Pillar of True Journalism to save Public Domain
Showing posts with label समाज. Show all posts
Showing posts with label समाज. Show all posts

Monday, March 4, 2013

एक मिशन की निलामी?


ट्रेन अपनी रफ्तार से दौड़ रही थी। खचाखच भरे हुए उस डिब्बे के एक कोने में किसी तरह जगह मिल सकी थी। मेरे सामने बैठे एक सज्जन अपने बगल में बैठे दूसरे सज्जन से लगभग चीखते हुए बोल रहे थे- 'अरे मेरा भतीजा पत्रकार बनना चाहता है। इसके लिए उससे 1500 रुपए बतौर सिक्युरिटी मांगा जा रहा है।' दूसरे सज्जन ने बड़े उत्सुकता से पूछा- 'पत्रकार बनने से क्या फायदा है?'

पहले सज्जन सचेत हुए फिर गर्व से बोले- ''आपको पता नहीं! पत्रकार बनने वाले को सिक्‍युरिटी देने के बाद एक परिचय पत्र मिलता है। इसे दिखाकर किसी भी अफसर से यह पूछा जा सकता है कि अमुक काम क्यों, कैसे और कब हुआ और क्यों नहीं हुआ? टिकट के लिए कतार में नहीं लगना होता, कभी-कभी तो यात्रा करने के लिए टिकट भी लेने की जरूरत नहीं होती। यदि कुछ गलत करता है तो परिचय-पत्र दिखाकर आसानी से बच सकता है।'' दूसरे सज्जन बहुत खुश होकर बोले- 'तब तो हम भी अपने बेटे को पत्रकार ही बनाएंगे। बहुत दिन से बैठा हुआ है।'

आसपास बैठे लोग दोनों की बात चुप्पी साधे सुन रहे थे। सबकी आंखें चमक रही थीं। शायद सभी अपने भाई, बेटे और भतीजे को पत्रकार बनाने के बारे में सोच रहे थे। तभी ट्रेन किसी स्टेशन पर रुकी। भीड़ होने कारण लोगों ने दरवाजा अंदर से बंद कर रखा था। बाहर कुछ लोग दरवाजा खोलने के लिए चिल्ला रहे थे। इसी बीच बाहर से एक रोबदार आवाज आई- 'गेट खोल दो, वरना अकल ठिकाने लगवा दूंगा। मैं पत्रकार हूं।'

मेरे साथ मुश्किल यह थी कि मैं भी इसी बिरादरी का सदस्य होने के बावजूद इस तरह के सपनों और खयालों से रूबरू नहीं था। अब तक यही सोचता था कि अपने भीतर के इंसानी सरोकार को बचाए रखने में यह पेशा मेरी मदद करेगा। लेकिन ट्रेन के डिब्बे में दो लोगों की बातचीत और बाहर खड़े व्यक्ति की धमकी ने यह सोचने पर मजबूर कर दिया कि क्या पत्रकार वक्त का फायदा उठाने या लोगों की अक्ल ठिकाने लगाने के लिए ही होता है। अब तक तो यही मानता हूं कि‍ पत्रकार भी आम आदमी होता है। वह पीड़ि‍तों की आवाज उठाने के लिए होता है; और प्रेस लोकतंत्र का चौथा स्तंभ।

लोग-बाग यह समझने लगे हैं कि प्रेस ऐसी ताकत है, जिसके सहारे दूसरों के गलत काम की तरफ उंगली उठाई जा सकती है। अपने गलत काम पर पर्दा डाला जा सकता है। भारत में अंग्रेज छापाखाना लेकर आए, ताकि गुलामी की जंजीर को और मजबूती से जकड़ा जाए। लेकिन हमारे जुझारू नेताओं ने छापाखाने को हथियार की तरह प्रयोग किया। अंग्रेजों को भारत से भागने पर मजबूर कर दिया।

आज स्थिति उलट नजर आती है। अब जहां-तहां मीडिया का इस्तेमाल अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए किया जा रहा है। चुनाव में मीडिया का एक बड़ा हिस्सा जिस तरह बड़े पैमाने पर पैसे लेकर विज्ञापनों को खबर की शक्ल में छापता है,  उसे एक मिशन की नीलामी नहीं कहा जाएगा? उसे लोकतंत्र के चौथे स्तंभ का गला घोंटना नहीं कहा जाएगा? हां, यह दीगर बात है कि कुछ मीडिया समूह अब भी अपने सिद्धांतों पर कायम रहने की कोशिश कर रहे हैं, पर पूंजी की जरूरत उनका रास्ता रोक देती है।

मीडिया में कदम रखने वाले कुछ युवा भी खास सपने लेकर आते हैं। ग्लैमर की चकाचौंध में खोए पत्रकारों से और क्या अपेक्षा की जा सकती है। मुश्किल और चुनौती उन सबके सामने है, जो आज भी इस पेशे के प्रति समर्पित और प्रतिबद्ध हैं। और मानते हैं कि पत्रकारिता को अपने मूल रूप में आम आदमी के आवाज और व्यवस्था परिवर्तन का वाहक होना चाहिए।

Tuesday, November 27, 2012

आम आदमी की यह अजब दास्तान


उस दिन भी रोज की तरह बगीचे में टहल रहा था। मन में अजब बेचैनी थी। तरह-तरह के ख्याल आ रहे थे। तभी मेरी नजर एक पके आम पर पड़ी। आम को देखते ही जाने क्यों आम आदमी का ख्याल आ गया। भाषण, लेख, हिदायतों और नसीहतों के बीच बचपन से ही आम आदमी के बारे में सुनता आ रहा हूं।

लगा कि भले बदलाव की तेज आंधी ही क्यूं न चले, पर आम आदमी के हाथ न कभी कुछ लगा है, न लग पाएगा। जब आम आदमी का जिक्र आता है तो मन में एक अजीब सहानुभूति आ जाती है। मैं सोच में डूबा सड़क पर आ गया। सोचा चलो आज सबसे पूछते हैं कि ये आम आदमी है कौन?

सामने मोटरसाइकिल दनदनाते दरोगाजी दिख गए। दुआ-सलाम के बाद उनसे पूछ ही लिया आम आदमी के बाबत। आम आदमी का नाम आते ही साहब लार टपकाते बोले - आम आदमी यानी पका फल, जिसे चूसने के बाद गुठली की तरह फेंक दिया जाता है। भाई साहब हमें तो यही ट्रेनिंग दी जाती है कि जब चाहो आम आदमी का मैंगो शेक बना लो या अचार डालकर मर्तबान में सजा लो। वैसे हमें आम आदमी का मुरब्बा बहुत पसंद है।

अभी आगे बढ़ा ही था कि एक रिक्शेवाला मिला। सोचा इनके भी विचार जान लेते हैं। पूछने पर पता चला कि वह पोस्ट ग्रेजुएट है और नौकरी नहीं मिलने की वजह से जीवन-यापन के लिए यह काम कर रहा है। बातचीत के दौरान ही मैंने सवाल दाग दिया, तुम आम आदमी के बारे में क्या सोचते हो? रिक्शेवाले ने मुझे टेढ़ी नजरों से देखा और बोला- आम आदमी? वह तो मेरे रिक्शे की तरह होता है। सारी जिंदगी चूं-चूं करते बोझ ढोता है। जब किसी के काम नहीं आता तो अंधेरी कोठी में कबाड़ की तरह डाल दिया जाता है।

रास्ते में मेरा स्कूल दिख गया। बचपन के इस स्कूल को देखते ही मैंने रिक्शा रुकवाया, दस का नोट पकड़ाया। स्कूल पहुंचा तो देखा पहले की तरह ही लकड़ी की कुर्सी पर बैठे गुरुजी ऊंघ रहे थे। स्कूल के फंड और मिड-डे मील पर चर्चा हुई। यहां भी वही सवाल। गुरुजी बोले, आम आदमी को मैं कोल्हू का बैल मानता हूं, जो नून-तेल-लकड़ी के लिए एक चक्कर में घूमता रहता है, लेकिन कहीं पहुंचता नहीं।

बातचीत में बहुत देर हो गई। घर आते ही मां बरस पड़ीं - इतनी देर कहां लगा दी? पैर में दर्द हो रहा है, सुबह से दवा के लिए बोल रही हूं। मां सचमुच दर्द से कराह रही थीं। मैं तुरंत डॉक्टर के पास चल पड़ा।

दवा लेने के बाद डॉक्टर साहब से भी सवाल दाग दिया। कान से आला निकालते हुए साहब दार्शनिक हो गए। बोले - आम आदमी हमारे लिए टीबी, मलेरिया, बुखार है। हमारे लिए वही सबसे भला है, जिसका इलाज हमारे क्लिनिक में लंबा चला है।

शाम सुहानी थी। मोहल्ले के कुछ दोस्तों ने दावत का प्रोग्राम बना दिया। जगह तो हरदम की तरह मोहल्ले के नेताजी का बरामदा थी। खाने का आनंद लेते समय नेताजी से भी पूछ बैठा आम आदमी के बारे में। नेताजी के चेहरे पर चमक आ गई। बोले, आम आदमी हमारे बड़े काम का है। हम जो चुनावी महाभारत रचते हैं, उसमें आम आदमी विपक्ष को पछाड़ने के लिए नोट है, बस इतना जान लें कि आम आदमी हमारे लिए अदना-सा वोट है।

मैं हैरत में था। सोचने लगा क्या आम आदमी की यही परिभाषा है? मैंने तो सोचा था कि आम आदमी वह है, जो पैसों की गर्मी से फैलता और कमी से सिकुड़ता है। जो महंगाई की आहट से कांप जाता है। आम आदमी तो दुखों का ढेर है। अभावों का दलदल है। मुकम्मल बयान है, चेहरे पर दर्द का गहरा निशान है। तभी एक बात सोचकर मुस्करा दिया। किसी ने कहा था: फलों का राजा आम होता है। धत्, भला राजा भी कहीं ‘आम’ हो सकता है!

Wednesday, October 3, 2012

सचान-आरुषि मर्डर: CBI की 'साख' पर सवाल

सीबीआई को देश की सबसे बड़ी जांच एजेंसी माना जाता है। किसी भी घटना में तह तक जाने या इंसाफ पाने के लिए उस पर सबसे ज्यादा भरोसा किया जाता है। यही कारण है कि जब भी कोई वारदात या घोटाला होता है तो लोगों की जुबां पर सीबीआई का नाम होता है। पर यूपी के दो सबसे चर्चित और सनसनीखेज मुद्दों पर उसकी नाकामी अब उसके विश्वसनीयता पर ही सवाल खड़े कर रही है। 

सचान और आरुषि हत्याकांड का केस जब सीबीआई को सौंपा गया तो लोगों को आस बंधी कि अपराधी जरूर पकड़े जाएंगे। पर 14 महीने की जांच के बाद डॉ सचान केस में कुछ भी नया सबूत नहीं मिला। सीबीआई ने मामले में क्‍लोजर रिपोर्ट दाखिल कर कहा कि डॉ वाइएस सचान की हत्‍या के सबूत नहीं मिले हैं। इसी तरह से आरुषि हत्‍याकांड में भी सीबीआई ने यूपी पुलिस की थ्‍योरी को गलत साबित किया था, लेकिन नतीजा सिफर रहा।

दबी जुबान से ही सही अक्सर राजनीतिक पार्टियों द्वारा सीबीआई के गलत इस्तेमाल की बात कही जाती रही है। विपक्षी पार्टियों का तो यहां तक कहना है कि यूपीए सरकार उसकी बदौलत चल रही है। उसका भय दिखाकर बहुमत के आंकड़े जुटाए जाते हैं। ऐसे में सीबीआई जैसी बड़ी जांच एजेंसी की विश्वसनीयता पर सवाल खड़ा हो उठता है।

Tuesday, March 27, 2012

बोलती तस्वीरें...


