हम अन्नदाता हैं, लेकिन हमारे पेट खाली हैं। भूख इतनी की आत्महत्या तक से गुरेज नहीं। बच्चे न तो स्कूल जा पा रहे हैं और न विकास की दौड़ से कदम मिला पा रहे हैं। आंकड़ों पर गौर करें तो बीते दो दशक में हजारों अन्नदाता, अन्न की कमी के कारण काल के गाल में समा गए। किसान को कभी वक्त पर खाद-बीज नहीं, तो कभी फसल का खरीददार नहीं मिलता। विकास को योजनाएं बनीं तो बहुत, पर धरातल पर सब फुस्स साबित हुई। किसानों को आर्थिक रूप से मजबूत बनाने के लिए साठ के दशक में सहकारी आंदोलन की शुरूआत हुई। किसानों ने इसे एक पहल के रूप में देखा। सुखद कल की उम्मीद भी जगी। पर करीब 45 साल बीतने के बाद क्या हकीकत में किसान मजबूत हो पाया? क्या उसे उसकी फसल की सही कीमत मिल पाई? क्या सहकारी आंदोलन और समितियों ने दलालों की ताकत कम की? इन सभी सवालों के जवाब खोजती मुकेश कुमार गजेंद्र की रिपोर्ट :-
अपने देश को 'भारतÓ और 'इंडियाÓ दो नामों से पुकारा जाता है। 'इंडियाÓ, जो शाइन कर रहा है। जहां दमकते मॉल्स में थिरकती जिंदगियां आबाद रहती हैं। जहां करोड़पतियों और अरबपतियों की संख्या तेजी से बढ़ रही है। वहीं 'भारतÓ, जो आज भी गांवों का देश है। जिसकी 70 फीसद जनसंख्या गांवों में रहती है। जहां के बड़े-बड़े महानगरों में किसी कोने-किनारे पर बसी झुग्गियां हैं, जहां गांवों से रोजगार की तलाश में आए लोग रहते हैं, जहां बिजली, पानी या स्वास्थ्य की सुविधाओं का खस्ताहाल है। जहां मानवाधिकारों की हालत चिंताजनक है। जहां देश का भविष्य कहे जाने वाले नौनिहाल शिक्षा से फिलहाल वंचित हैं। सहकारिता का वास्तविक संबंध इसी दुनिया से है।
सहकारी आंदोलन के विकास की गति बहुत धीमी रही है। अनेक विद्वानों और समितियों ने सहकारी आंदोलन की कमजोरियों की जांच की। कुछ ने तो इसके सुधार या इसकी पुनर्रचना के सुझाव भी दे डाले। जिस तरीके से विकास कुछ दूसरे क्षेत्रों में एकांगी हो गया, कुछ उसी तरीके से सहकारिता क्षेत्र में भी हुआ। मसलन, खेल को ही लें। तमाम छोटी-बड़ी और सरकारी-गैरसरकारी कोशिशों के बावजूद क्या हम क्रिकेट के अलावा अन्य खेलों में भी विश्वस्तरीय पहचान बना पाए? हो सकता है कि एकाध खिलाडिय़ों ने विश्व-स्तरीय नाम कमाया हो, लेकिन क्रिकेट के सूर्य के आगे ये शायद कुछ-कुछ जुगनुओं की ही तरह हैं। क्या वजहें हुआ करती हैं कि हम फुटबाल के विश्व कप में प्रदर्शन नहीं कर पाते? यहां सवाल जनता में लोकप्रियता का है। और यह छोटी बात नहीं है। इसी तरह हमारे यहां सहकारी आंदोलन जनता के बीच सहज रूप से विकसित नहीं हुआ। स्वेच्छा से प्रेरित न होने की वजह से जनता ने अपनी जरूरतों के लिए समितियों के गठन में तेजी नहीं दिखाई। इनका स्वरूप कुछ ऐसा रहा कि एक आम किसान मानता रहा कि सहकारी साख समितियां आमतौर पर कर्ज देने वाली सरकारी एजेंसियां ही हैं।
असफलता की वजह
यदि हम सहकारिता के आर्थिक आंकड़ो को छोड़ कर वास्तविक रूप में उसकी समीक्षा करें तो पाएंगे कि देश के कई भागों में आज भी इसका विस्तार नहीं हो पाया है। लगभग 40 से 50 फीसद ग्रामीण परिवार अभी भी सहकारी समितियों के क्षेत्र से बाहर है। सहकारी समितियो में आपसी वाद-विवाद बढ़ते जा रहे है। राजनीतिक प्रभाव इनमें दृष्टिगत हो रहा है। यद्यपि समितियों ने देश के आर्थिक विकास में विशेष रूप से ग्रामीण विकास में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है, लेकिन इसके बावजूद भी ये अनेक क्षेत्रों में दोषपूर्ण रही हैं। सहकारी समितियों की असफलता का एक ये महत्वपूर्ण कारण यह रहा है कि इन समितियों में प्रशिक्षित व कुशल प्रबंधा का अभाव रहा है। फलस्वरूप इनकी आय, व्यय, ऋण आदि के हिसाब में अनियमितताएं एवं अन्य अनेक कमियां परिलक्षित होती हैं। सहकारी समितियों का उद्देश्य आर्थिक के साथ-साथ सामाजिक व नैतिक विकास करना भी था, लेकिन देखने में यह आया है कि ये सहकारी समितियां मात्र वित्तीय समितियां बन कर रह गई है, इनके द्वारा सामाजिक व नैतिक विकास का लक्ष्य अधारा रह गया है। सहकारी साख समितियों के पास पर्याप्त संसाधानों की कमी है। कई जगह वित्तीय संसाधानों ग्रामीण किसानों एवं कारीगरों को उपलब्धा करायी गईं, वह अपर्याप्त रूप में रहीं।
