मौत के साए में जिंदगी
दिल्ली के लक्ष्मी नगर में इमारत ढह जाने का जो दर्दनाक हादसा हुआ है, उसने सबको दहला कर रख दिया है। इसमें 70 लोगों की मौत हो गई और सैकड़ों लोग जख्मी हुए। ऐसा ही कुछ मंजर गाजियाबाद सहित पूरे वेस्ट यूपी में भी देखने को मिल सकता है। यहां लक्ष्मी नगर जैसी कई जर्जर इमारतें हैं, जो कभी भी ढह कर मलबे में तब्दील हो सकती हैं। इमारतों में नीचे दुकानें हैं और ऊपर लोग रहते हैं। अगर भविष्य में यह इमारतें गिरीं तो तय है कि बड़ी संख्या में जान-माल का नुकसान होगा। इन बातों से बाखबर प्रशासन कन्नी काटता नजर आ रहा है, तो वहीं इन इमारतों का जन्मदाता जीडीए नींद में है। इमारतों में भूकंप के मामूली झटके बर्दाश्त करने की जरा भी कूवत नहीं है। भूकंप के हल्के झटके भर से जर्जर इमारतें ताश के पत्तों की तरह कभी भी भरभरा सकती हैं।
हाई रिस्क जोन में बहुमंजिला इमारतें
भूकंप शब्द से ही लोगों में दहशत फैल जाती है। खासकर दिल्ली और एनसीआर के लोगों में। यह क्षेत्र हाईरिस्क जोन में आने के कारण सबसे ज्यादा संवेदनहै। बहुमंजिला इमारतों की भरमार होने से यहां भूकंप आने पर जान-माल का भारी नुकसान हो सकता है।
दिल्ली, नोएडा, गाजियाबाद, गुडग़ांव, फरीदाबाद जैसे शहरों में जगह की कमी के कारण ऊंची बिल्डिंग बनाने का चलन काफी समय से चल रहा है। लेकिन बहुमंजिला इमारत बनाने का यही चलन लोगों के लिए मुसीबत बन गया है। प्राधिकरण निजी बिल्डरों से भूकंपरोधी भवन नहीं बनवा पा रहे। भूकंप से बचाव के उपाय केवल कागजों तक सिमट कर रह गए हैं। गनीमत बस इतनी है कि अभी तक दिल्ली और एनसीआर में बड़ा भूकंप नहीं आया है।
विशेषज्ञों का कहना है कि इस क्षेत्र में रिक्टर स्केल पर 7 तक की तीव्रता का भूकंप आ सकता है। 4.5 से अधिक तीव्रता का भूकंप आने पर इमारतों को सबसे ज्यादा नुकसान होगा। भूस्खलन के साथ-साथ बड़े-बड़े भवन ढह सकते हैं। भूमिगत पाइप लाइनों के टूटने का खतरा बढ़ जाता है। भूकंप की तीव्रता बढऩे पर नदियों का मार्ग तक बदल सकता है।
यमुना तीरे इमारतों की बाढ़
यमुना के किनारे के रेतीले इलाकों में तेजी से बहुमंजिला इमारतें खड़ी की जा रहीं हंै। सबसे खतरनाक बात यह है कि यहां की ऐसी अनेक बहुमंजिला इमारतें हैं, जो भूकंप का हल्का झटका भी नहीं सह सकतीं। भूकंप वैज्ञानिकों के अनुसार अगर चार रिक्टर पैमाने की भी हलचल हुई तो ताश के पत्तों की तरह इस क्षेत्र की इमारतें ढह जाएंगी।
