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Tuesday, October 19, 2010

रच दिया इतिहास


19वें कॉमनवेल्थ गेम्स में पदकों का शतक लगाकर भारत ने इतिहास रच दिया है। पहली बार भारत ने पदक तालिका में दूसरा स्थान हासिल किया है। वह भी अंग्रेजों को पछाड़ करके। इस गेम्स में 38 स्वर्ण, 27 रजत और 36 कांस्य पदक मिले। गेम्स इतिहास पर नजर डालें तो भारत ने 1934 में हुए कॉमनवेल्थ गेम्स में कांस्य पदक जीत कर अपना खाता खोला था। पदकों का शतक लगाने में पूरे 76 साल लग गए।
अब बात करते हैं देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश की। यह ना जाने कितनी ही प्रतिभाओं को जन्म दे चुका है और ना जाने कितनी और प्रतिभाएं इसमें छुपी हैं । अलग-अलग क्षेत्रों से कितने ही दिग्गज इस प्रदेश का नाम देश-विदेश में रोशन कर चुके हैंं और आगे भी करते रहेंगे। चाहे वो राजनीति का अखाड़ा हो या फिर खेल का मैदान, सभी जगह से शोहरत ही बटोरी है।
इसी प्रदेश का एक और हिस्सा है, जहां कामयाबियों का सिलसिला बदस्तूर जारी है। जी हां पश्चिमी उत्तर प्रदेश। आज वेस्ट यूपी की तस्वीर बिलकुल बदल चुकी है। यहां से भी लोग देश विदेश में अपना और अपने इलाके का नाम रोशन कर रहे हैं । तरह तरह की प्रतिभाओं का हुनर रखने वाले ये लोग अब आगे आकर अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहे हैं। बात अगर वेस्ट यूपी से निकलती खेल हस्तियों की जाए तो भी यह पीछे नहीं है। अभी हाल ही में दिल्ली कॉमनवेल्थ गेम्स 2010 में मेरठ की अलका तोमर जिन्होंने महिला कुश्ती प्रतियोगिता 59 किग्रा.भार वर्ग में स्वर्ण जीतकर देश और राज्य दोनों का नाम रोशन किया। अलका को सन् 2007 में अर्जुन अवार्ड से भी सम्मानित किया जा चुका है। इसी तरह बागपत के दामाद इमरान हसन ने भी पुरुष 50 मी. राइफल तीन पोजीशन पेयर में स्वर्ण जीता। कामयाबी की स्याही से इतिहास के पन्नों पर रोज नए आयाम गढ़े जा रहे हैं।
अब बात करते हैं वेस्ट यूपी की उन प्रतिभाओं की जो तैयार हैं अपने जोश-ओ-खरोश के साथ किसी भी मुकाम को हासिल करने के लिए। मुजफ्फरनगर के बॉडी बिल्डर विकास चौधरी ने अपनी मेहनत और लगन के दम पर वल्र्ड बॉडी बिल्डिंग चैंपियनशिप में अपनी जगह बनाकर जिले का नाम रोशन किया है। लाखों दिलों की धड़कन क्रिकेट में भी वेस्ट यूपी पीछे नहीं है। अंडर-19 महिला क्रिकेट टीम के चयन में सहारनपुर की भावना तोमर को टीम का कप्तान बनाया गया है। निशानेबाजी में मुजफ्परनगर के नीरज राणा ने नौंवी निशानेबाजी स्टेट चैंपियनशिप में शानदार प्रदर्शन करते हुए एक स्वर्ण समेत पांच पदक हासिल किए।
प्रदेश में तैयार होती प्रतिभाओं की यह नई पौध आने वाले वक्त में खेल जगत के लिए वरदान साबित होंगी। अगर इनकी दिशा और दशा दोनों पर ध्यान दिया जाए तो कल ये भी देश का नाम रोशन करने में कोई कमी नहीं छोडेंगे। बशर्त कि राज्य और केंद्र सरकार दोनों इन पर ध्यान आकर्षित करे, और इनको आगे बढऩे का हौसला दें।
उत्तर प्रदेश की गणना राजनीतिक रूप से सशक्त राज्यों में की जाती है। इसने देश को कई प्रधानमंत्री सहित अनेक मजबूत राजनेता दिए हैं। पर इस प्रदेश में राजनेताओं की कमजोर इछाशक्ति के कारण यहां का चौमुखी विकास नहीं हो पाया। मसलन खेल को ही लें। प्रदेश से गिने-चुने खिलाड़ी ही नेशनल या इंटरनेशनल लेवल पर खेल पाएं हैं। वह भी अपनी बदौलत। उनकी उपलब्धी में प्रदेश सरकार का कोई रोल नहीं होता है। इस बार के कॉमनवेल्थ गेम्स का ही उदाहरण लें। इस गेम्स में यूपी के अलका तोमर (कुश्ती), ओंकार (निशानेबाजी), रेणु बाला (भारोत्तोलन) और इमरान हसन खान (निशानेबाजी) को स्वर्ण पदक मिला। रितुराज चटर्जी (तीरन्दाजी), सोनिया चानू (भारोत्तोलन) को रजत तथा आशीष (जिम्नास्टिक) में रजत और कांस्य पदक मिला है। इन सभी खिलाडिय़ों ने अपने दम इस पदक को हासिल किया है। इसमें सरकार का सहयोग नामात्र का ही रहा है। खिलाडिय़ों के पदक जीतने पर केवल मुक्तकंठ से सराहना करने वाली यूपी सरकार ने भारी दबाव के बीच आखिरकार पदक विजेताओं के लिए पुरस्कारों की घोषणा कर ही दी।
इस घोषणा के तहत पदक जीतने वाले उत्तर प्रदेश के मूल निवासी विजेताओं को कांशीराम अंतरराष्ट्रीय खेल पुरस्कार योजना के तहत पुरस्कृत किया जाएगा। इस पुरस्कार योजना के तहत खेलों की एकल प्रतियोगिताओं में स्वर्ण, रजत व कांस्य पदक जीतने वाले प्रदेश के मूल निवासियों को क्रमश 15 लाख, 10 लाख व आठ लाख रुपये दिये जाएंगे। वहीं टीम खेलों में स्वर्ण पदक के लिए 10 लाख रुपये, रजत के लिए आठ लाख रुपये और कांस्य पदक के लिए छह लाख रुपये दिये जाएंगे।
गौरतलब है कि ओलम्पिक, कॉमनवेल्थ एशियन, विश्व कप खेलों में पदक जीतने वाले यूपी के मूल निवासी खिलाडिय़ों को प्रोत्साहन देने के लिए राज्य सरकार ने कांशीराम अंतरराष्ट्रीय खेल पुरस्कार योजना शुरू की थी। योजना के तहत पुरस्कृत होने के लिए यूपी का मूल निवासी उस व्यक्ति को माना जाएगा जो यूपी का वास्तविक मूल निवासी है। यूपी के किसी मान्यताप्राप्त विद्यालय या महाविद्यालय या विश्वविद्यालय या स्पोर्ट्स हॉस्टल का कम से कम दो वर्ष तक छात्र रहा हो। किसी मान्यताप्राप्त शिक्षण संस्थान की तरफ से अंतरराष्ट्रीय खेलकूद प्रतियोगिताओं में भाग ले चुका हो या जो यूपी के किसी मान्यताप्राप्त क्रीड़ा संघ या स्पोर्ट्स बोर्ड द्वारा नामित होकर राष्ट्रीय खेलकूद प्रतियोगिता में प्रदेश का प्रतिनिधित्व कर चुका हो। इस शासनादेश के तहत किसी भी खिलाड़ी को उसके द्वारा एक से अधिक पदक जीतने की दशा में केवल एक पदक के अनुरूप पुरस्कार राशि दी जाएगी।
खेलों पर डोपिंग का 'डंक'
किसी भी देश के खिलाडिय़ों का डोपिंग में पकड़े जाना बहुत ही शर्म की बात है। इसका खामियाजा न सिर्फ खिलाडिय़ों को बल्कि उस खेल से जुड़ी फेडरेशन और देश को भी भुगतना पड़ता है। दिल्ली कॉमनवेल्थ गेम्स में डोपिंग केकई मामले सामने आए। पहला मामला था महिलाओं की 100 मीटर दौड़ में स्वर्ण पदक विजेता नाइजीरिया की ओसयेमी ओलुडमोला का। आस्ट्रेलिया की सैली पियर्सन को अयोग्य करार दिये जाने के बाद स्वर्ण पदक जीतने वाली ओसयेमी को शक्तिवर्धक दवा लेने के टेस्ट कारण पॉजीटिव पाया गया था। डोपिंग के दूसरे मामले में नाइजीरिया के ही 110 मीटर बाधा दौड़ के एथलीट सैमुअल ओकोन का डोप टेस्ट पॉजिटिव पाया गया है। ओकोन को मेथिलहेक्साएमीन लेने का दोषी पाया गया था। डोपिंग के तीसरे मामले में फंसी भारत की एथलीट रानी यादव। रानी यादव पैदल चाल स्पर्धा में छठे स्थान पर रही थी। पाजीटिव पाए जाने के बाद रानी को राष्ट्रमंडल खेलों से निलंबित कर दिया गया है।
सबसे ज्यादा शर्मनाक बात यह है कि भारत खुद आयोजक देश है। इससे लगता है कि कुछ खिलाड़ी न तो इस आयोजन को लेकर गंभीर हैं और न ही उन्हें देश की बदनामी की कोई परवाह है। खेलों में जब से डोप टेस्ट की व्यवस्था बनी है और उसे अनिवार्य किया गया है, तकरीबन सभी देशों में यह सावधानी बरती जाती है कि उनके खिलाड़ी गलती से भी वे प्रतिबंधित दवाएं नहीं लें जिनसे डोप टेस्ट में उन्हें पॉजिटिव पाए जाने की संभावना बने। लेकिन ऐसा लगता है कि कई खिलाड़ी अभी भी डोप टेस्ट को काफी हल्के में लेते हैं।
भारत की मेडलों की लिस्ट और लंबी होती अगर भारत के खिलाड़ी गेम्स शुरू होने से पहले ही टेस्ट में पॉजीटिव न पाए जाते। गेम्स शुरू होने से पहले ही पश्चिमी यूपी के जिला बागपत के पहलवान राजीव तोमर डोप टेस्ट में पाजीटिव पाए गए थे। पहलवान तोमर से भारत को गोल्ड की उम्मीद थी जो अधूरी रह गई।
खिलाड़ी सामान्य सर्दी जुकाम की दवाई लेते समय भी इस बात की सावधानी नहीं बरतते कि वह दवा प्रतिबंधित दवाओं की लिस्ट में है या नहीं। यह भी यकीनी बनाया जाना चाहिए कि खिलाडिय़ों के डोप में पॉजीटिव पाए जाने का असल गुनहगार कौन है। अगर कोच या टीम के डॉक्टर की तरफ से ऐसी लापरवाही हुई है, तो उन्हें भी दंडित किया जाना चाहिए। सिर्फ दोषी खिलाडिय़ों का निलंबन ही पर्याप्त नहीं है।