प्रमुख कमजोरियां निम्नलिखित प्रकार से हैं -
- साहूकारों को अभी तक समाप्त नहीं किया जा सका है।
- सहकारी समितियों को वित्त की कमी का सामना करना पड़ रहा है।
- यह आंदोलन विपणन और विधायन के पारस्परिक संबंधों को समझने में नाकाम रहा।
- इन्हें-सरकारी अभिकरणों और निहित स्वार्थों से गलाकाट प्रतिस्पर्धा झेलनी पड़ी है।
- इसका प्रबंध और नेतृत्व प्राय अकुशल और दोषपूर्ण ही रहा।
सहकारिता विभाग
कृषि एवं सहकारिता विभाग, कृषि मंत्रालय के तीन संघटक विभागों में से एक है। दो दूसरे विभाग हैं- पशुपालन एवं डेयरी विभाग और कृषि अनुसंधान एवं शिक्षा विभाग। राज्यमंत्री की सहायता से कृषि मंत्री विभाग का काम-काज देखते हैं। कृषि एवं सहकारिता सचिव इस विभाग के प्रशासनिक प्रमुख हैं और विभाग में नीति और प्रशासन संबंधी सभी मामलों में मंत्री के प्रमुख सलाहकार हैं। इस विभाग में चौबीस प्रभाग और एक तिलहन, दलहन तथा मक्का से जुड़ा प्रौद्योगिकी मिशन है।
कृषि एवं सहकारिता विभाग देश की भूमि, जल, मिट्टी और पौध संसाधनों के अनुकूलतम उपयोग के जरिये तेज कृषि वृद्धि और विकास हासिल करने के लिए प्रयास करता है। यह किसानों को आदानों और सेवाओं जैसे (कृषि ऋण, उर्वरक, कीटनाशक, बीज, कृषि उपस्कर वगैरह) की आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए प्रयास भी करता है। फसल बीमा से संबंधित योजना चलाना, खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करना या किसानों को लाभकारी मूल्य दिलाना। सहकारिता से जुड़ी सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि विभाग समुचित नीतिगत उपायों तथा राष्ट्रीय सहकारी विकास निगम (एन.सी.डी.सी.), भारतीय राष्ट्रीय कृषि सहकारी विपणन संघ (नेफेड) और भारतीय राष्ट्रीय सहकारी संघ (एन.सी.यू.आई) जैसे संगठनों के माध्यम से सहकारी आंदोलन को मजबूत बनाने के उपाय भी करता है।
सहकारी समितियां
सहकारिता को शुरू में ग्रामीण इलाकों के दलित वर्गों की प्रगति के एक उपाय के रूप में देखा गया था। कृषि हमारी अर्थव्यवस्था की रीढ़ है और एक आम किसान की जिंदगी और जीविका खेती-किसानी से ही चलती है। सहकारी समितियां हमारी खेती-किसानी और ग्रामीण अर्थव्यवस्था के आर्थिक विकास को बढ़ावा देने के लिए एक पद्धति हैं। बेहद महत्वपूर्ण संस्थानिक पद्धति। ये तमाम आर्थिक गतिविधियों में लगी हुई हैं। मसलन- कर्जों के वितरण में, बीजों, उर्वरकों या कृषि आदानों के वितरण में या फिर कृषि उत्पादों के विपणन, भण्डारण या प्रसंस्करण में।
सहकारिता समितियों का शोषण रहित चरित्र या 'एक आदमी एक वोटÓ का सिद्धांत कुछ ऐसी बातें थीं जो इन्हें चौतरफा विकास का एक उपकरण बना सकती थीं। पर ऐसा हुआ नहीं। आज सरकार खुद स्वीकार करती है कि इनमें संगठनात्मक दुर्बलताओं और क्षेत्रीय असंतुलन जैसी कुछ कमियां रह गईं। हमारी सरकार मानती है कि ऐसी कमियों का कारण अत्यधिक संख्या में सुषुप्त या निष्क्रिय किस्म की सदस्यता, सरकारी सहायता पर निर्भरता और बढ़ती हुई अतिदेयताएं हैं। हालांकि कमियों की वजहें सिर्फ इतनी ही नहीं हैं। कुछ दूसरे कारण भी हैं। इन्हें जानना इसलिए जरूरी है ताकि इन कारणों को दूर किया जा सके। फिर धीरे-धीरे कमियों से छुटकारा पाया जा सके। सदस्यों से कम डिपाजिट की व्यवस्था कर पाना या व्यावसायिक प्रबंध का अभाव कुछ दूसरे कारण हैं।
सरकार का यह कदम प्रशंसनीय है जिसमें सहकारी समितियों के पुनरोद्धार के लिए ठोस उपाय किए गए हैं। इसमें इन समितियों को जीवंत लोकतांत्रिक संगठन बनाने के साथ-साथ सदस्यों की सक्रिय भागीदारी पर जोर दिया गया था। यू.पी.ए. सरकार के राष्ट्रीय साझा न्यूनतम कार्यक्रम में इस बात का उल्लेख किया गया है कि यूपीए सरकार सहकारी समितियों की लोकतांत्रिक, स्वायत्तशासी और व्यावसायिक कार्यप्रणाली सुनिश्चित करने के लिए संवैधानिक संशोधन प्रस्तुत करेगी। दिसंबर 2004 में राज्य सहकारी मंत्रियों के सम्मेलन इस विषय पर महत्वपूर्ण चर्चा