केन्द्र सरकार के शहरी भूकंप भेदता यूनीकरण कार्यक्रम (यूईवीआरपी) के अधिकारियों ने नदी में निर्माण को खतरनाक करार दिया है। ऐसी स्थिति में लोगों को यही कहा जाना चाहिए कि नदी के नहीं तो खुद के जीवन के लिए ही सही ऐसी जगहों पर बहुमंजिला इमारतें बनाने से बचें। आगरा भूकंपीय खतरे की दृष्टि से तीसरे स्थान पर है। यहां भूकंप का झटका कभी भी लग सकता है। यूपी के राहत आयुक्त के नेतृत्व में चल रही यूईवीआरपी के प्रोजेक्ट समन्वयक जीवन पंडित के मुताबिक ठोस मिट्टी पर बनी इमारतों पर भूकंप का असर कम होता है। जबकि यमुना और इसके तट रेत से भरे हंै। भूकंप होने पर रेत में भूजल मिल जाता है, इसे लिक्वफिकेशन कहते हैं। यह दलदल बनाने का काम करता है। इससे नींव कमजोर हो जाती है और भवन ध्वस्त हो सकते हंै। भूकंप की दृष्टि से कभी भी नदी के पास निर्माण नहीं करना चाहिए।
क्या कहता है जियोलॉजिकल सर्वे
जियोलॉजिकल सर्वे में यह बात सामने आई है कि गाजियाबाद सहित पूरा दिल्ली-एनसीआर फोर्थ जोन में है। यानि हल्का भूकंप का झटका भी तबाही ला सकता है। ट्रांस हिंडन क्षेत्र में रियल स्टेट कारोबार के फैलने से भारी मात्रा में जल दोहन हो रहा है। जिससे मिट्टी खिसकती है और अत्याधिक बारिश से इमारतों में दरार की संभावना है। जबकि भू-जल पर्याप्त मात्रा में होने से दबाव बना रहता है और मिट्टी नहीं खिसकती। सर्वे के अनुसार यदि प्राकृतिक तरीके से मिट्टी खिसकती है तो कोई खतरा नहीं, लेकिन दोहन से इमारतों की नींव कमजोर हो सकती है।
भूकंप से सुरक्षित बनाने के लिए इमारतों को रिक्टर स्केल मैग्निटयूड 6 की तीव्रता का भूकंप झेलने के लिए तैयार किया जाता है। इसके लिए बिल्डिंग के कंस्ट्रक्शन के वक्त ही उसे भूकंपरोधी बनाने के सभी उपाय किए जाते हैं। घर खरीदने के पहले किसी सर्टिफाइड स्ट्रक्चरल इंजीनियर का सर्टिफिकेट, जिसमें रिक्टर स्केल मैग्निटयूड कम से कम छह रखा गया हो, उसे जरूर देखना चाहिए।
भूकंप की वजह
भूकंप आज भी ऐसा प्रलय माना जाता है जिसे रोकने या काफी समय पहले सूचना देने की कोई प्रणाली वैज्ञानिकों के पास नहीं है। प्रकृति के इस तांडव के आगे सभी बेबस हो जाते हैं। सामने होता है तो बस तबाही का ऐसा मंजर जिससे उबरना आसान नहीं होता है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण चीन और हैती में आए भूकंप हैं।
भूकंपों की उत्पत्ति धरती की सतह से 30 से 100 किलोमीटर अंदर होती है। सतह के नीचे धरती की परत ठंडी होने और कम दबाव के कारण भंगुर होती है। ऐसी स्थिति में जब अचानक चट्टानें गिरती हैं तो भूकंप आता है। एक अन्य प्रकार के भूकंप सतह से 100 से 650 किलोमीटर नीचे होते हैं।
धरती की सतह से काफी गहराई में उत्पन्न अब तक का सबसे बड़ा भूकंप 1994 में बोलीविया में रिकॉर्ड किया गया। सतह से 600 किलोमीटर दर्ज इस भूकंप की तीव्रता रिक्टर पैमाने पर 8.3 मापी गई थी। हालांकि वैज्ञानिक समुदाय का अब भी मानना है कि इतनी गहराई में भूकंप नहीं आने चाहिए क्योंकि चट्टान द्रव रूप में होते हैं। वैज्ञानिकों का मानना है कि विभिन्न रासायनिकों क्रियाओं के कारण भूकंप आते होंगे।
जानवरों को होता है भूकंप का अहसास!
