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Thursday, June 10, 2010

ग्लोबल वार्मिग और कृषि

अभी हाल ही में जलवायु पर चर्चा करने के लिए कोपनहेगन में पूरा विश्व इकठ्ठा हुआ था। लेकिन सम्मेलन से ठोस कुछ भी हासिल नहीं हुआ। पहले भी क्योटो प्रोटोकाल के नाम से एक अंतरराष्ट्रीय संधि हो चुकी है। क्योटो प्रोटोकाल का लक्ष्य है वर्ष 2012 तक जीएचजी का उत्सर्जन 1990 के उत्सर्जन स्तर से नीचे ले जाना। यदि यह संधि सफल रहती है तो वायुमंडल में जीएचजी की मात्रा घटेगी और धरती का तापमान सामान्य हो जाएगा। लेकिन संधि असफल रही तो धरती की गर्मी में उत्तरोत्तर वृद्धि होगी।
कोपनहेगन जलवायु सम्मेलन में शामिल हुए भारत के विशेष दूत श्याम सरन के मुताबिक कोपनहेगन जलवायु सम्मेलन में कार्बन उत्सर्जन की कटौती के सिलसिले में आपसी सहमति के साथ कानूनी तौर पर बाध्यकारी फैसला होना चाहिए था। हालांकि सम्मेलन की कामयाबी को लेकर दुनियाभर में पहले से ही आशंकाएं थी। अमीर देशों ने सब कुछ पहले से तय कर रखा था। विकासशील देशों के सलाह के बिना ही ड्राफ्ट तैयार कर लिया। इस ड्राफ्ट के लीक हो जाने से विकासशील देशों में खलबली मची गई। जी-77 के अध्यक्ष सूडान के लुमुंबा स्टैनिसलैस डिया ङ्क्षपग ने कहा कि डेनमार्क की तरफ से पेश किया गया ड्राफ्ट बहुत ही खतरनाक और दुर्भाग्यपूर्ण है, इससे कोपनहेगन सम्मेलन असफल रहा।
ग्लोबल वर्मिग ने समूचे जलवायु चक्र को प्रभावित किया है। हम जानते है कि कृषि पूरी तरह से मानसून के मिजाज पर निर्भर करती है। अतिवृष्टि, सूखा और बाढ़ बदलते जलवायु की ही देन है, जिनसे कृषि प्रभावित होती है। इसका कोई स्थायी उपाय अब तक संभव नहीं हो सका।
कृषि अब पहले की तरह समृद्ध नहीं रही। किसान यह कहने पर मजबूर है कि अब कृषि की से कोई फायदा नहीं है। वह खेती करने की बजाय अन्य उद्यमों की ओर आकॢषत हो रहा है। क्योंकि खेती के लिए आवश्यक परिस्थितियों और संसाधनों का घोर अभाव है। ये परिस्थियां प्राकृतिक है,जो कृषि चक्र के लिए बहुत ही जरुरी है।

बीज बोते समय कृषि भूमि में कितनी नमी हो, कितनी गर्मी हो कि बीज बोया जाए, बीज बोने के उपरांत कितने समयांतराल पर कितना पानी उपलब्ध हो, एक समय इन चीजों के आधार पर किसान उपज का पूर्वानुमान लगाता था। लेकिन वर्तमान परिस्थितियों में किसान न तो पूर्वानुमान ही लगा पाते हैं और न ही इसे सुनिश्चित करने का कोई उपाय तलाश पाते हैं। इसकी प्रमुख वजह है जलवायु में हो रहा परिवर्तन, जिसके चलते बाढ़, सूखा जैसी प्राकृतिक आपदाओं ने तो कृषि को प्रभावित किया है। निरंतर घटता जा रहा भू-जल स्तर भी कृषि के लिए स्थायी समस्या बन चुका है। इससे पेय जल की समस्या तक खड़ी हो गई है।