प्रस्ताविक संवैधानिक संशोधन करने और सहकारी समितियों पर महत्वपूर्ण प्रभाव डालने वाले अन्य संबंधित विषयों पर चर्चा करने के लिए दिसंबर 2004 में राज्य सहकारी मंत्रियों का सम्मेलन भी आयोजित किया गया था। सम्मेलन में जिन प्रस्तावों को स्वीकार कर लिया गया है, वे निम्नलिखित हैं-
1. संविधान में संशोधन करना
2. सहकारी आंदोलन के सामने खड़ी विभिन्न चुनौतियों पर विचार करने के लिए और आंदोलन को नई दिशा प्रदान करने के लिए एक उच्च स्तरीय समिति का गठन करना।
बहरहाल साझा कार्यक्रम की प्रतिबद्धताओं के अनुसरण में सहकारी समितियों में संवैधानिक संशोधन करने वाला प्रस्ताव अभी कृषि एवं सहकारिता विभाग के विचाराधीन है। सहकारी समितियों संबंधी एक उच्च अधिकारिता समिति का भी गठन किया गया है। यह इसकी सांस्थानिक मौजूदगी के सौ सालों के दौरान सहकारी आंदोलन की उपलब्धियों, इसके समक्ष की चुनौतियों और उनको पूरा करने के लिए उपायों की समीक्षा करेगी। समिति आंदोलन के लिए भी सुझाव देगी।
उत्तर प्रदेश में सहकारिता
सहकारी साख अधिनियम 1912 के लागू होने के साथ पूरे देश में सहकारी समितियों के गठन की प्रक्रिया से सहकारी आंदोलन की शुरुआत हुई थी। बाद में उत्तर प्रदेश सहकारी समिति अधिनियम 1965 बनाया गया। इसे 1968 में लागू किया गया।
उत्तर प्रदेश में सहकारी आंदोलन के माध्यम से संचालित योजनाएं निम्नलिखित प्रकार से हैं-
1- सहकारी ऋण एवं अधिकोषण योजना
इस योजना के अंतर्गत किसानों को कृषि विकास के लिए उचित दर पर ऋण उपलब्ध कराया जाता है। यह ऋण प्रदेश स्तर पर शीर्ष बैंक, जिला स्तर पर जिला सहकारी बैंक और पंचायत स्तर पर सहकारी समितियों द्वारा उपलब्ध कराया जाता है।
2- सहकारी कृषि निवेश योजना
किसानों को कृषि कार्य में सहूलियत के लिए न्यूनतम दर कृषि निवेश उपलब्ध कराया जाता है। इसके तहत रासायनिक उर्वरक जैसे यूरिया, डीएपी, एनपीके और एमएपी आदि उपलब्ध कराई जाती है।
3- सहकारी शिक्षा प्रशिक्षण प्रसार
इस योजना के तहत सहकारी विभाग कार्यरत सदस्यों की कार्यकुशलता बढ़ाने के लिए प्रशिक्षण देने का कार्य किया जाता है।
4- सहकारी क्रय-विक्रय योजना
किसानों को बिचौलियो से बचाने और उचित मूल्य दिलाने के लिए सहकारी क्रय-विक्रय समिति का गठन किया गया। इस योजना के तहत जिला स्तर पर 57 जिला सहकारी संघ और तहसील स्तर पर 258 क्रय-विक्रय समितियां गठित हैं।
5- सहकारी उपभोक्ता योजना
इस योजना के तहत 2347 सहकारी समितियों द्वारा उपभोक्ता सामग्री की आपूर्ति की जा रही है। इसमें से 1768 समितियां ग्रामीण क्षेत्र में तथा 579 समितियां नगर क्षेत्र में कार्यरत हैं।
प्रदेश की प्रमुख सहकारी संस्थाएं
उत्तर प्रदेश कोआपरेटिव यूनियन लिमिटेड, सहकारी संघ, कोआपरेटिव बैंक लिमिटेड, सहकारी ग्राम विकास बैंक लिमिटेड, उपभोक्ता सहकारी संघ लिमिटेड, सहकारी श्रम एवं निर्माण संघ लिमिटेड, सहकारी विधायन एवं शीतगृह संघ लिमिटेड, आलू विकास एवं विपणन सहकारी संघ लिमिटेड फतेहगढ़, राज्य भंडारण निगम
सबसे बड़ा सहकारी क्षेत्र
भारत का सहकारी क्षेत्र संसार के सबसे बड़े सहकारी क्षेत्रों में आता है। आंकड़ों की बात करें तो ताजी जानकारी के मुताबिक 31 मार्च 2003 की स्थिति के हिसाब से हमारे यहां तकरीबन साढ़े पांच लाख सहकारी समितियां हैं। इनकी सदस्यता 22.95 करोड़ से ज्यादा है और कार्यशील पूंजी करीब 38,000 हजार करोड़ रुपये से अधिक है। सहकारिता के अंतर्गत लगभग सौ फीसदी गांव कवर किए गए हैं। करीब तीन-चौथाई ग्रामीण परिवार सहकारी संस्थाओं के सदस्य हैं।
देश की लगभग 50 फ़ीसदी चीनी उत्पादन में सहकारी समितियों योगदान देती हैं। दरअसल, विभिन्न पंचवर्षीय योजनाओं में सहकारी समितियों को सार्वजनिक और निजी क्षेत्र के बीच संतुलन की जि़म्मेदारी सौंपी गई थी। सन् 1963 में केंद्रीय आपूर्ति और सहकारिता मंत्रालय ने राष्ट्रीय सहकारिता विकास निगम का गठन किया था ताकि वह सहकारिता आंदोलन को बढ़ा सके। दूध के क्षेत्र में खेड़ा सहकारी दु्ग्ध उत्पादन संघ (अमूल) की सफलता को देश के अन्य हिस्सों में दोहराने के लिए 1965 में राष्ट्रीय डेयरी विकास बोर्ड का गठन किया गया। अब मदर डेयरी जैसे संगठन इसका हिस्सा हैं। अमूल ने तो सफलता के झंडे गाड़ दिए हैं और इसकी श्वेत क्रांति में अहम भूमिका रही है। बारह हज़ार से अधिक गांवों के 26 लाख से अधिक किसानों की सदस्यता वाली इस संस्था ने सहकारिता के क्षेत्र में दुग्ध उत्पाद में इतिहास रचा है। सहकारी समितियों ने खेती के आधुनिक तरीकों के इस्तेमाल में मदद की है। 