Pillar of True Journalism to save Public Domain

Monday, October 29, 2012

'मीडिया ट्रायल की बात निराधार'


ट्रायल मुकदमे का होता है, आरोपी का होता है, वह भी जांच के बाद। ट्रायल अदालत में होता है, वह भी तब जबकि पुलिस या ऐसी कोई अन्य राज्य शक्तियों से निष्ठ संस्था मामला वहां ले जाए या अदालत स्वयं संज्ञान लेकर जांच कराए। ट्रायल के बाद किसी को सजा मिलती है, तो कोई छूट जाता है। बहुस्तरीय न्याय व्यवस्था होने के कारण कई बार नीचे की अदालतों का फैसला ऊपर की अदालतें खारिज ही नहीं करतीं बल्कि यह कहकर कि निचली अदालत ने कानून की व्याख्या करने में भूल की, फैसला उलट भी देती हैं। ऐसा भी होता है कि कई बार सर्वोच्च न्यायालय उच्च न्यायालय के फैसले को न केवल उलट देता है बल्कि निचली अदालत की समझ की तारीफ भी करता है। तात्पर्य यह कि जहां सत्य जानने और जानने के बाद अपराधी को सजा दिलाने की इतनी जबरदस्त प्रक्रिया हो, वहां क्या मीडिया ट्रायल हो सकता है?

ट्रायल अखबारों या टीवी चैनलों के स्टूडियो में नहीं होना चाहिए। क्या भारतीय मीडिया अदालतों की इस मूल भूमिका को हड़प रही है? एक उदाहरण लें। चुनाव के महज कुछ वक्त पहले सांप्रदायिक रूप से संवेदनशील एक जिले के मुख्य चौराहे पर एक बम विस्फोट होता है। एक चैनल के कैमरे में एक दृश्य कैद होता है, जिसमें दिखाई देता है कि दो लोग एक कार में भाग रहे हैं। चैनल के रिपोर्टर द्वारा यह भी पता लगाया जाता है कि इस कार का नंबर जिस व्यक्ति का है, वह राज्य के एक प्रभावशाली नेता का भतीजा है। वह नेता उस क्षेत्र से चुनाव लड़ रहा है।

क्या सीआरपीसी की धारा 39 का अनुपालन करते हुए चुपचाप यह टेप क्षेत्र के पुलिस अधिकारी को देने के बाद मीडिया के दायित्य की इति-श्री हो जाती है? क्या यह खतरा नहीं है कि पूरे मामले को वह नेता महोदय दबा दें? यह संभव है कि जो लोग भाग रहे हों, वे निर्दोष दुकानदार हों या फिर अपराधियों ने ही उस कार को हाइजैक कर लिया हो, जो बाद की तफ्तीश से पता चले। लेकिन क्या यह उचित नहीं होगा कि सारे तथ्य जन संज्ञान में इसलिए लाए जाएं ताकि कोई सत्ताधारी प्रभाव का इस्तेमाल कर बच न सके? दोनों खतरों को तौलना होगा। एक तरफ व्यक्ति गरिमा का सवाल है और दूसरी तरफ जनता के विश्वास का या यूं कहें कि संवैधानिक व्यवस्था पर और प्रजातंत्र पर जनता की आस्था का सवाल।

फिर अगर मीडिया की गलत रिपोर्टिंग से किसी का सम्मान आहत हुआ है तो उसके लिए मानहानि का कानून है लेकिन अगर सत्ता में बैठा कोई नेता आपराधिक कृत्य के जरिए सांप्रदायिक भावना भड़का कर फिर जीत जाता है और मंत्री बनता है, उसके लिए बाद में कोई इलाज नहीं है। ऐसे में क्या यह मीडिया का दायित्व नहीं बनता कि तथ्यों को लेकर जनता में जाए और जनमत के दबाव का इस्तेमाल राजनीति में शुचिता के लिए करे? क्या मीडिया मानहानि के कानून से ऊपर है?