बचपन में बड़े बुजुर्गों से सुना था कि जब भूकंप आने को होता है तो पशु-पक्षी कुछ अजीब हरकतें करने लगते हैं। चूहे अपनी बिलों से बाहर आ जाते हैं। अगर यह सही है तो वैज्ञानिक पशु-पक्षियों की इस अद्भूत क्षमता को भूकंप की पूर्व सूचना प्रणाली में क्यों नहीं बदल सकते। अगर ऐसा संभव हो जाए तो प्रकृति की इस तबाही पर मानव विजय पा सकेगा। भुज में आए भूकंप के समय ऐसा देखा गया था कि पशु वहां से भागने लगे थे।
घर बनाने या खरीदने के पहले इन बातों का रखें ध्यान
निर्माण कार्य शुरू करने से पहले उस जगह की मिट्टी की जांच जरूरी होती है। इससे पता चलता है कि उसमें इमारत का वजन सहन करने की क्षमता है या नहीं। मिट्टी की क्षमता के आधार पर ही इमारत में फ्लोर्स की संख्या तय की जाती है। और डिजाइन तैयार किया जाता है।
अब सवाल उठता है कि मिट्टी की जांच कहां कराई जाए? मिट्टी की जांच की जिम्मेदारी सरकार से मान्यता प्राप्त प्राइवेट लैब संभालती है। इसके लिए वह बाकायदा एक तय फीस चार्ज करती है। यह 20 हजार से एक लाख रुपये तक हो सकती है। जांच के बाद लैब सर्टिफिकेट जारी करती है।
जांच में यह पता चलता है कि मिट्टी प्रति स्क्वेयर सेंटीमीटर कितना लोड झेल सकती है। वॉटर लेवल और बियरिंग कपैसिटी का सही अनुपात क्या है। मिट्टी की दशा क्या है यानी मिट्टी हार्ड है या सॉफ्ट।
बेसमेंट का ध्यान जरूरी
ललिता पार्क (दिल्ली) में गिरी इमारत के बेसमेंट में पानी भरा था। ऐसा माना जा रहा है कि नींव में पहुंचे पानी ने बिल्डिंग को कमजोर बना दिया। बेसमेंट इमारत का आधार होता है, इसलिए इसका मजबूत होना बहुत जरूरी है।
इमारत की वॉटर प्रूफिंग बहुत जरूरी होती है। इमारत का बिल्डर ही बेसमेंट की वॉटर प्रूफिंग के लिए जिम्मेदार होता है। जब उस इलाके में वॉटर लेबल ज्यादा हो, जैसे यमुना और हिंडन किनारे वाले इलाके, तब उसकी जिम्मेदारी और बढ़ जाती है। संबंधित जगह के वॉटर लेवल के अनुसार ही यह तय किया जाता है कि बेसमेंट को किस तरह की वॉटर प्रूफिंग सुरक्षित रख सकती है। ऊंचे वॉटर लेवल वाले इलाकों में आमतौर पर बॉक्स टाइप वॉटर प्रूफिंग की जाती है, जिसमें नींव और चारों तरफ की दीवारों पर कोटा स्टोन की परत चढाई जाती है।
निर्माण सामग्री की करें जांच
मिट्टी का ठीक होना ही इमारत की सुरक्षा की लिए काफी नहीं है। यह भी जरूरी है कि इमारत को तैयार करने में लगाए जाने वाले सामग्री की गुणवत्ता अच्छी हो। इस सामग्री में क्रंक्रीट, सीमेंट, ईंट, सरिये आदि शामिल होती हैं। निर्माण सामग्री के ठीक होने या नहीं होने के बारे में ज्यादातर संतुष्टि सिर्फ देखकर ही की जाती है। फिर भी कुछ हद तक सावधानी बरती जा सकती है।