कुछ साल पहले तक किसान या आम आदमी केवल इन समस्याओं से जूझता था, इन बदलती जा रही परिस्थितियों को महसूस करता था। लेकिन अब वह इसके पिछे छिपे जलवायु परिवर्तन की भूमिका को भी समझने लगा है। शिक्षित लोगों के अलावा एक अशिक्षित किसान भी आज इस बात को समझने लगा है कि धरती गर्म होती जा रही है। बीज के स्वस्थ अंकुरण के लिए आवश्यक पर्याप्त नमी और गर्मी का संतुलन कृषि भूमि में अब पहले जितना सहज नहीं रहा है। और रासायनिक उर्वरकों के इस्तेमाल ने फसल की गुणवत्ता के साथ-साथ भूमि की उपजाऊ शक्ति को भी किस हद तक प्रभावित किया है।

फसल की सिचाई के लिए पानी की अनुपलब्धता तो एक स्थाई समस्या बनती जा रही है। पिछले कुछ समय में पिघलते ग्लेशियर, बाढ़, भू-स्खलन, तूफान, समुद्री जलस्तर का बढऩा और भू-जलस्तर का नीचे गिरना ग्लोबल वाॄमग की ही देन है। एक रिपोर्ट के मुताबिक देश का 85 प्रतिशत हिस्सा प्राकृतिक आपदाओं के दायरे में आता है। 40 मिलियन हेक्टेयर जमीन बाढ़, 8 फीसदी चक्रवात और 68 फीसदी जमीन सूखे के दायरे में आती है। दूसरी ओर पिछले सौ सालों में देश में बाढ़, सूखा, भूकंप, तूफान, सूनामी और भू-स्खलन जैसी प्राकृतिक आपदाओं का ग्राफ लगभग सौ फीसदी की रफ्तार से बढ़ा है।

विश्व बैंक की रिपोर्ट के मुताबिक 1996 से 2000 के बीच देश को सकल घरेलू उत्पाद का 2.25 और राजस्व का 12.5 फीसदी हिस्से का नुकसान उठाना पड़ा। रिपोर्ट में इसकी मूल वजह भौगोलिक परिस्थितियों, संसाधनों की कमी, आपदाओं से लडऩे की तैयारियों में अभाव और जलवायु परिवर्तन को बताया गया है। हिमालय के 8 हजार ग्लेशियर जिस तेजी से पिघल रहे हैं उससे कृषि योग्य भूमि के डूबने की आशंका है। समुद्र का जल स्तर बढऩे से कई द्वीप और तटवर्ती इलाकों के जलमग्न होने और लोगों को अपनी जान बचाने का संकट भी है।

जलवायु परिवर्तन के बारे में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित आईपीसीसी के अध्यक्ष डॉ. आर.के. पचौरी के मुताबिक भारत सहित कई देशों की कृषि पैदावार जलवायु परिवर्तन की वजह से बुरी तरह प्रभावित होगी। गेहंू, चावल तथा दाल की पैदावार पर इसका ज्यादा प्रभाव पड़ेगा। यह स्पष्ट है कि भारत की अधिकांश आबादी का मुख्य भोजन, गेहंू, दाल और चावल ही है। इसलिए इस उत्पादन में होने वाली कमी से भारत में पडऩे वाले प्रभाव का अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है। इससे निजात पाने के लिए किसानों को जल तथा प्राकृतिक संसाधनों के संयमित दोहन की जरूरत है।

जिस प्रकार अधिकाधिक उपज प्राप्त करने की लालसा में भू-जल का दोहन और रासायनिक उर्वरकों का इस्तेमाल किया जा रहा है वह इस समस्या को और अधिक गंभीर बना रहा है। इसलिए अब किसानों को कृषि के तौर-तरीकों और फसल चक्र में बदलाव लाने की जरूरत है। कृषि के लिए उन तरीकों को अपनाया जाय जिसमें कम पानी और सूखे की स्थिति में पर्याप्त उपज प्राप्त किया जा सके। डॉ. पचौरी ने 2007 में अपनी चौथी मूल्यांकन रिपोर्ट में वैश्विक तापमान में 4 डिग्री सेल्सियस बढ़ोतरी की संभावना व्यक्त की है। इससे बारिश के पैटर्न में भारी बदलाव होगा। इसमें कोई संदेह नहीं की इसका विद्युत, जल संसाधन और जैव विविधता पर प्रभाव पड़ेगा। इसलिए यह जरुरी है कि रासायनिक उर्वरकों के इस्तेमाल को कम करते हुए जैविक खेती पर ध्यान दिया जाए। जैविक खाद के उपयोग से न केवल भूमि की उर्वरता बढ़ेगी बल्कि उसमें नमी की वजह से काफी हद तक सूखे की समस्या से भी निजात मिलेगी। वर्तमान में 180 लाख हेक्टेयर बंजर भूमि का भविष्य में संवद्र्धन करने में जैव उर्वरक एक प्रमुख भूमिका निभा सकते हैं।