जब संस्थाओं पर अविश्वास का आलम यह हो कि मंत्री से लेकर विपक्ष तक विवादित दिखाई दें तो क्या मीडिया तथ्यों को भी न दिखाए? आज हर राजनेता जो भ्रष्टाचार का आरोपी है एक ही बात कह रहा है - 'जांच करवा लो, मीडिया ट्रायल हो रहा है।' मूल आरोप का जवाब नहीं दिया जा रहा है कि संपत्ति तीन साल में 600 गुना कैसे हो जाती है। कैसे एक कंपनी झोपड़पट्टी में ऑफिस का पता देकर करोड़ों का खेल करती है। जांच करवाने की वकालत करने वाले यह जानते हैं कि जांच के मायने अगले कई वर्षों तक के लिए मामले को खटाई में डालना है। अगर आरोपपत्र दाखिल भी हो जाए तो तीन स्तर वाली भारतीय अदालतों में वह कई दशकों तक मामले को घुमाते रह सकता है और कहीं इस बीच उसकी सरकार आ गई तो सब कुछ बदला जा सकता है।

दरअसल, यह सब देखना कि कहीं कोई गड़बड़ी तो नहीं हो रही है, वित्तीय व कानून की संस्थाओं का काम था। जब उन्होंने नहीं किया तब मीडिया को इसे जनता के बीच लाना पड़ा। अगर ये संस्थाएं अपना काम करतीं तो न तो किसी की संपत्ति तीन साल में 600 गुना बढ़ती, न ही ड्राइवर डायरेक्टर बनता और न ही फर्जी कंपनियां किसी नेता की कंपनी में पैसा लगातीं। यहां एक बात मीडिया के खिलाफ कहना जरूरी है। मीडिया को केवल तथ्यों को या स्थितियों को जनता के समक्ष लाने की भूमिका में रहना चाहिए। जब स्टूडियो में चर्चा करा कर एंकर खुद ही आरोपी से इस्तीफे की बात करता है तो वह अपनी भूमिका को लांघता है। मीडिया की भूमिका जन-क्षेत्र में तथ्यों को रखने के साथ ही खत्म हो जाती है, बाकी काम जनता और उसकी समझ का होता है। अगर इसे मीडिया ट्रायल की संज्ञा दी जाती है तो वह सही है।

एक अन्य प्रश्न भी है। क्या वजह है कि आज भी भ्रष्टाचार के मामलों में सजा की दर बेहद कम है? और जिन पर आरोप सालों से रहा है, वो या तो सरकर में हैं या सरकार बना -बिगाड़ रहे हैं। यह सही है कि मीडिया का किसी के मान-सम्मान को ठेस पहुंचाना बेहद गलत है। यह भी उतना ही सही है कि अगर किसी पर मीडिया ने ऐसे आरोप लगाए जो बाद में अदालत से निर्दोष साबित हों तो, मीडिया को कठघरे में होना चाहिए क्योंकि वह गलत सिद्ध हुआ, पर अगर यही आरोप ऊपर की अदालत से फिर सही सिद्ध हो जाए, तब क्या कहा जाएगा? क्या यह नहीं माना जाना चाहिए कि मीडिया सही साबित हुआ? एक और स्थिति लें।

अगर इसी मामले में सुप्रीम कोर्ट फिर से हाईकोर्ट के फैसले को उलट दे तो, मीडिया एक बार फिर गलत साबित होगा। कहने का मतलब यह कि मीडिया सही था या गलत यह इस बात पर निर्भर करेगा कि आरोपी में सीढ़ी दर सीढ़ी लडऩे का माद्दा कितना है। यानी, सत्य उसके सामथ्र्य पर निर्भर करेगा। यही कारण है कि आज देश में जहां तीन अपराध के मामले हैं, वहीं केवल एक सिविल मामला। ठीक इसके उलट ऊपरी अदालतों में यानी हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में अगर तीन मामले सिविल के होते हैं तो केवल एक अपराध का। कारण साफ है, जो समर्थ है, वह किसी स्तर तक अदालतों के दरवाजे खटखटा सकता है। अपराध में सजा पाने वाला अपनी मजबूरी के कारण निचली अदालतों से सजा पाने के बाद जेल की सलाखों को ही अपनी नियति मान लेता है। उसके लिए सत्य की खोज की सीमा है। ऐसे में मीडिया क्या करे? क्या तथ्यों को देना बंद कर दे?

