मीडिया लोकतंत्र का चौथा खंभा है। वह अपनी भूमिका ठीक से निभाएगा तभी सरकारों और नेताओं को तकलीफ होगी। नेताओं को तकलीफ होगी तो लोकतंत्र जिंदा रहेगा। वरना नेता तो चाहते हैं कि लोकतंत्र सोता रहे।
नया-नया जर्नलिज्म में आया था। अयोध्या का आंदोलन उफान पर था। बनारस में दंगे हुए थे। मुझे कवर करने के लिए भेजा गया था। वहां कुछ वरिष्ठ पत्रकारों से बातचीत हो रही थी। वे कह रहे थे कि पत्रकारिता की नई गंगा अब बनारस से निकलेगी। दंगों के दौरान की रिपोर्टिंग देख मैं पहले से ही सदमे में था। सब के सब उग्र हिंदूवादी रंग मे रंगे थे।
रिपोर्ट के नाम पर अफवाहें खबर बन रही थीं। दिल्ली से जाने के बाद उन खबरों की पुष्टि मैंने कई बार करने की कोशिश की। हर बार प्रशासन ने कहा, तथ्यहीन। नामी-गिरामी अखबारों की खबर एक खास समुदाय को टारगेट करके, उनको विलेन बताने के मकसद से लिखी जाती थी। लौटकर मैंने एक छोटा-सा बॉक्स बनाया था, जिस पर एक अखबार के मालिक इतने नाराज हो उठे कि मेरी शिकायत संपादक से कर दी। संपादक जी की कृपा से मैं बच गया।
अयोध्या विवाद खत्म होते-होते मैं टीवी में आ गया। पहले सिर्फ दूरदर्शन था, सरकार का प्रेस रिलीज विभाग। निजी प्रोड्यूसरों ने खबरों को नया तेवर दिया। देखते-देखते दूरदर्शन के ये बुलेटिन फिनामिना बन गए। बुलेटिन से निकल कर टीवी चैनल में तब्दील हो गया। 2004 तक सब ठीक-ठाक चला। अचानक नंबर एक बनने की दौड़ शुरू हो गई और नई तरह की खबरों को परोसने का सिलसिला भी। सबसे पहले एमएमएस का बाजार गरम हुआ था।
हर चैनल पर एमएमएस की खबरें ही दिखने लगीं। अपराध जगत की खबरों को सनसनीखेज तरीके से पेश करने का अंदाज भी इस दौर में ईजाद किया गया। नाट्य रूपांतरण होने लगे। मुझे याद है इस बीच एक वीडियो क्लिप करीना और शाहिद कपूर का कहीं सेलफोन वाले के हाथ लग गया था। ‘लिप टू लिप किस’ एक चैनल पर चला तो दूसरे भी कहां पीछे रहते। न तस्वीर को धुंधला किया गया और न पहचान छिपाने की कोशिश। न्यूजरूम में पहली बार विरोध के स्वर संपादकों को सुनने पड़े। असल रिपोर्टर दंग थे। नकल रिपोर्टर मस्त।
किसी चैनल पर चला कि फलां आदमी शाम चार बजे मरने वाला है। ओबी वैन दौडऩे लगीं। बेशर्म होकर पत्रकारों ने दिन भर उस शख्स पर लाइव किया। किसी ने एक और खबर निकाल ली। एक शख्स यमराज से मिल कर आया था। उसका लाइव भी खूब हुआ। इस बीच पुनर्जन्म की भी लॉटरी निकल आई। स्टूडियो में ऐसे गेस्ट लाने के लिए चैनलों के बीच मारपीट होने लगी। मंदिर का रहस्य सफलता की गांरटी हो गया।
नंबर वन की रेस और तेज हुई तो सांप-बिच्छू और भूत-प्रेत ने सोनिया गांधी, मनमोहन सिंह, आडवाणी की जगह ले ली। एलियन भी टीवी पर छाने लगे। नंबर वन की इस रेस में जब कुछ चैनल कामयाब हुए तो बाकी चैनलों ने भी यही आसान रास्ता पकड़ लिया। अब न्यूजरूम में हर शख्स खबरों की जगह टीआरपी की जुगाड़ में लग गया। एडिट मीटिंग्स में खबरों की जगह आधे घंटे के प्रोग्राम की बात होने लगी। रिपोर्टर की जगह स्ट्रिंगरों ने ले ली। चैनल अब एडिटर के हाथ से निकल कर असिस्टेंट प्रोड्यूसर के हाथ में चला गया।
