Pillar of True Journalism to save Public Domain

Sunday, November 27, 2011

ऐसे ही बचते रहे 'युवराज' तो बची हुई सीटें ही आएंगी 'हाथ'!

गरीबों के मसीहा। मजलूमों के मददगार। आम के साथ इनका 'हाथ'। भ्रष्टाचार और अत्याचार देख तमतमाया हुआ एंग्री यंगमैन। कुछ इसी अंदाज में कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी जब पूर्वांचल की यात्रा पर निकले तो लगा कि कांग्रेस की काया पलट हो जाएगी। आम आदमी की सहानुभूति मिलेगी। पर यह क्या आम आदमी की बात करने वाले राहुल ने अपनी पूरी यात्रा के दौरान एक बार भी उनकी बात नहीं की। उनसे जुड़े मुद्दों की बात नहीं की। उनसे बात नहीं की। 

राहुल ने बात की तो राजनीतिक प्रतिद्वंदियों की। सपा, बसपा और भाजपा की। उनकी कमियों की। एक बार भी आम आदमी के दुखों की बात नहीं की, बल्कि उनकी दुखती रग पर प्रहार किया। राहुल ने जब भी गरीबों का गाल सहला कर उनका भरोसा जीतने की कोशिश की, तब मंहगाई और मुश्किलों का तमाचा पड़ा। गरीबों की तरफदारी करने वाला मंहगाई पर मौन रहा।

ऐसे ही देंगे जवाब?

राहुल जब यात्रा पर निकलने वाले थे तो पूरा यूपी 'जवाब हम देंगे' की होर्डिंग से पटा पड़ा था। राहुल ने लोगों को भरोसा दिलाया था कि आपकी परेशानियों पर जवाब हम देंगे। यहां तो लोगों को जवाब देना तो दूर अपने कार्यकर्ताओं तक को जवाब नहीं दिया गया। राहुल ने कहा कि आजादी की लड़ाई में अंग्रेजों की रीढ़ तोड़ देने वाला यूपी अब दूसरे राज्यों की ओर देख रहा है। परप्रांत में जाकर विकास में अपनी मेहनत मजदूरी से योगदान दे रहा है। बदले में उन्हें कुछ नहीं मिलता। पर खुद ही राहुल और उनके दिग्गज साथी महंगाई जैसे मुद्दे पर चुप्पी साधे हुए थे। जब खुद के कार्यकर्ताओं ने मंहगाई का मुद्दा उठाया तो खामोशी की चादर ओढ़ ली। सिद्धार्थनगर में गांव के लोगों ने रोका तो राहुल मुस्कराते हुए गाड़ी से उतरे। वहीं एक कांग्रेस कार्यकर्ता ने कहा कि ‘महंगाई को लेकर बहुत किरकिरी हो रही है, कुछ कीजिए। वर्ना जनता जीने नहीं देगी।’ इस मुस्कराते हुए राहुल मौन रहे। कोइ प्रतिक्रिया नही दी। 

बांसी रैली के भीड़ से आवाज आई ‘सांसदों के लिए संसद में एक रुपए की चाय, डेढ़ रुपए में दाल, एक रुपए में रोटी मिलती है। जबकि हम लोगों को इतने पैसे में सिर्फ रोटी मिलती है। ऐसी महंगाई क्यों।’ राहुल ने अनसुना कर दिया। सभा स्थल पर एक वरिष्ठ कांग्रेसी ने माला से स्वागत करने के साथ उन्हे एक पत्र थमाया। इस पत्र में महंगाई के मुद्दे पर बोलने का आग्राह था। यहां भी राहुल ने इस मुद्दे को नजर अंदाज कर दिया। दरअसल, महंगाई और उसके बाद एफडीआई संबंधित केन्द्र सरकार के फैसले ने राहुल गांधी के यूपी दौरे के दौरान बन रहे माहौल को बिगाड़ दिया। राहुल गांधी गरीबों के सबसे बड़े पैरोकार बन कर उभर रहे थे। केन्द्र के निर्णय ने विपक्ष को केन्द्र सरकार और कांग्रेस को घेरने का मंहगाई के साथ नया मुद्दा दे दिया। 

