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Friday, July 30, 2010

दुखीराम की आत्महत्या

एक दिन,
करने को समस्याओं का निवारण
दुखीराम ने शाम पांच बजे
आत्महत्या के मूड में
जहर की पुड़िया निकाली
पत्नी ने हमेशा की तरह
क्रोध की दृष्टि डाली
और कहा गजब कर रहे हो
शाम को पांच बजे मर रहे हो
क्या चाहते हो,
पूरी रात रोते हुए बिताऊं
शोक में पतिव्रता धर्म nibhau

अरे कोई काम ठीक समय से करो
अगर मरना ही है तो सुबह
चाय नाश्ता करके आराम से मरो
और ना bhi मरो,
तो कौन सी जल्दी है
ऐसा तो नहीं है जो कि
यमराज की कोई आखिरी गाड़ी चल दी है।
सोचो वेतन मिलने में आठ दिन बचे है।
पैसे के अabhav में वैसे bhi हाय तौबा मची है
मजबूरी के आगे झुक जाओ
जैसे इतने दिन रूके रहे
आठ दिन और रूक जाओ
वेतन तो मिल जाने दो
घर में पैसा तो आ जाने दो
मरने को तो पूरी जिंदगी पड़ी है
चाहे जब मर लेना।
और अगर बोनस के पैसे मिल जाएं
तो इसी गर्मी की छुट्टी में आत्महत्या कर लेना।
लेकिन अbhi देखते नहीं हो
बबली एक फ्राक में स्कूल जा रही है।
स्वाती सलवार-कुर्ता के लिए कबसे चिल्ला रही है।
गोलू साइकिल के लिए टर्रा रहा है।
और एक तुम हो कि तुम्हे
आत्महत्या का शौक चर्रा रहा है।

( कविता में प्रयुक्त सabhi नाम काल्पनिक हैं, इनका वास्तविकता से कोइ लेना-देना नहीं है)

Saturday, July 17, 2010

आखिर क्यों उठाते हैं ऐसे कदम


आत्महत्या शब्द जेहन में आते ही रूह कप जाती है । आखिर कोई इन्सान आत्महत्या क्यों और किन परिस्थितियों में करता है ? उसके सामने ऐसी क्या मजबूरी होती है की वह प्रकृति के इस अनुपम तोहफे को ख़तम कर देता।
क्राइम रिकार्ड ब्यूरो द्वारा कराए गए शोध के मुताबिक हर साल आत्महत्या के मामलों में इजाफा होता जा रहा है। 2008 में जहां आत्महत्या के चार हजार आठ मामले सामने आए वहीं ये आंकड़ा 2009 में पांच हजार तक पहुंच गया। इस साल इसका ग्राफ और उपर जाने की संभावना है।
सबसे गंभीर बात यह है कि आत्महत्या करने वाले अधिकतर लोगों में सबसे अधिक छात्र शामिल हैं। एक रिपोर्ट के मुताबिक साल 2004 के बाद दस से पंद्रह साल के बच्चों में आत्महत्या के मामलों में 75 फीसदी की बढ़ोतरी दर्ज की गई है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक भारत में हर 10 हजार लोगों में 98 लोग आत्महत्या करते हैं। हर 90 मिनट में एक युवा आत्महत्या की कोशिश करता है। 37.8 फीसदी युवाओं में आत्महत्या की प्रवृत्ति पाई गई है। आंकड़ों के मुताबिक भारत में सबसे अधिक आत्महत्या स्वरोजगार में लगे लोगों में देखी गई है। जबकि आत्महत्या के मामले में दूसरे नंबर पर गृहणियां होती हैं। आदमियों में आत्महत्या की दर 41 फीसदी है जबकि गृहणियां में 21 फीसदी है। कर्मचारियों में यह दर 11.5 फीसदी, बेरोजगारों में 7.5 फीसदी और छात्रों में पांच फीसदी है। आत्महत्या करने वाले लोगों में ज्यादातर 15 से 35 वर्ष की आयु के लोग हैं। वहीं महिलाओं की अपेक्षा पुरुषों में आत्महत्या करने के मामले अपेक्षाकृत अधिक हैं।
छात्रों में आत्महत्या की प्रमुख वजह परीक्षा का डर और पढ़ाई का दबाव है। ऐसे लोग भी है जिन्होंने पारिवारिक समस्याओं से तंग आकर अपनी जान दे दी। प्रेम-प्रसंगों और नशे की लत की वजह से आत्महत्या करने के भी कई मामले सामने आए हैं। गाजियाबाद की बीटेक की छात्रा प्रगति सिंह के खुदकुशी की घटना के अभी ज्यादा दिन नहीं बीते हैं। प्रगति ने पढाई के दबाव के कारण खुदकुशी कर ली थी। इसने अपने सुसाइड नोट में लिखा था कि वह बीकाम करना चाहती थी, लेकिन परिवार के दबाव की वजह से वह बीटेक कर रही थी। दूसरी घटनाओं में परीक्षा में असफलता मिलने की वजह से ङ्क्षकग जार्ज मेडीकल यूनीवॢसटी में तृतीय वर्ष की छात्रा ने जहर खाकर अपनी जान दे दी। 26 साल के सुशील कुमार चौधरी ने कानपुर में आत्महत्या कर ली। सोसाइड नोट में उसने अपने कुछ अध्यापकों इसका जिम्मेदार ठहराया था। अध्यापकों द्वारा भेदभाव किए जाने का आरोप लगाते हुए सुशील के पिता ने कहा कि उसके दलित होने की वजह से उसे प्रताडि़त किया जाता था और कहा जाता था कि उसे डॉक्टर बनने के सपने देखना छोड़ देना चाहिए।