Monday, October 18, 2010

हैं तैयार हम...

महाआयोजन में शामिल होने वाले लोगों के चेहरों की चमक ने बता दिया कि कॉमनवेल्थ गेम्स का आयोजन न सिर्फ सफल रहा, बल्कि तमाम मानकों व सुविधाओं के नजरिये से भी पूरी तरह फिट। राष्ट्रमंडल खेलों के शानदार आगाज और समापन समारोह के बाद आलोचकों के सुर बदले हुए नजर आ रहे थे।

इंडिया एंड इंडियंस आर ग्रेट, यह कहना है राष्ट्रमंडल खेलों में शिरकत करने पहुंचे दुनियाभर की 71 टीमों के करीब तीन हजार सदस्यों का। जी हां, तमाम आलोचाओं और विवादों के बावजूद राष्ट्रमंडल खेलों के सफल आयोजन ने न सिर्फ विदेशी मीडिया, राजनीतिक बड़बोलों और आयोजन के लिए दूसरे देशों से सलाह लेने वालों, बल्कि पूरी दुनिया का मुंह बंद कर दिया है। महाआयोजन में शामिल होने वाले लोगों के चेहरों की चमक ने बता दिया कि कॉमनवेल्थ गेम्स का आयोजन न सिर्फ सफल रहा, बल्कि तमाम मानकों व सुविधाओं के नजरिये से भी पूरी तरह फिट। राष्ट्रमंडल खेलों के शानदार उद्घाटन और समापन समारोह के बाद आलोचकों के सुर बदले हुए नजर आ रहे थे। आलम यह है कि खेल शुरू होने से पहले तक जो आयोजन में लेट-लतीफी व बदइंतजामी का रोना रो रहे थे, आज वही इसकी भव्यता और उत्कृष्टता से अभिभूत हैं। इतना ही नहीं इसका श्रेय लेने से भी पीछे नहीं हट रहे। दूसरा गौर करने वाला पहलू है 2020 में ओलंपिक की मेजबानी के लिए भारत की दावेदारी और मजबूत होना। इससे आलोचना करने वाली विदेशी मीडिया और प्रतिद्वंद्वी भी सकते में हैं।
19वें दिल्ली कॉमनवेल्थ गेम्स-2010 के उदघाटन से पहले नकारात्मक प्रचार अभियान चला कर देशी व विदेशी मीडिया, विपक्षी नेताओं और तमाम आलोचकों ने देश की इज्जत पर बट्टा लगाने की कोशिश की। तीन अक्टूबर को उद्घाटन समारोह के भव्यतम आयोजन से लेकर 14 अक्टूबर की शाम रंगीन रोशनी में नहाए जवाहरलाल नेहरू स्टेडियम की अप्रीतम छटा तक का सफर इतना खूबसूरत और यादगार रहा कि तमाम नकारात्मक प्रचारक खुद ही इस महाआयोजन की कामयाबी के कसीदे पढऩे को मजबूर हो गए। जो लोग कल तक दिल्ली को बीजिंग से सीख लेने की नसीहत दे रहे थे, आज इस पड़ताल में जुटे हैं बीजिंग ओलंपिक को किस तरह 19वें कॉमनवेल्थ गेम्स से बेहतर बनाया जाए। भारत ने सफल आयोजन से न सिर्फ अपनी क्षमताएं साबित की हैं बल्कि यह भी जता दिया कि सिर्फ कॉमनवेल्थ ही नहीं भारत किसी भी बड़े आयोजन को सफलता के साथ पूरा करने का माद्दा रखता है। जी हां, कॉमनवेल्थ के सफल आयोजन के बाद अब एक ही सवाल है कि क्या हम ओलंपिक की मेजबानी के लिए भी तैयार हैं। भारतीय ओलंपिक संघ पहले ही अनौपचारिक ढंग से 2020 ओलंपिक खेलों की मेजबानी की दावेदारी के संकेत दे चुका है। अब भारत सरकार की ओर से इस पर सहमति मिलने का इंतजार है। दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने भी कहा है कि दिल्ली, ओलंपिक खेलों की मेजबानी के लिए तैयार है, लेकिन सबसे बड़ा सवाल भी यही है कि क्या सचमुच दिल्ली ओलंपिक खेलों की मेजबानी के लिए तैयार है?