1990-91 में इन समितियों ने कुल कृषि ऋणों का 43.4 फीसदी मुहैया कराया। किसानों को भण्डार सुविधाएं मिलीं। इसने शहरी क्षेत्रों में लोगों के लिए जमीन और मकान की व्यवस्था की। कमजोर वर्गों को सेवाएं उपलब्ध कराने का जरिया बनीं। बाद के दिनों में कभी सफलता के झंडे गाडऩे वाली सहकारी समितियां का राजनीतिक अदूरदर्शिता तथा अकुशल प्रबंधन की वजह से पतन होने लगा।
सहकारिता में महिलाएं
आधी दुनिया को छोड़कर कोई क्षेत्र विकास नहीं कर सकता। महिलाओं के संबंध में विकासात्मक गतिविधियों की दरकार है। अनौपचारिक दृष्टिकोण के जरिए महिलाओं को निचले स्तर से सहकारी क्षेत्रों में लाने की जरूरत है। इसके साथ-साथ सामूहिक गतिविधियों में महिलाओं की सहभागिता को बढ़ावा दिया जाना भी अनिवार्य है। भारतीय राष्ट्रीय सहकारी संघ सहकारिता की दृष्टि से अल्पविकसित राज्यों में सहकारी शिक्षण में तेजी लाने से संबंधित विशेष स्कीम भी चला रहा है। चार विशेष महिला विकास परियोजनाएं शिमोगा (कर्नाटक), बहरामपुर (उड़ीसा), मणिपुर (इम्फाल) और भोपाल (मध्य प्रदेश) में चलाई जा रही हैं। इनका लक्ष्य चुनिंदा प्रखंडों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति में सुधार लाना है।
इसके अलावा प्रत्येक क्षेत्रीय परियोजना में एक-एक महिला विकास घटक भी शामिल किया गया है। इस कार्यक्रम के अंतर्गत महिलाओं को स्व-सहायता दलों के रूप में संगठित किया जाता है और उनको सहायता दी जाती है जिससे उनमें बचत करने की प्रवृत्ति पैदा हो सके।
राष्ट्रीय सहकारी विकास निगम से सहायता प्राप्त करने के लिए विशेष तौर पर महिला सहकारी समितियों को प्रोत्साहित किया गया है।
ग्रामीण विकास में योगदान
भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में तो सहकारिता की भावना कूट-कूट कर भरी हुई है। यह बात अलग है कि इस भावना में निरंतर कमी होती जा रही है जिसका कारण यह है कि समाज का ढांचा व्यक्तिवादिता की ओर बढ़ रहा है। वर्तमान में समूह के स्थान पर व्यक्तिगत भावना का बोलबाला अधिक है, जिसका प्रभाव सहकारिता पर पड़ रहा है। सहकारी समितियों को महत्व विकास कार्यक्रमों के संचालन में अधिक है। साथ-साथ काम करने से जहां एक ओर काम बंट जाता है, तो इसका प्रभाव उत्पादन एवं उत्पादकता पर भी पड़ता है। इन समितियों की एक विशिष्ट विशेषता यह होती है कि इसमें आर्थिक हितों के साथ-साथ सामाजिक एवं नैतिक हितों पर भी धयान दिया जाता है। सहकारी समितियों का उद्देश्य होता है कि वे न्यूनतम लागत पर अधिकतम सुविधााएं अपने समुदाय के लोगों को सुलभ कराएं।
आज की व्यक्तिवादी अर्थव्यवस्था में सहकारिता का महत्व अधिक बढ़ गया है। आर्थिक विकास की गति को तीव्र करने में इसका महत्व विशेष रूपसे रहा है। विगत चार दशकों में सहकारिता ने ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है। देश के आर्थिक एवं सामाजिक विकास के लिए जिन प्रमुख संस्थाओं की आवश्यकता महसूस की गई, उसमें सहकारी समिति प्रमुख हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में सहकारी समितियों की स्थापना का मतलब है कि ग्रामीण निर्बल व्यक्ति भी अपना विकास करने में समर्थ हो जाते हैं क्योंकि इन समितियों का सदस्य बनने में धानी व निर्धान के बीच कोई भेदभाव नहीं किया जाता । सभी को समान अवसर,अधिकार व उत्तरदायित्व प्राप्त होते हैं। सहकारी समितियों का समाज में इसीलिए अधिक महत्व है, क्योंकि यह संगठन शोषण रहित सामाजिक आर्थिक व्यवस्था स्थापित करने में सहायक है। ग्रामीण समुदाय में सहकारिता का लाभ विशेष रूप से मिलता है क्योंकि देश का ग्रामीण क्षेत्र विकास की धारा में पीछे रह जाता है। इस प्रकार आर्थिक विकास को इन क्षेत्रोंमें तीव्र करने का यह मुख्य साधान है। इन समितियों के माधयम से ग्रामीण क्षेत्रों को बहुत लाभ होते है,जैसे-सस्ती साख,ग्रामीण एवं लघु उद्योगों का विकास,कृषि का विकास, फिजूल खर्ची में कमी, संपत्ति का समान वितरण, सामाजिक कल्याण, श्रमिकों के साथ अच्छे संबंधा, आर्थिक सुरक्षा आदि। सहकारिता के विश्लेषण से ग्रामीण विकास में उसकी समर्पित भूमिका परिलक्षित होती है।