आत्महत्या की वजह

आधुनिक समय में अभिभावकों और बच्चों के बीच आपसी सामंजस्य में कमी आने लगी है। इससे बच्चों में ने केवल स्वतंत्र विचार पनप रहे हैं, बल्कि उनका दुनिया को देखने का नजरिया भी बदलने लगा है। इसमें अब उन्हें किसी का दखल गवारा नहीं होता है। यही वजह है कि आज समाज में बच्चे ङ्क्षहसक प्रवृत्ति के हो रहे हैं। छोटी-छोटी बातों में अपना आपा भी खो देते हैं। जिसकी परिणति आत्महत्या के रूप में होती है। तेज रफ्तार ङ्क्षजदगी से शहरी जीवन शैली में कई बदलाव आए हैं। युवा वर्ग भी इससे अछूता नहीं रह गया है।
आज माता-पिता के पास इतना समय नहीं रह गया है कि वह बच्चों के साथ बैठकर उनकी बातों को सुन सकें। बच्चे अपनी जिज्ञासा को शांत करने के लिए बाहर की दुनिया में दूसरे दोस्तों की तलाश करते हैं। ऐसे में उनका संपर्क अच्छे और बुरे दोस्तों दोनों प्रकार के लोगों से होता है। इनके संपर्क में रहने से बच्चों को मानसिक सोच, विचार एवं प्रवृत्तियों में भी बदलाव होता है। जमाना बदल रहा है, तो बच्चों के साथ अभिभावकों को भी बदलना होगा। उनकी जरूरतों का ध्यान रखना होगा। साथ ही बच्चों की जिज्ञासा एवं उत्सुकता को भी शांत करना होगा। बच्चों पर अनावश्यक पढाई का दबाव न दिया जाय। उन्हे उनकी इच्छानुसार करियर चुनने की आजादी देनी चाहिए। बच्चों का साइकोलॉजिकल चेकअप भी कराते रहना चाहिए। अभिभावकों को चाहिए कि वे अपने बच्चों को नियंत्रण में रखें। उनकी समस्याओं को समझकर उनका निराकरण करें।
वरिष्ठ मनोचिकित्सक डॉ. संजय का कहना है कि जब लोग खुद को अकेला और निरर्थक समझने लगते हैं, तो इस दु:ख से खुद को निकालने के लिए अपनी ङ्क्षजदगी खत्म कर डालते हैं। ऐसे लोगों से आत्मीयता और भावनात्मक रूप से जुडक़र उन्हें काफी हद तक नार्मल किया जा सकता है। मेडीकल, इंजीनियर और मैनेंजमेंट के छात्रों में आत्महत्या के मामले ज्यादा देखने को मिले है, जो कि काफी हद तक पढ़ाई के बढ़ते दबाव की वजह से होते हैं। अध्यापकों को चाहिए कि वे छात्रों में सकारात्मक सोच और उनके उत्साह को बनाए रखने में मदद करें।
समाजशास्त्री प्रो. रविंद्र राय के मुताबिक अक्सर अभिभावक यह सोचते है कि वे अपने बच्चे के बारे में जो फैसला ले रहे हैं वह सही है। अब समय बदल गया है केवल इंजीनियङ्क्षरग और मेडीकल ही बेहतर करियर के क्षेत्र नहीं है। छात्र को उसकी क्षमता के अनुसार का करियर का चुनाव करने देना चाहिए। हम बच्चों पर दबाव नहीं बना सकते। ऐसा करने पर छात्र का प्रदर्शन प्रभावित होगा। अभिभावकों को नई पीढ़ी की सोच को समझना होगा।