रहे थे ललकार, निकल गई खुद की हवा

इधर राहुल गांधी विपक्ष को ललकार रहे थे तो उधर विपक्ष इनकी यात्रा की हवा निकालने में जुटा हुआ था। राहुल की चुटकी लेते हुए भाजपा नेता उमा भारती ने कहा कि राहुल गांधी को बहुत गुस्सा आता है तो अब मुझे भी गुस्सा आ रहा है। गुस्सा इतना कि वालमॉर्ट का एक भी स्टोर खुला तो आग लगा दूंगी।

मायावती ने कहा कि वह विदेशी कंपनियां यूपी में नहीं खुलने देंगी। राहुल के विदेशी दोस्तों को फायदा पहुंचाने के लिए केंद्र सरकार ने रीटेल कारोबार में एफडीआई की अनुमति दी है। इससे छोटे व्यापारियों और किसानों को तो नुकसान होगा। महंगाई और बेरोजगारी बढ़ेगी।

पूर्वांचल के दौरे पर थे पर ज्वलंत समस्याओं पर चुप्पी साधे रहे। गोरखपुर जिले में स्थित बन्द पडा खाद कारखाना, दिमागी बुखार की भयावहता, बन्द सुगर मिल, गन्ना किसानों की बदहाली आदि मुद्दों का जिक्र तक नहीं किया। दिमागी बुखार से प्रतिदिन मौतें हो रही है इससे विकलांग हुए लोगों की अलग समस्या है। बाबा राघवदास मेडिकल कालेज संसाधनों की मार झेल रहा है, राष्ट्रीय राजमार्ग की बुरी हालत है। प्रदेश का विभाजन हो रहा है। पर इन तमाम मुद्दों पर राहुल की खामोशी ने पूर्वांचल के लोगों को मायूस किया है। यही कारण था जनता के आक्रोश का सामना करना पड़ा।


ऐसे ही बचते रहे, तो बची हुई सीटें आएंगी 'हाथ'


राजनीति में एक-दूसरे पर छींटाकशी आम बात है, लेकिन सिद्धांतों को तिलांजली दे देना यह साबित करता है कि इस हमाम में सब नंगे हैं। हर राजनेता और राजनीतिक पार्टी कोरी राजनीति करते हैं। किसी को न तो आम आदमी की फिक्र है ना किसी को विकास, महंगाई और बेरोजगारी जैसी भयंकर समस्याओं से मतलब। एक एक करके हर किसी के चेहरे से मुखौटा उतर जाता है। वही हाल राहुल का है। 

राहुल गांधी कांग्रेस पार्टी का चेहरा बनकर विधान सभा के मैदान में उतरे हैं। राज्य में सरकार बनाने पार्टी ख्वाब देख रही है। पर जिनके कंधों पर कांग्रेस के उद्धार का भार है, वही नाजुक मुद्दे पर बोलने से इस कदर बचता रहा है। यदि राहुल ऐसे ही बचते रहे, तो इनके हिस्से बची बचाईं सीटें ही हाथ आने वाली हैं। अपने राजनीतिक सलाहकारों की वजह से वह एक बार बिहार चुनाव खो चुके हैं। अब यूपी की बारी है। उसके बाद केंद्र भी हाथ से निकलता दिख रहा है। राहुल का तो कुछ नहीं होगा, लेकिन दिग्गी राजा की गर्दन कटनी तय है। 

Friday, November 25, 2011

थप्पड़...ना 'ये' भगत सिंह की 'क्रांति' है, ना 'वो' बापू की 'गांधीगीरी'!