शायद ही कोई चैनल हो, जिसने ये रास्ता न पकड़ा हो या किसी न किसी रूप में इस रास्ते पर चलने की कोशिश न की हो। कुछ कामयाब थे और कुछ नाकामयाब। कोशिश सभी ने की थी। इन दिनों मंै अक्सर बनारस के उन दिनों को याद कर लिया करता था। खबरों की बलि तब भी चढ़ी थी। उस वक्त भी खबरों की जगह कहानी-किस्सों ने ली थी और इस दौर में भी। तब विचारधारा की आड़ में, इस दौर में टीआरपी की आड़ में बिसात बिछाई गई।
ऐसा नहीं था कि उस दौर में अच्छे अखबार और अच्छे पत्रकार नहीं थे। इस दौर में भी अच्छे चैनल और अच्छे पत्रकार थे। इस दौर में भी टीवी ने कुछ बहुत अच्छे काम किए थे। दहेज हत्या, स्त्री उत्पीडऩ, भ्रूण हत्या के खिलाफ जबरदस्त कैंपेन, सांप्रदायिकता का तगड़ा विरोध। दंगों को सनसनीखेज बनाने की कोशिश नहीं हुई। टीवी ने आम आदमी को बात कहने का एक मजबूत प्लेटफार्म दिया। घूस और भ्रष्टाचार के खिलाफ बड़े-बड़े स्टिंग ऑपरेशन किए गए। पहली बार मैंने कैमरे को देख कर पुलिस और नौकरशाहों को कांपते देखा।
देश के एक कोने के त्योहार को देश के दूसरे कोने तक पहुंचाने का काम भी टीवी ने किया। गुजरात का गरबा बिहार पहुंच गया और बिहार का छठ महाराष्ट्र। दही-हांड़ी की तस्वीरें पूरे देश को रोमांचित करने लगीं। टीवी ने करवाचौथ को फैशनेबल बना दिया। नए तरह के सांस्कृतिक धागे में पूरे देश को बांधने का काम टीवी ने किया। लेकिन एलियन और सांप ने ऐसा बदनाम किया कि टीवी वालों के लिए मुंह छिपाना मुश्किल हो गया।
हैरत की बात यह है कि जब तक टीवी राखी सावंत और राजू श्रीवास्तव में व्यस्त था, सरकार की नींद नहीं टूटी लेकिन जैसे ही टीवी ने मुंबई हमलों पर सरकार की धज्जियां उड़ानी शुरू कीं, सरकार को लगा टीवी हदें पार कर रहा है। रेगुलेशन की बहस गति पकडऩे लगी।
सरकार जानती है अखबार और प्रेस की ताकत। उसे ऐसा मीडिया अच्छा लगता है जो उसकी तरफ ध्यान न दे। वह टीआरपी के खेल में उलझा रहेगा तो सरकार की कमजोरियों को नहीं उघाड़ेगा। उसके घोटाले नहीं दिखाएगा। लेकिन, मुंबई हमले ने टीवी के दिमाग को बदला। मैं नहीं कहता कि सारे टीवी वाले बदल गए लेकिन कुछ लोग सोचने के लिए मजबूर हुए।
इंडस्ट्री के अंदरूनी दबाव ने भी धीरे-धीरे असर दिखाना शुरू किया। टीवी 2009 आने तक पटरी पर आता दिखा। अब सरकार के कान खड़े होने लगे। टीवी एक के बाद एक घोटालों को उजागर करने लगा। आईपीएल, कॉमनवेल्थ, आदर्श, २जी स्पेक्ट्रम घोटाले सामने आने लगे। टीवी ने बढ़-चढ़ के दिखाना शुरू किया। सरकार परेशान होने लगी। उसके खिलाफ माहौल बनने लगा। घाव में मिर्च लगी, जब अन्ना अनशन पर बैठे। टीवी ने उन्हें रातोरात उठा लिया।
अब टीवी पर लोकतंत्र विरोध के आरोप लगने लगे। रेगुलेशन की आवाज बुलंद होने लगी। कुछ ऐसे लोगों को छोड़ा जाने लगा, जो टीवी को जनहित विरोधी बताने लगे, सांप्रदायिकता बढ़ाने का दोष देने लगे। पत्रकार रिपोर्टर अपढ़ हो गए। जाहिल। लेकिन ये आरोप उन आरोपों से बेहतर हैं।
उन आरोपों को सुनकर शर्म आती थी और आज गर्व से सीना चौड़ा होता है। मीडिया लोकतंत्र का चौथा खंभा है। वह अपनी भूमिका ठीक से निभाएगा तभी सरकारों और नेताओं को तकलीफ होगी। नेताओं को तकलीफ होगी तो लोकतंत्र जिंदा रहेगा। वरना नेता तो चाहते हैं कि लोकतंत्र सोता रहे।
साभार: दैनिक भास्कर
2 comments:
mai aapke vicharo se puri tarha sehmat hu
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