यदि भारत में आयोजित हुए अंतरराष्ट्रीय स्तर के आयोजनों के इतिहास पर नजर डालें तो दिल्ली ने आजादी मिलने के चार साल से भी कम समय में 1951 में पहले एशियन गेम्स का सफल आयोजन किया था। फिर 1982 में 9 वे एशियन गेम्स का भव्य आयोजन दिल्ली में हुआ। दो एशियन गेम्स और फिर कॉमनवेल्थ गेम्स के आयोजन के बाद दिल्ली ने अपनी क्षमताओं का लोहा तो मनवा ही लिया है लेकिन एशियन या कॉमनवेल्थ गेम्स के मुकाबले ओलंपिक का स्वरुप काफी बड़ा है। कॉमनवेल्थ में जहां कुल 71 देश शामिल है। वहीं ओलंपिक में दुनिया के लगभग सभी 205 देश शामिल होते हैं। कॉमनवेल्थ में कुल 17 खेल शामिल है जबकि ओलंपिक में 30 से ज्यादा। इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि ओलंपिक खेलों के आयोजन में कितने वृहद पैमाने पर तैयारियों और आधारभूत सरंचनाओं की जरुरत पडेगी। दूसरी ओर ऐसे बडे आयोजनों का विरोध करने वाले लोग इसे भारत जैसे विकासशील देश के लिए पैसे की बर्बादी से ज्यादा कुछ नहीं मानते। उनका मानना है कि इन खेल आयोजनों पर हजारों करोड रुपया बहाने के बदले यही पैसा यदि देश के विकास में लगाया जाए तो करोडों देशवासियों को इसका लाभ मिलेगा। साथ ही अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत के खिलाडिय़ों की नाकामी का भी हवाला दिया जाता है। ओलंपिक खेलों के 114 साल के इतिहास में भारत ने अब तक कुल 20 पदक जीते हैं, जिसमें व्यक्तिगत स्वर्ण पदक मात्र एक है। आलोचकों का एकमात्र सवाल यही है कि खेलों में इस लचर प्रदर्शन के बल पर क्या आम जनता की गाढ़ी कमाई के हजारों करोड़ रुपये फूंक देना तर्कसंगत है?
इसमें कोई दो राय नहीं कि भारत विश्व पटल पर आज बड़ी तेजी से एक आर्थिक महाशक्ति के रुप में उभर रहा है। किसी भी बड़े अंतरराष्ट्रीय आयोजन की सफल मेजबानी का पूरा माददा हम रखते हैं। यदि ओलंपिक की मेजबानी हमें मिलती है तो हम इसका आयोजन भी पूरी सफलता के साथ कर सकते हैं लेकिन इससे जुड़े खर्च की उपयोगिता और प्रासंगिकता से जुड़े सवाल भी बेमानी नहीं हैं।
ओलंपिक खेलों की मेजबानी सौंपने के संबंध में अंतरराष्ट्रीय ओलंपिक संघ का कहना है कि मेजबानी किसी शहर को सौंपने का फैसला किसी भी खतरे को नजरअंदाज कर नहीं लिया जा सकता क्योंकि खेलों के इतने बड़े आयोजन में बहुत बड़ी जिम्मेदारी दांव पर लगी होती है। अंतरराष्ट्रीय ओलंपिक संघ के अध्यक्ष जैक्स रोगे का कहना है कि भले ही हमारी प्राथमिकता खेलों को दुनिया के हर छोर तक पहुंचाने की रही है लेकिन हमारी पहली चिंता खिलाडिय़ों के लिए सुरक्षित माहौल मुहैया कराने की है। ओलंपिक खेलों का एकमात्र उददेश्य है खिलाडिय़ों को विश्वस्तरीय अनुभव दिलाना। हमारी पहली प्राथमिकता होती है गुणवत्ता। यदि गुणवत्ता के लिए हमें अधिक विकसित देशों में जाना पड़े तो इसमें कोई बुराई नहीं है। खिलाडिय़ों के पास अपना सपना पूरा करने के लिए मात्र एक या दो मौके होते हैं। हम उन्हें यह नहीं कह सकते कि 'ओह, हमने इस बार किसी ऐसी वैसी जगह में खेलों का आयोजन कर लिया है अगली बार तुम्हें ज्यादा बढिय़ा मौका मिलेगा।Ó एक खिलाड़ी के लिए अगली बार कभी नहीं आता। लेकिन रोगे ने दिल्ली को सिरे से खारिज नहीं किया है। कुछ शुरुआती परेशानियों के बावजूद दिल्ली ने जिस भव्यता और दक्षता के साथ कॉमनवेल्थ गेम्स का सफल आयोजन किया हे, उससे रोगे काफी प्रभावित हैं। कॉमनवेल्थ गेम्स के उद्घाटन समारोह में शामिल होने के बाद उन्होंने फिर से दुहराया है कि भारत ने भविष्य में ओलंपिक की मेजबानी की दावेदारी के लिए मजबूत नींव रखी है। उनका कहना है कि 2004 के एथेंस ओलंपिक शुरू होने के पहले की स्थिति काफी डरावनी थी। लेकिन आखिरकार ग्रीसवासियों ने अपनी लगन और कड़ी मेहनत से एक सफल और अच्छे खेलों का आयोजन कर दिखाया। अंतिम समय में जाकर एथेंस ओलंपिक काफी सफल साबित हुआ। इसलिए दिल्ली में भी ऐसा हो सकता है।
कॉमनवेल्थ गेम्स के आयोजन के लिए दिल्ली में 15 विश्वस्तरीय स्टेडियम हैं जो अंतरराष्ट्रीय मानकों के अनुरुप हैं। इसके अलावा अन्य विश्वस्तरीय सुविधाएं यहां उपलब्ध हैं। राजधानी दिल्ली की गिनती दुनिया के कुछ गिने चुने शहरों में होती है। हाल ही में बना इंदिरा गांधी अंतरराष्ट्रीय हवाई अडडे का टी-3 टर्मिनल, आकार और सुवधिाओं के लिहाज से दुनिया के पांच बेहतरीन हवाई अडडों में शामिल है। हवाई मार्ग से दिल्ली दुनिया के हर कोने से सीधी जुड़ी है। मेट्रो टे्रन के विस्तार के बाद अब दिल्ली में भी सार्वजनिक परिवहन की विश्वस्तरीय सुविधा उपलब्ध है। सड़कों और फ्लाइओवरों के विस्तार से यातायात व्यवस्था बेहतरीन हुई है। दिल्ली के बाजारों की गिनती दुनिया के मशहूर बाजारों में होती है। यहां के पांच और सात सितारा होटलों की भव्यता और मेहमानवाजी की पूरी दुनिया कायल है। दिल्ली के लोगों ने अपने जोश, जूनून और अपनी मेहमानबाजी और अनुशासन की झलक इन कॉमनवेल्थ गेम्स के दौरान दुनिया को दिखा दी है। सितम्बर से लेकर मार्च तक दिल्ली का मौसम किसी भी तरह के आयोजन के लिए खुशगवार होता है। दिल्ली में मौजूद बुनियादी और स्वास्थ्य सुविधाएं किसी भी विकसित देश में उपलब्ध सुविधाओं को चुनौती देेने की स्थिति में हैं। इस तरह हम कह सकते हैं कि दिल्ली ओलंपिक खेलों की मेजबानी के लिए तैयार है।

ओलंपिक खेलों की मेजबानी करने को तैयार है दिल्ली

दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के मुताबिक दिल्ली ओलंपिक खेलों की मेजबानी कर सकती है। उनका कहना है कि दिल्ली में विश्वस्तर के स्टेडियम एवं अन्य आधारभूत ढांचे तैयार हो चुके हैं और दिल्ली को अब ओलंपिक की मेजबानी करनी है। हालांकि उन्होंने साफ तौर पर कहा है कि उन्हें तो पूरा भरोसा है लेकिन ओलंपिक गेम्स की मेजबानी का निर्णय अंतरराष्ट्रीय ओलंपिक समिति और भारत सरकार को करना है। मुख्यमंत्री ने यह भी कहा है कि कॉमनवेल्थ गेम्स के लिए किए गए तमाम विकास कार्यों के बाद दिल्ली ने अपने आप को इस स्थिति में खड़ा कर लिया है कि यदि ओलंपिक खेलों का यहां आयोजन होता है तो वे पूरी तरह तैयार है और अब उन खेलों के लिए कोई अलग से काम नहीं करना पडेगा क्योंकि हमारा बुनियादी ढांचा न केवल विश्वस्तरीय हो गया है बल्कि कई मायनों में हम कई देशों से आगे हो गए है। श्रीमति दीक्षित ने कहा कि ओलंपिक खेलों के लिए हमारी तरफ से पूरी तैयार है।
भारतीय ओलंपिक संघ और कॉमनवेल्थ गेम्स आयोजन समिति के अध्यक्ष सुरेश कलमाड़ी के मुताबिक कॉमनवेल्थ गेम्स की मेजबानी से दिल्ली बुनियादी ढांचे और सुविधाओं के मामले में पांच साल आगे निकल चुकी है और किसी भी बड़े आयोजन की मेजबानी का इसमें माद्दा है।

एक कदम आगे से साभार

Tuesday, October 5, 2010

दगाबाज 'ड्रैगन'

