अपने एक दोस्त की शादी में शामिल होने के लिए बिहार के गोपालगंज जिले में गया हुआ था। रात के तीन बज रहे थे। दोस्त अपने जीवन संगनी संग सात फेरे ले रहा था। उसका ससुराल हजारों बल्ब की रौशनी में जगमगा रहा था। हलवाई सुबह के नाश्ते का इंतजाम करने में लगे थे। मैं शोर से थोड़ा निजात पाने के लिए मंडप से बाहर निकला।
सड़के के उस पार लालटेन की धीमी रौशनी टीमटीमा रहीथी। साथ ही टार्च की हल्की लाइट में कोई कुछ लिखने की कोशिश कर रहा था। कौतुहलवश मैं उस रौशनी की तरफखिंचता चला गया। पास जाने पर देखा कि एक 55 साल के व्यक्ति बड़े-बड़े पन्नों पर कुछ लिख रहे थे। पूछने परपता चला कि वह गांव के स्कूल में टीचर हैं। और जनगणना से संबंधित काम कर रहे हैं।
पूरी रात काम करने वाले मास्टर साहब से जब पूछा कि आप कल बच्चों को कैसे पढाएंगे, तो उन्होंने कहा कि, जबतक यह काम चलेगा तब तक स्कूल में छुट्टी रहेगी। और कुरेदने पर तो उनके दिल का दर्द ही छलक उठा। उन्होंनेजो बयां किया, वो आप भी जान लीजिए। एक लम्बी सांस छोड़ते हुए कहने लगे क़ि जनगणना के काम का बोझहम शिक्षको पर लाद दिया गया है।
हमें तो कुछ कहने तक का अवसर नहीं दिया गया। अब हम बच्चो को पढाये या जनगणना के काम में अपनीचप्पलें घिसे। हमारी हालत फिल्म 'थ्री ईडियट्स' के प्रोफेसर कि तरह हो गयी है जो एक समय में अपने दोनों हाथोंसे लिखता था और दो अलग-अलग काम एक साथ कर सकता था।
जनगणना जैसे अतिरिक्त काम ने तो हमारे जीवन कागणित ही बिगाड़ दिया है। अब इससे ज्यादा क्या कहे क़िहमारी निजी ज़िन्दगी भी कभी थी, इसको ही भूल बेठे हैं।स्कूल के बच्चो के लिए तो समय निकालना दीगर बात है, अपने बच्चों के चेहरे देखने तक का वक़्त नहीं मिलता।खाने-पीने की तो सुध ही नहीं, नींद भी पूरी नहीं हो पाती।
आंखों पर मोटा चश्मा लगाए ठण्ड से कांपते मास्टर साहबने बताया कि हमें तो दोहरी जिम्मेदारी दे दी गयी है। थोड़ीसंवेदना तो रखी होती हमसे भी। सर्दी जब कहर बरपा रही थी तब हम घर-घर के चक्कर काट रहे थे।
हमें शुरुआत में काफी दिक्कते आई। हर दरवाजे पर इंतज़ार करना मन में चिडचिडाहट भी पैदा कर देता था। कुछलोग तो अंदर आने को भी पूछ लेते हैं पर कुछ बाहर से ही रुखसत कर देते हैं। धीरे-धीरे इस बातों की आदत सीहोने लगी है। स्कूल में भी हमारे साथी एक दूसरे क़ि हालत पूछ कर खुद को तसल्ली देने क़ि कोशिश करते रहते हैं।कभी ना कभी तो काम निपटेगा इसी आस में लगे हैं कोल्हू के बैल की तरह। एक से दूसरे घर, दूसरे से तीसरे औरफिर यही क्रम रोज़ चलता रहता है।
काम निपटने को आ गया पर नींद अब भी हराम है। एक अनचाहा डर सताने लगा है क़ि सरकार आने वाले दिनों मेंऔर कौन-कौन से काम हमसे करवाएगी। हमारे उपर तो देश के भविष्य क़ि ज़िम्मेदारी है फिर हमें क्यूं ऐसे कामोंमें लगाया गया। कोई कुछ भी कहे पर सौ क़ि एक बात कहूंगा क़ि शायद ही कोई शिक्षक इस अनुभव को दोबाराजीने के लिए उत्सुक होगा।