सहकारिता के जनक
विश्व में सहकारिता का जनक राबर्ट ओवेन को माना जाता है। 14 मई 1771 को जन्मे ओवेन एक समाज-सुधारक एवं उद्यमी थे। उनकी गणना समाजवाद एवं सहकारिता आन्दोलन के संस्थापकों में की जाती है। उन्होंने सहकार को व्यावहारिकता के धरातल पर साकार करने की कोशिश अपनी पूरी ईमानदारी और सामथ्र्य के साथ की। अपने विचारों के लिए सदैव समर्पित भाव से काम करता रहा। हालांकि उसे अंतत: असफलता ही हासिल हुई; मगर तब तक दुनिया सहकार के सामथ्र्य से पूरी तरह परिचित हो चुकी थी।
ओवेन का उद्देश्य मात्रा आर्थिक-सामाजिक विषमताओं का निर्मूलीकरण नहीं था, बल्कि समाज के चरित्र में परिवर्तन के माध्यम से मनुष्य की सहयोगकारी प्रवृत्ति को सभी कर्तव्यों के लिए नियामक बनाना था। ओवेन को एक ओर जहां सहकारिता आंदोलन का पितामह होने का गौरव प्राप्त है, वहीं शिशु पाठशालाओं को आरंभ करने का श्रेय भी उसी को जाता है। ओवेन ने सहकारी आंदोलन का सूत्रपात किया, किंतु आजीवन कोशिश तथा तमाम संसाधनों को झोंक देने के बाद भी उसे अपेक्षित सफलता नहीं मिल पाई थी। कारण संभवत: यह रहा कि समाज के बाकी लोगों का विश्वास जिनसे वह सहकार की अपेक्षा रखता था, जिनके माध्यम से आंदोलन को आगे बढ़ाना चाहता था और कदाचित जिन्हें उसकी सर्वाधिक आवश्यकता भी थी, उनका विश्वास जीत पाने में वह असमर्थ रहा था।
राबर्ट ओवेन ने सहकरिता के क्षेत्र में मौलिक प्रयोग किए। उसने अपनी मिलों में काम करने वाले कारीगरों को मानवीय वातावरण प्रदान करने की कोशिश की। मजदूर बच्चों को शिक्षा देने के लिए पाठशालाएं खुलवाईं, इसीलिए उसको सहकारिता के साथ-साथ शिशु शिक्षा केंद्रों का जनक भी माना जाता है। ओवेन के प्रयासों का मजदूरों की ओर से भी स्वागत किया गया, जिससे उसका उत्पादन स्तर लगातार बढ़ता चला गया। यहां तक कि इंग्लैंड में आई भयंकर मंदी के दौर में उसकी मिलें मुनाफा उगल रही थीं। उनीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में सहकारिता आंदोलन को पूरे विश्व में प्राथमिकता मिलने के पीछे एक कारण सरकारों का यह डर भी था, कि बढ़ती लोकचेतना के दबाव के आगे आम नागरिकों की उपेक्षा लंबे समय तक कर पाना संभव न होगा। क्योंकि उन्हीं दिनों राजनीति पर अस्तित्ववादी एवं साम्यवादी विचारों की झलक साफ दिखने लगी थी।
सहकारिता का विकास
सहकारिता समितियों के विषय में कहा जाता है कि ये 'समान आर्थिक कठिनाइयों का सामना करने वाले व्यक्तियों के ऐसे संगठन हैं, जिसमें समान अधिकारों एवं उत्तरदायित्वों के आधार पर स्वेच्छापूर्वक मिलकर इसके सदस्य कठिनाइयों को दूर करने का प्रयास करते हैं। इस प्रकार बनाए गए समूह के संचालन का आधार सदस्यों के परस्पर सहयोग में निहित होता है और इस प्रक्रिया में शामिल जोखिम भी उन्हीं का होता है। इसका भौतिक एवं नैतिक लाभ संगठन के सदस्यों को बराबर मिलता रहे, ऐसी अपेक्षा होती है।Ó
हालांकि 20 वीं सदी के आरंभिक वर्षों में जब देश को अकाल के भीषण दौर से गुजरना पड़ा तो प्राचीन सहकारिता की स्थापित परिपाटी को नई जरूरत और समय के साथ स्थापित करना आवश्यक हो गया। 1901 अंग्रेजों ने अकाल आयोग का गठन किया। 1901 में अकाल आयोग की रिपोर्ट एवं एडवर्ड मैक्लेगन की सिफारिशों के आधार पर एडवर्ड ला की अध्यक्षता में अंग्रेजी सरकार ने सहकारी साख समितियों के गठन पर मुहर लगा दी। सन् 1903 में सेन्ट्रल असेम्बली में एक बिल लाया गया। 1904 में 'सहकारी साख अधिनियमÓ अस्तित्व में आया। भारत में नए सहकारिता आंदोलन का आरंभ कृषि एवं इससे संबंधित सहायक क्षेत्रों से माना जाता है।