कहते हैं कि तस्वीरें बोलती हैं। उसमें एक कलाकार की भावनाएं समाहित होती हैं। उसमें एक संदेश होता है। बस जरूरत है तो उस संदेश और भावनाओं को समझने की। आपके लिए हाजिर हैं 10 दु्र्लभ तस्वीरें। इन्हें देखिए और उसमें छिपे संदेश को तलाशने की कोशिश कीजिए।




सभी तस्वीरें साभार FFFFOUND.COM

Sunday, March 18, 2012

एक IPS अफसर की दिल झकझोर देने वाली दास्तां


''यार, यहां बहुत बेगार करवाते हैं। कोई सेल्फ रिस्पेक्ट ही नहीं है। इलेक्शन के खर्चों का टारगेट अभी से दे दिया है। क्या इसलिए इतनी पढ़ाई करके आईपीएस बना था? ये लोग वर्दी वालों से ही उगाही करवा रहे हैं। अब नौकरी छोड़ दूंगा।''


खुदकुशी से ठीक पहले बिलासपुर (छत्‍तीसगढ़) के एसपी राहुल शर्मा ने अपना यह दुख अपने दोस्त के साथ साझा किया था। राहुल और उनके दोस्त हरिमोहन थकुरिया जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में साथ में पढ़े थे। हरिमोहन के मुताबिक, सोशल नेटवर्किंग साइट फेसबुक पर उन्होंने राहुल से पांच मार्च को बात की थी।

इस घटना के कुछ दिन पहले ही आईपीएस नरेंद्र कुमार को खनन माफिया ने ट्रैक्टर से रौंद कर मार डाला था। वह खनन पर अंकुश लगाने के लिए अभियान चला रहे थे। इसी बीच उनके साथ यह खौफनाक खूनी खेल गया था।

अब सवाल यह उठता है कि क्या ईमानदार अधिकारियों का यही हाल होता है। उन्हें या तो मौत के घाट उतार दिया जाता या फिर इस व्यवस्था से तंग आकर वे खुद मौत को गले लगा लेते हैं। अधिकांश मां-बाप अपने बेटे-बेटी को आईपीएस या आईएएस बनाना चाहते हैं। तैयारी में उनकी आधी उम्र निकल जाती है। सलेक्शन के बाद पोस्टिंग के लिए जुगाड़ लगाना पड़ता है।

उसके बाद यदि ऐसा हश्र हो तो दिल फटने लगता है। सपने टूट जाते हैं। दुनिया से मोह खत्म हो जाता है। और उसकी परिणति कुछ ऐसी ही होती है।


Monday, November 14, 2011

बाल दिवस: कितनी हकीकत, कितना फसाना


आज पूरे देश में बाल दिवस बड़े धूमधाम से मनाया जा रहा है। सुविधासंपन्न बच्चों के लिए तो आज का दिन वाकई ख़ास है. पर उन बच्चों का क्या, जो हर सुविधा से महरूम हैं। उनका भोला चेहरा जब हमारी तरफ आशा की नज़र से देखता है तो क्या हमारे मन में टीस नहीं उठती ? 


चाचा नेहरू के इस देश में लगभग 5 करोड़ बच्चे बाल श्रमिक हैं। जो चाय की दुकानों पर नौकरों के रूप में, फैक्ट्रियों में मजदूरों के रूप में या फिर सड़कों पर भटकते भिखारी के रूप में नजर आ ही जाते हैं। कुछेक ही बच्चे ऐसे हैं, जिनका उदाहरण देकर हमारी सरकार सीना ठोककर देश की प्रगति के दावे को सच होता बताती है। 


यही नहीं आज देश के लगभग 53.22 प्रतिशत बच्चे शोषण का शिकार है। इनमें से अधिकांश बच्चे अपने रिश्तेदारों या मित्रों के यौन शोषण का शिकार है। शारीरिक और मानसिक प्रताड़ना झेल रहे इन मासूमों के लिए भला बाल दिवस के क्या मायने हो सकते हैं? अपने अधिकारों के प्रति अनभिज्ञता व अज्ञानता के कारण ये बच्चे शोषण का शिकार होकर जाने-अनजाने कई अपराधों में लिप्त होकर अपने भविष्य को अंधकारमय भी कर रहे हैं। 


इनकी फिक्र अगर किसी को होती तो इनका बचपन इनसे न छिना होता। ये भी बेफिक्र होकर, खिलखिला कर हसना जानते। ये भी अपने सपने बुनते और सुनहरे भविष्य की और अग्रसर होते।


सुविधासंपन्न बच्चे तो सब कुछ कर सकते हैं परंतु यदि सरकार देश के उन नौनिहालों के बारे में सोचे, जो गंदे नालों के किनारे कचरे के ढ़ेर में पड़े हैं या फुटपाथ की धूल में सने हैं। उन्हें न तो शिक्षा मिलती है और न ही आवास। सर्व शिक्षा के दावे पर दंभ भरने वाले भी इन्हें शिक्षा की मुख्यधारा से जोड़ नहीं पाते।


पैसा कमाना इन बच्चों का शौक नहीं बल्कि मजबूरी है। ये मासूम तो एक बंधुआ मजदूर की तरह अपने जीवन को काम में खपा देते हैं और देश के ये नौनिहाल शिक्षा, अधिकार, जागरुकता व सुविधाओं के अभाव में, अपने सपनों की बलि चढ़ा देते है। 


यदि हमें 'बाल दिवस' मनाना है तो सबसे पहले हमें गरीबी व अशिक्षा के गर्त में फँसे बच्चों के जीवनस्तर को ऊँचा उठाना होगा और उनके अँधियारे जीवन में शिक्षा का प्रकाश फैलाना होगा। यदि हम सभी केवल एक गरीब व अशिक्षित बच्चे की शिक्षा का बीड़ा उठाएँगे तो निसंदेह ही भारत प्रगति के पथ पर अग्रसर होगा तथा हम सही मायने में 'बाल दिवस' मनाने का हक पाएँगे।


इसके साथ ही हमारे अंदर जो संवेदना मर चुकी है उसे फिर से जिलाना होगा। नहीं देखना चाहते अब हम बच्चो को इस हालत में। उनका बचपन उन्हें लौटाना है। उनका भविष्य सवारना है.ऐसा माहौल बनाना है की हर बच्चे को देखकर हम गर्व करें।

Monday, October 24, 2011

कर्नल गद्दाफी और विद्रोहियों के आतंक की कहानी, सुनिए इस गवाह की जुबानी!


लीबिया के तानाशाह कर्नल गद्दाफी की मौत की पूरी दुनिया में चर्चा है। सभी इस पर अलग अलग तरह सोच रहे हैं। कोई इसे तानाशाही का अंत कह रहा है तो कोई इसे तेल का खेल। कुछ लोगों का कहना है कि पश्चिमी देशों ने तेल के कुओं पर अधिकार पाने के लिए गद्दाफी विरोधी लोगों को सह दिया था।


कुछ लोगों का कहना है कि गद्दाफी के तानाशाही रवैये के कारण वहां के लोगों में गुस्सा था। जिसकी परिणती उसके मौत के रूप में हुई। लीबिया के तानाशाह की मौत से कायम हुए शांति की वजह से केवल लीबियाई ही खुश नहीं है, बल्कि यह लहर यूपी तक पहुंच गई है।

उत्तर प्रदेश के महाराजगंज जिले के रहने वाले 34 वर्षीय अरविंद जायसवाल को गद्दाफी की मौत से न तो खुशी है ना गम। उनको तो वहां फैले अराजकता और खूनखराबे से मिली निजात से खुशी है। उनको आज भी वो मंजर भुलाए नहीं भूलता। पिछले आठ महीनों तक लीबिया में गद्दाफी विरोधी हिंसक आंदोलन में फंसे अरविंद को भयंकर मानसिक और शारीरिक पीड़ा का शिकार होना पड़ा था। अपने दुख में वह अकेले थे। कोई नहीं साथ देने वाला था। यहां तक की दूतावास के भारतीय अधिकारियों से भी उनको कोई मदद नहीं मिली।

अपनी सारी उम्मीदें खो चुके थे, लेकिन तभी चमत्कार हुआ और उनको घर आने का मौका मिला। अंतत: 15 सितंबर की शाम घर लौट आए। जायसवाल के साथ तीन बांग्लादेशी नागरिकों को भी इस विध्वंशक परिस्थिती से मुक्ति मिली। ये इनके साथ लीबिया में काम कर रहे थे।

अरविंद ने कहा कि, "मुझे विश्वास नहीं हो रहा है कि मैं सुरक्षित हूं। वहां की सड़क के किनारे पर गोलीबारी एक आम नजारा था। भगवान का शुक्र है कि हम जिंदा बच कर आ गए। 

18 जनवरी 2011 को लीबिया काम करने के लिए गए अरविंद अपने पीछे पत्नी सविता देवी और तीन बच्चों को छोड़ गए थे। उन्होंने कहा कि, ''वहां के हालात इतने खराब हैं कि हम अपने निवास में ही फंसे हुए थे। बाहर निकलने पर गोलिय़ों के शिकार होने का खतरा था। एक दिन कुछ बंदूकधारी हमारे घर आए। हमने उन्हें बताया कि हम पिछले दो दिनों से कुछ खाए नहीं हैं, तो उन्होंने हमें भोजन दिया और चले गए।''
  
अरविंद ने बताया कि, "पिछले तीन महीनों से हम लगातार भारत सरकार से भारतीय दूतावास के जरिए संपर्क में थे। लेकिन उनका कोई संतोषजनक जवाब नहीं मिलता था। मैं जिस कंपनी में काम करता था, उसी से वापस भारत जाने का अनुरोध किया तो उन्होंने मदद की और हम भारत लौटने में कामयाब रहे।


कटेंट साभार दैनिक साभार डॉट कॉम

Sunday, October 16, 2011

30000 'बच्चों' के इस बाप की कहानी वाकई में है दिल छू लेने वाली!



यूपी के बुंदेलखण्ड में रहने वाली इस शख्स की कहानी दिल छू लेने वाली है। बेटे की मौत के बाद तड़प रहे इस शख्स ने गम को खुशी में बदलने का एक नायाब तरीका अपनाया। फिर क्या था, उसके बाद उसके एक नहीं, दो नहीं, पूरे 30 हजार बच्चे हो गए। जी हां, उसने अपनी सूखी जिन्दगी में संकल्प लिया धरती को हरा-भरा बनाने का।

चित्रकूट के रहने वाले भैयाराम अब चालीस बसंत पार कर चुके हैं। वह पिछले तीन सालों से जिले के पहरा वनक्षेत्र के करीब 30,000 वृक्षों की अपनी संतान की तरह सेवा और देखरेख कर रहे हैं। झोपड़ी में रह रहे भैयाराम पेड़ों को काटने वाले चोरों से उनकी रक्षा करने से लेकर उनकी निराई-गुड़ाई, कीड़ों से बचाव और सिंचाई तक का पूरा ख्याल रखते हैं।

उनके मुताबिक, 'ये पेड़ ही मेरे बेटे हैं। आज की तारीख में मेरे लिए इनसे बढ़कर कोई नहीं है। मेरे दिन और रात इन्हीं पेड़ों के साथ गुजरता है। मैं इन्हीं के बीच अपनी आखिरी सांस लेना चाहता हूं। उन्होंने इस बात का गर्व है कि इन हरे-भरे वृक्षों से पर्यावरण संरक्षण में मदद के साथ-साथ लोगों को सांस लेने के लिए स्वच्छ हवा मिलेगी। पर्यावरण और मानव जाति का कल्याण मेरा इकलौता पुत्र शायद दुनिया में होकर भी नहीं कर पाता।'

तीन साल पहले इकलौते बेटे की मौत के बाद भैयाराम ने इन पेड़ों को अपनी संतान मानकर इनकी सेवा को अपने जीवन का लक्ष्य बनाया। वह बताते हैं, 'पुत्र के जन्म के समय दस साल पहले मेरी पत्नी की मौत हो गई थी। उसके बाद मैंने अपने बेटे को पाल-पोषकर सात साल का किया। एक दिन अचानक रात को उसे उल्टियां हुईं और अस्पताल ले जाते समय रास्ते में उसकी मौत हो गई। पत्नी और फिर इकलौते बेटे की मौत के बाद मैं पूरी तरह से टूट गया। बिना किसी मकसद के अकेलेपन में जिंदगी गुजारने लगा।'

