Monday, October 29, 2012
'मीडिया ट्रायल की बात निराधार'
5:34 AM
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ट्रायल मुकदमे का होता है, आरोपी का होता है, वह भी जांच के बाद। ट्रायल अदालत में होता है, वह भी तब जबकि पुलिस या ऐसी कोई अन्य राज्य शक्तियों से निष्ठ संस्था मामला वहां ले जाए या अदालत स्वयं संज्ञान लेकर जांच कराए। ट्रायल के बाद किसी को सजा मिलती है, तो कोई छूट जाता है। बहुस्तरीय न्याय व्यवस्था होने के कारण कई बार नीचे की अदालतों का फैसला ऊपर की अदालतें खारिज ही नहीं करतीं बल्कि यह कहकर कि निचली अदालत ने कानून की व्याख्या करने में भूल की, फैसला उलट भी देती हैं। ऐसा भी होता है कि कई बार सर्वोच्च न्यायालय उच्च न्यायालय के फैसले को न केवल उलट देता है बल्कि निचली अदालत की समझ की तारीफ भी करता है। तात्पर्य यह कि जहां सत्य जानने और जानने के बाद अपराधी को सजा दिलाने की इतनी जबरदस्त प्रक्रिया हो, वहां क्या मीडिया ट्रायल हो सकता है?
ट्रायल अखबारों या टीवी चैनलों के स्टूडियो में नहीं होना चाहिए। क्या भारतीय मीडिया अदालतों की इस मूल भूमिका को हड़प रही है? एक उदाहरण लें। चुनाव के महज कुछ वक्त पहले सांप्रदायिक रूप से संवेदनशील एक जिले के मुख्य चौराहे पर एक बम विस्फोट होता है। एक चैनल के कैमरे में एक दृश्य कैद होता है, जिसमें दिखाई देता है कि दो लोग एक कार में भाग रहे हैं। चैनल के रिपोर्टर द्वारा यह भी पता लगाया जाता है कि इस कार का नंबर जिस व्यक्ति का है, वह राज्य के एक प्रभावशाली नेता का भतीजा है। वह नेता उस क्षेत्र से चुनाव लड़ रहा है।
क्या सीआरपीसी की धारा 39 का अनुपालन करते हुए चुपचाप यह टेप क्षेत्र के पुलिस अधिकारी को देने के बाद मीडिया के दायित्य की इति-श्री हो जाती है? क्या यह खतरा नहीं है कि पूरे मामले को वह नेता महोदय दबा दें? यह संभव है कि जो लोग भाग रहे हों, वे निर्दोष दुकानदार हों या फिर अपराधियों ने ही उस कार को हाइजैक कर लिया हो, जो बाद की तफ्तीश से पता चले। लेकिन क्या यह उचित नहीं होगा कि सारे तथ्य जन संज्ञान में इसलिए लाए जाएं ताकि कोई सत्ताधारी प्रभाव का इस्तेमाल कर बच न सके? दोनों खतरों को तौलना होगा। एक तरफ व्यक्ति गरिमा का सवाल है और दूसरी तरफ जनता के विश्वास का या यूं कहें कि संवैधानिक व्यवस्था पर और प्रजातंत्र पर जनता की आस्था का सवाल।
फिर अगर मीडिया की गलत रिपोर्टिंग से किसी का सम्मान आहत हुआ है तो उसके लिए मानहानि का कानून है लेकिन अगर सत्ता में बैठा कोई नेता आपराधिक कृत्य के जरिए सांप्रदायिक भावना भड़का कर फिर जीत जाता है और मंत्री बनता है, उसके लिए बाद में कोई इलाज नहीं है। ऐसे में क्या यह मीडिया का दायित्व नहीं बनता कि तथ्यों को लेकर जनता में जाए और जनमत के दबाव का इस्तेमाल राजनीति में शुचिता के लिए करे? क्या मीडिया मानहानि के कानून से ऊपर है?