‘वह भ्रष्ट है। मैं यहां मंत्री को थप्पड़ मारने ही आया था। वे सभी भ्रष्ट हैं। मैंने ही रोहिणी कोर्ट में सुखराम को भी मारा था। मैं सिख हूं, चप्पल नहीं मारूंगा। सिर्फ भाषण देते हो। भगत सिंह को भूल गए जिसने कुर्बानी दी। मारो-मारो मुझे खूब मारो।....पागल हूं मैं.....। इनके पास घोटाले के अलावा कुछ नहीं है। मैं गलत नहीं हूं।’


यह कहते हुए ट्रांसपोर्ट व्यवसायी हरविंदर सिंह ने एनडीएमसी सेंटर में आयोजित समारोह में भाग लेने के बाद लौट रहे 71 वर्षीय शरद पवार पर हमला बोल दिया। अचानक हुए वार से वे बच नहीं सके। संतुलन भी खो बैठे। जैसे-तैसे संभले और रवाना हो गए।


इस थप्पड़ से पूरा देश गूंज उठा। हर तरफ इसकी चर्चा होने लगी। जहां नेताओं इसकी जमकर भर्त्सना की, वहीं कुछ लोगों ने हरविंदर की सराहना की। एक संगठन ने तो 11 हजार का इनाम तक घोषित कर दिया।


पवार पर हुए हमले की जानकारी जब अन्ना हजारे को मिली तो उनके मुंह से निकला-‘उन्हें थप्पड़ पड़ा! सिर्फ एक?’ लेकिन इसके थोड़ी देर बाद वे बयान से पलट गए। उन्होंने संयत शब्दों का इस्तेमाल किया। वे बोले, ‘वह बहुत गुस्से में होगा। यह ठीक नहीं है। अन्ना ने बयान को बदल कर स्थिति संभाल ली। उनके पहले बयान से साफ झलक रहा था कि वो यही कह रहे थे कि एक ही थप्पड़ क्यों मारा। इससे पहले भी अन्ना ने कहा था कि शराबियों को बांध कर मारो। क्या ये गांधीगिरी है या आधुनिक अन्नागिरी।


अब सवाल यह उठता है कि क्या ऐसे लोग जरूरत से ज्यादा प्रचार पाने में सफल रहते हैं। इनके मन में कानून का कोई डर नहीं है? यदि जरा भी डर होता तो हरविंदर सिंह थप्पड़ ना मारता। और शरद पवार के समर्थक दंगा नहीं करते। लोग यह कह रहे हैं कि ये घटना भ्रष्टाचार और महंगाई के खिलाफ आम जनता के गुस्से का नतीजा है। ऐसा कहकर गलत दिशा में जा रहे हैं। इसे सनक और सुरक्षा में कमी मानना चाहिए। पर हां, आम आदमी के मन में भ्रष्टाचार और महंगाई प्रति रोष को भी नकारा नहीं जा सकता।


आम आदमी बढ़ती महंगाई और भ्रष्टाचार पर अंकुश न लग पाने से परेशान है। उसमें भी विरोध जताने का ये कैसा तरीका कि आप किसी पर जूते-चप्पल फेंके, उसे थप्पड़ मारे। अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति जार्ज डब्ल्यू बुश पर चले नफरत के जूते का जो सिलसिला शुरू हुआ था, वह आज केंद्रीय मंत्री शरद पवार पर गुस्से के थप्पड़ पर आ गया।


भारत के अलावा दुनिया के कई देशों में कभी नेताओं को जूता तो कभी थप्पड़ जड़ा गया है। एक इराकी पत्रकार मुंतजर अल जैदी ने तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश पर 2008 में जूता फेंका था। इसके अलावा, गृहमंत्री पी चिदंबरम, पाकिस्तान के राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी और चीनी राष्ट्रपति वेन जियाबाओ पर भी जूते फेंके जा चुके हैं।


मानता हूं कि हमारी सरकार बहरी है। उसे कम सुनाई देता है। इसका मतलब ये नहीं कि उसके कानों तले बम विस्फोट किया जाय। हिंसा किया जाय। जरा याद करें बापू को उन्होंने कब हिंसा की। पर सैकड़ों सालों से राज कर रहे अंग्रेजों को नाकों चने चबवा दिया। उन्हें देश छोड़ने पर मजबूर कर दिया।


भगत सिंह बनने वालों, क्या उनके विचारों को पढ़ा है। जिसने पढ़ा भी है तो उसे अपने अनुसार समझा है। यदि हम इस तरह की घटनाओं का सपोर्ट करेंगे तो वह दिन दूर नहीं जब हमारी युवा पीढ़ी हिंसक हो जाएगी। और ऐसे समय में यदि गलती से भी उनका रास्ता भटक गया, तो समूची सृष्टी पर संकट आ जाएगा।