लेखक- एनके सिंह, वरिष्ठ पत्रकार (दैनिक भास्कर से साभार)

Sunday, October 28, 2012

मीडिया की ताकत!


आज समाज में विश्वास का संकट है. हर संस्था या इससे जुड़े लोग अपने कामकाज के कारण सार्वजनिक निगाह में हैं. इसलिए मौजूदा धुंध में मीडिया को विश्वसनीय बनने के लिए अभियान चलाना चाहिए. इस दिशा में पहला कदम होगा, ईमानदार मीडिया के लिए नया आर्थिक मॉडल, जिसमें मुनाफा भी हो, शेयरधारकों को पैसा भी मिले, निवेश पर सही रिटर्न भी हो और यह मीडिया व्यवसाय को भी अपने पैरों पर खड़ा कर दे. यह आर्थिक मॉडल असंभव नहीं है.

मीडिया की ताकत क्या है? अगर मीडिया के पास कोई शक्ति है, तो उसका स्रोत क्या है? क्यों लगभग एक सदी पहले कहा गया कि जब तोप मुकाबिल हो, तो अखबार निकालो? सरकार को संवैधानिक अधिकार प्राप्त है. न्यायपालिका अधिकारों के कारण ही विशिष्ट है. विधायिका की संवैधानिक भूमिका है, उसे संरक्षण भी है. पर संविधान में अखबारों, टीवी चैनलों या मीडिया को अलग से एक भी अधिकार है? फिर मीडिया का यह महत्व क्यों?

जिसके पीछे सत्ता है, जिसे कानूनी अधिकार मिले हैं, सीमित-असीमित, वह तो समाज में सबसे विशिष्ट या महत्वपूर्ण है ही, पर मीडिया के पास तो न संवैधानिक अधिकार है, न संरक्षण. फिर भी उसे लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाता है. क्यों?
मीडिया के पास महज एक और एक ही शक्ति स्रोत है. वह है उसकी साख. मीडिया का रामबाण भी और लक्ष्मण रेखा भी. छपे पर लोग यकीन करते हैं. लोकधारणा है कि शब्द, सरस्वती के प्रसाद हैं. सरस्वती देवी, विद्या, ज्ञान की देवी या अधिष्ठात्री हैं. वे सबसे पूज्य, पवित्र और ईश्वरीय हैं. ज्ञान का संबंध जीवन के प्रकाश (सच, तथ्यपूर्ण, हकीकत, यथार्थ वगैरह) से है, अंधेरे (झूठ, छल, प्रपंच, छद्म वगैरह) से नहीं.

सरस्वती हमारे मानस में प्रकाश की, ज्ञान की, मनुष्य के अंदर जो भी सर्वश्रेष्ठ-सुंदर है, उसकी प्रतीक हैं. इसलिए छपे शब्द, ज्ञान या प्रकाशपुंज के प्रतिबिंब हैं. इसलिए हमारे यहां माना गया है कि छपे शब्द गलत हो ही नहीं सकते. सरस्वती के शब्दों पर तिजारत नहीं हो सकती. यही और यही एकमात्र मीडिया की ताकत है. शक्ति- स्रोत है. लोग मानते हैं कि जो छपा, वही सही है. टीवी चैनल, रेडियो, इंटरनेट, ब्लाग्स वगैरह सब इसी ‘प्रिंट मीडिया’ (छपे शब्दों) के ‘एक्सटेंशन’ (विस्तार) हैं. इसलिए इनके पास भी वही ताकत या शक्ति-स्रोत है, जो प्रिंट मीडिया के पास थी.