जब संस्थाओं पर अविश्वास का आलम यह हो कि मंत्री से लेकर विपक्ष तक विवादित दिखाई दें तो क्या मीडिया तथ्यों को भी न दिखाए? आज हर राजनेता जो भ्रष्टाचार का आरोपी है एक ही बात कह रहा है - 'जांच करवा लो, मीडिया ट्रायल हो रहा है।' मूल आरोप का जवाब नहीं दिया जा रहा है कि संपत्ति तीन साल में 600 गुना कैसे हो जाती है। कैसे एक कंपनी झोपड़पट्टी में ऑफिस का पता देकर करोड़ों का खेल करती है। जांच करवाने की वकालत करने वाले यह जानते हैं कि जांच के मायने अगले कई वर्षों तक के लिए मामले को खटाई में डालना है। अगर आरोपपत्र दाखिल भी हो जाए तो तीन स्तर वाली भारतीय अदालतों में वह कई दशकों तक मामले को घुमाते रह सकता है और कहीं इस बीच उसकी सरकार आ गई तो सब कुछ बदला जा सकता है।
दरअसल, यह सब देखना कि कहीं कोई गड़बड़ी तो नहीं हो रही है, वित्तीय व कानून की संस्थाओं का काम था। जब उन्होंने नहीं किया तब मीडिया को इसे जनता के बीच लाना पड़ा। अगर ये संस्थाएं अपना काम करतीं तो न तो किसी की संपत्ति तीन साल में 600 गुना बढ़ती, न ही ड्राइवर डायरेक्टर बनता और न ही फर्जी कंपनियां किसी नेता की कंपनी में पैसा लगातीं। यहां एक बात मीडिया के खिलाफ कहना जरूरी है। मीडिया को केवल तथ्यों को या स्थितियों को जनता के समक्ष लाने की भूमिका में रहना चाहिए। जब स्टूडियो में चर्चा करा कर एंकर खुद ही आरोपी से इस्तीफे की बात करता है तो वह अपनी भूमिका को लांघता है। मीडिया की भूमिका जन-क्षेत्र में तथ्यों को रखने के साथ ही खत्म हो जाती है, बाकी काम जनता और उसकी समझ का होता है। अगर इसे मीडिया ट्रायल की संज्ञा दी जाती है तो वह सही है।
एक अन्य प्रश्न भी है। क्या वजह है कि आज भी भ्रष्टाचार के मामलों में सजा की दर बेहद कम है? और जिन पर आरोप सालों से रहा है, वो या तो सरकर में हैं या सरकार बना -बिगाड़ रहे हैं। यह सही है कि मीडिया का किसी के मान-सम्मान को ठेस पहुंचाना बेहद गलत है। यह भी उतना ही सही है कि अगर किसी पर मीडिया ने ऐसे आरोप लगाए जो बाद में अदालत से निर्दोष साबित हों तो, मीडिया को कठघरे में होना चाहिए क्योंकि वह गलत सिद्ध हुआ, पर अगर यही आरोप ऊपर की अदालत से फिर सही सिद्ध हो जाए, तब क्या कहा जाएगा? क्या यह नहीं माना जाना चाहिए कि मीडिया सही साबित हुआ? एक और स्थिति लें।
अगर इसी मामले में सुप्रीम कोर्ट फिर से हाईकोर्ट के फैसले को उलट दे तो, मीडिया एक बार फिर गलत साबित होगा। कहने का मतलब यह कि मीडिया सही था या गलत यह इस बात पर निर्भर करेगा कि आरोपी में सीढ़ी दर सीढ़ी लडऩे का माद्दा कितना है। यानी, सत्य उसके सामथ्र्य पर निर्भर करेगा। यही कारण है कि आज देश में जहां तीन अपराध के मामले हैं, वहीं केवल एक सिविल मामला। ठीक इसके उलट ऊपरी अदालतों में यानी हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में अगर तीन मामले सिविल के होते हैं तो केवल एक अपराध का। कारण साफ है, जो समर्थ है, वह किसी स्तर तक अदालतों के दरवाजे खटखटा सकता है। अपराध में सजा पाने वाला अपनी मजबूरी के कारण निचली अदालतों से सजा पाने के बाद जेल की सलाखों को ही अपनी नियति मान लेता है। उसके लिए सत्य की खोज की सीमा है। ऐसे में मीडिया क्या करे? क्या तथ्यों को देना बंद कर दे?
लेखक- एनके सिंह, वरिष्ठ पत्रकार (दैनिक भास्कर से साभार)
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