Monday, November 21, 2011

हम जाहिल हैं, आरोप अच्छा है: आशुतोष

मीडिया लोकतंत्र का चौथा खंभा है। वह अपनी भूमिका ठीक से निभाएगा तभी सरकारों और नेताओं को तकलीफ होगी। नेताओं को तकलीफ होगी तो लोकतंत्र जिंदा रहेगा। वरना नेता तो चाहते हैं कि लोकतंत्र सोता रहे। 


नया-नया जर्नलिज्म में आया था। अयोध्या का आंदोलन उफान पर था। बनारस में दंगे हुए थे। मुझे कवर करने के लिए भेजा गया था। वहां कुछ वरिष्ठ पत्रकारों से बातचीत हो रही थी। वे कह रहे थे कि पत्रकारिता की नई गंगा अब बनारस से निकलेगी। दंगों के दौरान की रिपोर्टिंग देख मैं पहले से ही सदमे में था। सब के सब उग्र हिंदूवादी रंग मे रंगे थे। 

रिपोर्ट के नाम पर अफवाहें खबर बन रही थीं। दिल्ली से जाने के बाद उन खबरों की पुष्टि मैंने कई बार करने की कोशिश की। हर बार प्रशासन ने कहा, तथ्यहीन। नामी-गिरामी अखबारों की खबर एक खास समुदाय को टारगेट करके, उनको विलेन बताने के मकसद से लिखी जाती थी। लौटकर मैंने एक छोटा-सा बॉक्स बनाया था, जिस पर एक अखबार के मालिक इतने नाराज हो उठे कि मेरी शिकायत संपादक से कर दी। संपादक जी की कृपा से मैं बच गया। 

अयोध्या विवाद खत्म होते-होते मैं टीवी में आ गया। पहले सिर्फ दूरदर्शन था, सरकार का प्रेस रिलीज विभाग। निजी प्रोड्यूसरों ने खबरों को नया तेवर दिया। देखते-देखते दूरदर्शन के ये बुलेटिन फिनामिना बन गए। बुलेटिन से निकल कर टीवी चैनल में तब्दील हो गया। 2004 तक सब ठीक-ठाक चला। अचानक नंबर एक बनने की दौड़ शुरू हो गई और नई तरह की खबरों को परोसने का सिलसिला भी। सबसे पहले एमएमएस का बाजार गरम हुआ था। 

हर चैनल पर एमएमएस की खबरें ही दिखने लगीं। अपराध जगत की खबरों को सनसनीखेज तरीके से पेश करने का अंदाज भी इस दौर में ईजाद किया गया। नाट्य रूपांतरण होने लगे। मुझे याद है इस बीच एक वीडियो क्लिप करीना और शाहिद कपूर का कहीं सेलफोन वाले के हाथ लग गया था। ‘लिप टू लिप किस’ एक चैनल पर चला तो दूसरे भी कहां पीछे रहते। न तस्वीर को धुंधला किया गया और न पहचान छिपाने की कोशिश। न्यूजरूम में पहली बार विरोध के स्वर संपादकों को सुनने पड़े। असल रिपोर्टर दंग थे। नकल रिपोर्टर मस्त। 

किसी चैनल पर चला कि फलां आदमी शाम चार बजे मरने वाला है। ओबी वैन दौडऩे लगीं। बेशर्म होकर पत्रकारों ने दिन भर उस शख्स पर लाइव किया। किसी ने एक और खबर निकाल ली। एक शख्स यमराज से मिल कर आया था। उसका लाइव भी खूब हुआ। इस बीच पुनर्जन्म की भी लॉटरी निकल आई। स्टूडियो में ऐसे गेस्ट लाने के लिए चैनलों के बीच मारपीट होने लगी। मंदिर का रहस्य सफलता की गांरटी हो गया। 