जुलाई 2008 में राज्य वन विभाग की तरफ से इस इलाके में विशेष पौधरोपण अभियान के तहत 30 हजार शीशम, नीम, चिलवल और सागौन जैसे पेड़ों को लगाया गया था। तब भैयाराम ने श्रमिक के तौर पर पेड़ों को रोपित कराया था। इसी दौरान उनके मन में ख्याल आया कि क्यों न इन पेड़ों को ही वह अपनी संतान मानकर इनकी देखभाल करें। उन्होंने स्थानीय वन अधिकारियों से अपने दिल की बात कही तो थोड़ी मान मनौवल के बाद वे राजी हो गए।

Saturday, October 8, 2011

मौत के क्रूर पंजों में जकड़ा मासूमों का जीवन, खत्म हो चुकीं हैं 400 जिंदगियां


पूर्वी यूपी में अधिकतर मां-बाप की रातें आंखों में कट जा रही है। मन बैचेन है। डर सता रहा है कि कहीं 'नौकी बीमारी' उनके लाल को न निगल जाए। डर इतना कि लाडले को छींक भी आ जाए तो कंठ सूख जाता है।


ऐसा हो भी क्यों ना। पूरे इलाके में मौत बनकर तांडव मचाने वाली नौकी बीमारी यानी जापानी इंसेफ्लाइटिस ने इस साल अब तक 400 मासूम बच्चों की सांसे छीन ली है। इतने ही करीब अस्पताल में भर्ती हैं। अकेले गोरखपुर के बीआरडी मेडिकल कालेज में ही करीब 2500 मरीज आ चुके हैं।


बताते चलें कि पूर्वी यूपी के गोरखपुर और आसपास के जिलों में 1978 से इंसेफ्लाइटिस महामारी के रूप में कहर ढा रही है। इसके सबसे आसान शिकार मासूम बच्चे है।


मरने वालों से कई गुना ज्यादा विकलांग और मानसिक बीमारों की संख्या है। सरकारी रिकार्ड में अब तक दस हजार बच्चों की मौतें हो चुकी हैं। जबकि तमाम मरीज ऐसे है जो निजी अस्पतालों में इलाज कराते रहें है जिनका सरकार के पास कोई रिकार्ड नही है।

पिछले 33 सालों में इस बीमारी से मरने वालों का अनुमानित आंकड़ा 25 हजार मौत और लाखों को विकलांग होने का है। इस साल गोरखपुर के बीआरडी मेडिकल कॉलेज और अन्य अस्पतालों में लगातार नये मरीज भर्ती हो रहें है।


                    खून से लिखा खत, ताकी पसीज जाए दिल




पूर्वी यूपी में इंसेफ्लाइटिस उन्मूलन अभियान चला रहें डा. आरएन सिंह के मुताबिक, पूर्वांचल के किसानों के मासूमों को एंसेफ्लाइटिस के क्रूर पंजों से बचाने के लिए एक ‘खून से खत का महाभियान’ चलाया गया।


‘खून से लिखे खत’ देश के प्रधानमंत्री, स्वास्थ्यमंत्री, योजना आयोग, सोनिया गांधी, राहुल गांधी व स्थानीय ‘पूर्वांचल’ के संवेदनशील सांसदों को लिखा गया।


पर फर्क किसी को नहीं पड़ा। यदि किसी ने पहल की भी तो अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने के लिए। बच्चों की चिताओं पर राजनीतिक रोटियां सेंक रहे इन राजनेताओं को शर्म भी नहीं आ रही है। सरकार तो पहले से ही असंवेदनशील है।




साभार: तथ्य दैनिक भास्कर डॉट कॉम

Friday, June 3, 2011

आम आदमी की यह अजब दास्तान

मैंने तो सोचा था कि आम आदमी वह है, जो पैसों की गर्मी से फैलता और कमी से सिकुड़ता है। जो महंगाई की आहट से कांप जाता है। आम आदमी तो दुखों का ढेर है। अभावों का दलदल है। मुकम्मल बयान है, चेहरे पर दर्द का गहरा निशान है। तभी एक बात सोचकर मुस्करा दिया। किसी ने कहा था: फलों का राजा आम होता है। धत्, भला राजा भी कहीं ‘आम’ हो सकता है!

उस दिन भी रोज की तरह बगीचे में टहल रहा था। मन में अजब बेचैनी थी। तरह-तरह के ख्याल आ रहे थे। तभी मेरी नजर एक पके आम पर पड़ी। आम को देखते ही जाने क्यों आम आदमी का ख्याल आ गया। भाषण, लेख, हिदायतों और नसीहतों के बीच बचपन से ही आम आदमी के बारे में सुनता आ रहा हूं।

लगा कि भले बदलाव की तेज आंधी ही क्यूं न चले, पर आम आदमी के हाथ न कभी कुछ लगा है, न लग पाएगा। जब आम आदमी का जिक्र आता है तो मन में एक अजीब सहानुभूति आ जाती है। मैं सोच में डूबा सड़क पर आ गया। सोचा चलो आज सबसे पूछते हैं कि ये आम आदमी है कौन?

सामने मोटरसाइकिल दनदनाते दरोगाजी दिख गए। दुआ-सलाम के बाद उनसे पूछ ही लिया आम आदमी के बाबत। आम आदमी का नाम आते ही साहब लार टपकाते बोले - आम आदमी यानी पका फल, जिसे चूसने के बाद गुठली की तरह फेंक दिया जाता है। भाई साहब हमें तो यही ट्रेनिंग दी जाती है कि जब चाहो आम आदमी का मैंगो शेक बना लो या अचार डालकर मर्तबान में सजा लो। वैसे हमें आम आदमी का मुरब्बा बहुत पसंद है।

अभी आगे बढ़ा ही था कि एक रिक्शेवाला मिला। सोचा इनके भी विचार जान लेते हैं। पूछने पर पता चला कि वह पोस्ट ग्रेजुएट है और नौकरी नहीं मिलने की वजह से जीवन-यापन के लिए यह काम कर रहा है। बातचीत के दौरान ही मैंने सवाल दाग दिया, तुम आम आदमी के बारे में क्या सोचते हो? रिक्शेवाले ने मुझे टेढ़ी नजरों से देखा और बोला- आम आदमी? वह तो मेरे रिक्शे की तरह होता है। सारी जिंदगी चूं-चूं करते बोझ ढोता है। जब किसी के काम नहीं आता तो अंधेरी कोठी में कबाड़ की तरह डाल दिया जाता है।

रास्ते में मेरा स्कूल दिख गया। बचपन के इस स्कूल को देखते ही मैंने रिक्शा रुकवाया, दस का नोट पकड़ाया। स्कूल पहुंचा तो देखा पहले की तरह ही लकड़ी की कुर्सी पर बैठे गुरुजी ऊंघ रहे थे। स्कूल के फंड और मिड-डे मील पर चर्चा हुई। यहां भी वही सवाल। गुरुजी बोले, आम आदमी को मैं कोल्हू का बैल मानता हूं, जो नून-तेल-लकड़ी के लिए एक चक्कर में घूमता रहता है, लेकिन कहीं पहुंचता नहीं।


बातचीत में बहुत देर हो गई। घर आते ही मां बरस पड़ीं - इतनी देर कहां लगा दी? पैर में दर्द हो रहा है, सुबह से दवा के लिए बोल रही हूं। मां सचमुच दर्द से कराह रही थीं। मैं तुरंत डॉक्टर के पास चल पड़ा।


दवा लेने के बाद डॉक्टर साहब से भी सवाल दाग दिया। कान से आला निकालते हुए साहब दार्शनिक हो गए। बोले - आम आदमी हमारे लिए टीबी, मलेरिया, बुखार है। हमारे लिए वही सबसे भला है, जिसका इलाज हमारे क्लिनिक में लंबा चला है।

शाम सुहानी थी। मोहल्ले के कुछ दोस्तों ने दावत का प्रोग्राम बना दिया। जगह तो हरदम की तरह मोहल्ले के नेताजी का बरामदा थी। खाने का आनंद लेते समय नेताजी से भी पूछ बैठा आम आदमी के बारे में। नेताजी के चेहरे पर चमक आ गई। बोले, आम आदमी हमारे बड़े काम का है। हम जो चुनावी महाभारत रचते हैं, उसमें आम आदमी विपक्ष को पछाड़ने के लिए नोट है, बस इतना जान लें कि आम आदमी हमारे लिए अदना-सा वोट है।

मैं हैरत में था। सोचने लगा क्या आम आदमी की यही परिभाषा है? मैंने तो सोचा था कि आम आदमी वह है, जो पैसों की गर्मी से फैलता और कमी से सिकुड़ता है। जो महंगाई की आहट से कांप जाता है। आम आदमी तो दुखों का ढेर है। अभावों का दलदल है। मुकम्मल बयान है, चेहरे पर दर्द का गहरा निशान है। तभी एक बात सोचकर मुस्करा दिया। किसी ने कहा था: फलों का राजा आम होता है। धत्, भला राजा भी कहीं ‘आम’ हो सकता है!

Wednesday, November 3, 2010

महिला सशक्तिकरण की हकीकत

महिलाओं को आरक्षण देने से उनका सशक्तिकरण होगा, यहीं सोचकर पंचायती चुनावों में महिलाओं को 50 फीसद आरक्षण दिया गया। और लोकसभा में 33 फीसद आरक्षण देने की मुखालफत हो रही है। पर महिलाओं की वास्तविक स्थिति में क्या फर्क आया है, इसका अंदाजा इस विज्ञापन को देखकर लगाया जा सकता है।
देश की आधी आबादी को आरक्षण के सपने दिखाए गए, आरक्षण दिया गया और कानून को लागू भी किया गया। और लागू होने के बाद सरकार ने अपनी उपलब्धियां गिनवाने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी। लेकिन किसी ने भी कानून लागू होने के बाद यह जानने की जहमत नहीं उठाई कि आखिर योजनाओं का हाल क्या है?
जिस आरक्षण कानून को लेकर सरकार बड़ी-बड़ी डींगें हांक रही है उसे कहां तक क्रियांवित किया जा रहा है? आखिर जिस महिला वोट बैंक, को आरक्षण दिया गया है उसे इसका क्या और कितना फायदा मिल रहा है महिलाओं की पहचान बनाने और सशक्तिकरण के लिए यह कानून किस हद तक कारगर हैं? अगर इन सभी मुद्दों की जांच की जाए तो नतीजा वही निकलेगा ढांक के तीन पात। इसका सबसे बड़ा उदाहरण देखने को मिल रहा है उत्तर प्रदेश में चल रहे त्रिस्तरीय चुनावों में। यहां अखबारों में छपने वाले विज्ञापनों में महिला प्रत्याशी के साथ-साथ उसके पति और ससुर का नाम छापा जा रहा है और यहां तक कि किसी-किसी विज्ञापन में तो नाम है महिला प्रत्याशी का और फोटो है उसके पति का।
आरक्षण के तहत बड़ी संख्या में महिलाएं भी पंचायत चुनाव में उतरी हैं। लेकिन इनकी हैसियत किसी मुखौटे से ज्यादा नहीं है। जो सीट महिला आरक्षण में चली गयी है, उस सीट पर नेताजी ने मजबूरी में अपनी पत्नि, बहन, मां या पुत्रवधु को पर्चा भरवा दिया है। इसलिए पोस्टरों, बैनरों और अखबार के विज्ञापनों में वह हाथ जोड़े खड़ी हैं। साथ में यह जरुर लिखा है कि उम्मीदवार किसी की पत्नी, बहु, मां या बेटी है। साथ में पति, ससुर, बेटे या भाई की तस्वीर भी हाथ जोड़े लगी हुई है।
सब जानते हैं कि चुनाव महिला नहीं लड़ रही बल्कि महिलाओं के आड़ में पुरुष लड़ रहा है। इसलिए महिला उम्मीदवारों की सूरत सिर्फ पोस्टरों, बैनरों और अखबारों में ही दिख रही है। कहीं-कहीं तो मुसलिम महिला उम्मीदवार की सूरत ही सिरे से गायब है। चुनाव प्रचार से भी महिलाएं दूर है। इसकी जिम्मेदारी पुरुषों ने संभाल रखी है। असली उम्मीदवार को तो पता ही नहीं कि बाहर क्या हो रहा है। वह तो आज भी घर के अन्दर चूल्हा झोंक रही है, भैंसों को सानी कर रही है या गोबर से उपले पाथ रही है। किसी महिला के निर्वाचित होने के बाद भी उनकी हैसियत कुछ नहीं होगी। सारा काम पुरुष ही करेगा। महिला तो सिर्फ रबर स्टाम्प होगी। सबने सोचा था कि महिलाओं को आरक्षण देने से महिलाओं का सशक्तिकरण होगा। क्या इन हालात में महिलाओं का सशक्तिकरण हो सकता है? कुछ लोग जब महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण देने की मुखालफत करते हैं तो इसके पीछे एक तर्क यह भी होता है कि इससे महिलाओं का सशक्तिकरण नहीं होगा, बल्कि पुरुष ही अपनी राजनैतिक महत्वकांक्षा को पूरा करेगा। यदि फायदा होगा भी तो शबाना आजमी, जया प्रदा या नजमा हैपतुल्ला जैसी महिलाओं का होगा, जो पहले से ही पुरुषों से भी ज्यादा सशक्त हैं। ग्राम पंचायत को तो छोड़ दें। मैट्रो शहरों के नगर-निगम में चुने जाने वाली ज्यादतर महिला पार्षद भी बस नाम की ही पार्षद होती हैं। सारा काम तो पार्षद पति ही करते हैं। इस तरह से पार्षद पति का एक पद स्वयं ही सृजित हो गया है। ऐसे कई वार्ड हैं जहां महिलाएं प्रतिनिधि तो हैं, पर किसी ने आज तक उनका चेहरा नहीं देखा है।
लोकसभा और विधान सभा के चुनाव लगातार महंगे होते गए। धन और बल वाला आदमी ही दोनों जगह जाने लगा। आम आदमी के लिए लोकसभा और विधानसभा में जाना सपना सरीखा हो गया है। नैतिकता, चरित्र, आदर्शवाद और विचारधारा अब गुजरे जमाने की बातें हो गयी हैं। अबकी बार जिला पंचायत और ग्राम पंचायत जैसे छोटे चुनाव में बहता पैसा इस बात का इशारा कर रहा है कि अब इन छोटे चुनावों में भी उतरने के लिए आम आदमी के लिए कोई गुंजाइश नहीं बची है। धन और बल ही आज के लोकतंत्र का असली चेहरा है।