इस तरह, मीडिया के पास लोक साख की अपूर्व ताकत है. यह संविधान से भी ऊपर है. इसलिए संविधान के अन्य महत्वपूर्ण स्तंभ (जिन्हें संवैधानिक अधिकार प्राप्त हैं) भी मीडिया की इस अघोषित साख के सामने झुकते हैं. न चाहते हुए भी उसकी ताकत-महत्व को मानने-पहचानने के लिए बाध्य हैं. पर, मीडिया जगत को महज अपनी असीमित ताकत, भूमिका और महत्व का ही एहसास है, लक्ष्मण रेखा का नहीं. और लक्ष्मण रेखा के उल्लंघन का बार-बार अवसर नहीं मिलता! यह लोक जीवन का यथार्थ है. मीडिया अपनी एकमात्र पूंजी साख को बार-बार दावं पर लगाने लगे, तो क्या होगा? दावं पर लगाने के लिए फिर कोई दूसरी पूंजी नहीं है. ‘91 के उदारीकरण के दोनों असर हुए, अच्छे व बुरे भी. जीवन-देश के हर क्षेत्र में. मीडिया में भी. 1991 से ही शुरू हुई, पेज-थ्री संस्कृति. यह नयी बहस कि मीडिया का काम मनोरंजन करना है और सूचना देना भर है. इसी दौर में मीडिया में बड़ी पूंजी आयी, नौकरी की शर्तें बेहतर हुईं, पर यह सिद्धांत भी आया कि अब यह शुद्ध व्यवसाय है. विज्ञापन का व्यवसाय. खबरों का धंधा. इसका मकसद भी ‘अधिकतम मुनाफा’ (प्राफिट मैक्सिमाइजेशन) है.

1991 के उदारीकरण के बाद नया दर्शन था, हर क्षेत्र में निवेश पर कई गुणा रिटर्न या आमद यानी प्राफिट मैक्सिमाइजेशन. पर, जीवन के यथार्थ कुछ और भी हैं. जैसे रेत से तेल नहीं निकलता. उसी तरह मीडिया व्यवसाय में भी नैतिक ढंग से, वैधानिक ढंग से, स्वस्थ मूल्यों के साथ ‘अधिकतम वैधानिक कमाई’ की सीमा थी. चाहे प्रिंट मीडिया हो या न्यूज चैनल या रेडियो वगैरह.

तब शुरू क्या हुआ?

साख से सौदेबाजी. अपनी एकमात्र नैतिक ताकत की नीलामी! हुआ तो बहुत कुछ है, पर इसके पहले बताते चलें कि हो क्या सकता था? ईमानदारी से मीडिया के धुरंधर और बड़े लोग कोशिश करते कि ‘मीडिया का ईमानदार आर्थिक मॉडल’ ढ़ूंढ़ा जाये. इसके रास्ते थे, बड़ी तनख्वाहों पर पाबंदी लगती या कटौती होती. अखबारों की कीमतें बढ़ायी जातीं. समाज को बताया जाता कि ईमानदार मीडिया चाहते हैं, तो अखबार की अधिक कीमत देनी पड़ेगी. मुफ्त अखबार (दो-तीन रुपये में) चाहिए और ईमानदार पत्रकारिता, यह संभव नहीं. पाकिस्तान के अखबार आज भारत के अखबारों से काफी महंगे है, पर वे बिकते हैं. यह उल्लेख करना सही होगा कि पाकिस्तान की मीडिया ने वहां के तानाशाहों के खिलाफ जो साहस दिखाया, वह साहस तो भारत में है ही नहीं. वह भी भारतीय लोकतंत्र के अंदर. फिर भी गरीब पाकिस्तानी अधिक कीमत देकर अपनी ईमानदार मीडिया को बचाये हुए है.