सबसे पहले प्लास्टर की जांच करनी चाहिए। इसके लिए एक कील या गाड़ी की चाबी लें, इसे दीवार पर हाथ से गाढऩे की कोशिश करें। अगर कील दीवार में धंस जाती है तो रेत झड़ता है, तो साफ है कि खराब सामग्री लगाया गया है। यदि कील आसानी से नहीं धंसती, तो समझ सकते हैं कि सामग्री अच्छी है और काफी तराई भी की गई है।
यदि आप संतुष्ट नहीं हैं, तो जांच में प्रोफेशनल की मदद लें सकते हैं। कंक्रीट फ्रेमवर्क के तहत आने वाली चीजों की जांच किसी प्रफेशनल से कराई जा सकती है। इस फ्रेमवर्क के अंतर्गत पिलर, नींव, स्लैब्स आदि आते है। प्रोफेशनल स्ट्रक्चरल इंजीनियरिंग से सर्टिफिकेट लिया जा सकता है।
थर्ड पार्टी से गुणवत्ता जांची जा सकती है। इस प्रक्रिया के तहत बिल्डर मिट्टी समेत सभी निर्माण सामग्री आदि की गुणवत्ता की जांच कराता है। यह जांच प्राइवेट एजेंसियां तय मानकों के आधार पर करती हैं, जिन्हें मानना बिल्डर के लिए जरूरी होता है। सभी चीजों की जांच के बाद सर्टिफिकेट दिए जाते हैं, जिन्हें एक बार जरूर देख लेना चाहिए।
दस्तावेज जरूर लें
अगर आप इमारत की सुरक्षा के बारे में जांच-पड़ताल कर रहे हैं, लेकिन उसके वैध या अवैध होने पर लापरवाही कर जाते हैं, तो आप बड़ी भूल कर रहे हैं। कोई भी बिल्डर या सरकार तभी तक जिम्मेदार है, जब तक इमारत लीगल है।
नेशनल बिल्डिंग कोड के मानक, जो सीपीडब्ल्यूडी जैसी सरकारी संस्थाओं के पास या इंटरनेट पर उपलब्ध हैं।
सबके साथ यह भी जानना जरूरी है कि उस क्षेत्र में बिल्डिंग में कितने फ्लोर की इजाजत है, फ्लोर एरिया अनुपात के अनुसार कितनी जगह पर निर्माण किया जा सकता है, जोन के अनुसार, बिल्डिंग की अधिकतम ऊंचाई कितनी रखी जा सकती है, किस तारीख को प्रोजेक्ट लॉन्च किया गया, यानी बिल्डिंग कितनी पुरानी है।
अग्नि सुरक्षा
घर लेने से पहले यह संतुष्टि कर लेना भी जरूरी है कि बिल्डिंग को आग के खतरों से सुरक्षित बनाया गया है या नहीं। इसके यह जांच कर लें कि अगर मल्टीस्टोरी अपार्टमेंट है तो फायर डिपार्टमेंट से नो ऑब्जेक्शन सर्टिफिकेट मिला है कि नहीं।
स्ट्रक्चरल इंजीनियर से जरूर लें सलाह
इमारत बनवाने या फ्लैट खरीदने से पहले किसी स्ट्रक्चरल इंजीनियर से सलाह जरूर लें। यह सलाह ड्रॉइंग डिटेल्स बनवाने तक ही सीमित न रहे। उस डिटेल्स पर पूरी तरह अमल भी करें। घर के निर्माण के वक्त स्ट्रक्चरल इंजीनियर से यह चेक करवाते रहें कि निर्माण सही हो रहा है या नहीं। आर्किटेक्ट और स्ट्रक्चरल इंजीनियर का आपसी मेल-जोल होना बहुत जरुरी है। अगर खुद घर बनवा रहे हैं, तो निर्माण पर आने वाली कुल लागत का अनुमान लगाना आसान हो जाता है।
कानूनी प्रावधान