औद्योगिकीकरण के नाम पर जंगलों को अंधाधुंध कटाई, पहाड़ों का कटाव और उसकी वजह से वर्षा चक्र में उत्पन्न

अनियमतता किसी से छुपी नहीं है। जिसका परिणाम भूमि के कटाव, भू-स्खलन के रूप में हमारे सामने है जो कृषि को प्रभावित करता है। वहीं दूसरी ओर ग्लोबल वाॄमग के चलते जिस गति से वाष्पीकरण और अन्य माध्यमों से जल का हनन हो रहा है उसके सापेक्ष जल संवद्र्धन, वर्षा जल एकत्रीकरण के उपाय नहीं किए गए हैं।

जंगलों की कटाई और औद्योगिकीकरण के चलते वायुमंडल में कार्बन उत्सर्जन व अवशोषन का समीकरण गड़बड़ाया है। जिसका एक मात्र उपाय ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन पर नियंत्रण है। इसके लिए ग्रीनर ट्रांसपोर्ट, भवन ऊर्जा का कुशल उपयोग, वैकल्पिक ऊर्जा का उपयोग और परमाणु ऊर्जा का उत्पादन बढ़ाने जैसे उपाय सुझाए गए हैं। लेकिन इसके साथ हमें वृक्षारोपण, परिस्थितिकी संतुलन और ऊर्जा संरक्षण पर भी जोर देना होगा।

ईंधन के रूप में बायो फ्यूल का उपयोग कु छ हद तक प्रदूषण में कमी लाएगा। लेकिन इससे बड़ा सवाल यह है कि बायो फ्यूल फसलें उगाने से हमारी खाद्दान्न उपलब्धता कितनी प्रभावित होगी, खासकर वर्तमान परिप्रेक्ष्य में। इस संदर्भ में विचार करना बहुत ही आवश्यक है क्योंकि सरकार द्वारा एथनॉल तथा जेट्रोफा की खेती पर पहले से ही काम किया जा रहा है।

वर्तमान में जलवायु परिवर्तन का जो स्पष्ट प्रभाव देखा जा रहा है वह खाद्दान्न असुरक्षा के रूप में सामने आ रहा है। वहीं प्राकृतिक संसाधनों के अत्यधिक दोहन और रासायनिक उर्वरकों के उपयोग से खाद्दान्न की गुणवत्ता प्रभावित हुई है। साथ ही तमाम किस्म की बामारियों का उद्भव भी हुआ है। जलवायु परिवर्तन मनुष्य के सर्वांगीण विकास के तत्वों—आजीविका, भोजन, स्वास्थ्य, संस्कृतिक और सामाजिक संबंधों—को नकारात्मक रूप से प्रभावित कर रहा है। इसके यथेष्ट समाधान के लिए आवश्यक है कि हम अपने अतीत के अनुभवों और ज्ञान से सबक लें और ऐसे उपायों पर ध्यान केंद्रित करें जो कि खाद्य सुरक्षा को सुनिश्चित करते हुए जलवायु परिवर्तन के लिए कारगर साबित हों।

भारत सरकार पहले ही कह चुकी है कि वह कार्बन उत्सर्जन में 25 फीसदी तक की कमी लाने का प्रयास करेगी। यह एक बहुत बड़ा कदम होगा, जिसे हासिल करना काफी मुश्किल होगा। वैसे कुछ छोटे-छोटे उपाय भी वैश्विक उष्णता को बढऩे से रोक सकते हैं। जरूरत केवल इंसानी जज्बे की है।
एक ताजा रिपोर्ट के मुताबिक ग्लोबल वाॢमंग की वजह सेे होने वाले बदलाव भविष्य में और अकस्मात तथा अप्रत्याशित होंगे। रिपोर्ट में अगाह किया गया है कि अमेरिका के पूर्वी तट पर समुद्र के जलस्तर में अचानक हुई बढ़ोतरी, कैलीफोॢनया के मौसम में बदलाव, भारत तथा नेपाल में मानसून के प्रभावित होने का करोड़ों डॉलर का नुकसान हुआ हुआ है। डब्ल्यूडब्ल्यूएफ के ग्लोबल क्लाइमेट इनीशियेटिव के प्रमुख किम कारस्टेनसेन के मुताबिक अगर हमने जलवायु परिवर्तन को लेकर त्वरित कदम नहीं उठाए तो हमें विध्वंसकारी परिणाम भुगतने होंगे।

क्या है ग्लोबल वाॄमग?