1904 में बने सहकारी साख अधिनियम के बाद भारतीय सहकारिता आंदोलन की हवा चली। इस अधिनियम का उद्देश्य किसानों, कारीगरों तथा सीमित साधानों वाले व्यक्तियों में बचत, स्व-सहायता तथा सहकारिता की भावना को जागृत करना था, जिससे वे निर्धनता से उबर सकें। इस अधिनियम की कमियों में सुधार हेतु Óसहकारी समिति अधिनियम 1912? पारित किया गया। वर्ष 1914 में एडवर्ड मैक्ग्लेन की अध्यक्षता में बनाई गई समिति की सिफारिशों के आधार पर किसी भी सहकारी समिति के गठन में पूरी तरह से सावधानी बरतने की बात कही गई। सन् 1919 तक सहकारिता की जड़ें और भी मजबूत होने लगी थीं। इसी वर्ष सहकारिता को मोंटेग्यू चेम्सफोर्ड रिपोर्ट में राज्य के विषय के रूप में शामिल कर लिया गया और उन्हें अपनी सुविधानुसार कानून बनाने का अधिकार भी दे दिया गया।
भारतीय सहकारिता आंदोलन में सहकारी समितियों की अहम् भूमिका मानी जाती है। भारत का सहकारी क्षेत्र विश्व के वृहदतम सहकारी क्षेत्रों में शुमार किया जाता है। मार्च 2003 के आंकड़ों के मुताबिक 5.41 लाख समितियां भारतीय सहकारी क्षेत्र का हिस्सा थीं, जिनकी पहुंच देश के शत् प्रतिशत गांवों तक बताई जाती है। इन समितियों के 22.15 करोड़ सदस्य होने की बात भी कही जाती है।
1954 में 'आल इंडिया रूरल क्रेडिट सर्वे कमेटीÓ की रिपोर्ट में सहकारी समितियों द्वारा उपलब्ध कराए जाने वाले ऋण को ग्रामीण आर्थिक संरचना के सुदृढ़ीकरण की दिशा में महत्वपूर्ण बताते हुए इसमें सरकार की भागीदारी की सिफारिश भी की गई थी। सन् 1958 में राष्ट्रीय विकास परिषद ने सहकारिता को लेकर एक राष्ट्रीय नीति बनाने की अनुशंसा की और इस तरह से भारतीय सहकारिता आंदोलन गति पकडऩे लगा था। 1950-51 में सभी प्रकार के सहकारी संस्थानों की संख्या 1.81 लाख आंकी गई। जबकि, 1996-97 में 4.53 लाख संस्थानों के होने की बात कही जाती है। इसी तरह इन समितियों के सदस्यों में भी खासी बढ़ोत्तरी देखने को मिलती है। इसी कालखंड में सदस्यों की संख्या 1.55 करोड़ से बढ़कर 20.45 करोड़ हो गई।
इस विशेष और विशाल सहकारी आंदोलन को सरकारी समर्थन देने के लिए 'राष्ट्रीय सहकारी विकास निगमÓ का गठन किया गया है। निगम का उद्देश्य कृषि सहकारी समितियों को सुदृढ़ और विकसित करना है और उनकी आय को बढ़ाने के लिए फसलोपरांत सुविधाएं मुहैया करवाना है। निगम ग्रामीण क्षेत्रों में कृषि आदानों, प्रसंस्करण, भंडारण एवं कृषि उत्पादों के विपणन तथा उपभोक्ता वस्तुओं की आपूर्ति संबंधी कार्यक्रम पर ध्यान दे रहा है। गैर कृषि क्षेत्र में कमजोर तबकों को प्रोत्साहन देने के लिए भी निगम प्रयासरत है।
इसके लिए वह हथकरघा, कुक्कुट पालन, मात्स्यिकी, अनुसूचित जनजाति की सहकारी समितियों से संबंधित कमजोर वर्गों पर विशेष ध्यान दे रहा है। 'राष्ट्रीय सहकारी विकास निगमÓ (संशोधान) अधिनियम, 2002 के पारित हो जाने के पश्चात 'राष्ट्रीय सहकारी विकास निगमÓ का कार्यक्षेत्र बढ़ गया है। इसमें पशुधन, कुक्कुट और ग्रामीण उद्योग, हस्तशिल्प, ग्रामीण शिल्प तथा कुछ अधिसूचित सेवाओं को भी शामिल कर लिया गया है। इस अधिनियम के तहत सहकारी समितियों को ज्यादा स्वायत्तता दी गई है।
इसी दिशा में एक और पहल के रूप में राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के परामर्श से केंद्र सरकार ने राष्ट्रीय सहकारिता नीति तैयार की है। इसका उद्देश्य देश में सहकारी समितियों के चौतरफा विकास को बढ़ावा देना है। इसके अंतर्गत सहकारिताओं को आवश्यक समर्थन, प्रोत्साहन और सहायता दी जाएगी ताकि वे स्वायत्तशासी, आत्मनिर्भर और लोकतांत्रिक संस्थाओं के रूप में कार्य कर सकें। वे अपने सदस्यों के प्रति पूर्ण रूप से जवाबदेह हों। वे राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में, विशेषकर देश में गरीबी रेखा के नीचे रहने वाले बड़े वर्ग (जिनके लिए सार्वजनिक भागीदारी और सामुदायिक प्रयासों की जरूरत होती है) के उत्थान में एक विशेष योगदान कर सकें।
