इस शीर्षक को पढ़कर आप सोच रहे होंगे कि मैं कैसी बेतुकी बातें कर रहा हूं। भला महेंद्र सिंह टिकैत को सत्य सांई बनने की क्या जरूरत है। टिकैत एक किसान नेता थे और सांई प्रख्यात संत। सांई में आस्था रखने वालों में बड़ी-बड़ी हस्तियां शामिल थी। वहीँ टिकैत अभाव में जी रहे किसानो क़ि एकमात्र आवाज़ थे। सांई लोगों क़ि नज़रो में भगवान और टिकैत मामूली नेता किसान। फिर एक किसान को संत बनने की क्या जरूरत है। पर जरूरत है।
देश के दिग्गज किसान नेता महेंद्र सिंह टिकैत का निधन हो जाता है। उनके निधन की खबर शायद ही किसी न्यूज चैनल की ब्रेकिंग खबर बन पाती है। किसी ने भी इस खबर को अपने तेज-20 या 100 में जगह देना उचित नहीं समझा। कहीं खबर चली तो वह भी एक बार नाम के लिए। अखबारों में इस खबर के लिए एक कॉलम की जगह देकर जिम्मेदारी से छुट्टी पा ली गई। ( कुछ जिम्मेदार अखबारों और चैनलों को छोड़कर)
वहीं जब सत्य सांई का निधन हुआ था, तो सारा मीडिया टूट पड़ा था। चैनलों में प्राइम टाइम पैकेज चलाए गए, तो अखबारों के कई पेज भरे गए। उनकी बीमारी से लेकर संपत्ति के बटवारें तक की चर्चा की गई। उत्तराधिकारी के लिए बहसवाड़े का आयोजन किया गया। वसीयत पर एक्सक्लूसिव रिपोर्ट दी गई। ये है दो महान व्यक्तियों के निधन पर मीडिया कवरेज की असलियत।
इस बात पर अधिकतर मीडियावालों की दलील होती है कि, भईया हम कॉरपोरेट मीडिया युग में काम कर रहे हैं। भला एक किसान के मरने की खबर को इतनी प्रमुखता कैसे दे सकते हैं। मैं भी मानता हूं कि मोटी सैलरी के लिए पूंजी की जरूरत होती है। और पूंजी के लिए विज्ञापन की। और विज्ञापन के लिए वैसी खबरों की। इसलिए वैसी खबरें देना मजबूरी है। पर मेरा मानना है कि आप तेज-20 या 100 में ऐसी खबरों को एक जगह तो दे ही सकते हैं।
खैर, बिन मांगे सुझाव देने की क्या जरूरत। जो मीडिया पुलिस और प्रशासन के एंगल से खबर बनाता हो, वह भला इस बात को क्या समझेगा। हाल ही में ग्रेटर नोयडा के भट्टा-परसौल में हुए पुलिस-किसान संघर्ष में अधिकतर मीडिया घरानों ने प्रशासन के एंगल से खबर लगाई थी। अखबारों में शीर्षक था- 'पुलिस-किसान में खूनी संघर्ष, 2 पुलिस वालों सहित 4 की मौत'। इस शीर्षक में दो किसानों की मौत को छुपा लिया गया। क्या पुलिस वालों की जान, किसान की जान से ज्यादा कीमती है?
हम बचपन से पढ़ते आ रहे हैं कि हमारा देश को कृषि प्रधान देश है। गांवों का देश है। पर दुर्भाग्य है इस देश का कि जिसके बलबूते पर हैं, उसी की सबसे ज्यादा बेइज्जती करते हैं। किसान अपने हक क़ि आवाज़ उठाते हैं तो उनका दमन करते हैं। उस पर पड़ने वाली हर लाठी में अपनी जीत का जश्न मनाते हैं।
निर्दोष मौत के बाद भी उसको मीडिया में भी वो जगह नहीं मिल पाती. जो लोगो में किसान के प्रति संवेदना जगाये। जो ये बताये क़ि अपने हक के लिए लड़ने वाले के साथ ये सुलूक कहां का इन्साफ है। हर तरफ से उपेक्षित हुआ किसान अब मीडिया से भी कोई आस नहीं लगा सकता। लोकतंत्र और कमजोरों निरीहों का तथाकथित पहरेदार मीडिया भी आंखें बंद करके इस दमनचक्र का गवाह जो बना हुआ है।
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