Monday, October 4, 2010

सहकारी बना सरकारी

हम अन्नदाता हैं, लेकिन हमारे पेट खाली हैं। भूख इतनी की आत्महत्या तक से गुरेज नहीं। बच्चे न तो स्कूल जा पा रहे हैं और न विकास की दौड़ से कदम मिला पा रहे हैं। आंकड़ों पर गौर करें तो बीते दो दशक में हजारों अन्नदाता, अन्न की कमी के कारण काल के गाल में समा गए। किसान को कभी वक्त पर खाद-बीज नहीं, तो कभी फसल का खरीददार नहीं मिलता। विकास को योजनाएं बनीं तो बहुत, पर धरातल पर सब फुस्स साबित हुई। किसानों को आर्थिक रूप से मजबूत बनाने के लिए साठ के दशक में सहकारी आंदोलन की शुरूआत हुई। किसानों ने इसे एक पहल के रूप में देखा। सुखद कल की उम्मीद भी जगी। पर करीब 45 साल बीतने के बाद क्या हकीकत में किसान मजबूत हो पाया? क्या उसे उसकी फसल की सही कीमत मिल पाई? क्या सहकारी आंदोलन और समितियों ने दलालों की ताकत कम की? इन सभी सवालों के जवाब खोजती मुकेश कुमार गजेंद्र की रिपोर्ट :-

अपने देश को 'भारतÓ और 'इंडियाÓ दो नामों से पुकारा जाता है। 'इंडियाÓ, जो शाइन कर रहा है। जहां दमकते मॉल्स में थिरकती जिंदगियां आबाद रहती हैं। जहां करोड़पतियों और अरबपतियों की संख्या तेजी से बढ़ रही है। वहीं 'भारतÓ, जो आज भी गांवों का देश है। जिसकी 70 फीसद जनसंख्या गांवों में रहती है। जहां के बड़े-बड़े महानगरों में किसी कोने-किनारे पर बसी झुग्गियां हैं, जहां गांवों से रोजगार की तलाश में आए लोग रहते हैं, जहां बिजली, पानी या स्वास्थ्य की सुविधाओं का खस्ताहाल है। जहां मानवाधिकारों की हालत चिंताजनक है। जहां देश का भविष्य कहे जाने वाले नौनिहाल शिक्षा से फिलहाल वंचित हैं। सहकारिता का वास्तविक संबंध इसी दुनिया से है।
सहकारी आंदोलन के विकास की गति बहुत धीमी रही है। अनेक विद्वानों और समितियों ने सहकारी आंदोलन की कमजोरियों की जांच की। कुछ ने तो इसके सुधार या इसकी पुनर्रचना के सुझाव भी दे डाले। जिस तरीके से विकास कुछ दूसरे क्षेत्रों में एकांगी हो गया, कुछ उसी तरीके से सहकारिता क्षेत्र में भी हुआ। मसलन, खेल को ही लें। तमाम छोटी-बड़ी और सरकारी-गैरसरकारी कोशिशों के बावजूद क्या हम क्रिकेट के अलावा अन्य खेलों में भी विश्वस्तरीय पहचान बना पाए? हो सकता है कि एकाध खिलाडिय़ों ने विश्व-स्तरीय नाम कमाया हो, लेकिन क्रिकेट के सूर्य के आगे ये शायद कुछ-कुछ जुगनुओं की ही तरह हैं। क्या वजहें हुआ करती हैं कि हम फुटबाल के विश्व कप में प्रदर्शन नहीं कर पाते? यहां सवाल जनता में लोकप्रियता का है। और यह छोटी बात नहीं है। इसी तरह हमारे यहां सहकारी आंदोलन जनता के बीच सहज रूप से विकसित नहीं हुआ। स्वेच्छा से प्रेरित न होने की वजह से जनता ने अपनी जरूरतों के लिए समितियों के गठन में तेजी नहीं दिखाई। इनका स्वरूप कुछ ऐसा रहा कि एक आम किसान मानता रहा कि सहकारी साख समितियां आमतौर पर कर्ज देने वाली सरकारी एजेंसियां ही हैं।

असफलता की वजह

यदि हम सहकारिता के आर्थिक आंकड़ो को छोड़ कर वास्तविक रूप में उसकी समीक्षा करें तो पाएंगे कि देश के कई भागों में आज भी इसका विस्तार नहीं हो पाया है। लगभग 40 से 50 फीसद ग्रामीण परिवार अभी भी सहकारी समितियों के क्षेत्र से बाहर है। सहकारी समितियो में आपसी वाद-विवाद बढ़ते जा रहे है। राजनीतिक प्रभाव इनमें दृष्टिगत हो रहा है। यद्यपि समितियों ने देश के आर्थिक विकास में विशेष रूप से ग्रामीण विकास में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है, लेकिन इसके बावजूद भी ये अनेक क्षेत्रों में दोषपूर्ण रही हैं। सहकारी समितियों की असफलता का एक ये महत्वपूर्ण कारण यह रहा है कि इन समितियों में प्रशिक्षित व कुशल प्रबंधा का अभाव रहा है। फलस्वरूप इनकी आय, व्यय, ऋण आदि के हिसाब में अनियमितताएं एवं अन्य अनेक कमियां परिलक्षित होती हैं। सहकारी समितियों का उद्देश्य आर्थिक के साथ-साथ सामाजिक व नैतिक विकास करना भी था, लेकिन देखने में यह आया है कि ये सहकारी समितियां मात्र वित्तीय समितियां बन कर रह गई है, इनके द्वारा सामाजिक व नैतिक विकास का लक्ष्य अधारा रह गया है। सहकारी साख समितियों के पास पर्याप्त संसाधानों की कमी है। कई जगह वित्तीय संसाधानों ग्रामीण किसानों एवं कारीगरों को उपलब्धा करायी गईं, वह अपर्याप्त रूप में रहीं।
प्रमुख कमजोरियां निम्नलिखित प्रकार से हैं -
- साहूकारों को अभी तक समाप्त नहीं किया जा सका है।
- सहकारी समितियों को वित्त की कमी का सामना करना पड़ रहा है।
- यह आंदोलन विपणन और विधायन के पारस्परिक संबंधों को समझने में नाकाम रहा।
- इन्हें-सरकारी अभिकरणों और निहित स्वार्थों से गलाकाट प्रतिस्पर्धा झेलनी पड़ी है।
- इसका प्रबंध और नेतृत्व प्राय अकुशल और दोषपूर्ण ही रहा।

सहकारिता विभाग

कृषि एवं सहकारिता विभाग, कृषि मंत्रालय के तीन संघटक विभागों में से एक है। दो दूसरे विभाग हैं- पशुपालन एवं डेयरी विभाग और कृषि अनुसंधान एवं शिक्षा विभाग। राज्यमंत्री की सहायता से कृषि मंत्री विभाग का काम-काज देखते हैं। कृषि एवं सहकारिता सचिव इस विभाग के प्रशासनिक प्रमुख हैं और विभाग में नीति और प्रशासन संबंधी सभी मामलों में मंत्री के प्रमुख सलाहकार हैं। इस विभाग में चौबीस प्रभाग और एक तिलहन, दलहन तथा मक्का से जुड़ा प्रौद्योगिकी मिशन है।
कृषि एवं सहकारिता विभाग देश की भूमि, जल, मिट्टी और पौध संसाधनों के अनुकूलतम उपयोग के जरिये तेज कृषि वृद्धि और विकास हासिल करने के लिए प्रयास करता है। यह किसानों को आदानों और सेवाओं जैसे (कृषि ऋण, उर्वरक, कीटनाशक, बीज, कृषि उपस्कर वगैरह) की आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए प्रयास भी करता है। फसल बीमा से संबंधित योजना चलाना, खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करना या किसानों को लाभकारी मूल्य दिलाना। सहकारिता से जुड़ी सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि विभाग समुचित नीतिगत उपायों तथा राष्ट्रीय सहकारी विकास निगम (एन.सी.डी.सी.), भारतीय राष्ट्रीय कृषि सहकारी विपणन संघ (नेफेड) और भारतीय राष्ट्रीय सहकारी संघ (एन.सी.यू.आई) जैसे संगठनों के माध्यम से सहकारी आंदोलन को मजबूत बनाने के उपाय भी करता है।

सहकारी समितियां

सहकारिता को शुरू में ग्रामीण इलाकों के दलित वर्गों की प्रगति के एक उपाय के रूप में देखा गया था। कृषि हमारी अर्थव्यवस्था की रीढ़ है और एक आम किसान की जिंदगी और जीविका खेती-किसानी से ही चलती है। सहकारी समितियां हमारी खेती-किसानी और ग्रामीण अर्थव्यवस्था के आर्थिक विकास को बढ़ावा देने के लिए एक पद्धति हैं। बेहद महत्वपूर्ण संस्थानिक पद्धति। ये तमाम आर्थिक गतिविधियों में लगी हुई हैं। मसलन- कर्जों के वितरण में, बीजों, उर्वरकों या कृषि आदानों के वितरण में या फिर कृषि उत्पादों के विपणन, भण्डारण या प्रसंस्करण में।
सहकारिता समितियों का शोषण रहित चरित्र या 'एक आदमी एक वोटÓ का सिद्धांत कुछ ऐसी बातें थीं जो इन्हें चौतरफा विकास का एक उपकरण बना सकती थीं। पर ऐसा हुआ नहीं। आज सरकार खुद स्वीकार करती है कि इनमें संगठनात्मक दुर्बलताओं और क्षेत्रीय असंतुलन जैसी कुछ कमियां रह गईं। हमारी सरकार मानती है कि ऐसी कमियों का कारण अत्यधिक संख्या में सुषुप्त या निष्क्रिय किस्म की सदस्यता, सरकारी सहायता पर निर्भरता और बढ़ती हुई अतिदेयताएं हैं। हालांकि कमियों की वजहें सिर्फ इतनी ही नहीं हैं। कुछ दूसरे कारण भी हैं। इन्हें जानना इसलिए जरूरी है ताकि इन कारणों को दूर किया जा सके। फिर धीरे-धीरे कमियों से छुटकारा पाया जा सके। सदस्यों से कम डिपाजिट की व्यवस्था कर पाना या व्यावसायिक प्रबंध का अभाव कुछ दूसरे कारण हैं।
सरकार का यह कदम प्रशंसनीय है जिसमें सहकारी समितियों के पुनरोद्धार के लिए ठोस उपाय किए गए हैं। इसमें इन समितियों को जीवंत लोकतांत्रिक संगठन बनाने के साथ-साथ सदस्यों की सक्रिय भागीदारी पर जोर दिया गया था। यू.पी.ए. सरकार के राष्ट्रीय साझा न्यूनतम कार्यक्रम में इस बात का उल्लेख किया गया है कि यूपीए सरकार सहकारी समितियों की लोकतांत्रिक, स्वायत्तशासी और व्यावसायिक कार्यप्रणाली सुनिश्चित करने के लिए संवैधानिक संशोधन प्रस्तुत करेगी। दिसंबर 2004 में राज्य सहकारी मंत्रियों के सम्मेलन इस विषय पर महत्वपूर्ण चर्चा
प्रस्ताविक संवैधानिक संशोधन करने और सहकारी समितियों पर महत्वपूर्ण प्रभाव डालने वाले अन्य संबंधित विषयों पर चर्चा करने के लिए दिसंबर 2004 में राज्य सहकारी मंत्रियों का सम्मेलन भी आयोजित किया गया था। सम्मेलन में जिन प्रस्तावों को स्वीकार कर लिया गया है, वे निम्नलिखित हैं-
1. संविधान में संशोधन करना
2. सहकारी आंदोलन के सामने खड़ी विभिन्न चुनौतियों पर विचार करने के लिए और आंदोलन को नई दिशा प्रदान करने के लिए एक उच्च स्तरीय समिति का गठन करना।