भारतीय सेना की उत्तारी कमांड के कमांडर लेफ्टिनेंट जनरल बीएस जसवाल को वीजा देने से इनकार कर चीन ने साफ कर दिया है कि उसकी दीर्घकालीन रणनीतिया मेलमिलाप की फौरी कोशिशों से प्रभावित नहीं होतीं। गुलाम कश्मीर में चीन के सैनिकों का जमावड़ा भी इसकी पुष्टि कर रहा है। चीन ने जनरल जसवाल को वीजा देने से यह कहकर इनकार किया है कि वह विवादास्पद कश्मीर में तैनात हैं। जनरल जसवाल जनरलों के स्तर पर होने वाली रक्षा वार्ताओं की प्रक्रिया में शामिल होने वाले थे। जनरल जसवाल को जवाब देकर चीन ने द्विपक्षीय वार्ताओं की गरिमा को कम कर दिया है। शायद वह वार्ताओं का एजेंडा, भागीदारी और स्वरूप तय करने को अपना एकाधिकार समझता है। कश्मीर को लेकर चीन के रवैये में पिछले दो-एक सालों में आया बदलाव बताता है कि भारत के संदर्भ में चीन की विदेश नीति का एक बड़ा हिस्सा पाकिस्तान के हितों को ध्यान में रखते हुए संचालित हो रहा है।
चीन मुद्दे पर पूरी बात से पहले एक पॉलिटिकल फ्लैश बैक। 1958 में जी. पार्थसारथी को चीन में भारत का राजदूत बनाया गया था। पार्थसारथी ने अपनी डायरी में लिखा है-चीन रवाना होने से पहले वह 18 मार्च 1958 को प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू से रस्मी मुलाकात करने गए। पार्थसारथी के मुताबिक नेहरू ने कहा था-'तो जीपी जैसा कि फॉरेन ऑफिस ने तुमको बताया होगा 'हिंदी चीनी भाई-भाई', तुम इस पर यकीन नहीं करना। पंचशील और दीगर बातों के बावजूद मैं चीनियों पर यकीन नहीं करता। चीनी मगरूर, मक्कार, धोखा देने वाले वाले हैं। इनपर यकीन नहीं किया जा सकता है।'
सब जानते हैं कि 1962 में अपने भारत दौरे के दस दिन बाद ही तब के चीनी प्रधानमंत्री ने हिंदुस्तान पर हमले का आदेश दे दिया था। इस दगाबाजी से पंडित नेहरू को गहरा सदमा लगा। पहले तो उन पर फालिज का असर हुआ। फिर कुछ दिन बाद हार्ट अटैक, जिसने उनकी जान ले ली।
यह सब बताने का केवल इतना मतलब हैै कि चीन काफी लंबे वक्त से हमें धोखा दे रहा है। इस सच्चाई से हमारे हुक्मरां वाकिफ भी हैं। पेइचिंग तब से छल कर रहा है, जब से मुल्क पर अंग्रेजों की हुकूमत थी। अरुणाचल प्रदेश, असम और कश्मीर के कई हिस्सों में उसकी दखलंदाजियों पर ब्रिटिश सरकार ने इसलिए कोई तवज्जो नहीं दी, क्योंकि उनके लिए इन जगहों की कोई अहमियत नहीं थी। दूसरे वह चीन से उलझना नहीं चाहते थे। तो इस तरह भूखा ड्रैगन लगातार हमारी जमीने हड़पता रहा है। वैसे तो चीन भारत की लाखों स्वक्वायर किलोमीटर जमीन दबाए बैठा है, लेकिन हाल के दिनों में जिस तरह उसने पाकिस्तान के साथ साठगांठ कर पाक के कब्जे वाले इलाके में सड़क, सुरंग और रेल लाइन बिछाने का काम शुरू किया है, वह काबिल-ए गौर है। पीओके के गिलगिट और बाल्टिस्तान में चीन के ग्यारह हजार फौजी तैनात हो चुके हैं। बड़े-बड़े अर्थ मूवर, बुलडोजर और खुदाई की दीगर मशीनें गिलगिट पहुंचाई जा रही हैं। इस इलाके में आम पाकिस्तानियों को जाने की मनाही है।
आजकल पाकिस्तान और चीन में काफी छन रही है। दरअसल, गिलगिट और बाल्टिस्तान में चीन और पाकिस्तान की अपनी-अपनी जरूरतें हैं। इन दोनों इलाके में पाकिस्तान सरकार के खिलाफ लोगों में बहुत गुस्सा है। और उनकी नाराजगी का लावा बहकर अक्वाम-ए-मुत्ताहिदा तक पहुंचे। पाकिस्तान सरकार उसको दबा देना चाहती है, भले ही इसके लिए उसे चीन की मदद लेनी पडï़े। चीनी आर्मी की वहां मुस्तैदी की वजह भी शायद यही है। दूसरे पाकिस्तान को चीन से एटमी तकनीक चाहिए। चीन के भी ढेरों मतलब उस इलाके में है। गिलगिट और बाल्टिस्तान में वह जो सुरंगें बिछा रहा है, उसका सीधा मतलब खाड़ी के मुमालिक से गैस और दीगर पेट्रोलियम अशिया की सप्लाई का रास्ता हासिल करना है। इसके साथ ही चीन अपने यहां बने खिलौने, इलेक्ट्रानिक्स के साज-ओ-सामान और कपड़े सीधे खाड़ी के मुल्कों तक पहुंचा सकेगा।
गिलगिट और बाल्टिस्तान में चीन की चहलकदमी का खुलासा करने वाले अमेरिकी अखबार 'द न्यूयार्क टाइम्सÓ को शक है कि चीन गिलगिट और बाल्टिस्तान में जो सुरंगें बना रहा है, उनमें से कुछ का इस्तेमाल वह फौजी साज-ओ-सामान और हथियार छिपाने के लिए भी कर सकता है। पड़ोसी और उसकी नजर में उसका दुश्मन नंबर वन भारत का आगे बढऩा उसे रास नहीं आ रहा है। भारत में आईटी और आउटसोर्सिंग पर मजबूत पकड़ ने चीन को चिढ़ा दिया है। चीन चाहता है कि आर्थिक विकास को छोड़ हिंदुस्तान अंदेशों में घिरा रहे। फौजी तैयारियों में अपना वक्त और पैसा जाया करे। शायद यही वजह है कि चीनी सरकार हिंदुस्तान को नीचा दिखाने और परेशान करने का कोई मौका चूकता नहीं। कुछ ही महीने पहले की बात है, चीन ने अपनी ऑफिशियल वेबसाइट पर एक संदेश जारी किया था, जिसमें सह गया था कि भारत कमजोर जम्हूरियत है। ऐसे हालात में इसे टुकड़ों में बांटा जा सकता है। इसके बाद शरारत की वहां के सरकारी अखबार पीपुल्स डेली ने। इस अखबार की वेबसाइट पर संदेश डाला गया, 'भारत पर चीन के हमले के कितने इम्कानात हैं।Ó वैसे तो यह जताने के लिए यह संदेश जारी किया गया कि कुछ देश चीन और हिंदुस्तान के बीच जंग छिड़वाना चाहते हैं। क्यों जंग चाहते हैं, इसका कोई जिक्र अखबार ने मुनासिब नहीं समझा। इस आर्टिकल पर चीनी अवाम की राय भी मांगी गई। रायशुमारी में आधे से ज्यादा लोग हमले का समर्थन किए।
चीन जम्मू-कश्मीर को लेकर बड़ी सधी हुई चालें चल रहा है। वह हिंदुस्तान के इस हिस्से को विवादित राज्य मानता है, लेकिन खुलकर नहीं कहता। इसके पीछे बड़ी साफ वजह है। भारत का अक्साई चिन इलाका चीन के कब्जे में है। इसके अलावा 1963 से पचास हजार स्क्वैयर मील शक्सगाम इलाके को चीन ने पाकिस्तान से हड़प लिया है, वह जम्मू-कश्मीर का ही हिस्सा है। अब अगर चीन जम्मू-कश्मीर को भारत का विवादित हिस्सा मानता है, तो उसे शक्सगाम और अक्साई चिन पर से अपने दावों को खारिज करना होगा।
कश्मीर को लेकर चीन घिनौनी चाले चलता रहा है। चीन की इन तमाम कारस्तानियों को समझने के लिए हमें इतिहास के पन्ने पलटने होंगे। तिब्बत पर चीन पिछले कई सौ सालों से अपने पैने दांत पेवस्त किए हुए है। कभी एक बहाने तो कभी दूसरे, वह वहां अपने दखल को बनाए रखने में कामयाब होता रहा है। आजादी के बाद हिंदुस्तान ने मान लिया था के तिब्बत चीन का ही हिस्सा हैै। पता नहीं वह कौन-सी मजबूरी थी कि 1954 में पंडित जवाहर लाल नेहरू ने इसकी पुष्टी भी कर दी थी। गाहे-बगाहे नई दिल्ली पेइचिंग को बताता रहता है कि तिब्बत को लेकर उसके नजरिये में कोई बदलाव नहीं आया है। जब-जब चीन की सरकार ने भारत में रह रहे रूहानी गुरु दलाई लामा पर ऐतराज जताया, अपने जवाब में भारत यह बात नत्थी करना नहीं भूूला कि तिब्बत को लेकर उसके नजरिये में किसी तरह का बदलाव नहीं आया है। दरअसल चीनी दलाई लामा को पनाह दिए जाने के मसले पर भारत से बुरी तरह चिढ़ा हुआ है। हिंदुस्तान में रहते हुए दलाई लामा चीन की सरकार के खिलाफ जो मुहिम चला रहे हैं, उससे पूरी दुनिया में चीन की किरकिरी हो रही है। जाने-अंजाने दलाई लामा कई बार चीन के खिलाफ अमेरिकी कूटनीति की वजह बन जाते हैं। हॉलीवुड अभिनेता रिचर्ड गेर सबसे ज्यादा बार दलाई लामा से मिल चुके हैं। चीन चाहता है कि भारत दलाई लामा को ल्हासा लौटने पर मजबूर कर दे, लेकिन नई दिल्ली अपने स्टैंड पर कामय है कि दलाई लामा जब तक चाहें हिंदुस्तान में रह सकते हैं। भारत की यह नीति चीन को चिढï़ाए हुए है।
जहां तक सरहदी झगड़ों का सवाल है, चीन बड़ी चालाकी भरे कदम उठा रहा है। कुछ साल पहले तक भारत का कोई भी नेता अरुणाचल प्रदेश के दौरे पर चला जाए तो चीन की पेशानी पर बल पडï़ जाते थे। फिर उसे लगा कि अरुणाचल के लोगों का रुझान तो पूरी तरह हिंदुस्तान की तरफ है, सो उसने धीरे-धीरे कर अरुणाचल पर अपने दावे से पीछे हटना शुरू कर दिया। साथ ही उसने उकसाने वाली शरारतें भी जारी रखीं। चीन ने अरुणाचल और लद्दाख में एलओसी पर कब्जे की कोशिशें और घुसपैठ की साजिशों को अंजाम देना शुरू कर दिया। आप को याद होगा कि कुछ दिन पहले, इन इलाकों की चट्टानों पर दर्ज पाया गया था-पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चायना। साथ ही उसने अपने चरवाहों को भारत की सरहद की तरफ भेजने की कोशिशें भी कीं। चूंकि हिंदुस्तानी फौज चीन के खेल को समझ रही है, इसलिए भड़कने के बजाय वह मामले को फ्लैग मीटिंग्स में उठा रही है।
अमेरिका एशिया के इस हिस्से में हो रही तमाम हलचलों पर पैनी नजर रखे हुए है। पेंटागन की हर हरकत पर नजर है। पेटांगन की यह रिपोर्ट परेशान करने वाली है कि चीन ने भारत से जुड़ी सरहदी चौकियों पर तैनात पुरानी मिसाइलों को हटाकर नए वर्जन की मिसाइलें भेजी हैं। कुछ लोगों को इस रिपोर्ट में अमेरिकी चालबाजी की बू मिल रही है। उनका मानना है कि दक्षिण एशिया में चीन की जबरदस्त फौजी तैयारियों का खौफ दिखाकर वह भारत को हथियार बेचने की जमीन तैयार कर रहा है।