अब बताइए कि देश के भविष्य के साथ ये क्या हो रहा है। जिस व्यक्ति का काम पढ़ना और पढ़ाना है, वह रात-दिन जनगणना का काम कर रहा है। यह नजारा केवल बिहार का ही नहीं कमोवेश पूरे देश का है।
सड़के के उस पार लालटेन की धीमी रौशनी टीमटीमा रहीथी। साथ ही टार्च की हल्की लाइट में कोई कुछ लिखने की कोशिश कर रहा था। कौतुहलवश मैं उस रौशनी की तरफखिंचता चला गया। पास जाने पर देखा कि एक 55 साल के व्यक्ति बड़े-बड़े पन्नों पर कुछ लिख रहे थे। पूछने परपता चला कि वह गांव के स्कूल में टीचर हैं। और जनगणना से संबंधित काम कर रहे हैं।
पूरी रात काम करने वाले मास्टर साहब से जब पूछा कि आप कल बच्चों को कैसे पढाएंगे, तो उन्होंने कहा कि, जबतक यह काम चलेगा तब तक स्कूल में छुट्टी रहेगी। और कुरेदने पर तो उनके दिल का दर्द ही छलक उठा। उन्होंनेजो बयां किया, वो आप भी जान लीजिए। एक लम्बी सांस छोड़ते हुए कहने लगे क़ि जनगणना के काम का बोझहम शिक्षको पर लाद दिया गया है।
हमें तो कुछ कहने तक का अवसर नहीं दिया गया। अब हम बच्चो को पढाये या जनगणना के काम में अपनीचप्पलें घिसे। हमारी हालत फिल्म 'थ्री ईडियट्स' के प्रोफेसर कि तरह हो गयी है जो एक समय में अपने दोनों हाथोंसे लिखता था और दो अलग-अलग काम एक साथ कर सकता था।
जनगणना जैसे अतिरिक्त काम ने तो हमारे जीवन कागणित ही बिगाड़ दिया है। अब इससे ज्यादा क्या कहे क़िहमारी निजी ज़िन्दगी भी कभी थी, इसको ही भूल बेठे हैं।स्कूल के बच्चो के लिए तो समय निकालना दीगर बात है, अपने बच्चों के चेहरे देखने तक का वक़्त नहीं मिलता।खाने-पीने की तो सुध ही नहीं, नींद भी पूरी नहीं हो पाती।
आंखों पर मोटा चश्मा लगाए ठण्ड से कांपते मास्टर साहबने बताया कि हमें तो दोहरी जिम्मेदारी दे दी गयी है। थोड़ीसंवेदना तो रखी होती हमसे भी। सर्दी जब कहर बरपा रही थी तब हम घर-घर के चक्कर काट रहे थे।
हमें शुरुआत में काफी दिक्कते आई। हर दरवाजे पर इंतज़ार करना मन में चिडचिडाहट भी पैदा कर देता था। कुछलोग तो अंदर आने को भी पूछ लेते हैं पर कुछ बाहर से ही रुखसत कर देते हैं। धीरे-धीरे इस बातों की आदत सीहोने लगी है। स्कूल में भी हमारे साथी एक दूसरे क़ि हालत पूछ कर खुद को तसल्ली देने क़ि कोशिश करते रहते हैं।कभी ना कभी तो काम निपटेगा इसी आस में लगे हैं कोल्हू के बैल की तरह। एक से दूसरे घर, दूसरे से तीसरे औरफिर यही क्रम रोज़ चलता रहता है।
काम निपटने को आ गया पर नींद अब भी हराम है। एक अनचाहा डर सताने लगा है क़ि सरकार आने वाले दिनों मेंऔर कौन-कौन से काम हमसे करवाएगी। हमारे उपर तो देश के भविष्य क़ि ज़िम्मेदारी है फिर हमें क्यूं ऐसे कामोंमें लगाया गया। कोई कुछ भी कहे पर सौ क़ि एक बात कहूंगा क़ि शायद ही कोई शिक्षक इस अनुभव को दोबाराजीने के लिए उत्सुक होगा।
अब बताइए कि देश के भविष्य के साथ ये क्या हो रहा है। जिस व्यक्ति का काम पढ़ना और पढ़ाना है, वह रात-दिन जनगणना का काम कर रहा है। यह नजारा केवल बिहार का ही नहीं कमोवेश पूरे देश का है।