ग्लोबल वाॄमग धरती के वातावरण के तापमान में लगातार हो रही बढ़ोतरी है। धरती प्राकृतिक तौर पर सूर्य की किरणें से उष्मा प्राप्त करती है। ये किरणें वायुमंडल से गुजरती हुई धरती की सतह से टकराती है और फिर वहीं से परिवॢतत होकर पुन: लौट जाती है। धरती का वायुमंडल कई गैसों से मिलकर बना है जिनमें कुछ ग्रीनहाउस गैसे कार्बन डाई आक्साईड, मीथेन, क्लोरो फ्लोरो कार्बन आदि भी शामिल हैं। इनमें से अधिकांश धरती के ऊपर एक प्रकार से एक प्राकृतिक आवरण बना लेती हैं। यह आवरण लौटती किरणें के एक हिस्से को रोक लेता है। इस प्रकार धरती के वातावरण को गर्म बनाए रखता है। याद दिला दे कि मनुष्यों, प्राणियों और पौधों के जीवित रखने के लिए कम से कम 16 डिग्री सेल्शियस तापमान आवश्यक होता है। वैज्ञानिकों का मानना है कि ग्रीनहाउस गैसों में बढ़ोतरी होने पर यह आवरण और भी सघन होता जाता है। ऐसे में यह आवरण सूर्य की अधिक किरणें को रोकने लगता है। फिर यहीं से शुरू हो जाते हैं ग्लोबल वाॄमग के दुष्प्रभाव।

ग्लोबल वाॄमग की वजह

ग्लोबल वाॄमग के लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार तो मनुष्य और उसकी गतिविधियां ही हैं। मनुष्यजाति इन गतिविधियों से कार्बन डाईआक्साइड, मिथेन, नाइट्रोजन आक्साइड इत्यादि ग्रीनहाउस गैसो की मात्रा में बढ़ोतरी हो रही है जिससे इन गैसों का आवरण सघन होता जा रहा है। यही आवरण सूर्य की परावॢतत किरणों को रोक रहा है जिससे धरती के तापमान में वृद्धि हो रही है। वाहनों, हवाई जहाजों, बिजली बनाने वाले संयंत्रों, उद्योगों इत्यादि से अंधाधुंध होने वाले गैसीय उत्सर्जन, धुंआ निकालने से कार्बन डाइआक्साइड में बढ़ोतरी हुई है। जंगल कार्बन डाइआक्साइड की मात्रा की प्राकृतिक रूप से नियंत्रित करते हैं, लेकिन इनकी बेतहाशा कटाई से यह प्राकृतिक नियंत्रण भी हमारे हाथ से छूटता जा रहा है।

इसकी एक अन्य वजह सीएफसी है जो रेफ्रीजरेटर्स, अग्निशामक यंत्रों इत्यादि में इस्तेमाल की जाती है। यह धरती के ऊपर बने एक प्राकृतिक आवरण ओजोन परत को नष्ट करने का काम करता है। ओजोन परत सूर्य से निकलने वाली घातक पराबैंगनी किरणों को धरती पर आने से रोकती है। वैज्ञानिकों का कहना है कि इस ओजोन परत में एक बड़ा छिद्र हो चुका है, जिससे पराबैंगनी किरणें सीधे धरती पर पहुंच रही है। और इस तरह से उसे लगातार गर्म बना रही है।


यह बढ़ते तापमान का ही नतीजा है कि ध्रुवों पर सदियों से जमी बर्फ भी पिघलती जा रही है। विकसित हो या अविकसित देश, हर जगह बिजली की जरूरत बढ़ती जा रही है। बिजली के उत्पादन के लिए जीवाष्म ईंधन का इस्तेमाल बड़ी मात्रा में करना पड़ता है। जीवाष्म

ईंधन के जलने पर कार्बन डाइआक्साइड पैदा होती है जो ग्रीनहाउस गैसों के प्रभाव को बढ़ा देती है। इसका नतीजा ग्लोबल वाॄमग के रूप में सामने आता है।

ग्लोबल वाॄमग से कैसे बचें?