बदलते रिश्ते

भारतीयों के लिए चीन का बार-बार बदलता रुख एक अजीब किस्म की पहेली है। 1988 में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गाधी की चीन यात्रा के समय दोनों देशों के शत्रुतापूर्ण संबंधों में बदलाव आना शुरू हुआ था। उसी वर्ष सीमा विवाद का हल सुझाने के लिए संयुक्त कार्यबल बना। सन 1993 में उन्होंने आपसी तनाव घटाने और वास्तविक नियंत्रण रेखा का सम्मान करने पर सहमति जताई और 1996 में आपसी विश्वास बहाली के उपाय करने पर। अगर 90 के दशक से तुलना करें तो भारत और चीन के संबंधों में अहम बदलाव आ चुका है। आज चीन भारत का सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार भी है।

बार-बार शत्रुतापूर्ण व्यवहार

वर्ल्ड एक्सपो-2010 शंघाई में भारतीय पैवेलियन में घुसकर चीनी अधिकारियों ने भारत की प्रचार सामग्री जब्त कर ली थी, क्योंकि उसमें भारत के मानचित्र थे। यह बात जुलाई, 2010 की है। मुद्दा अरुणाचल प्रदेश का था। लेकिन चीनी अधिकारियों का बर्ताव बेहद गैरजिम्मेदाराना था। चाहते तो वे एक पत्र लिखकर नाराजगी जताते, परंतु उन्होंने बिना बात करे सीधे कार्रवाई कर दी।
इसके पहले भी चीनी सेना के जवान हिमाचल प्रदेश के स्पीति और जम्मू-कश्मीर के लद्दाख-तिब्बत में घुसपैठ कर स्थानीय लोगों को डरा-धमकाकर हमारे इलाके में अपने निशान छोड़ कर जा चुके हैं। इन सभी घटनाओं के बाद भी केंद्र सरकार चीन-भारत संबंधों में कोई खटास आई हो ऐसा नहीं मानती, यह आश्चर्य है। चीन विश्व ताकत बनने के सपने लगातार देख रहा है। वह अमेरिका की भी परवाह न करते हुए अपने सपनों को अंजाम देने में लगा हुआ है।
सामरिक संबंधों में वह पाकिस्तान के अधिक करीब आ रहा है। यदि पाकिस्तान और चीन मिलकर भारत को चुनौती देते हैं, तो यह बड़ा अंतरराष्ट्रीय मुद्दा बन सकता है। इसमें भारत को अमेरिका की मदद की आवश्यकता जरूर पड़ेगी। भारत के विदेश नीति-नियंताओं को चाहिए कि चीन की हर गतिविधि पर वे खुफिया नजर रखें। और समय रहते ठोस कार्रवाई करें वरना देश के लिए यह स्थिति बड़ी घातक है।

Monday, October 4, 2010

सहकारी बना सरकारी

हम अन्नदाता हैं, लेकिन हमारे पेट खाली हैं। भूख इतनी की आत्महत्या तक से गुरेज नहीं। बच्चे न तो स्कूल जा पा रहे हैं और न विकास की दौड़ से कदम मिला पा रहे हैं। आंकड़ों पर गौर करें तो बीते दो दशक में हजारों अन्नदाता, अन्न की कमी के कारण काल के गाल में समा गए। किसान को कभी वक्त पर खाद-बीज नहीं, तो कभी फसल का खरीददार नहीं मिलता। विकास को योजनाएं बनीं तो बहुत, पर धरातल पर सब फुस्स साबित हुई। किसानों को आर्थिक रूप से मजबूत बनाने के लिए साठ के दशक में सहकारी आंदोलन की शुरूआत हुई। किसानों ने इसे एक पहल के रूप में देखा। सुखद कल की उम्मीद भी जगी। पर करीब 45 साल बीतने के बाद क्या हकीकत में किसान मजबूत हो पाया? क्या उसे उसकी फसल की सही कीमत मिल पाई? क्या सहकारी आंदोलन और समितियों ने दलालों की ताकत कम की? इन सभी सवालों के जवाब खोजती मुकेश कुमार गजेंद्र की रिपोर्ट :-

अपने देश को 'भारतÓ और 'इंडियाÓ दो नामों से पुकारा जाता है। 'इंडियाÓ, जो शाइन कर रहा है। जहां दमकते मॉल्स में थिरकती जिंदगियां आबाद रहती हैं। जहां करोड़पतियों और अरबपतियों की संख्या तेजी से बढ़ रही है। वहीं 'भारतÓ, जो आज भी गांवों का देश है। जिसकी 70 फीसद जनसंख्या गांवों में रहती है। जहां के बड़े-बड़े महानगरों में किसी कोने-किनारे पर बसी झुग्गियां हैं, जहां गांवों से रोजगार की तलाश में आए लोग रहते हैं, जहां बिजली, पानी या स्वास्थ्य की सुविधाओं का खस्ताहाल है। जहां मानवाधिकारों की हालत चिंताजनक है। जहां देश का भविष्य कहे जाने वाले नौनिहाल शिक्षा से फिलहाल वंचित हैं। सहकारिता का वास्तविक संबंध इसी दुनिया से है।
सहकारी आंदोलन के विकास की गति बहुत धीमी रही है। अनेक विद्वानों और समितियों ने सहकारी आंदोलन की कमजोरियों की जांच की। कुछ ने तो इसके सुधार या इसकी पुनर्रचना के सुझाव भी दे डाले। जिस तरीके से विकास कुछ दूसरे क्षेत्रों में एकांगी हो गया, कुछ उसी तरीके से सहकारिता क्षेत्र में भी हुआ। मसलन, खेल को ही लें। तमाम छोटी-बड़ी और सरकारी-गैरसरकारी कोशिशों के बावजूद क्या हम क्रिकेट के अलावा अन्य खेलों में भी विश्वस्तरीय पहचान बना पाए? हो सकता है कि एकाध खिलाडिय़ों ने विश्व-स्तरीय नाम कमाया हो, लेकिन क्रिकेट के सूर्य के आगे ये शायद कुछ-कुछ जुगनुओं की ही तरह हैं। क्या वजहें हुआ करती हैं कि हम फुटबाल के विश्व कप में प्रदर्शन नहीं कर पाते? यहां सवाल जनता में लोकप्रियता का है। और यह छोटी बात नहीं है। इसी तरह हमारे यहां सहकारी आंदोलन जनता के बीच सहज रूप से विकसित नहीं हुआ। स्वेच्छा से प्रेरित न होने की वजह से जनता ने अपनी जरूरतों के लिए समितियों के गठन में तेजी नहीं दिखाई। इनका स्वरूप कुछ ऐसा रहा कि एक आम किसान मानता रहा कि सहकारी साख समितियां आमतौर पर कर्ज देने वाली सरकारी एजेंसियां ही हैं।