नंबर वन की रेस और तेज हुई तो सांप-बिच्छू और भूत-प्रेत ने सोनिया गांधी, मनमोहन सिंह, आडवाणी की जगह ले ली। एलियन भी टीवी पर छाने लगे। नंबर वन की इस रेस में जब कुछ चैनल कामयाब हुए तो बाकी चैनलों ने भी यही आसान रास्ता पकड़ लिया। अब न्यूजरूम में हर शख्स खबरों की जगह टीआरपी की जुगाड़ में लग गया। एडिट मीटिंग्स में खबरों की जगह आधे घंटे के प्रोग्राम की बात होने लगी। रिपोर्टर की जगह स्ट्रिंगरों ने ले ली। चैनल अब एडिटर के हाथ से निकल कर असिस्टेंट प्रोड्यूसर के हाथ में चला गया। 

शायद ही कोई चैनल हो, जिसने ये रास्ता न पकड़ा हो या किसी न किसी रूप में इस रास्ते पर चलने की कोशिश न की हो। कुछ कामयाब थे और कुछ नाकामयाब। कोशिश सभी ने की थी। इन दिनों मंै अक्सर बनारस के उन दिनों को याद कर लिया करता था। खबरों की बलि तब भी चढ़ी थी। उस वक्त भी खबरों की जगह कहानी-किस्सों ने ली थी और इस दौर में भी। तब विचारधारा की आड़ में, इस दौर में टीआरपी की आड़ में बिसात बिछाई गई। 

ऐसा नहीं था कि उस दौर में अच्छे अखबार और अच्छे पत्रकार नहीं थे। इस दौर में भी अच्छे चैनल और अच्छे पत्रकार थे। इस दौर में भी टीवी ने कुछ बहुत अच्छे काम किए थे। दहेज हत्या, स्त्री उत्पीडऩ, भ्रूण हत्या के खिलाफ जबरदस्त कैंपेन, सांप्रदायिकता का तगड़ा विरोध। दंगों को सनसनीखेज बनाने की कोशिश नहीं हुई। टीवी ने आम आदमी को बात कहने का एक मजबूत प्लेटफार्म दिया। घूस और भ्रष्टाचार के खिलाफ बड़े-बड़े स्टिंग ऑपरेशन किए गए। पहली बार मैंने कैमरे को देख कर पुलिस और नौकरशाहों को कांपते देखा। 

देश के एक कोने के त्योहार को देश के दूसरे कोने तक पहुंचाने का काम भी टीवी ने किया। गुजरात का गरबा बिहार पहुंच गया और बिहार का छठ महाराष्ट्र। दही-हांड़ी की तस्वीरें पूरे देश को रोमांचित करने लगीं। टीवी ने करवाचौथ को फैशनेबल बना दिया। नए तरह के सांस्कृतिक धागे में पूरे देश को बांधने का काम टीवी ने किया। लेकिन एलियन और सांप ने ऐसा बदनाम किया कि टीवी वालों के लिए मुंह छिपाना मुश्किल हो गया। 

हैरत की बात यह है कि जब तक टीवी राखी सावंत और राजू श्रीवास्तव में व्यस्त था, सरकार की नींद नहीं टूटी लेकिन जैसे ही टीवी ने मुंबई हमलों पर सरकार की धज्जियां उड़ानी शुरू कीं, सरकार को लगा टीवी हदें पार कर रहा है। रेगुलेशन की बहस गति पकडऩे लगी। 

सरकार जानती है अखबार और प्रेस की ताकत। उसे ऐसा मीडिया अच्छा लगता है जो उसकी तरफ ध्यान न दे। वह टीआरपी के खेल में उलझा रहेगा तो सरकार की कमजोरियों को नहीं उघाड़ेगा। उसके घोटाले नहीं दिखाएगा। लेकिन, मुंबई हमले ने टीवी के दिमाग को बदला। मैं नहीं कहता कि सारे टीवी वाले बदल गए लेकिन कुछ लोग सोचने के लिए मजबूर हुए।

