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Monday, March 4, 2013

एक मिशन की निलामी?


ट्रेन अपनी रफ्तार से दौड़ रही थी। खचाखच भरे हुए उस डिब्बे के एक कोने में किसी तरह जगह मिल सकी थी। मेरे सामने बैठे एक सज्जन अपने बगल में बैठे दूसरे सज्जन से लगभग चीखते हुए बोल रहे थे- 'अरे मेरा भतीजा पत्रकार बनना चाहता है। इसके लिए उससे 1500 रुपए बतौर सिक्युरिटी मांगा जा रहा है।' दूसरे सज्जन ने बड़े उत्सुकता से पूछा- 'पत्रकार बनने से क्या फायदा है?'

पहले सज्जन सचेत हुए फिर गर्व से बोले- ''आपको पता नहीं! पत्रकार बनने वाले को सिक्‍युरिटी देने के बाद एक परिचय पत्र मिलता है। इसे दिखाकर किसी भी अफसर से यह पूछा जा सकता है कि अमुक काम क्यों, कैसे और कब हुआ और क्यों नहीं हुआ? टिकट के लिए कतार में नहीं लगना होता, कभी-कभी तो यात्रा करने के लिए टिकट भी लेने की जरूरत नहीं होती। यदि कुछ गलत करता है तो परिचय-पत्र दिखाकर आसानी से बच सकता है।'' दूसरे सज्जन बहुत खुश होकर बोले- 'तब तो हम भी अपने बेटे को पत्रकार ही बनाएंगे। बहुत दिन से बैठा हुआ है।'

आसपास बैठे लोग दोनों की बात चुप्पी साधे सुन रहे थे। सबकी आंखें चमक रही थीं। शायद सभी अपने भाई, बेटे और भतीजे को पत्रकार बनाने के बारे में सोच रहे थे। तभी ट्रेन किसी स्टेशन पर रुकी। भीड़ होने कारण लोगों ने दरवाजा अंदर से बंद कर रखा था। बाहर कुछ लोग दरवाजा खोलने के लिए चिल्ला रहे थे। इसी बीच बाहर से एक रोबदार आवाज आई- 'गेट खोल दो, वरना अकल ठिकाने लगवा दूंगा। मैं पत्रकार हूं।'

मेरे साथ मुश्किल यह थी कि मैं भी इसी बिरादरी का सदस्य होने के बावजूद इस तरह के सपनों और खयालों से रूबरू नहीं था। अब तक यही सोचता था कि अपने भीतर के इंसानी सरोकार को बचाए रखने में यह पेशा मेरी मदद करेगा। लेकिन ट्रेन के डिब्बे में दो लोगों की बातचीत और बाहर खड़े व्यक्ति की धमकी ने यह सोचने पर मजबूर कर दिया कि क्या पत्रकार वक्त का फायदा उठाने या लोगों की अक्ल ठिकाने लगाने के लिए ही होता है। अब तक तो यही मानता हूं कि‍ पत्रकार भी आम आदमी होता है। वह पीड़ि‍तों की आवाज उठाने के लिए होता है; और प्रेस लोकतंत्र का चौथा स्तंभ।

लोग-बाग यह समझने लगे हैं कि प्रेस ऐसी ताकत है, जिसके सहारे दूसरों के गलत काम की तरफ उंगली उठाई जा सकती है। अपने गलत काम पर पर्दा डाला जा सकता है। भारत में अंग्रेज छापाखाना लेकर आए, ताकि गुलामी की जंजीर को और मजबूती से जकड़ा जाए। लेकिन हमारे जुझारू नेताओं ने छापाखाने को हथियार की तरह प्रयोग किया। अंग्रेजों को भारत से भागने पर मजबूर कर दिया।

आज स्थिति उलट नजर आती है। अब जहां-तहां मीडिया का इस्तेमाल अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए किया जा रहा है। चुनाव में मीडिया का एक बड़ा हिस्सा जिस तरह बड़े पैमाने पर पैसे लेकर विज्ञापनों को खबर की शक्ल में छापता है,  उसे एक मिशन की नीलामी नहीं कहा जाएगा? उसे लोकतंत्र के चौथे स्तंभ का गला घोंटना नहीं कहा जाएगा? हां, यह दीगर बात है कि कुछ मीडिया समूह अब भी अपने सिद्धांतों पर कायम रहने की कोशिश कर रहे हैं, पर पूंजी की जरूरत उनका रास्ता रोक देती है।

मीडिया में कदम रखने वाले कुछ युवा भी खास सपने लेकर आते हैं। ग्लैमर की चकाचौंध में खोए पत्रकारों से और क्या अपेक्षा की जा सकती है। मुश्किल और चुनौती उन सबके सामने है, जो आज भी इस पेशे के प्रति समर्पित और प्रतिबद्ध हैं। और मानते हैं कि पत्रकारिता को अपने मूल रूप में आम आदमी के आवाज और व्यवस्था परिवर्तन का वाहक होना चाहिए।

दिल नहीं, जरा दिमाग से सोचिए जनाब...


लोग कितने भावुक और मूर्ख हैं। जिधर हवा चली, उधर हो लिए। मीडिया ने जो कहा वही मान लिए। कुंडा में गांव वालों ने डीएसपी की हत्या की, तो लोगों ने राजा भैया को दोषी ठहरा दिया। बिना यथास्थिति जाने हवाबाजी करने लगे। मीडिया ने भी अपना फैसला सुना दिया।

अब जरा उस स्थिति का अंदाजा लगाइए...गांव में विवाद होता है। उसमें ग्राम प्रधान की हत्या हो जाती है। इससे लोग पहले से ही उग्र हैं। उन्हें प्रशासन द्वारा समझाने या कूटनीतिक तरीके से नियंत्रण करने की बजाए पुलिस गोली चलाती है।

मृतक ग्राम प्रधान के भाई की गोली लगने से मौत हो जाती है। ऐसे में भीड़ और उग्र नहीं होगी तो क्या होगा। वो पुलिस पर हमला नहीं करेंगे तो क्या करेंगे। अरे आप यूपी पुलिस का बर्बर चेहरा भूल गए हैं क्या?

जो पुलिस कमजोरों को सताती है, सीधे-साधे लोगों को तड़पाती है, वर्दी के रसूख में अक्सर अपराधियों से बत्तर अपराध करती है। यह गुस्सा उस पुलिस के खिलाफ है। लोगों के जहन में उस पुलिस की तस्वीर छपी है। दुर्भाग्य से इसका शिकार हो गए जिया उल हक।

और तो और देखिए उनकी ही पुलिस उन्हें भीड़ के हवाले करके फरार हो गई। उन्हें मरने के लिए छोड़ गई। यह है यूपी पुलिस का असली चेहरा। हां...मैं मानता हूं...सलाम करता हूं कि इन वर्दीधारी गुंडों और अपराधियों के बीच कुछ दिलदार और नेक पुलिस वाले भी है, पर अफसोस वो अक्सर शहीद हो जाते हैं।

'हमें गर्व है जिया उल हक जैसे पुलिस अफसर पर, जो अपनी ही पुलिस के भाग जाने के बाद भी मैदान में डटे रहे'

 
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