असफलता की वजह

यदि हम सहकारिता के आर्थिक आंकड़ो को छोड़ कर वास्तविक रूप में उसकी समीक्षा करें तो पाएंगे कि देश के कई भागों में आज भी इसका विस्तार नहीं हो पाया है। लगभग 40 से 50 फीसद ग्रामीण परिवार अभी भी सहकारी समितियों के क्षेत्र से बाहर है। सहकारी समितियो में आपसी वाद-विवाद बढ़ते जा रहे है। राजनीतिक प्रभाव इनमें दृष्टिगत हो रहा है। यद्यपि समितियों ने देश के आर्थिक विकास में विशेष रूप से ग्रामीण विकास में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है, लेकिन इसके बावजूद भी ये अनेक क्षेत्रों में दोषपूर्ण रही हैं। सहकारी समितियों की असफलता का एक ये महत्वपूर्ण कारण यह रहा है कि इन समितियों में प्रशिक्षित व कुशल प्रबंधा का अभाव रहा है। फलस्वरूप इनकी आय, व्यय, ऋण आदि के हिसाब में अनियमितताएं एवं अन्य अनेक कमियां परिलक्षित होती हैं। सहकारी समितियों का उद्देश्य आर्थिक के साथ-साथ सामाजिक व नैतिक विकास करना भी था, लेकिन देखने में यह आया है कि ये सहकारी समितियां मात्र वित्तीय समितियां बन कर रह गई है, इनके द्वारा सामाजिक व नैतिक विकास का लक्ष्य अधारा रह गया है। सहकारी साख समितियों के पास पर्याप्त संसाधानों की कमी है। कई जगह वित्तीय संसाधानों ग्रामीण किसानों एवं कारीगरों को उपलब्धा करायी गईं, वह अपर्याप्त रूप में रहीं।
प्रमुख कमजोरियां निम्नलिखित प्रकार से हैं -
- साहूकारों को अभी तक समाप्त नहीं किया जा सका है।
- सहकारी समितियों को वित्त की कमी का सामना करना पड़ रहा है।
- यह आंदोलन विपणन और विधायन के पारस्परिक संबंधों को समझने में नाकाम रहा।
- इन्हें-सरकारी अभिकरणों और निहित स्वार्थों से गलाकाट प्रतिस्पर्धा झेलनी पड़ी है।
- इसका प्रबंध और नेतृत्व प्राय अकुशल और दोषपूर्ण ही रहा।

सहकारिता विभाग

कृषि एवं सहकारिता विभाग, कृषि मंत्रालय के तीन संघटक विभागों में से एक है। दो दूसरे विभाग हैं- पशुपालन एवं डेयरी विभाग और कृषि अनुसंधान एवं शिक्षा विभाग। राज्यमंत्री की सहायता से कृषि मंत्री विभाग का काम-काज देखते हैं। कृषि एवं सहकारिता सचिव इस विभाग के प्रशासनिक प्रमुख हैं और विभाग में नीति और प्रशासन संबंधी सभी मामलों में मंत्री के प्रमुख सलाहकार हैं। इस विभाग में चौबीस प्रभाग और एक तिलहन, दलहन तथा मक्का से जुड़ा प्रौद्योगिकी मिशन है।
कृषि एवं सहकारिता विभाग देश की भूमि, जल, मिट्टी और पौध संसाधनों के अनुकूलतम उपयोग के जरिये तेज कृषि वृद्धि और विकास हासिल करने के लिए प्रयास करता है। यह किसानों को आदानों और सेवाओं जैसे (कृषि ऋण, उर्वरक, कीटनाशक, बीज, कृषि उपस्कर वगैरह) की आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए प्रयास भी करता है। फसल बीमा से संबंधित योजना चलाना, खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करना या किसानों को लाभकारी मूल्य दिलाना। सहकारिता से जुड़ी सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि विभाग समुचित नीतिगत उपायों तथा राष्ट्रीय सहकारी विकास निगम (एन.सी.डी.सी.), भारतीय राष्ट्रीय कृषि सहकारी विपणन संघ (नेफेड) और भारतीय राष्ट्रीय सहकारी संघ (एन.सी.यू.आई) जैसे संगठनों के माध्यम से सहकारी आंदोलन को मजबूत बनाने के उपाय भी करता है।

सहकारी समितियां

सहकारिता को शुरू में ग्रामीण इलाकों के दलित वर्गों की प्रगति के एक उपाय के रूप में देखा गया था। कृषि हमारी अर्थव्यवस्था की रीढ़ है और एक आम किसान की जिंदगी और जीविका खेती-किसानी से ही चलती है। सहकारी समितियां हमारी खेती-किसानी और ग्रामीण अर्थव्यवस्था के आर्थिक विकास को बढ़ावा देने के लिए एक पद्धति हैं। बेहद महत्वपूर्ण संस्थानिक पद्धति। ये तमाम आर्थिक गतिविधियों में लगी हुई हैं। मसलन- कर्जों के वितरण में, बीजों, उर्वरकों या कृषि आदानों के वितरण में या फिर कृषि उत्पादों के विपणन, भण्डारण या प्रसंस्करण में।
सहकारिता समितियों का शोषण रहित चरित्र या 'एक आदमी एक वोटÓ का सिद्धांत कुछ ऐसी बातें थीं जो इन्हें चौतरफा विकास का एक उपकरण बना सकती थीं। पर ऐसा हुआ नहीं। आज सरकार खुद स्वीकार करती है कि इनमें संगठनात्मक दुर्बलताओं और क्षेत्रीय असंतुलन जैसी कुछ कमियां रह गईं। हमारी सरकार मानती है कि ऐसी कमियों का कारण अत्यधिक संख्या में सुषुप्त या निष्क्रिय किस्म की सदस्यता, सरकारी सहायता पर निर्भरता और बढ़ती हुई अतिदेयताएं हैं। हालांकि कमियों की वजहें सिर्फ इतनी ही नहीं हैं। कुछ दूसरे कारण भी हैं। इन्हें जानना इसलिए जरूरी है ताकि इन कारणों को दूर किया जा सके। फिर धीरे-धीरे कमियों से छुटकारा पाया जा सके। सदस्यों से कम डिपाजिट की व्यवस्था कर पाना या व्यावसायिक प्रबंध का अभाव कुछ दूसरे कारण हैं।
सरकार का यह कदम प्रशंसनीय है जिसमें सहकारी समितियों के पुनरोद्धार के लिए ठोस उपाय किए गए हैं। इसमें इन समितियों को जीवंत लोकतांत्रिक संगठन बनाने के साथ-साथ सदस्यों की सक्रिय भागीदारी पर जोर दिया गया था। यू.पी.ए. सरकार के राष्ट्रीय साझा न्यूनतम कार्यक्रम में इस बात का उल्लेख किया गया है कि यूपीए सरकार सहकारी समितियों की लोकतांत्रिक, स्वायत्तशासी और व्यावसायिक कार्यप्रणाली सुनिश्चित करने के लिए संवैधानिक संशोधन प्रस्तुत करेगी। दिसंबर 2004 में राज्य सहकारी मंत्रियों के सम्मेलन इस विषय पर महत्वपूर्ण चर्चा
प्रस्ताविक संवैधानिक संशोधन करने और सहकारी समितियों पर महत्वपूर्ण प्रभाव डालने वाले अन्य संबंधित विषयों पर चर्चा करने के लिए दिसंबर 2004 में राज्य सहकारी मंत्रियों का सम्मेलन भी आयोजित किया गया था। सम्मेलन में जिन प्रस्तावों को स्वीकार कर लिया गया है, वे निम्नलिखित हैं-
1. संविधान में संशोधन करना
2. सहकारी आंदोलन के सामने खड़ी विभिन्न चुनौतियों पर विचार करने के लिए और आंदोलन को नई दिशा प्रदान करने के लिए एक उच्च स्तरीय समिति का गठन करना।