गांधी ने जब अपनी पत्रिका ‘इंडियन ओपिनियन’ शुरू की थी, तो उन्हें इस द्वंद्व से गुजरना पड़ा. वगैर विज्ञापन, पत्रिका घाटे का सौदा थी. विज्ञापन से समझौते की शर्तें शुरू होती थीं. साख या मीडिया की एकमात्र नैतिक ताकत से सौदेबाजी, उन्हें पसंद नहीं आयी. इस द्वंद्व पर उन्होंने बहुत सुंदर विवेचन किया है. उदारीकरण के बाद उनका यह विवेचन, भारतीय मीडिया के लिए आदर्श हो सकता था. रोल मॉडल या लाइट हाउस की तरह पथ प्रदर्शक. पर हमने क्या रास्ता चुना? आसान-सुविधाजनक!
इसकी शुरुआत भी बड़े लोगों ने की. पहले ‘एडवरटोरियल’ छपने लगे. खबर या रिपोर्ट की शक्ल में विज्ञापन. फिर पार्टियों की तसवीरें छपने लगीं, पैसे लेकर. फिर शेयर बाजार का उफान (‘बूम’) आया. कंपनियों के शेयर लेकर उन्हें प्रमोट करने का काम मीडिया जगत करने लगा. इस प्रक्रिया में हर्षद मेहता, केतन पारिख, यूएस-64 जैसे न जाने कितने लूट या सार्वजनिक डाका प्रकरण हुए. कितने हजार या लाखों करोड़ डूब गये या लूटे गये? मीडिया का तो फर्ज था, इन लोभी ताकतों से देश को आगाह करना. यह सवाल मीडिया उठाता कि रजत गुप्ता जैसे इंसान (जिस आदमी ने उल्लेखनीय बड़े काम किये, इंडियन बिजनेस स्कूल, हैदराबाद की स्थापना के अतिरिक्त अनेक काम) ने भी गलती की, तो अमेरिकी कानून ने दोषी माना. सख्त सजा दी. उस इंसान को जिसका समाज के प्रति बड़ा योगदान रहा है. देश-विदेश के कारपोरेट वर्ल्‍ड में.

पर भारत में कितने हर्षद मेहता, केतन पारिख या यूएस-64 के लुटेरे या राजा या कनिमोझी या कलमाड़ी जैसे लोगों को सजा मिली? सार्वजनिक लूट के लिए आज तक भारत में किसी को सजा मिली है? मीडिया का धर्म था यह देखना. मीडिया ने 1991-2010 के बीच यह नहीं देखा. परिणाम आज देश में घोटालों का भूचाल-विस्फोट का दौर आ गया है.

पर, मीडिया में भी खबरें बिकने लगीं. ‘पेड न्यूज’ की शुरुआत का दौर. खबर, जिसपर लोग यकीन करते हैं, वही बिकने लगी. एकमात्र साख से सौदेबाजी. फिर 2जी प्रकरण हुआ. मीडिया जगत के बड़े स्तंभ, नाम और घराने इसमें घिरे. अब ताजा प्रकरण जिंदल और जी न्यूज विवाद का है. इसके पहले भी इंडियन एक्सप्रेस में कुछ राज्यों के मुख्यमंत्री, कुछ अन्य चैनलों के बारे मे कह चुके हैं कि कैसे उनके टॉप लोग आकर धमकी देते हैं. विज्ञापन मांगते हैं! हम नहीं जानते कौन सही है या कौन गलत! हम यह भी स्पष्ट करना चाहते हैं कि मीडिया में होने के कारण, हम सब इसके लिए जिम्मेवार हैं. कुछेक दोषी, कुछेक पाक-साफ, यह कहना या बताना भी हमारा मकसद नहीं.