बहरहाल साझा कार्यक्रम की प्रतिबद्धताओं के अनुसरण में सहकारी समितियों में संवैधानिक संशोधन करने वाला प्रस्ताव अभी कृषि एवं सहकारिता विभाग के विचाराधीन है। सहकारी समितियों संबंधी एक उच्च अधिकारिता समिति का भी गठन किया गया है। यह इसकी सांस्थानिक मौजूदगी के सौ सालों के दौरान सहकारी आंदोलन की उपलब्धियों, इसके समक्ष की चुनौतियों और उनको पूरा करने के लिए उपायों की समीक्षा करेगी। समिति आंदोलन के लिए भी सुझाव देगी।

उत्तर प्रदेश में सहकारिता

सहकारी साख अधिनियम 1912 के लागू होने के साथ पूरे देश में सहकारी समितियों के गठन की प्रक्रिया से सहकारी आंदोलन की शुरुआत हुई थी। बाद में उत्तर प्रदेश सहकारी समिति अधिनियम 1965 बनाया गया। इसे 1968 में लागू किया गया।
उत्तर प्रदेश में सहकारी आंदोलन के माध्यम से संचालित योजनाएं निम्नलिखित प्रकार से हैं-

1- सहकारी ऋण एवं अधिकोषण योजना
इस योजना के अंतर्गत किसानों को कृषि विकास के लिए उचित दर पर ऋण उपलब्ध कराया जाता है। यह ऋण प्रदेश स्तर पर शीर्ष बैंक, जिला स्तर पर जिला सहकारी बैंक और पंचायत स्तर पर सहकारी समितियों द्वारा उपलब्ध कराया जाता है।

2- सहकारी कृषि निवेश योजना
किसानों को कृषि कार्य में सहूलियत के लिए न्यूनतम दर कृषि निवेश उपलब्ध कराया जाता है। इसके तहत रासायनिक उर्वरक जैसे यूरिया, डीएपी, एनपीके और एमएपी आदि उपलब्ध कराई जाती है।

3- सहकारी शिक्षा प्रशिक्षण प्रसार
इस योजना के तहत सहकारी विभाग कार्यरत सदस्यों की कार्यकुशलता बढ़ाने के लिए प्रशिक्षण देने का कार्य किया जाता है।

4- सहकारी क्रय-विक्रय योजना
किसानों को बिचौलियो से बचाने और उचित मूल्य दिलाने के लिए सहकारी क्रय-विक्रय समिति का गठन किया गया। इस योजना के तहत जिला स्तर पर 57 जिला सहकारी संघ और तहसील स्तर पर 258 क्रय-विक्रय समितियां गठित हैं।

5- सहकारी उपभोक्ता योजना
इस योजना के तहत 2347 सहकारी समितियों द्वारा उपभोक्ता सामग्री की आपूर्ति की जा रही है। इसमें से 1768 समितियां ग्रामीण क्षेत्र में तथा 579 समितियां नगर क्षेत्र में कार्यरत हैं।

प्रदेश की प्रमुख सहकारी संस्थाएं

उत्तर प्रदेश कोआपरेटिव यूनियन लिमिटेड, सहकारी संघ, कोआपरेटिव बैंक लिमिटेड, सहकारी ग्राम विकास बैंक लिमिटेड, उपभोक्ता सहकारी संघ लिमिटेड, सहकारी श्रम एवं निर्माण संघ लिमिटेड, सहकारी विधायन एवं शीतगृह संघ लिमिटेड, आलू विकास एवं विपणन सहकारी संघ लिमिटेड फतेहगढ़, राज्य भंडारण निगम

सबसे बड़ा सहकारी क्षेत्र

भारत का सहकारी क्षेत्र संसार के सबसे बड़े सहकारी क्षेत्रों में आता है। आंकड़ों की बात करें तो ताजी जानकारी के मुताबिक 31 मार्च 2003 की स्थिति के हिसाब से हमारे यहां तकरीबन साढ़े पांच लाख सहकारी समितियां हैं। इनकी सदस्यता 22.95 करोड़ से ज्यादा है और कार्यशील पूंजी करीब 38,000 हजार करोड़ रुपये से अधिक है। सहकारिता के अंतर्गत लगभग सौ फीसदी गांव कवर किए गए हैं। करीब तीन-चौथाई ग्रामीण परिवार सहकारी संस्थाओं के सदस्य हैं।
देश की लगभग 50 फ़ीसदी चीनी उत्पादन में सहकारी समितियों योगदान देती हैं। दरअसल, विभिन्न पंचवर्षीय योजनाओं में सहकारी समितियों को सार्वजनिक और निजी क्षेत्र के बीच संतुलन की जि़म्मेदारी सौंपी गई थी। सन् 1963 में केंद्रीय आपूर्ति और सहकारिता मंत्रालय ने राष्ट्रीय सहकारिता विकास निगम का गठन किया था ताकि वह सहकारिता आंदोलन को बढ़ा सके। दूध के क्षेत्र में खेड़ा सहकारी दु्ग्ध उत्पादन संघ (अमूल) की सफलता को देश के अन्य हिस्सों में दोहराने के लिए 1965 में राष्ट्रीय डेयरी विकास बोर्ड का गठन किया गया। अब मदर डेयरी जैसे संगठन इसका हिस्सा हैं। अमूल ने तो सफलता के झंडे गाड़ दिए हैं और इसकी श्वेत क्रांति में अहम भूमिका रही है। बारह हज़ार से अधिक गांवों के 26 लाख से अधिक किसानों की सदस्यता वाली इस संस्था ने सहकारिता के क्षेत्र में दुग्ध उत्पाद में इतिहास रचा है। सहकारी समितियों ने खेती के आधुनिक तरीकों के इस्तेमाल में मदद की है। 1990-91 में इन समितियों ने कुल कृषि ऋणों का 43.4 फीसदी मुहैया कराया। किसानों को भण्डार सुविधाएं मिलीं। इसने शहरी क्षेत्रों में लोगों के लिए जमीन और मकान की व्यवस्था की। कमजोर वर्गों को सेवाएं उपलब्ध कराने का जरिया बनीं। बाद के दिनों में कभी सफलता के झंडे गाडऩे वाली सहकारी समितियां का राजनीतिक अदूरदर्शिता तथा अकुशल प्रबंधन की वजह से पतन होने लगा।

सहकारिता में महिलाएं

आधी दुनिया को छोड़कर कोई क्षेत्र विकास नहीं कर सकता। महिलाओं के संबंध में विकासात्मक गतिविधियों की दरकार है। अनौपचारिक दृष्टिकोण के जरिए महिलाओं को निचले स्तर से सहकारी क्षेत्रों में लाने की जरूरत है। इसके साथ-साथ सामूहिक गतिविधियों में महिलाओं की सहभागिता को बढ़ावा दिया जाना भी अनिवार्य है। भारतीय राष्ट्रीय सहकारी संघ सहकारिता की दृष्टि से अल्पविकसित राज्यों में सहकारी शिक्षण में तेजी लाने से संबंधित विशेष स्कीम भी चला रहा है। चार विशेष महिला विकास परियोजनाएं शिमोगा (कर्नाटक), बहरामपुर (उड़ीसा), मणिपुर (इम्फाल) और भोपाल (मध्य प्रदेश) में चलाई जा रही हैं। इनका लक्ष्य चुनिंदा प्रखंडों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति में सुधार लाना है।
इसके अलावा प्रत्येक क्षेत्रीय परियोजना में एक-एक महिला विकास घटक भी शामिल किया गया है। इस कार्यक्रम के अंतर्गत महिलाओं को स्व-सहायता दलों के रूप में संगठित किया जाता है और उनको सहायता दी जाती है जिससे उनमें बचत करने की प्रवृत्ति पैदा हो सके।
राष्ट्रीय सहकारी विकास निगम से सहायता प्राप्त करने के लिए विशेष तौर पर महिला सहकारी समितियों को प्रोत्साहित किया गया है।

ग्रामीण विकास में योगदान

भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में तो सहकारिता की भावना कूट-कूट कर भरी हुई है। यह बात अलग है कि इस भावना में निरंतर कमी होती जा रही है जिसका कारण यह है कि समाज का ढांचा व्यक्तिवादिता की ओर बढ़ रहा है। वर्तमान में समूह के स्थान पर व्यक्तिगत भावना का बोलबाला अधिक है, जिसका प्रभाव सहकारिता पर पड़ रहा है। सहकारी समितियों को महत्व विकास कार्यक्रमों के संचालन में अधिक है। साथ-साथ काम करने से जहां एक ओर काम बंट जाता है, तो इसका प्रभाव उत्पादन एवं उत्पादकता पर भी पड़ता है। इन समितियों की एक विशिष्ट विशेषता यह होती है कि इसमें आर्थिक हितों के साथ-साथ सामाजिक एवं नैतिक हितों पर भी धयान दिया जाता है। सहकारी समितियों का उद्देश्य होता है कि वे न्यूनतम लागत पर अधिकतम सुविधााएं अपने समुदाय के लोगों को सुलभ कराएं।
आज की व्यक्तिवादी अर्थव्यवस्था में सहकारिता का महत्व अधिक बढ़ गया है। आर्थिक विकास की गति को तीव्र करने में इसका महत्व विशेष रूपसे रहा है। विगत चार दशकों में सहकारिता ने ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है। देश के आर्थिक एवं सामाजिक विकास के लिए जिन प्रमुख संस्थाओं की आवश्यकता महसूस की गई, उसमें सहकारी समिति प्रमुख हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में सहकारी समितियों की स्थापना का मतलब है कि ग्रामीण निर्बल व्यक्ति भी अपना विकास करने में समर्थ हो जाते हैं क्योंकि इन समितियों का सदस्य बनने में धानी व निर्धान के बीच कोई भेदभाव नहीं किया जाता । सभी को समान अवसर,अधिकार व उत्तरदायित्व प्राप्त होते हैं। सहकारी समितियों का समाज में इसीलिए अधिक महत्व है, क्योंकि यह संगठन शोषण रहित सामाजिक आर्थिक व्यवस्था स्थापित करने में सहायक है। ग्रामीण समुदाय में सहकारिता का लाभ विशेष रूप से मिलता है क्योंकि देश का ग्रामीण क्षेत्र विकास की धारा में पीछे रह जाता है। इस प्रकार आर्थिक विकास को इन क्षेत्रोंमें तीव्र करने का यह मुख्य साधान है। इन समितियों के माधयम से ग्रामीण क्षेत्रों को बहुत लाभ होते है,जैसे-सस्ती साख,ग्रामीण एवं लघु उद्योगों का विकास,कृषि का विकास, फिजूल खर्ची में कमी, संपत्ति का समान वितरण, सामाजिक कल्याण, श्रमिकों के साथ अच्छे संबंधा, आर्थिक सुरक्षा आदि। सहकारिता के विश्लेषण से ग्रामीण विकास में उसकी समर्पित भूमिका परिलक्षित होती है।