बहरहाल साझा कार्यक्रम की प्रतिबद्धताओं के अनुसरण में सहकारी समितियों में संवैधानिक संशोधन करने वाला प्रस्ताव अभी कृषि एवं सहकारिता विभाग के विचाराधीन है। सहकारी समितियों संबंधी एक उच्च अधिकारिता समिति का भी गठन किया गया है। यह इसकी सांस्थानिक मौजूदगी के सौ सालों के दौरान सहकारी आंदोलन की उपलब्धियों, इसके समक्ष की चुनौतियों और उनको पूरा करने के लिए उपायों की समीक्षा करेगी। समिति आंदोलन के लिए भी सुझाव देगी।

उत्तर प्रदेश में सहकारिता

सहकारी साख अधिनियम 1912 के लागू होने के साथ पूरे देश में सहकारी समितियों के गठन की प्रक्रिया से सहकारी आंदोलन की शुरुआत हुई थी। बाद में उत्तर प्रदेश सहकारी समिति अधिनियम 1965 बनाया गया। इसे 1968 में लागू किया गया।
उत्तर प्रदेश में सहकारी आंदोलन के माध्यम से संचालित योजनाएं निम्नलिखित प्रकार से हैं-

1- सहकारी ऋण एवं अधिकोषण योजना
इस योजना के अंतर्गत किसानों को कृषि विकास के लिए उचित दर पर ऋण उपलब्ध कराया जाता है। यह ऋण प्रदेश स्तर पर शीर्ष बैंक, जिला स्तर पर जिला सहकारी बैंक और पंचायत स्तर पर सहकारी समितियों द्वारा उपलब्ध कराया जाता है।

2- सहकारी कृषि निवेश योजना
किसानों को कृषि कार्य में सहूलियत के लिए न्यूनतम दर कृषि निवेश उपलब्ध कराया जाता है। इसके तहत रासायनिक उर्वरक जैसे यूरिया, डीएपी, एनपीके और एमएपी आदि उपलब्ध कराई जाती है।

3- सहकारी शिक्षा प्रशिक्षण प्रसार
इस योजना के तहत सहकारी विभाग कार्यरत सदस्यों की कार्यकुशलता बढ़ाने के लिए प्रशिक्षण देने का कार्य किया जाता है।

4- सहकारी क्रय-विक्रय योजना
किसानों को बिचौलियो से बचाने और उचित मूल्य दिलाने के लिए सहकारी क्रय-विक्रय समिति का गठन किया गया। इस योजना के तहत जिला स्तर पर 57 जिला सहकारी संघ और तहसील स्तर पर 258 क्रय-विक्रय समितियां गठित हैं।

5- सहकारी उपभोक्ता योजना
इस योजना के तहत 2347 सहकारी समितियों द्वारा उपभोक्ता सामग्री की आपूर्ति की जा रही है। इसमें से 1768 समितियां ग्रामीण क्षेत्र में तथा 579 समितियां नगर क्षेत्र में कार्यरत हैं।

प्रदेश की प्रमुख सहकारी संस्थाएं

उत्तर प्रदेश कोआपरेटिव यूनियन लिमिटेड, सहकारी संघ, कोआपरेटिव बैंक लिमिटेड, सहकारी ग्राम विकास बैंक लिमिटेड, उपभोक्ता सहकारी संघ लिमिटेड, सहकारी श्रम एवं निर्माण संघ लिमिटेड, सहकारी विधायन एवं शीतगृह संघ लिमिटेड, आलू विकास एवं विपणन सहकारी संघ लिमिटेड फतेहगढ़, राज्य भंडारण निगम

सबसे बड़ा सहकारी क्षेत्र

भारत का सहकारी क्षेत्र संसार के सबसे बड़े सहकारी क्षेत्रों में आता है। आंकड़ों की बात करें तो ताजी जानकारी के मुताबिक 31 मार्च 2003 की स्थिति के हिसाब से हमारे यहां तकरीबन साढ़े पांच लाख सहकारी समितियां हैं। इनकी सदस्यता 22.95 करोड़ से ज्यादा है और कार्यशील पूंजी करीब 38,000 हजार करोड़ रुपये से अधिक है। सहकारिता के अंतर्गत लगभग सौ फीसदी गांव कवर किए गए हैं। करीब तीन-चौथाई ग्रामीण परिवार सहकारी संस्थाओं के सदस्य हैं।
देश की लगभग 50 फ़ीसदी चीनी उत्पादन में सहकारी समितियों योगदान देती हैं। दरअसल, विभिन्न पंचवर्षीय योजनाओं में सहकारी समितियों को सार्वजनिक और निजी क्षेत्र के बीच संतुलन की जि़म्मेदारी सौंपी गई थी। सन् 1963 में केंद्रीय आपूर्ति और सहकारिता मंत्रालय ने राष्ट्रीय सहकारिता विकास निगम का गठन किया था ताकि वह सहकारिता आंदोलन को बढ़ा सके। दूध के क्षेत्र में खेड़ा सहकारी दु्ग्ध उत्पादन संघ (अमूल) की सफलता को देश के अन्य हिस्सों में दोहराने के लिए 1965 में राष्ट्रीय डेयरी विकास बोर्ड का गठन किया गया। अब मदर डेयरी जैसे संगठन इसका हिस्सा हैं। अमूल ने तो सफलता के झंडे गाड़ दिए हैं और इसकी श्वेत क्रांति में अहम भूमिका रही है। बारह हज़ार से अधिक गांवों के 26 लाख से अधिक किसानों की सदस्यता वाली इस संस्था ने सहकारिता के क्षेत्र में दुग्ध उत्पाद में इतिहास रचा है। सहकारी समितियों ने खेती के आधुनिक तरीकों के इस्तेमाल में मदद की है। 1990-91 में इन समितियों ने कुल कृषि ऋणों का 43.4 फीसदी मुहैया कराया। किसानों को भण्डार सुविधाएं मिलीं। इसने शहरी क्षेत्रों में लोगों के लिए जमीन और मकान की व्यवस्था की। कमजोर वर्गों को सेवाएं उपलब्ध कराने का जरिया बनीं। बाद के दिनों में कभी सफलता के झंडे गाडऩे वाली सहकारी समितियां का राजनीतिक अदूरदर्शिता तथा अकुशल प्रबंधन की वजह से पतन होने लगा।

सहकारिता में महिलाएं

आधी दुनिया को छोड़कर कोई क्षेत्र विकास नहीं कर सकता। महिलाओं के संबंध में विकासात्मक गतिविधियों की दरकार है। अनौपचारिक दृष्टिकोण के जरिए महिलाओं को निचले स्तर से सहकारी क्षेत्रों में लाने की जरूरत है। इसके साथ-साथ सामूहिक गतिविधियों में महिलाओं की सहभागिता को बढ़ावा दिया जाना भी अनिवार्य है। भारतीय राष्ट्रीय सहकारी संघ सहकारिता की दृष्टि से अल्पविकसित राज्यों में सहकारी शिक्षण में तेजी लाने से संबंधित विशेष स्कीम भी चला रहा है। चार विशेष महिला विकास परियोजनाएं शिमोगा (कर्नाटक), बहरामपुर (उड़ीसा), मणिपुर (इम्फाल) और भोपाल (मध्य प्रदेश) में चलाई जा रही हैं। इनका लक्ष्य चुनिंदा प्रखंडों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति में सुधार लाना है।
इसके अलावा प्रत्येक क्षेत्रीय परियोजना में एक-एक महिला विकास घटक भी शामिल किया गया है। इस कार्यक्रम के अंतर्गत महिलाओं को स्व-सहायता दलों के रूप में संगठित किया जाता है और उनको सहायता दी जाती है जिससे उनमें बचत करने की प्रवृत्ति पैदा हो सके।
राष्ट्रीय सहकारी विकास निगम से सहायता प्राप्त करने के लिए विशेष तौर पर महिला सहकारी समितियों को प्रोत्साहित किया गया है।