पर, मीडिया अपनी आभा खो रही है. उसका सात्विक तेज खत्म हो रहा है. समाज में उसके प्रति अविश्वास ही नहीं, नफरत भी बढ़ रही है. यह किसी बाहरी सत्ता के कारण या हस्तक्षेप के कारण नहीं, खुद हम मीडिया के लोग कालिदास की भूमिका में हैं. साख की जिस एकमात्र डाल पर बैठे हैं, उसे ही काट रहे हैं. क्या मीडिया के अंदर से यह आवाज नहीं उठनी चाहिए कि हम अपनी एकमात्र पूंजी, साख बचायें? यह सवाल आज बहस का विषय नहीं. एक दूसरे पर दोषारोपण का भी नहीं. हम सही, आप गलत के आरोप-प्रत्यारोप का भी नहीं. हर मीडियाकर्मी अपनी अंतरात्मा से आज यह सवाल करे, तो शायद बात बने!

आज समाज में विश्वास का संकट है. हर संस्था या इससे जुड़े लोग अपने कामकाज के कारण सार्वजनिक निगाह में हैं. इसलिए मौजूदा धुंध में मीडिया को विश्वसनीय बनने के लिए अभियान चलाना चाहिए. इस दिशा में पहला कदम होगा, ईमानदार मीडिया के लिए नया आर्थिक मॉडल, जिसमें मुनाफा भी हो, शेयरधारकों को पैसा भी मिले, निवेश पर सही रिटर्न भी हो और यह मीडिया व्यवसाय को भी अपने पैरों पर खड़ा कर दे. यह आर्थिक मॉडल असंभव नहीं है. इसके लिए बड़े मीडिया घरानों को एक मंच पर बैठना होगा. निजी हितों और पूर्वग्रह से ऊपर उठना होगा. अपने लोभ और असीमित धन कमाने की इच्छा को रोकना होगा. इस प्रयास से मीडिया को अपनी साख पुन: बनाने का अवसर मिलेगा. मीडिया की साख बढ़ेगी, आर्थिक विकास तेज होगा, तो इसका लाभ मीडिया उद्योग जगत को भी मिलेगा.

मुद्दा है, संयम से काम करने का, अनुशासन में काम करने का और अचारसंहिता बना कर मीडिया की सही भूमिका में उतरने का. इसके साथ ही मीडिया की पहल पर कोई कारगर संवैधानिक व्यवस्था बने, तो मीडिया में वैल्यूज-इथिक्स (मूल्य-अचारसंहिता) की मानिटरिंग (निगरानी) करे. अगर मीडिया की सहमति से यह सब हो, तो मीडिया सचमुच भारत बदलने की प्रभावी भूमिका में होगी. याद करिए, कुछेक वर्ष पहले चंडीगढ़ प्रेस क्लब में आयोजित एक कार्यक्रम में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने बिजनेस पेपर (पिंक पेपर्स) के बारे में क्या कहा था? बड़े संगीन और गंभीर आरोप लगाये थे. उदाहरण समेत. कहा, कैसे खराब कंपनियों के शेयर भाव अचानक बढ़ाये जाते हैं और अच्छी कंपनियों के भाव गिराये जाते हैं? यह खेल कौन और कैसे अखबार करते हैं, यह सबको पता है.

प्रधानमंत्री के इस बयान को लेकर एडीटर्स गिल्ड ने तब कमेटी भी बनायी. इससे अजीत भट्टाचार्जी जैसे पत्रकार भी जुड़े. कमेटी की रिपोर्ट आयी. उस रिपोर्ट को मीडिया में लागू करने की बात उठी, पर सबकुछ भुला दिया गया. मीडिया घराने सार्वजनिक क्षेत्र या जीवन से जुड़े हैं. आज के माहौल में जरूरत है कि वे सभी अपने कामकाज को सावजनिक और पारदर्शी बनाये. अंतत: इससे, इनके प्रति आस्था बढ़ेगी. इसी तरह यह काम आज मीडिया के हित में तो है ही, समाज के हित में है और देश के हित में भी.