सहकारिता के जनक

विश्व में सहकारिता का जनक राबर्ट ओवेन को माना जाता है। 14 मई 1771 को जन्मे ओवेन एक समाज-सुधारक एवं उद्यमी थे। उनकी गणना समाजवाद एवं सहकारिता आन्दोलन के संस्थापकों में की जाती है। उन्होंने सहकार को व्यावहारिकता के धरातल पर साकार करने की कोशिश अपनी पूरी ईमानदारी और सामथ्र्य के साथ की। अपने विचारों के लिए सदैव समर्पित भाव से काम करता रहा। हालांकि उसे अंतत: असफलता ही हासिल हुई; मगर तब तक दुनिया सहकार के सामथ्र्य से पूरी तरह परिचित हो चुकी थी।
ओवेन का उद्देश्य मात्रा आर्थिक-सामाजिक विषमताओं का निर्मूलीकरण नहीं था, बल्कि समाज के चरित्र में परिवर्तन के माध्यम से मनुष्य की सहयोगकारी प्रवृत्ति को सभी कर्तव्यों के लिए नियामक बनाना था। ओवेन को एक ओर जहां सहकारिता आंदोलन का पितामह होने का गौरव प्राप्त है, वहीं शिशु पाठशालाओं को आरंभ करने का श्रेय भी उसी को जाता है। ओवेन ने सहकारी आंदोलन का सूत्रपात किया, किंतु आजीवन कोशिश तथा तमाम संसाधनों को झोंक देने के बाद भी उसे अपेक्षित सफलता नहीं मिल पाई थी। कारण संभवत: यह रहा कि समाज के बाकी लोगों का विश्वास जिनसे वह सहकार की अपेक्षा रखता था, जिनके माध्यम से आंदोलन को आगे बढ़ाना चाहता था और कदाचित जिन्हें उसकी सर्वाधिक आवश्यकता भी थी, उनका विश्वास जीत पाने में वह असमर्थ रहा था।
राबर्ट ओवेन ने सहकरिता के क्षेत्र में मौलिक प्रयोग किए। उसने अपनी मिलों में काम करने वाले कारीगरों को मानवीय वातावरण प्रदान करने की कोशिश की। मजदूर बच्चों को शिक्षा देने के लिए पाठशालाएं खुलवाईं, इसीलिए उसको सहकारिता के साथ-साथ शिशु शिक्षा केंद्रों का जनक भी माना जाता है। ओवेन के प्रयासों का मजदूरों की ओर से भी स्वागत किया गया, जिससे उसका उत्पादन स्तर लगातार बढ़ता चला गया। यहां तक कि इंग्लैंड में आई भयंकर मंदी के दौर में उसकी मिलें मुनाफा उगल रही थीं। उनीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में सहकारिता आंदोलन को पूरे विश्व में प्राथमिकता मिलने के पीछे एक कारण सरकारों का यह डर भी था, कि बढ़ती लोकचेतना के दबाव के आगे आम नागरिकों की उपेक्षा लंबे समय तक कर पाना संभव न होगा। क्योंकि उन्हीं दिनों राजनीति पर अस्तित्ववादी एवं साम्यवादी विचारों की झलक साफ दिखने लगी थी।

सहकारिता का विकास

सहकारिता समितियों के विषय में कहा जाता है कि ये 'समान आर्थिक कठिनाइयों का सामना करने वाले व्यक्तियों के ऐसे संगठन हैं, जिसमें समान अधिकारों एवं उत्तरदायित्वों के आधार पर स्वेच्छापूर्वक मिलकर इसके सदस्य कठिनाइयों को दूर करने का प्रयास करते हैं। इस प्रकार बनाए गए समूह के संचालन का आधार सदस्यों के परस्पर सहयोग में निहित होता है और इस प्रक्रिया में शामिल जोखिम भी उन्हीं का होता है। इसका भौतिक एवं नैतिक लाभ संगठन के सदस्यों को बराबर मिलता रहे, ऐसी अपेक्षा होती है।Ó
हालांकि 20 वीं सदी के आरंभिक वर्षों में जब देश को अकाल के भीषण दौर से गुजरना पड़ा तो प्राचीन सहकारिता की स्थापित परिपाटी को नई जरूरत और समय के साथ स्थापित करना आवश्यक हो गया। 1901 अंग्रेजों ने अकाल आयोग का गठन किया। 1901 में अकाल आयोग की रिपोर्ट एवं एडवर्ड मैक्लेगन की सिफारिशों के आधार पर एडवर्ड ला की अध्यक्षता में अंग्रेजी सरकार ने सहकारी साख समितियों के गठन पर मुहर लगा दी। सन् 1903 में सेन्ट्रल असेम्बली में एक बिल लाया गया। 1904 में 'सहकारी साख अधिनियमÓ अस्तित्व में आया। भारत में नए सहकारिता आंदोलन का आरंभ कृषि एवं इससे संबंधित सहायक क्षेत्रों से माना जाता है।
1904 में बने सहकारी साख अधिनियम के बाद भारतीय सहकारिता आंदोलन की हवा चली। इस अधिनियम का उद्देश्य किसानों, कारीगरों तथा सीमित साधानों वाले व्यक्तियों में बचत, स्व-सहायता तथा सहकारिता की भावना को जागृत करना था, जिससे वे निर्धनता से उबर सकें। इस अधिनियम की कमियों में सुधार हेतु Óसहकारी समिति अधिनियम 1912? पारित किया गया। वर्ष 1914 में एडवर्ड मैक्ग्लेन की अध्यक्षता में बनाई गई समिति की सिफारिशों के आधार पर किसी भी सहकारी समिति के गठन में पूरी तरह से सावधानी बरतने की बात कही गई। सन् 1919 तक सहकारिता की जड़ें और भी मजबूत होने लगी थीं। इसी वर्ष सहकारिता को मोंटेग्यू चेम्सफोर्ड रिपोर्ट में राज्य के विषय के रूप में शामिल कर लिया गया और उन्हें अपनी सुविधानुसार कानून बनाने का अधिकार भी दे दिया गया।
भारतीय सहकारिता आंदोलन में सहकारी समितियों की अहम् भूमिका मानी जाती है। भारत का सहकारी क्षेत्र विश्व के वृहदतम सहकारी क्षेत्रों में शुमार किया जाता है। मार्च 2003 के आंकड़ों के मुताबिक 5.41 लाख समितियां भारतीय सहकारी क्षेत्र का हिस्सा थीं, जिनकी पहुंच देश के शत् प्रतिशत गांवों तक बताई जाती है। इन समितियों के 22.15 करोड़ सदस्य होने की बात भी कही जाती है।
1954 में 'आल इंडिया रूरल क्रेडिट सर्वे कमेटीÓ की रिपोर्ट में सहकारी समितियों द्वारा उपलब्ध कराए जाने वाले ऋण को ग्रामीण आर्थिक संरचना के सुदृढ़ीकरण की दिशा में महत्वपूर्ण बताते हुए इसमें सरकार की भागीदारी की सिफारिश भी की गई थी। सन् 1958 में राष्ट्रीय विकास परिषद ने सहकारिता को लेकर एक राष्ट्रीय नीति बनाने की अनुशंसा की और इस तरह से भारतीय सहकारिता आंदोलन गति पकडऩे लगा था। 1950-51 में सभी प्रकार के सहकारी संस्थानों की संख्या 1.81 लाख आंकी गई। जबकि, 1996-97 में 4.53 लाख संस्थानों के होने की बात कही जाती है। इसी तरह इन समितियों के सदस्यों में भी खासी बढ़ोत्तरी देखने को मिलती है। इसी कालखंड में सदस्यों की संख्या 1.55 करोड़ से बढ़कर 20.45 करोड़ हो गई।
इस विशेष और विशाल सहकारी आंदोलन को सरकारी समर्थन देने के लिए 'राष्ट्रीय सहकारी विकास निगमÓ का गठन किया गया है। निगम का उद्देश्य कृषि सहकारी समितियों को सुदृढ़ और विकसित करना है और उनकी आय को बढ़ाने के लिए फसलोपरांत सुविधाएं मुहैया करवाना है। निगम ग्रामीण क्षेत्रों में कृषि आदानों, प्रसंस्करण, भंडारण एवं कृषि उत्पादों के विपणन तथा उपभोक्ता वस्तुओं की आपूर्ति संबंधी कार्यक्रम पर ध्यान दे रहा है। गैर कृषि क्षेत्र में कमजोर तबकों को प्रोत्साहन देने के लिए भी निगम प्रयासरत है।
इसके लिए वह हथकरघा, कुक्कुट पालन, मात्स्यिकी, अनुसूचित जनजाति की सहकारी समितियों से संबंधित कमजोर वर्गों पर विशेष ध्यान दे रहा है। 'राष्ट्रीय सहकारी विकास निगमÓ (संशोधान) अधिनियम, 2002 के पारित हो जाने के पश्चात 'राष्ट्रीय सहकारी विकास निगमÓ का कार्यक्षेत्र बढ़ गया है। इसमें पशुधन, कुक्कुट और ग्रामीण उद्योग, हस्तशिल्प, ग्रामीण शिल्प तथा कुछ अधिसूचित सेवाओं को भी शामिल कर लिया गया है। इस अधिनियम के तहत सहकारी समितियों को ज्यादा स्वायत्तता दी गई है।
इसी दिशा में एक और पहल के रूप में राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के परामर्श से केंद्र सरकार ने राष्ट्रीय सहकारिता नीति तैयार की है। इसका उद्देश्य देश में सहकारी समितियों के चौतरफा विकास को बढ़ावा देना है। इसके अंतर्गत सहकारिताओं को आवश्यक समर्थन, प्रोत्साहन और सहायता दी जाएगी ताकि वे स्वायत्तशासी, आत्मनिर्भर और लोकतांत्रिक संस्थाओं के रूप में कार्य कर सकें। वे अपने सदस्यों के प्रति पूर्ण रूप से जवाबदेह हों। वे राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में, विशेषकर देश में गरीबी रेखा के नीचे रहने वाले बड़े वर्ग (जिनके लिए सार्वजनिक भागीदारी और सामुदायिक प्रयासों की जरूरत होती है) के उत्थान में एक विशेष योगदान कर सकें।
सहकारी साख (नाबार्ड), सहकारी विपणन (नैफेड), खाद एवं प्रसंस्करण सहकारिता (कृभको, इफको), दुग्ध सहकारिता (अमूल), महिला सहकारिता (एनएफआईसी), आदिवासी सहकारिता (ट्राइफेड), खाद्य सहकारिता (फिश काफेड), श्रमिक सहकारिता (नेशनल फेडरेशन आफ लेबर को-आपरेटिव) और सहकारिता संगठन (एनसीडीसी तथा एनसीयूआई), भारत में सहकारिता की सफलता की गाथा दर्ज करवा चुके हैं। सहकारी समितियों के उत्थान के लिए उनमें समयबद्धता, पारदर्शिता, व्यवहारशीलता तथा सहभागिता का समावेश होना आवश्यक है। गांवों और किसानों के विकास के सपने को साकार करने के लिए 11वीं पंचवर्षीय योजना में सहकारिता को अधिक महत्व दिया जाएगा। कृषि ऋण को बढ़ावा देने के लिए सहकारिता एक बेहतर माध्यम है। सहकारिता कृषि और ग्रामीण विकास एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। कृषि ऋण के विभिन्न आयामों मसलन-क्रेडिट, उत्पादन, प्रसंस्करण, मार्किटिंग, इन्पुट्स का वितरण, हाउसिंग, डेयरी और टेक्सटाईल इत्यादि में आज सहकारी संस्थानों की महत्वपूर्ण भागीदारी है।
कुछ क्षेत्रों जैसे-डेयरी, शहरी बैंकिग एवं आवास, चीनी तथा हैण्डलूम इत्यादि में सहकारी संस्थानों ने अपनी उपलब्धि दर्ज करवाई है। देश में सहकारी आंदोलन की असफलता के पीछे इसके सदस्यों की निष्क्रियता एवं प्रबंधन में सक्रिय सहभागिता का अभाव रहा है। सहकारी साख समितियों की उधारी बाकी, आंतरिक संसाधनों को इक_ा करने की इच्छाशक्ति का अभाव, सहकारी सहायता पर अधिक निर्भरता, व्यावसायिक प्रबंध तंत्र का अभाव, प्रशासनिक अंकुश, प्रबंधन में अनावश्यक सरकारी दखलंदाजी भी इसकी असफलता के लिए कम दोषी नहीं हैं। निहित स्वार्थी लोगों के सहकारी समितियों पर छाए रहने के कारण भी आम लोगों तक सहकारी आंदोलन का प्रभाव महसूस नहीं होता। इस कारण यह अपने उद्देश्य को पाने में असफल रहती है। इस आंदोलन को जन-जन तक पहुंचाने के लिए समुचित वैधानिक एवं नीतिगत उपाय करने होंगे।