सहकारी साख (नाबार्ड), सहकारी विपणन (नैफेड), खाद एवं प्रसंस्करण सहकारिता (कृभको, इफको), दुग्ध सहकारिता (अमूल), महिला सहकारिता (एनएफआईसी), आदिवासी सहकारिता (ट्राइफेड), खाद्य सहकारिता (फिश काफेड), श्रमिक सहकारिता (नेशनल फेडरेशन आफ लेबर को-आपरेटिव) और सहकारिता संगठन (एनसीडीसी तथा एनसीयूआई), भारत में सहकारिता की सफलता की गाथा दर्ज करवा चुके हैं। सहकारी समितियों के उत्थान के लिए उनमें समयबद्धता, पारदर्शिता, व्यवहारशीलता तथा सहभागिता का समावेश होना आवश्यक है। गांवों और किसानों के विकास के सपने को साकार करने के लिए 11वीं पंचवर्षीय योजना में सहकारिता को अधिक महत्व दिया जाएगा। कृषि ऋण को बढ़ावा देने के लिए सहकारिता एक बेहतर माध्यम है। सहकारिता कृषि और ग्रामीण विकास एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। कृषि ऋण के विभिन्न आयामों मसलन-क्रेडिट, उत्पादन, प्रसंस्करण, मार्किटिंग, इन्पुट्स का वितरण, हाउसिंग, डेयरी और टेक्सटाईल इत्यादि में आज सहकारी संस्थानों की महत्वपूर्ण भागीदारी है।
कुछ क्षेत्रों जैसे-डेयरी, शहरी बैंकिग एवं आवास, चीनी तथा हैण्डलूम इत्यादि में सहकारी संस्थानों ने अपनी उपलब्धि दर्ज करवाई है। देश में सहकारी आंदोलन की असफलता के पीछे इसके सदस्यों की निष्क्रियता एवं प्रबंधन में सक्रिय सहभागिता का अभाव रहा है। सहकारी साख समितियों की उधारी बाकी, आंतरिक संसाधनों को इक_ा करने की इच्छाशक्ति का अभाव, सहकारी सहायता पर अधिक निर्भरता, व्यावसायिक प्रबंध तंत्र का अभाव, प्रशासनिक अंकुश, प्रबंधन में अनावश्यक सरकारी दखलंदाजी भी इसकी असफलता के लिए कम दोषी नहीं हैं। निहित स्वार्थी लोगों के सहकारी समितियों पर छाए रहने के कारण भी आम लोगों तक सहकारी आंदोलन का प्रभाव महसूस नहीं होता। इस कारण यह अपने उद्देश्य को पाने में असफल रहती है। इस आंदोलन को जन-जन तक पहुंचाने के लिए समुचित वैधानिक एवं नीतिगत उपाय करने होंगे।
अन्तरराष्ट्रीय सहकारिता
दुनिया की पहली सहकारी समिति राकडेल तथा क्विटेबल सोसायटी ऑफ पायोनियर्स मानी जाती है। राकडेल इंग्लैण्ड के लंकाशायर व यार्कशायर की सीमा पर स्थित एक कस्बा है जो अपनी प्रगतिशील विचारधारा के लिए जाना जाता था। इस समिति में 28 व्यक्तियों ने बैठक में भाग लेकर सहकारिता की शुरूआत 26 जून सन् 1844 को औपचारिक बैठक में हुई थी। इसमें सभी 28 व्यक्तियों ने एक-एक पौण्ड की पूंजी देकर आरंभ किया था। इस सोसायटी की गठन के बाद प्रथम बैठक 11 अगस्त सन् 1844 दिन रविवार को हुई थी। राकडेल क्विटेबल सोसायटी ऑफ पायोनियर्स विश्व की प्रथम सहकारी समिति थी कि जिसने समिति संचालक के कुछ नियमों व सिद्धान्तों का निरूपण किया जो आगें चलकर विश्व सहकारिता आंदोलन के आधार बनें। वर्तमान में दुनिया के 100 से अधिक देशों में सहकारी आंदोलन समय परिवर्तन एवं आवश्यकता के अनुकूल विभिन्न उद्देश्यों वाली सहकारी संस्थाओं के रूप में विकसित हो रहा है।
फ्रांस में सहकारिता आन्दोलन की प्रगति और विकास का श्रेय केवल वहां के कृषक संगठनों को जाता है। कृषकों की आवश्यकताओं की पूर्ति 'एग्रीकल्चर फायनेंसियल बैंकÓ द्वारा ही की जाती है। फ्रांस में जितने भी सहकारी बैंक कार्यरत हैं वे सभी बहुद्देश्यीय ऋण प्रदान कर रही हैं। जर्मनी में सहकारिता आन्दोलन की प्रगति सन् 1927 में निर्मित हुई जो भंयकर मुद्रा स्फिति की ही देन है। आस्ट्रेलिया, इटली में सहकारी आन्दोलन प्रजातांत्रिक प्रणाली का पर्याय है। फलस्वरूप आम नागरिकों में सहकारिता का अत्याधिक लगाव बढऩे लगा जिससे विवश होकर सरकार को शासकीय शिकंजे से सहकारिता को मुक्त करना पड़ा। वर्तमान में जर्मनी में 768 को सहकारी बैंक हंै, जिनकी 3 लाख से अधिक सदस्य संख्या हैैं।
आयरलैण्ड का सहकारी आंदोलन यूरोप के सबसे सफल और मजबूत अभियान का रूप ले चुका है। कनाडा में भी आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग की रूचि सहकारिता आन्दोलन के प्रति निरंतर विकसित हो रही है। बेल्जियम में श्री सी.आर. फेकी की पहल पर कृषकों का एक ऐसा संगठन बना जिसने अल्प समय में ही काफी लोकप्रियता अर्जित करते हुए सदस्यों के हित में अनेकों कार्य किए उससे प्रभावित होकर क्षेत्रीय शासकों ने वोरेनबाण्ड शहर में एक मुख्य क्रेडिट कोआपरेटिव बैंक की स्थापना की जिसके माध्यम से डेरी उत्पादन के सीमित बाजार का समुचित विकास हुआ है। इसी तरह नीदरलैण्ड में भी सहकारी बैंको की तरह सहकारी मार्केटिंग सोसायटी का विकास हुआ। स्वीडन, रोमानिया, स्पेन, पुर्तगाल व इटली के सहकारिता आन्दोलन ने कृषि व साख के क्षेत्र से काफी ऊपर उठकर चिकित्सा के क्षेत्र में अपंग बच्चों की देखरेख सहकारिता के माध्यम से घरों की देखभाल के साथ-साथ बुजुर्ग, शारीरिक रूप से अक्षम व्यक्तियों व बच्चों की पूर्ण जिम्मेदारी समाजसेवी सहकारी संगठनों के माध्यम से सफलतापूर्वक की जा रही है।
