लीबिया के तानाशाह कर्नल गद्दाफी की मौत की पूरी दुनिया में चर्चा है। सभी इस पर अलग अलग तरह सोच रहे हैं। कोई इसे तानाशाही का अंत कह रहा है तो कोई इसे तेल का खेल। कुछ लोगों का कहना है कि पश्चिमी देशों ने तेल के कुओं पर अधिकार पाने के लिए गद्दाफी विरोधी लोगों को सह दिया था।
कुछ लोगों का कहना है कि गद्दाफी के तानाशाही रवैये के कारण वहां के लोगों में गुस्सा था। जिसकी परिणती उसके मौत के रूप में हुई। लीबिया के तानाशाह की मौत से कायम हुए शांति की वजह से केवल लीबियाई ही खुश नहीं है, बल्कि यह लहर यूपी तक पहुंच गई है।
उत्तर प्रदेश के महाराजगंज जिले के रहने वाले 34 वर्षीय अरविंद जायसवाल को गद्दाफी की मौत से न तो खुशी है ना गम। उनको तो वहां फैले अराजकता और खूनखराबे से मिली निजात से खुशी है। उनको आज भी वो मंजर भुलाए नहीं भूलता। पिछले आठ महीनों तक लीबिया में गद्दाफी विरोधी हिंसक आंदोलन में फंसे अरविंद को भयंकर मानसिक और शारीरिक पीड़ा का शिकार होना पड़ा था। अपने दुख में वह अकेले थे। कोई नहीं साथ देने वाला था। यहां तक की दूतावास के भारतीय अधिकारियों से भी उनको कोई मदद नहीं मिली।
अपनी सारी उम्मीदें खो चुके थे, लेकिन तभी चमत्कार हुआ और उनको घर आने का मौका मिला। अंतत: 15 सितंबर की शाम घर लौट आए। जायसवाल के साथ तीन बांग्लादेशी नागरिकों को भी इस विध्वंशक परिस्थिती से मुक्ति मिली। ये इनके साथ लीबिया में काम कर रहे थे।
अरविंद ने कहा कि, "मुझे विश्वास नहीं हो रहा है कि मैं सुरक्षित हूं। वहां की सड़क के किनारे पर गोलीबारी एक आम नजारा था। भगवान का शुक्र है कि हम जिंदा बच कर आ गए।
18 जनवरी 2011 को लीबिया काम करने के लिए गए अरविंद अपने पीछे पत्नी सविता देवी और तीन बच्चों को छोड़ गए थे। उन्होंने कहा कि, ''वहां के हालात इतने खराब हैं कि हम अपने निवास में ही फंसे हुए थे। बाहर निकलने पर गोलिय़ों के शिकार होने का खतरा था। एक दिन कुछ बंदूकधारी हमारे घर आए। हमने उन्हें बताया कि हम पिछले दो दिनों से कुछ खाए नहीं हैं, तो उन्होंने हमें भोजन दिया और चले गए।''
अरविंद ने बताया कि, "पिछले तीन महीनों से हम लगातार भारत सरकार से भारतीय दूतावास के जरिए संपर्क में थे। लेकिन उनका कोई संतोषजनक जवाब नहीं मिलता था। मैं जिस कंपनी में काम करता था, उसी से वापस भारत जाने का अनुरोध किया तो उन्होंने मदद की और हम भारत लौटने में कामयाब रहे।
कटेंट साभार दैनिक साभार डॉट कॉम
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