वो आत्महत्या करने वाला है

जब कोई इंसान खुदखुशी करने वाला होता है तो उसके व्यवहार में बदलाव आने लगते हैं। इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि एक बार के तनाव से परेशान होकर कोई आत्महत्या नहीं करता। जिन्दगी में कोई बड़ी दुर्घटना होने पर या बदलाव आने पर कई लोग उससे उबर नहीं पाते। दिमाग में बात घर कर जाती है और फिर उसे निकाल पाने के लिए मनोचिकित्सक से परामर्श की जरूरत होती है . पहले आदमी डिप्रेशन में चला जाता है। उसके विचार नकारात्मक होने लगते हैं। निराशा में डूब जाता है . और किसी से बातचीत करने में इच्छुक नहीं होता। एक ही माहौल जो वो चाहता है वो है अकेलापन। ऐसे लोगों का मन हमेशा चिड़चिड़ा रहने लगता है। घर के सदस्यों से भी बातचीत बिल्कुल बंद कर देते हैं। जब उनसे बातचीत की कोशिश की भी जाती है तो उनका गुस्सा ही देखने को मिलता है। छोटी-छोटी बातों पर ऐसे लोगों का पारा चढ़ जाता है। कई बार इस अवस्था में लोग अपने आप से बातें भी करने लगते हैं। उनमें नींद ना आने या बहुत ज्यादा आने जैसे लक्षण देखे जा सकते हंै। पूरी रात जागकर ये कुछ सोचते रहते हैं। ्र्रस्ङ्ग नींद में ना होने के वावजूद बिस्तर पर पड़े रहते हैं। जिन कामों में इनका ज्यादा लगाव रहता है वो भी घटने लगते हैं। हर बात पर रोने लगना और नियम कानून तोडऩे जैसी बातें इनमे दिखने लगती है। कई बार नशे को अपना साथी मानकर ये इसकी गिरफ्त में भी आ जाते हैं।

Sunday, July 4, 2010

बंटी चोर लाइव..

तारीख 27 जून। रात 9 बजे। चैनल की दुनिया का सबसे कीमती प्राइम टाइम। खुद को देश का सर्वश्रेष्ठ और सबसे तेज कहने वाला चैनल आज तक। इस चैनल के अनुभवी और तेज-तर्रार एंकर अभिसार शर्मा। कार्यक्रम ओए बंटी, बंटी ओए। कार्यक्रम का गेस्ट सजा भुगत चुका शातिर चोर बंटी। एंकर चोर से पूछता है कि, आपकी कोई गर्लफ्रेंड है? चोर बोलता है, नहीं। लेकिन दबाव देने पर बेचारे को कहना पड़ता है कि उसकी एक विदेशी गर्लफ्रेंड है। एंकर उससे चोरी के संबंध में भी पूछता है। इस तरह के तमाम वाहियात ( मेरी नजर में) सवाल किए जाते हैं .

बनटन कर स्टूडियों में आए बंटी चोर का आरोप है कि फिल्म ओए लकी, लकी ओए की कहानी उसके जीवन पर आधारित है। इसलिए उसे उसका हिस्सा चाहिए। यदि हिस्सा नहीं मिला तो वह कोर्ट जाएगा। इस तरह से वह मीडिया को जरिया बनाकर फिल्म के निर्माता को धमकाता है।
ये तो रही पर्दे पर की कहानी। आइए जानते है पर्दे के पीछे की कहानी। एक रोज पहले लाइव इंडिया चैनल पर बंटी चोर लाइव दिखाया गया था। पूरे कार्यक्रम के दौरान लोगों ने लाइव एक चोर से बात की। चोर ने चोरी के गुर बताए। शायद चैनल की टीआरपी उस दिन कुछ बढ़ गई। इसी से प्रभावित आज तक ने बंटी को प्राइम टाइम में लाइव चलाया।
अब सवाल यह उठता है कि क्या हमारी मीडिया (इलेक्ट्रानिक) के पास खबरों की कमी हो गयी है कि इस तरह के फालतू कार्यक्रम चलाए जा रहे है? एक चोर को बैठा कर चोरी के गुर पूछे जा रहे है। हर चैनल एक दूसरे की नकल कर रहा है। अब तक इंडिया टीवी खबर के इतर सब कुछ दिखाने के लिए मशहूर था, लेकिन अब तो न्यूज 24, लाइव इंडिया सब उसी के नक्शे कदम पर चल रहे हैं। एक तरफ तो इनके स्टूडियो पर नये-नये वैज्ञानिक आकर तांत्रिकों का भांडा फोड़ने का दावा करते हैं, वहीं दूसरी तरफ बाबा लोग बैठ कर लोगों के दुख दूर करने का उपाय और भविष्य बताते हैं।
भोपाल गैस त्रासदी पर मीडिया ने जो स्टैंड लिया था, उससे ऐसा लगा था कि शायद पीड़ितो को न्याय मिल सकेगा। मामला कुछ दिनों तक खूब सुर्खियों में रहा। खूब बहस हुई। भोपाल, दिल्ली और अमेरिका ; अर्जुन सिंह, राजीव गांधी और एंडरसन चर्चा के केन्द्र में रहे। लेकिन परिणाम क्या हुआ? 26 साल से न्याय के लिए तड़प रही भोपाल की जनता आज भी तड़प रही है। आज यह मुद्दा कहां दब गया किसी को पता नहीं। लोकतंत्र का चौथा खम्भा टीआरपी की रेस में अपने सिद्धांतों को बेचते जा रहा है। इसकी नींव खोखली होती जा रही है। पहले मीडिया और मीडियाकर्मियों को आदर से देखा जाता था। यह इज्जत खतम होती जा रही है। अब वह समय आ गया है कि मीडिया अपने सिद्धांतों और दायित्वों पर आत्म मंथन करे। वरना देर हो जाएगी।

 
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