 इंडस्ट्री के अंदरूनी दबाव ने भी धीरे-धीरे असर दिखाना शुरू किया। टीवी 2009 आने तक पटरी पर आता दिखा। अब सरकार के कान खड़े होने लगे। टीवी एक के बाद एक घोटालों को उजागर करने लगा। आईपीएल, कॉमनवेल्थ, आदर्श, २जी स्पेक्ट्रम घोटाले सामने आने लगे। टीवी ने बढ़-चढ़ के दिखाना शुरू किया। सरकार परेशान होने लगी। उसके खिलाफ माहौल बनने लगा। घाव में मिर्च लगी, जब अन्ना अनशन पर बैठे। टीवी ने उन्हें रातोरात उठा लिया। 

अब टीवी पर लोकतंत्र विरोध के आरोप लगने लगे। रेगुलेशन की आवाज बुलंद होने लगी। कुछ ऐसे लोगों को छोड़ा जाने लगा, जो टीवी को जनहित विरोधी बताने लगे, सांप्रदायिकता बढ़ाने का दोष देने लगे। पत्रकार रिपोर्टर अपढ़ हो गए। जाहिल। लेकिन ये आरोप उन आरोपों से बेहतर हैं।

 उन आरोपों को सुनकर शर्म आती थी और आज गर्व से सीना चौड़ा होता है। मीडिया लोकतंत्र का चौथा खंभा है। वह अपनी भूमिका ठीक से निभाएगा तभी सरकारों और नेताओं को तकलीफ होगी। नेताओं को तकलीफ होगी तो लोकतंत्र जिंदा रहेगा। वरना नेता तो चाहते हैं कि लोकतंत्र सोता रहे।


साभार: दैनिक भास्कर

Friday, November 18, 2011

आपको पता है कि क्या होती है नौटंकी?

'नौटंकी मत करो' ऐसा बार-बार लोगों को बोलते हुए आपने सुना होगा। पर क्या आपको पता है क्या होती है नौटकी? आइए हम आपको बताते हैं। नौटंकी एक जीवंत, लोकप्रिय और प्रभावशाली लोककला है।


यह कला जन-मानस से जुड़ी है। इस विधा में अभिनय थोड़ा लाउड किया जाता था। ठीक पारसी थियेटर की तरह। विषय कई बार बोल्ड रखे जाते थे, डायलॉग तीखे चुभने वाले होते थे। समयांतर इस विधा में विकृति आ गई औऱ इसे अश्लीलता का भी पर्याय माना जाने लगा।


विद्वानों के मुताबिक, यह कहना कठिन है कि नौटंकी का मंच कब स्थापित हुआ और पहली बार कब इसका प्रदर्शन हुआ। किंतु यह सभी मानते हैं कि नौटंकी स्वांग शैली का ही एक विकसित रूप है। भरत मुनि ने नाट्य शास्त्र में जिस सट्टक को नाटक का एक भेद माना है, इसके विषय में जयशंकर प्रसाद और हज़ारी प्रसाद द्विवेदी का कहना है कि सट्टक नौटंकी के ढंग के ही एक तमाशे का नाम है।


संगीत प्रधान लोकनाट्य नौटंकी सदियों तक उत्तर भारत में प्रचलित स्वांग और भगत का मिश्रित रूप है। स्वांग और भगत में इस प्रकार घुलमिल गई है कि इसे दोनों से अलग नहीं किया जा सकता। संगीत प्रधान इस लोक नाट्य के नौटंकी नाम के पीछे एक लोक प्रेमकथा प्रचलित है। इसकी जन्मस्थली उत्तर प्रदेश है। हाथरस और कानपुर इसके प्रधान केंद्र है।


हाथरस और कानपुर की नौटंकियों के प्रदर्शन से प्रेरित होकर राजस्थान, मध्य प्रदेश, मेरठ और बिहार में भी इसका प्रसार हुआ। मेरठ, लखनऊ, मथुरा में भी अलग-अलग शैली की नौटंकी कंपनियों की स्थापना हुई। आज नौटंकी खत्म होती जा रही है, थोड़ा-बहुत जहां बचा है वहां इसका अश्लील पर्याय ही देखने को मिलता है। सरकार की ओर से इसे संरक्षण और प्रोत्साहन मिलना चाहिए। इस कला के प्रेमी आज भी बीते दिनों की याद करते हैं, जब नौटंकी प्रदर्शन जगह-जगह होते थे। उनका मानना हैं कि, बाहर से उजड़ी है, दिल में बसी है- नौटंकी।