अन्तरराष्ट्रीय सहकारिता

दुनिया की पहली सहकारी समिति राकडेल तथा क्विटेबल सोसायटी ऑफ पायोनियर्स मानी जाती है। राकडेल इंग्लैण्ड के लंकाशायर व यार्कशायर की सीमा पर स्थित एक कस्बा है जो अपनी प्रगतिशील विचारधारा के लिए जाना जाता था। इस समिति में 28 व्यक्तियों ने बैठक में भाग लेकर सहकारिता की शुरूआत 26 जून सन् 1844 को औपचारिक बैठक में हुई थी। इसमें सभी 28 व्यक्तियों ने एक-एक पौण्ड की पूंजी देकर आरंभ किया था। इस सोसायटी की गठन के बाद प्रथम बैठक 11 अगस्त सन् 1844 दिन रविवार को हुई थी। राकडेल क्विटेबल सोसायटी ऑफ पायोनियर्स विश्व की प्रथम सहकारी समिति थी कि जिसने समिति संचालक के कुछ नियमों व सिद्धान्तों का निरूपण किया जो आगें चलकर विश्व सहकारिता आंदोलन के आधार बनें। वर्तमान में दुनिया के 100 से अधिक देशों में सहकारी आंदोलन समय परिवर्तन एवं आवश्यकता के अनुकूल विभिन्न उद्देश्यों वाली सहकारी संस्थाओं के रूप में विकसित हो रहा है।
फ्रांस में सहकारिता आन्दोलन की प्रगति और विकास का श्रेय केवल वहां के कृषक संगठनों को जाता है। कृषकों की आवश्यकताओं की पूर्ति 'एग्रीकल्चर फायनेंसियल बैंकÓ द्वारा ही की जाती है। फ्रांस में जितने भी सहकारी बैंक कार्यरत हैं वे सभी बहुद्देश्यीय ऋण प्रदान कर रही हैं। जर्मनी में सहकारिता आन्दोलन की प्रगति सन् 1927 में निर्मित हुई जो भंयकर मुद्रा स्फिति की ही देन है। आस्ट्रेलिया, इटली में सहकारी आन्दोलन प्रजातांत्रिक प्रणाली का पर्याय है। फलस्वरूप आम नागरिकों में सहकारिता का अत्याधिक लगाव बढऩे लगा जिससे विवश होकर सरकार को शासकीय शिकंजे से सहकारिता को मुक्त करना पड़ा। वर्तमान में जर्मनी में 768 को सहकारी बैंक हंै, जिनकी 3 लाख से अधिक सदस्य संख्या हैैं।
आयरलैण्ड का सहकारी आंदोलन यूरोप के सबसे सफल और मजबूत अभियान का रूप ले चुका है। कनाडा में भी आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग की रूचि सहकारिता आन्दोलन के प्रति निरंतर विकसित हो रही है। बेल्जियम में श्री सी.आर. फेकी की पहल पर कृषकों का एक ऐसा संगठन बना जिसने अल्प समय में ही काफी लोकप्रियता अर्जित करते हुए सदस्यों के हित में अनेकों कार्य किए उससे प्रभावित होकर क्षेत्रीय शासकों ने वोरेनबाण्ड शहर में एक मुख्य क्रेडिट कोआपरेटिव बैंक की स्थापना की जिसके माध्यम से डेरी उत्पादन के सीमित बाजार का समुचित विकास हुआ है। इसी तरह नीदरलैण्ड में भी सहकारी बैंको की तरह सहकारी मार्केटिंग सोसायटी का विकास हुआ। स्वीडन, रोमानिया, स्पेन, पुर्तगाल व इटली के सहकारिता आन्दोलन ने कृषि व साख के क्षेत्र से काफी ऊपर उठकर चिकित्सा के क्षेत्र में अपंग बच्चों की देखरेख सहकारिता के माध्यम से घरों की देखभाल के साथ-साथ बुजुर्ग, शारीरिक रूप से अक्षम व्यक्तियों व बच्चों की पूर्ण जिम्मेदारी समाजसेवी सहकारी संगठनों के माध्यम से सफलतापूर्वक की जा रही है।

आजादी के बाद लोग नेतृत्व की तरफ उपदेशिता की दृष्टि से देखते थे। लोगों में नेतृत्व के प्रति आशा और विश्वास था। उनका मानना था कि सरकार उनके लिए जो करेगी वह ठीक होगा। बाद में धीरे-धीरे इस धारणा में परिवर्तन आना शुरू हो गया। जब सहकारिता आंदोलन शुरू हुआ। उस समय इसके दो पक्ष सामने आए। पहला, जो सीधे-सीधे कृषि से जुड़ा हुआ था। तत्कालिन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की सोच अतिवादी थी। इससे लोगो में शंका पैदा हो गया। लोगों को लगा कि उनकी जमीन सरकार छीन लेगी। नागपुर सम्मेलन के दौरान सहकारी खेती का विरोध हुआ था। उस समय चौं चरण सिंह ने सहकारी खेती और इसके प्रति सरकारी नीति का खुलकर विरोध किया था। कांग्रेस ने इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया था। यह नेहरू नीति की करारी हार थी। दूसरी बात, हमारे देश में किसान और उपभोक्ता दोनों कम आय वर्ग के लोग हैं। कुटीर उद्योगों के पास पूंजी की कमी है। इस स्थिति को देखते हुए श्रम और पूंजी को जोडऩे की वकालत की गई। ताकि उनको लाभ मिल सके। इस पद्घति के तहत सहकारी चीनी मिलों की स्थापान हुई थी। मिलों में किसानों को पूर्ण भागीदीरी दी गई। किसानों को बराबर का शेयर दिया गया। इसी पद्घति से गुजरात और महाराष्ट्र में गन्ने और दूध के मामले में यह आंदोलन सबसे ज्यादा सफल था।

बुआई के समय खाद और बीज उपलब्ध नही होता है। समिति अधिकारी इस सम्बन्ध में स्पष्ट जवाब नही दे पाते। खाद बीज आज इन समितियों में जरूरतमंद किसानो को न देकर ब्लैक में बेच दिया जाता है। सहकारी समिति के डायरेक्टर और चैयरमेन अपने किसी दुकानदार रिश्तेदार आदि को बेच देते हंै। इससे इसका समुचित वितरण नही हो पाता। समितियों में किसानो से ऋण देने के ऐवज में अधिकारी रिश्वत लेते है। कुछ किसानों को बिना ऋण लिए ही उनके खातों में ऋण चढ़ा मिलता है।
सतपाल सिंह, किसान, गौरीपुर जवाहरनगर

सहकारी समितियां शासन और प्रशासन की लापरवाही से भ्रष्टाचार का गढ़ बन चुकी हैं। मिल सोसायटी से खाद लेने पर यदि आपने पैसा एक महीने बाद चुकता कर दिया तो भी ब्याज कम से कम छह महिने या एक साल का लगेगा। खाद भी जरूरत के समय नहीं मिलता है। बीज तब आता है जब फसल कटने वाली होती है। सोसायटियों में प्रबन्धन इस प्रकार है कि जिन लोगों पर समिति का कर्ज है, में खुद उगाहने आते है। पैसे लिए और रसीद बाद में देने की बात होती है जो कि कई बार नहीं मिलती। पैसे देने के बावजूद कर्ज ज्यों का ज्यों रहता है।
राजकुमार, किसान, ग्राम बाघू

किसानों को समितियों से आज भी बहुुत फायदे मिलते है। आज किसान की जोत घटती जा रही है। उसके पास इतन समय नहीं है कि वह सहकारी समिति में खाद बीज जो कि एक प्रक्रिया द्वारा मिलता है। वह उसे प्राप्त कर सके। समिति की गतिविधियां आज संदिग्ध है। इस बात को वे भी स्वीकार करते हंै। यदि किसान मिलकर समितियों में सहभागिता निभाये भ्रष्ट अधिकारियों के खिलाफ आन्दोलन करें तो ये समितियों एक बार फिर किसान के लिए वरदान सािबत हो सकती है। जरूरत है किसानों को इसके प्रति जागरूक होने की तथा इनमें पदों को संभालने की।
नैन सिंह , निदेशक, गूर्जर सहकारी समिति, निरोजपुर

सहकारिता आंदोलन महाराष्ट्र, गुजरात सहित कुछ राज्यों में सफल तो रहा लेकिन उत्तर के राज्यों में सफल नहीं हो सका। इसकी प्रमुख वजह सांस्कृतिक खाई थी। यहां के लोगों में सहकारिता के लिए उपयुक्त संस्कृति का अभाव था। सरकार भी सहकारिता के मूल स्वरूप को बनाए रखने में नाकाम साबित रही। इसलिए उत्तर के राज्यों में सहकारिता का स्वरूप सहकारी की बजाय सरकारी हो गया।
डॉ. सोमपाल, पूर्व केंद्रिय कृषि मंत्री


Tuesday, September 14, 2010

आज हिंदी दिवस है !

आज हिंदी दिवस है। अखबार में आए विज्ञापनों को पढ़कर पता चला। कुछ लोगों ने हिंदी की स्थिति पर लेख भी लिखा है। विज्ञापनों में जहां हिंदी दिवस की शुभकामनाएं दी गई हंै, वहीं लेखों में हिंदी की दयनीय स्थिति पर चिंता प्रकट की गई है। हिंदी की खराब स्थिति के लिए हिंदी भाषी लोग ज्यादा जिम्मेदार हंै। इसकी इबारत तो आजादी के बाद ही लिख दी गई, जब राष्ट्र भाषा हिंदी के विकल्प में अंग्रेजी को रखा गया। अहिंदी भाषी लोग भी हिंदी को राष्ट्र भाषा के रूप में स्वीकार नहीं कर सके। वहां हिंदी को घृणा की दृष्टि से देखा जाने लगा। हिंदी भाषा को अपने घर में ही महत्व नहीं दिया गया। आज घर में बच्चों को चाचा की बजाए अंकल और पानी की बजाए वॉटर सिखाया जाता है। यदि बच्चे ने गलती से भी चाचा या पानी बोल दिया तो, कहा जाता है- नो-नो वॉटर बोलो। कभी-कभी तो थप्पड़ भी रसीद कर दिया जाता है। बच्चा तो वहीं से हिंदी को हेय की दृष्टि से देखने लगता है। वही बच्चा बड़ा होकर जब व्यवस्थापक बनता है तो हिंदी के विस्तार की व्यवस्था कैसे कर सकता है?
आज हिंदी के अध्यापक, कवि और लेखक भी अपने भाषण में पचास फीसद अंग्रेजी के शब्दों का इस्तेमाल करते है, ताकि भाषण प्रभावी हो। जो लोग शुद्घ हिंदी बोल सकते हैं, वो भी बातचीत में अधिकतर अंग्रेजी शब्दों का इस्तेमाल करते हैं। लोग बॅालिवुड की बजाय हॉलिवुड की फिल्में देखते है। कहने का मतलब है कि अंग्रेजी को इलिट क्लास का दर्जा दे दिया गया है। और इलिट कहलाने के लिए अंग्रेजी तो बोलना ही पड़ेगा।
हमारे देश में राष्ट्र भाषा, राष्ट्र खेल और राष्ट्र से जुड़ी अन्य चीजों की स्थिति कमोवेश एक जैसी ही है। जैसी स्थिति हिंदी की है, वैसी ही हॉकी की। व्यवस्था से जुड़े लोगों के पास इसके बारे में सोचने के लिए समय ही नहीं है। खानापूर्ती के लिए पूरे साल में एक दिन निर्धारित कर दिया गया है। इस दिन भूले-बिसरे हिंदी की हालत पर आंसू बहा लेते हैं। हालात सुधारने के लिए कोरे प्रण किए जाते हैं। पर स्थिति वही ढ़ाक के तीन पात। आज हिंदी दिवस मनाया जा रहा है। जगह-जगह कवि सम्मेलन आयोजित होंगे। गोष्ठियां होंगी। हिंदी के हालत पर गंभीर चिंता प्रकट होगी। पर होगा कुछ नहीं। क्योंकि कुछ कर गुजरने की मजबूत इच्छा शक्ति हमारे देश के रहनुमाओं में है ही नहीं।