नेशनल बिल्डिंग कोड के अनुसार बिल्डिंग के डिजाइन व निर्माण का कार्य किया जाता है। इसके आधार पर तैयार की गई इमारत को सुरक्षा के आधार पर 100 फीसद खरा माना जा सकता है। इसे सबसे पहले 1970 में प्लानिंग कमिशन ने लागू किया था। 1983 में इसे संशोधित किया गया। इसके बाद दो बार 1987 में और एक बार 1993 में इसमें सुधार किए गए। बाद में नेशनल बिल्डिंग कोड ऑफ इंडिया 2005 लाया गया। 'एनबीसी 2005Ó का निर्माण ब्यूरो आफ इंडियन स्टैंडर्ड, म्यूनिसिपल एडमिस्ट्रिेशन, पब्लिक बॉडीज और प्राइवेट एजेंसी वगैरह ने मिलकर तैयार किया। इसका मकसद डेवलेपमेंट कंट्रोल रूल्स और बिल्डिंग की आम जरूरतों, फायर सेफ्टी जरूरतों, मटीरियल क्वॉलिटी, स्ट्रक्चरल डिजाइन, कंट्रक्शन और प्लंबिंग सर्विस आदि का ध्यान रखना है। जो बिल्डिंग कोड के मापदंड पर फिट नहीं बैठतीं, उन पर पेनल्टी भी ली जा सकती है या प्रोजेक्ट ही निरस्त भी किया जा सकता है।
कहां है लैबोरेट्रीज
देशभर में विभिन्न चीजों की जांच के लिए लैबोरेट्रीज को मान्यता 'नेशनल एक्रीडिशन बोर्ड फॉर टेस्टिंग एंड कैलिब्रेशन लैबोरेट्रीजÓ की ओर से दी जाती है। यह बोर्ड सरकार के विज्ञान एवं तकनीक मंत्रालय के तहत बनाया गया है, जिसका मुख्यालय न्यू महरौली रोड पर सत्संग विहार मार्ग पर स्थित है। बिल्डिंग मटीरियल और मिट्टी आदि की जांच के लिए बोर्ड ने दिल्ली-एनसीआर में कई लैब्स को अधिकृत किया के लिए फोन नंबर 011-46499999 पर भी संपर्क कर सकते हैं।
भुज और लातूर में भूकंप के बाद जिंदगी
26 जनवरी, 2001 का वो दिन भुलाए नहीं भूलता। इस दिन गुजरात के भुज में आए भूकंप ने हजारों लोगों को लील लिया। कितने घायल हुए, कितने अपनों से बिछड़ गए। यही कहर 30 सितंबर, 1993 में महाराष्ट्र के लातूर में बरपा था। भुज में 13 हजार 805 लोग मरे, तो लातूर में 7 हजार 928 लोग काल के गाल में समा गए। लेकिन इन दोनों घटनाओं में जीत जिंदादीली और हिम्मत की हुई थी। लोगों ने हिम्मत से काम लिया। उन्होंने इस घटना से सबक लेते हुए खुद को तैयार किया। आज इन दोनों जगहों पर भूकंपरोधी इमारतें बन चुकीं हैं। ये इमारतें हल्के -फुल्के भूकंप के झटके को यूं ही सह सकती हैं।
ऐसे बनाएं भूकंपरोधी इमारतें
आइए जानते हैं भूकंपरोधी इमारतों को किस तकनीक के सहारे बनाया जा सकता है। भूकंप के दौरान इमारतों को क्षतिग्रस्त होने से बचाने के लिए दो आधारभूत तकनीक को अपनाया जा सकता है। इनमें पहला, बेस आइसोलेसन डिवाइस और दूसरा सिसमिक डैंपर है।
बेस आइसोलेसन डिवाइस
इस तकनीक से इमारत को ग्राउंड से एक रोलर के सहारे अलग रखा जाता है। इससे भूकंप आने पर इमारत को प्रत्यक्ष रूप से झटका नहीं लगता है। और इमारत क्षतिग्रस्त नहीं हो पाती है।