आजादी के बाद लोग नेतृत्व की तरफ उपदेशिता की दृष्टि से देखते थे। लोगों में नेतृत्व के प्रति आशा और विश्वास था। उनका मानना था कि सरकार उनके लिए जो करेगी वह ठीक होगा। बाद में धीरे-धीरे इस धारणा में परिवर्तन आना शुरू हो गया। जब सहकारिता आंदोलन शुरू हुआ। उस समय इसके दो पक्ष सामने आए। पहला, जो सीधे-सीधे कृषि से जुड़ा हुआ था। तत्कालिन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की सोच अतिवादी थी। इससे लोगो में शंका पैदा हो गया। लोगों को लगा कि उनकी जमीन सरकार छीन लेगी। नागपुर सम्मेलन के दौरान सहकारी खेती का विरोध हुआ था। उस समय चौं चरण सिंह ने सहकारी खेती और इसके प्रति सरकारी नीति का खुलकर विरोध किया था। कांग्रेस ने इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया था। यह नेहरू नीति की करारी हार थी। दूसरी बात, हमारे देश में किसान और उपभोक्ता दोनों कम आय वर्ग के लोग हैं। कुटीर उद्योगों के पास पूंजी की कमी है। इस स्थिति को देखते हुए श्रम और पूंजी को जोडऩे की वकालत की गई। ताकि उनको लाभ मिल सके। इस पद्घति के तहत सहकारी चीनी मिलों की स्थापान हुई थी। मिलों में किसानों को पूर्ण भागीदीरी दी गई। किसानों को बराबर का शेयर दिया गया। इसी पद्घति से गुजरात और महाराष्ट्र में गन्ने और दूध के मामले में यह आंदोलन सबसे ज्यादा सफल था।
बुआई के समय खाद और बीज उपलब्ध नही होता है। समिति अधिकारी इस सम्बन्ध में स्पष्ट जवाब नही दे पाते। खाद बीज आज इन समितियों में जरूरतमंद किसानो को न देकर ब्लैक में बेच दिया जाता है। सहकारी समिति के डायरेक्टर और चैयरमेन अपने किसी दुकानदार रिश्तेदार आदि को बेच देते हंै। इससे इसका समुचित वितरण नही हो पाता। समितियों में किसानो से ऋण देने के ऐवज में अधिकारी रिश्वत लेते है। कुछ किसानों को बिना ऋण लिए ही उनके खातों में ऋण चढ़ा मिलता है।
सतपाल सिंह, किसान, गौरीपुर जवाहरनगर
सहकारी समितियां शासन और प्रशासन की लापरवाही से भ्रष्टाचार का गढ़ बन चुकी हैं। मिल सोसायटी से खाद लेने पर यदि आपने पैसा एक महीने बाद चुकता कर दिया तो भी ब्याज कम से कम छह महिने या एक साल का लगेगा। खाद भी जरूरत के समय नहीं मिलता है। बीज तब आता है जब फसल कटने वाली होती है। सोसायटियों में प्रबन्धन इस प्रकार है कि जिन लोगों पर समिति का कर्ज है, में खुद उगाहने आते है। पैसे लिए और रसीद बाद में देने की बात होती है जो कि कई बार नहीं मिलती। पैसे देने के बावजूद कर्ज ज्यों का ज्यों रहता है।
राजकुमार, किसान, ग्राम बाघू
किसानों को समितियों से आज भी बहुुत फायदे मिलते है। आज किसान की जोत घटती जा रही है। उसके पास इतन समय नहीं है कि वह सहकारी समिति में खाद बीज जो कि एक प्रक्रिया द्वारा मिलता है। वह उसे प्राप्त कर सके। समिति की गतिविधियां आज संदिग्ध है। इस बात को वे भी स्वीकार करते हंै। यदि किसान मिलकर समितियों में सहभागिता निभाये भ्रष्ट अधिकारियों के खिलाफ आन्दोलन करें तो ये समितियों एक बार फिर किसान के लिए वरदान सािबत हो सकती है। जरूरत है किसानों को इसके प्रति जागरूक होने की तथा इनमें पदों को संभालने की।
नैन सिंह , निदेशक, गूर्जर सहकारी समिति, निरोजपुर
सहकारिता आंदोलन महाराष्ट्र, गुजरात सहित कुछ राज्यों में सफल तो रहा लेकिन उत्तर के राज्यों में सफल नहीं हो सका। इसकी प्रमुख वजह सांस्कृतिक खाई थी। यहां के लोगों में सहकारिता के लिए उपयुक्त संस्कृति का अभाव था। सरकार भी सहकारिता के मूल स्वरूप को बनाए रखने में नाकाम साबित रही। इसलिए उत्तर के राज्यों में सहकारिता का स्वरूप सहकारी की बजाय सरकारी हो गया।
डॉ. सोमपाल, पूर्व केंद्रिय कृषि मंत्री