साभार: दैनिक भास्कर डॉट कॉम

Monday, November 14, 2011

बाल दिवस: कितनी हकीकत, कितना फसाना


आज पूरे देश में बाल दिवस बड़े धूमधाम से मनाया जा रहा है। सुविधासंपन्न बच्चों के लिए तो आज का दिन वाकई ख़ास है. पर उन बच्चों का क्या, जो हर सुविधा से महरूम हैं। उनका भोला चेहरा जब हमारी तरफ आशा की नज़र से देखता है तो क्या हमारे मन में टीस नहीं उठती ? 


चाचा नेहरू के इस देश में लगभग 5 करोड़ बच्चे बाल श्रमिक हैं। जो चाय की दुकानों पर नौकरों के रूप में, फैक्ट्रियों में मजदूरों के रूप में या फिर सड़कों पर भटकते भिखारी के रूप में नजर आ ही जाते हैं। कुछेक ही बच्चे ऐसे हैं, जिनका उदाहरण देकर हमारी सरकार सीना ठोककर देश की प्रगति के दावे को सच होता बताती है। 


यही नहीं आज देश के लगभग 53.22 प्रतिशत बच्चे शोषण का शिकार है। इनमें से अधिकांश बच्चे अपने रिश्तेदारों या मित्रों के यौन शोषण का शिकार है। शारीरिक और मानसिक प्रताड़ना झेल रहे इन मासूमों के लिए भला बाल दिवस के क्या मायने हो सकते हैं? अपने अधिकारों के प्रति अनभिज्ञता व अज्ञानता के कारण ये बच्चे शोषण का शिकार होकर जाने-अनजाने कई अपराधों में लिप्त होकर अपने भविष्य को अंधकारमय भी कर रहे हैं। 


इनकी फिक्र अगर किसी को होती तो इनका बचपन इनसे न छिना होता। ये भी बेफिक्र होकर, खिलखिला कर हसना जानते। ये भी अपने सपने बुनते और सुनहरे भविष्य की और अग्रसर होते।


सुविधासंपन्न बच्चे तो सब कुछ कर सकते हैं परंतु यदि सरकार देश के उन नौनिहालों के बारे में सोचे, जो गंदे नालों के किनारे कचरे के ढ़ेर में पड़े हैं या फुटपाथ की धूल में सने हैं। उन्हें न तो शिक्षा मिलती है और न ही आवास। सर्व शिक्षा के दावे पर दंभ भरने वाले भी इन्हें शिक्षा की मुख्यधारा से जोड़ नहीं पाते।


पैसा कमाना इन बच्चों का शौक नहीं बल्कि मजबूरी है। ये मासूम तो एक बंधुआ मजदूर की तरह अपने जीवन को काम में खपा देते हैं और देश के ये नौनिहाल शिक्षा, अधिकार, जागरुकता व सुविधाओं के अभाव में, अपने सपनों की बलि चढ़ा देते है। 


यदि हमें 'बाल दिवस' मनाना है तो सबसे पहले हमें गरीबी व अशिक्षा के गर्त में फँसे बच्चों के जीवनस्तर को ऊँचा उठाना होगा और उनके अँधियारे जीवन में शिक्षा का प्रकाश फैलाना होगा। यदि हम सभी केवल एक गरीब व अशिक्षित बच्चे की शिक्षा का बीड़ा उठाएँगे तो निसंदेह ही भारत प्रगति के पथ पर अग्रसर होगा तथा हम सही मायने में 'बाल दिवस' मनाने का हक पाएँगे।


इसके साथ ही हमारे अंदर जो संवेदना मर चुकी है उसे फिर से जिलाना होगा। नहीं देखना चाहते अब हम बच्चो को इस हालत में। उनका बचपन उन्हें लौटाना है। उनका भविष्य सवारना है.ऐसा माहौल बनाना है की हर बच्चे को देखकर हम गर्व करें।

 
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