सिसमिक डैंपर
इस तकनीक से एक विशेष डिवाइस के जरिए काम लिया जाता है। यह डिवाइस भूकंप के समय पैदा होने वाली एनर्जी को अवशोषित कर लेती है। इस तरह से भूकंप का झटका इमारत को महसूस नहीं होता है।
भुज में भूकंप के बाद इसी डिवाइस पर आधारित इमारते बनाई गईं हैं, जो सामान्य भूकंप के झटके को आसानी से सह सकती हैं।
क्या करें भूकंप के दौरान
भूकंप के दौरान जितना संभव हो सुरक्षित स्थान पर रुकें। ध्यान रखें कि अधिकतर भूकंप कम समय के लिए आते हंै। भूकंप आते ही खुद को सुरक्षित रखने के लिए निम्नलिखित कदम उठायें-
यदि अंदर हैं तो
किसी मेज के नीचे बैठ जाएं अथवा किसी फर्नीचर या लकड़ी के तख्ते से खुद को कवर कर लें। इस अवस्था में तब तक बैठे रहें जब तक कि भूकंपन खतम न हो जाए। यदि टेबल या फर्नीचर न हो तो कमरे के कोने में बैठकर अपने हाथों से चेहरे व सिर को ढक लें।
कांच की खिड़कीयों, बाहरी दरवाजों और बिजली के उपकरण जो से दूर रहें।
अगर आप पलंग पर हैं तो वहीं रहें और अपने सिर को तकिए से कवर करें। यदि आप किसी ऐसी चीज के नीचे हैं जो गिर सकती है तो किसी नजदीकी सुरक्षित स्थान पर जाएं।
यदि आप जानते हैं कि दरवाजे की चौखट मजबूत है और भार संभाल सकती है तो उसकी ओट लें।
तब तक अंदर रहें जब तक कि भूकंप रुक न जाए और बाहर निकलना सुरक्षित न हो जाए। यह सिद्ध हो चुका है कि सबसे ज्यादा दुर्घटनाएं तब होती है जब लोग बाहर की ओर या बिल्डिंग में ही इधर-उधर भागते हैं।
ध्यान रखें कि बिजली चली गई हो और फव्वारे और फायर अलार्म चालू हों।
लिफ्ट आदि का उपयोग न करें।
यदि बाहर हैं तो यदि आप घर से बाहर हैं तो वहीं रुकें।
इमारतों, स्ट्रीट लाइटों और बिजली के तारों से दूर रहें।
यदि खुले में हैं तो भूकंप रुकने तक वहीं ठहरें। सबसे ज्यादा खतरा इमारतों के ठीक बाहर होता है, बाहरी दरवाजों पर या बाहरी दीवारों के निकट।
गाड़ी चलाते वक्त
जितनी जल्दी हो रुक जाएं और गाड़ी के अंदर रहें। इमारत के समीप, पेड़ के नीचे, फ्लाईओवर के नीचे और बिजली की तारों के नीचे रुकने से बचें।
सावधानी से आगे बढ़ें। उन सड़कों, पुलों और ढलानों से बचें जोकि भूकंप से क्षतिग्रस्त हो सकते हैं।
यदि मलबे के नीचे दबे हैं
माचिस न जलाएं
मलबे में हिलें और ढकेले नहीं।
अपने मुंह को रुमाल या कपड़े से ढकें।
पाइप अथवा दीवार पर ठकठकाएं ताकि सुरक्षा दल आपको ढूंढ सकें। यदि सीटी है तो उसका उपयोग करें। केवल तभी चिल्लाएं जब कोई और चारा न हो। चिल्लाने से आपके मुंह में धूल जा सकती है. Photo by Ekkadamaage.
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