हरिवंश - (लेखक प्रभात खबर के प्रधान संपादक हैं) प्रभात खबर से साभार

Tuesday, October 23, 2012

हाईप्रोफाइल मच्छर: डेंगू का 'डंक'


डेंगू नामक बीमारी को कौन नहीं जानता है? हर साल हजारों लोग इस बीमारी के शिकार होते हैं। लेकिन इन दिनों डेंगू कुछ ज्यादा ही हाईप्रोफाइल हो गया है। इसने देश के जाने-माने फिल्मकार यश चोपड़ा को डंक मारने का दुस्साहस किया है। उसके डंक की चोट से यश जी तो चले गए, लेकिन देश में चर्चा का विषय छोड़ गए। चारों तरफ डेंगू की चर्चा हो रही है। कभी इसे गरीबों की बीमारी मानकर दुत्कार दिया गया था, अब इससे बड़े-बड़े लोग डरने लगे हैं। डेंगू फेसबुक और ट्विटर पर ट्रेंड करने लगा है। यश जी की मौत से ज्यादा पब्लिसिटी बटोर चुका है।

बताते चलें कि पूरे भारत में अब तक 17 हजार से अधिक डेंगू के मरीज सामने आ चुके हैं। देश में इस साल अब तक 100 से अधिक मौते डेंगू से हो चुकी हैं। इस साल मुंबई में 650 और दिल्ली में 700 से अधिक डेंगू के मामले सामने आ चुके हैं। डेंगू के बारे में एक गलतफहमी यह है कि यह गंदगी भरे इलाकों में ज्यादा होता है लेकिन मुंबई और दिल्ली में 60 फीसदी से अधिक डेंगू के मामले पॉश कॉलोनियों में सामने आए हैं।

डेंगू का मच्छर साफ पानी में ही जन्म लेता है। घर के अंदर लगे मनी प्लांट, फव्वारों, कूलर आदि में भरा पानी इसके पैदा होने के लिए आदर्श जगह होता है। डेंगू का मच्छर 50 मीटर से 200 मीटर तक ही उड़ान भर पाता है इसलिए ज्यादातर मच्छर मरीजों के घर में ही पनपते हैं और पड़ोसियों पर हमला करने की उनकी संभावना बेहद कम होती है।

Wednesday, October 3, 2012

सचान-आरुषि मर्डर: CBI की 'साख' पर सवाल

सीबीआई को देश की सबसे बड़ी जांच एजेंसी माना जाता है। किसी भी घटना में तह तक जाने या इंसाफ पाने के लिए उस पर सबसे ज्यादा भरोसा किया जाता है। यही कारण है कि जब भी कोई वारदात या घोटाला होता है तो लोगों की जुबां पर सीबीआई का नाम होता है। पर यूपी के दो सबसे चर्चित और सनसनीखेज मुद्दों पर उसकी नाकामी अब उसके विश्वसनीयता पर ही सवाल खड़े कर रही है। 

सचान और आरुषि हत्याकांड का केस जब सीबीआई को सौंपा गया तो लोगों को आस बंधी कि अपराधी जरूर पकड़े जाएंगे। पर 14 महीने की जांच के बाद डॉ सचान केस में कुछ भी नया सबूत नहीं मिला। सीबीआई ने मामले में क्‍लोजर रिपोर्ट दाखिल कर कहा कि डॉ वाइएस सचान की हत्‍या के सबूत नहीं मिले हैं। इसी तरह से आरुषि हत्‍याकांड में भी सीबीआई ने यूपी पुलिस की थ्‍योरी को गलत साबित किया था, लेकिन नतीजा सिफर रहा।

दबी जुबान से ही सही अक्सर राजनीतिक पार्टियों द्वारा सीबीआई के गलत इस्तेमाल की बात कही जाती रही है। विपक्षी पार्टियों का तो यहां तक कहना है कि यूपीए सरकार उसकी बदौलत चल रही है। उसका भय दिखाकर बहुमत के आंकड़े जुटाए जाते हैं। ऐसे में सीबीआई जैसी बड़ी जांच एजेंसी की विश्वसनीयता पर सवाल खड़ा हो उठता है।

 
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