभिन्न वजहों से इस्तीफे ले लिये गये।


विकीलीक्स के तूफान से भी नहीं डगमगाई



मायावती अपने मजबूत इच्छाशक्ति के कारण विकीलीक्स के तूफान को भी यूं ही झेल गईं। इस केबल ने दावा किया था कि मायावती को 'अव्वल दर्जे की अति अहंकारी' है। इन पर प्रधानमंत्री बनने की धुन सवार है। अमरीकी कूटनयिकों की ओर से भेजे गए इस दस्तावेज़ में मायावती के धन एकत्रित करने के तरीक़ों पर चर्चा की गई है और साथ ही उनके व्यवहार की भी। केबल ने माया के करीबियों को भी दगाबाज बताया था। इनके सबसे विश्वासपात्र सतीश चंद्र मिश्र पर भी आरोप लगाया था। पर माया ने विकीलीक्स के आरोपो को बकवास बताते हुए निराधार बताया था।




मायावती को कोई राजनीतिक विरासत नहीं मिली है। उन्होंने अपने दम चार बार मुख्यमंत्री की गद्दी हासिल की है। दलितों की महारानी नाम से ख्यात माया ने कभी भी परिस्थितियों से समझौता नहीं किया है। इनके जीवन में जितने बार तूफान आया, उतनी बार उभरी हैं। एक राजनेता से ज्यादा एक महिला के रूप में मायावती की तारीफ होनी चाहिए।

तथ्य साभार दैनिक भास्कर डॉट कॉम

 
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