Friday, July 30, 2010

दुखीराम की आत्महत्या

एक दिन,
करने को समस्याओं का निवारण
दुखीराम ने शाम पांच बजे
आत्महत्या के मूड में
जहर की पुड़िया निकाली
पत्नी ने हमेशा की तरह
क्रोध की दृष्टि डाली
और कहा गजब कर रहे हो
शाम को पांच बजे मर रहे हो
क्या चाहते हो,
पूरी रात रोते हुए बिताऊं
शोक में पतिव्रता धर्म nibhau

अरे कोई काम ठीक समय से करो
अगर मरना ही है तो सुबह
चाय नाश्ता करके आराम से मरो
और ना bhi मरो,
तो कौन सी जल्दी है
ऐसा तो नहीं है जो कि
यमराज की कोई आखिरी गाड़ी चल दी है।
सोचो वेतन मिलने में आठ दिन बचे है।
पैसे के अabhav में वैसे bhi हाय तौबा मची है
मजबूरी के आगे झुक जाओ
जैसे इतने दिन रूके रहे
आठ दिन और रूक जाओ
वेतन तो मिल जाने दो
घर में पैसा तो आ जाने दो
मरने को तो पूरी जिंदगी पड़ी है
चाहे जब मर लेना।
और अगर बोनस के पैसे मिल जाएं
तो इसी गर्मी की छुट्टी में आत्महत्या कर लेना।
लेकिन अbhi देखते नहीं हो
बबली एक फ्राक में स्कूल जा रही है।
स्वाती सलवार-कुर्ता के लिए कबसे चिल्ला रही है।
गोलू साइकिल के लिए टर्रा रहा है।
और एक तुम हो कि तुम्हे
आत्महत्या का शौक चर्रा रहा है।

( कविता में प्रयुक्त सabhi नाम काल्पनिक हैं, इनका वास्तविकता से कोइ लेना-देना नहीं है)

Saturday, July 17, 2010

आखिर क्यों उठाते हैं ऐसे कदम


आत्महत्या शब्द जेहन में आते ही रूह कप जाती है । आखिर कोई इन्सान आत्महत्या क्यों और किन परिस्थितियों में करता है ? उसके सामने ऐसी क्या मजबूरी होती है की वह प्रकृति के इस अनुपम तोहफे को ख़तम कर देता।
क्राइम रिकार्ड ब्यूरो द्वारा कराए गए शोध के मुताबिक हर साल आत्महत्या के मामलों में इजाफा होता जा रहा है। 2008 में जहां आत्महत्या के चार हजार आठ मामले सामने आए वहीं ये आंकड़ा 2009 में पांच हजार तक पहुंच गया। इस साल इसका ग्राफ और उपर जाने की संभावना है।
सबसे गंभीर बात यह है कि आत्महत्या करने वाले अधिकतर लोगों में सबसे अधिक छात्र शामिल हैं। एक रिपोर्ट के मुताबिक साल 2004 के बाद दस से पंद्रह साल के बच्चों में आत्महत्या के मामलों में 75 फीसदी की बढ़ोतरी दर्ज की गई है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक भारत में हर 10 हजार लोगों में 98 लोग आत्महत्या करते हैं। हर 90 मिनट में एक युवा आत्महत्या की कोशिश करता है। 37.8 फीसदी युवाओं में आत्महत्या की प्रवृत्ति पाई गई है। आंकड़ों के मुताबिक भारत में सबसे अधिक आत्महत्या स्वरोजगार में लगे लोगों में देखी गई है। जबकि आत्महत्या के मामले में दूसरे नंबर पर गृहणियां होती हैं। आदमियों में आत्महत्या की दर 41 फीसदी है जबकि गृहणियां में 21 फीसदी है। कर्मचारियों में यह दर 11.5 फीसदी, बेरोजगारों में 7.5 फीसदी और छात्रों में पांच फीसदी है। आत्महत्या करने वाले लोगों में ज्यादातर 15 से 35 वर्ष की आयु के लोग हैं। वहीं महिलाओं की अपेक्षा पुरुषों में आत्महत्या करने के मामले अपेक्षाकृत अधिक हैं।
छात्रों में आत्महत्या की प्रमुख वजह परीक्षा का डर और पढ़ाई का दबाव है। ऐसे लोग भी है जिन्होंने पारिवारिक समस्याओं से तंग आकर अपनी जान दे दी। प्रेम-प्रसंगों और नशे की लत की वजह से आत्महत्या करने के भी कई मामले सामने आए हैं। गाजियाबाद की बीटेक की छात्रा प्रगति सिंह के खुदकुशी की घटना के अभी ज्यादा दिन नहीं बीते हैं। प्रगति ने पढाई के दबाव के कारण खुदकुशी कर ली थी। इसने अपने सुसाइड नोट में लिखा था कि वह बीकाम करना चाहती थी, लेकिन परिवार के दबाव की वजह से वह बीटेक कर रही थी। दूसरी घटनाओं में परीक्षा में असफलता मिलने की वजह से ङ्क्षकग जार्ज मेडीकल यूनीवॢसटी में तृतीय वर्ष की छात्रा ने जहर खाकर अपनी जान दे दी। 26 साल के सुशील कुमार चौधरी ने कानपुर में आत्महत्या कर ली। सोसाइड नोट में उसने अपने कुछ अध्यापकों इसका जिम्मेदार ठहराया था। अध्यापकों द्वारा भेदभाव किए जाने का आरोप लगाते हुए सुशील के पिता ने कहा कि उसके दलित होने की वजह से उसे प्रताडि़त किया जाता था और कहा जाता था कि उसे डॉक्टर बनने के सपने देखना छोड़ देना चाहिए।

आत्महत्या की वजह

आधुनिक समय में अभिभावकों और बच्चों के बीच आपसी सामंजस्य में कमी आने लगी है। इससे बच्चों में ने केवल स्वतंत्र विचार पनप रहे हैं, बल्कि उनका दुनिया को देखने का नजरिया भी बदलने लगा है। इसमें अब उन्हें किसी का दखल गवारा नहीं होता है। यही वजह है कि आज समाज में बच्चे ङ्क्षहसक प्रवृत्ति के हो रहे हैं। छोटी-छोटी बातों में अपना आपा भी खो देते हैं। जिसकी परिणति आत्महत्या के रूप में होती है। तेज रफ्तार ङ्क्षजदगी से शहरी जीवन शैली में कई बदलाव आए हैं। युवा वर्ग भी इससे अछूता नहीं रह गया है।
आज माता-पिता के पास इतना समय नहीं रह गया है कि वह बच्चों के साथ बैठकर उनकी बातों को सुन सकें। बच्चे अपनी जिज्ञासा को शांत करने के लिए बाहर की दुनिया में दूसरे दोस्तों की तलाश करते हैं। ऐसे में उनका संपर्क अच्छे और बुरे दोस्तों दोनों प्रकार के लोगों से होता है। इनके संपर्क में रहने से बच्चों को मानसिक सोच, विचार एवं प्रवृत्तियों में भी बदलाव होता है। जमाना बदल रहा है, तो बच्चों के साथ अभिभावकों को भी बदलना होगा। उनकी जरूरतों का ध्यान रखना होगा। साथ ही बच्चों की जिज्ञासा एवं उत्सुकता को भी शांत करना होगा। बच्चों पर अनावश्यक पढाई का दबाव न दिया जाय। उन्हे उनकी इच्छानुसार करियर चुनने की आजादी देनी चाहिए। बच्चों का साइकोलॉजिकल चेकअप भी कराते रहना चाहिए। अभिभावकों को चाहिए कि वे अपने बच्चों को नियंत्रण में रखें। उनकी समस्याओं को समझकर उनका निराकरण करें।
वरिष्ठ मनोचिकित्सक डॉ. संजय का कहना है कि जब लोग खुद को अकेला और निरर्थक समझने लगते हैं, तो इस दु:ख से खुद को निकालने के लिए अपनी ङ्क्षजदगी खत्म कर डालते हैं। ऐसे लोगों से आत्मीयता और भावनात्मक रूप से जुडक़र उन्हें काफी हद तक नार्मल किया जा सकता है। मेडीकल, इंजीनियर और मैनेंजमेंट के छात्रों में आत्महत्या के मामले ज्यादा देखने को मिले है, जो कि काफी हद तक पढ़ाई के बढ़ते दबाव की वजह से होते हैं। अध्यापकों को चाहिए कि वे छात्रों में सकारात्मक सोच और उनके उत्साह को बनाए रखने में मदद करें।
समाजशास्त्री प्रो. रविंद्र राय के मुताबिक अक्सर अभिभावक यह सोचते है कि वे अपने बच्चे के बारे में जो फैसला ले रहे हैं वह सही है। अब समय बदल गया है केवल इंजीनियङ्क्षरग और मेडीकल ही बेहतर करियर के क्षेत्र नहीं है। छात्र को उसकी क्षमता के अनुसार का करियर का चुनाव करने देना चाहिए। हम बच्चों पर दबाव नहीं बना सकते। ऐसा करने पर छात्र का प्रदर्शन प्रभावित होगा। अभिभावकों को नई पीढ़ी की सोच को समझना होगा।

वो आत्महत्या करने वाला है

जब कोई इंसान खुदखुशी करने वाला होता है तो उसके व्यवहार में बदलाव आने लगते हैं। इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि एक बार के तनाव से परेशान होकर कोई आत्महत्या नहीं करता। जिन्दगी में कोई बड़ी दुर्घटना होने पर या बदलाव आने पर कई लोग उससे उबर नहीं पाते। दिमाग में बात घर कर जाती है और फिर उसे निकाल पाने के लिए मनोचिकित्सक से परामर्श की जरूरत होती है . पहले आदमी डिप्रेशन में चला जाता है। उसके विचार नकारात्मक होने लगते हैं। निराशा में डूब जाता है . और किसी से बातचीत करने में इच्छुक नहीं होता। एक ही माहौल जो वो चाहता है वो है अकेलापन। ऐसे लोगों का मन हमेशा चिड़चिड़ा रहने लगता है। घर के सदस्यों से भी बातचीत बिल्कुल बंद कर देते हैं। जब उनसे बातचीत की कोशिश की भी जाती है तो उनका गुस्सा ही देखने को मिलता है। छोटी-छोटी बातों पर ऐसे लोगों का पारा चढ़ जाता है। कई बार इस अवस्था में लोग अपने आप से बातें भी करने लगते हैं। उनमें नींद ना आने या बहुत ज्यादा आने जैसे लक्षण देखे जा सकते हंै। पूरी रात जागकर ये कुछ सोचते रहते हैं। ्र्रस्ङ्ग नींद में ना होने के वावजूद बिस्तर पर पड़े रहते हैं। जिन कामों में इनका ज्यादा लगाव रहता है वो भी घटने लगते हैं। हर बात पर रोने लगना और नियम कानून तोडऩे जैसी बातें इनमे दिखने लगती है। कई बार नशे को अपना साथी मानकर ये इसकी गिरफ्त में भी आ जाते हैं।

 
Design by Free WordPress Themes | Bloggerized by Lasantha - Premium Blogger Themes | Best Buy Coupons