ग्लोबल वाॄमग के प्रति दुनियाभर में ङ्क्षचता बढ़ रही है। इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि संरक्षण के क्षेत्र में कार्य करने वाली संयुक्त राष्ट्र की संस्था ‘इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेंट चेंज’ (आईपीसीसी) को नोबेल शांति पुरस्कार मिल चुका है।
ग्लोबल वाॄमग रोकने के लिए पूरी दुनिया को एकजुट होकर निम्नलिखित प्रयास करने होंगे-

1. सभी देशों क्योटो संधि का पालन करें। इसके तहत 2012 तक हानिकारक गैसों के उत्सर्जन को कम करना होगा।
2. यह जिम्मेदारी केवल सरकार की नहीं है। हम सभी भी पेट्रोल, डीज़ल और बिजली का उपयोग कम करके हानिकारक गैसों को कम कर सकते हैं।
3. जंगलों की कटाई को रोकना होगा। हम सभी अधिक से अधिक पेड़ लगाएं, इससे भी ग्लोबल वाॄमग के असर को कम किया जा सकता है।
4. तकनीकी विकास से भी निबटा जा सकता है। ऐसे रेफ्रीजरेटर्स बनाए जाएं, जिनमें सीएफसी का इस्तेमाल न होता हो और ऐसे वाहन बनाएं जाएं, जिनसे कम से कम धुआं निकलता हो।


जलवायु परिवर्तन की वजह से फसलों के उत्पाद पर बुरा प्रभाव पड़ा है। एक रिपोर्ट के मुताबिक 2030 तक दक्षिण अफ्रिका में 30 फीसदी तक फसलों के उत्पादन में गिरावट आ सकती है। वहीं दक्षिण एशिया में चावल और मक्का का उत्पादन 10 प्रतिशत कम हो जाएगा।

कृषि का वातावरण पर प्रभाव-

केवल जलवायु ही कृषि को प्रभावित नहीं करती है, बल्कि कृषि भी जलवायु को प्रभावित करती है। कृषि के दौरान मीथेन, कार्बन डाईआक्साइड और नाइट्रस आक्साइड जैसी गैसे निकालती हैं, जो ग्रीन हाउस गैसे हैं। खेती के लिए जंगलों की कटाई की जाती है जिससे कार्बनडाइआक्साइड गैसे अवशोषित नहीं हो पाती। धान की खेती के दौरान 54 फीसदी मीथेन गैस निकलती है। खेती में उर्वरकों के इस्तेमाल से 80 फीसदी नाइट्रस आक्साइड निकलती है।

स्वामिनाथन और सिन्हा के रिपोर्ट के मुताबिक 2 डिग्री सेल्सियस तापमान बढऩे से चावल का उत्पादन 0.75 टन प्रति हेक्टेयर घट जाता है। वहीं 0.5 डिग्री सेल्सियस तापमान बढऩे से गहंू की पैदावार 0.45 टन प्रति हेक्टेयर तक कम हो जाती है। शशीधरन की रिपोर्ट के मुताबिक प्रत्येक डिग्री तापमान में बढ़ोतरी से चावल के उत्पादन में 6 डिग्री तक कमी आ जाती है.


सालाना ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन-

1. औद्योगिक प्रक्रिया-16.8 प्रतिशत
2. ट्रांसपोटेशन ईंधन-14.0 प्रतिशत
3. कृषि बायो प्रोडक्ट्स-12.5 प्रतिशत
4. फासिल फ्यूल -11.3 प्रतिशत
5. पावर स्टेशन-21.3 प्रतिशत
6. वेस्ट डिस्पोजल और ट्रीटमेंट से -3.4 प्रतिशत
7. भूमि—प्रयोग और बायोमास बॢनंग से -10 प्रतिशत
8. आवासीय, वाणिज्यिक और दूसरे स्रोतों से -10.3 प्रतिशत





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