ग्रामीण विकास में योगदान

भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में तो सहकारिता की भावना कूट-कूट कर भरी हुई है। यह बात अलग है कि इस भावना में निरंतर कमी होती जा रही है जिसका कारण यह है कि समाज का ढांचा व्यक्तिवादिता की ओर बढ़ रहा है। वर्तमान में समूह के स्थान पर व्यक्तिगत भावना का बोलबाला अधिक है, जिसका प्रभाव सहकारिता पर पड़ रहा है। सहकारी समितियों को महत्व विकास कार्यक्रमों के संचालन में अधिक है। साथ-साथ काम करने से जहां एक ओर काम बंट जाता है, तो इसका प्रभाव उत्पादन एवं उत्पादकता पर भी पड़ता है। इन समितियों की एक विशिष्ट विशेषता यह होती है कि इसमें आर्थिक हितों के साथ-साथ सामाजिक एवं नैतिक हितों पर भी धयान दिया जाता है। सहकारी समितियों का उद्देश्य होता है कि वे न्यूनतम लागत पर अधिकतम सुविधााएं अपने समुदाय के लोगों को सुलभ कराएं।
आज की व्यक्तिवादी अर्थव्यवस्था में सहकारिता का महत्व अधिक बढ़ गया है। आर्थिक विकास की गति को तीव्र करने में इसका महत्व विशेष रूपसे रहा है। विगत चार दशकों में सहकारिता ने ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है। देश के आर्थिक एवं सामाजिक विकास के लिए जिन प्रमुख संस्थाओं की आवश्यकता महसूस की गई, उसमें सहकारी समिति प्रमुख हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में सहकारी समितियों की स्थापना का मतलब है कि ग्रामीण निर्बल व्यक्ति भी अपना विकास करने में समर्थ हो जाते हैं क्योंकि इन समितियों का सदस्य बनने में धानी व निर्धान के बीच कोई भेदभाव नहीं किया जाता । सभी को समान अवसर,अधिकार व उत्तरदायित्व प्राप्त होते हैं। सहकारी समितियों का समाज में इसीलिए अधिक महत्व है, क्योंकि यह संगठन शोषण रहित सामाजिक आर्थिक व्यवस्था स्थापित करने में सहायक है। ग्रामीण समुदाय में सहकारिता का लाभ विशेष रूप से मिलता है क्योंकि देश का ग्रामीण क्षेत्र विकास की धारा में पीछे रह जाता है। इस प्रकार आर्थिक विकास को इन क्षेत्रोंमें तीव्र करने का यह मुख्य साधान है। इन समितियों के माधयम से ग्रामीण क्षेत्रों को बहुत लाभ होते है,जैसे-सस्ती साख,ग्रामीण एवं लघु उद्योगों का विकास,कृषि का विकास, फिजूल खर्ची में कमी, संपत्ति का समान वितरण, सामाजिक कल्याण, श्रमिकों के साथ अच्छे संबंधा, आर्थिक सुरक्षा आदि। सहकारिता के विश्लेषण से ग्रामीण विकास में उसकी समर्पित भूमिका परिलक्षित होती है।

सहकारिता के जनक

विश्व में सहकारिता का जनक राबर्ट ओवेन को माना जाता है। 14 मई 1771 को जन्मे ओवेन एक समाज-सुधारक एवं उद्यमी थे। उनकी गणना समाजवाद एवं सहकारिता आन्दोलन के संस्थापकों में की जाती है। उन्होंने सहकार को व्यावहारिकता के धरातल पर साकार करने की कोशिश अपनी पूरी ईमानदारी और सामथ्र्य के साथ की। अपने विचारों के लिए सदैव समर्पित भाव से काम करता रहा। हालांकि उसे अंतत: असफलता ही हासिल हुई; मगर तब तक दुनिया सहकार के सामथ्र्य से पूरी तरह परिचित हो चुकी थी।
ओवेन का उद्देश्य मात्रा आर्थिक-सामाजिक विषमताओं का निर्मूलीकरण नहीं था, बल्कि समाज के चरित्र में परिवर्तन के माध्यम से मनुष्य की सहयोगकारी प्रवृत्ति को सभी कर्तव्यों के लिए नियामक बनाना था। ओवेन को एक ओर जहां सहकारिता आंदोलन का पितामह होने का गौरव प्राप्त है, वहीं शिशु पाठशालाओं को आरंभ करने का श्रेय भी उसी को जाता है। ओवेन ने सहकारी आंदोलन का सूत्रपात किया, किंतु आजीवन कोशिश तथा तमाम संसाधनों को झोंक देने के बाद भी उसे अपेक्षित सफलता नहीं मिल पाई थी। कारण संभवत: यह रहा कि समाज के बाकी लोगों का विश्वास जिनसे वह सहकार की अपेक्षा रखता था, जिनके माध्यम से आंदोलन को आगे बढ़ाना चाहता था और कदाचित जिन्हें उसकी सर्वाधिक आवश्यकता भी थी, उनका विश्वास जीत पाने में वह असमर्थ रहा था।
राबर्ट ओवेन ने सहकरिता के क्षेत्र में मौलिक प्रयोग किए। उसने अपनी मिलों में काम करने वाले कारीगरों को मानवीय वातावरण प्रदान करने की कोशिश की। मजदूर बच्चों को शिक्षा देने के लिए पाठशालाएं खुलवाईं, इसीलिए उसको सहकारिता के साथ-साथ शिशु शिक्षा केंद्रों का जनक भी माना जाता है। ओवेन के प्रयासों का मजदूरों की ओर से भी स्वागत किया गया, जिससे उसका उत्पादन स्तर लगातार बढ़ता चला गया। यहां तक कि इंग्लैंड में आई भयंकर मंदी के दौर में उसकी मिलें मुनाफा उगल रही थीं। उनीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में सहकारिता आंदोलन को पूरे विश्व में प्राथमिकता मिलने के पीछे एक कारण सरकारों का यह डर भी था, कि बढ़ती लोकचेतना के दबाव के आगे आम नागरिकों की उपेक्षा लंबे समय तक कर पाना संभव न होगा। क्योंकि उन्हीं दिनों राजनीति पर अस्तित्ववादी एवं साम्यवादी विचारों की झलक साफ दिखने लगी थी।

सहकारिता का विकास

सहकारिता समितियों के विषय में कहा जाता है कि ये 'समान आर्थिक कठिनाइयों का सामना करने वाले व्यक्तियों के ऐसे संगठन हैं, जिसमें समान अधिकारों एवं उत्तरदायित्वों के आधार पर स्वेच्छापूर्वक मिलकर इसके सदस्य कठिनाइयों को दूर करने का प्रयास करते हैं। इस प्रकार बनाए गए समूह के संचालन का आधार सदस्यों के परस्पर सहयोग में निहित होता है और इस प्रक्रिया में शामिल जोखिम भी उन्हीं का होता है। इसका भौतिक एवं नैतिक लाभ संगठन के सदस्यों को बराबर मिलता रहे, ऐसी अपेक्षा होती है।Ó
हालांकि 20 वीं सदी के आरंभिक वर्षों में जब देश को अकाल के भीषण दौर से गुजरना पड़ा तो प्राचीन सहकारिता की स्थापित परिपाटी को नई जरूरत और समय के साथ स्थापित करना आवश्यक हो गया। 1901 अंग्रेजों ने अकाल आयोग का गठन किया। 1901 में अकाल आयोग की रिपोर्ट एवं एडवर्ड मैक्लेगन की सिफारिशों के आधार पर एडवर्ड ला की अध्यक्षता में अंग्रेजी सरकार ने सहकारी साख समितियों के गठन पर मुहर लगा दी। सन् 1903 में सेन्ट्रल असेम्बली में एक बिल लाया गया। 1904 में 'सहकारी साख अधिनियमÓ अस्तित्व में आया। भारत में नए सहकारिता आंदोलन का आरंभ कृषि एवं इससे संबंधित सहायक क्षेत्रों से माना जाता है।
1904 में बने सहकारी साख अधिनियम के बाद भारतीय सहकारिता आंदोलन की हवा चली। इस अधिनियम का उद्देश्य किसानों, कारीगरों तथा सीमित साधानों वाले व्यक्तियों में बचत, स्व-सहायता तथा सहकारिता की भावना को जागृत करना था, जिससे वे निर्धनता से उबर सकें। इस अधिनियम की कमियों में सुधार हेतु Óसहकारी समिति अधिनियम 1912? पारित किया गया। वर्ष 1914 में एडवर्ड मैक्ग्लेन की अध्यक्षता में बनाई गई समिति की सिफारिशों के आधार पर किसी भी सहकारी समिति के गठन में पूरी तरह से सावधानी बरतने की बात कही गई। सन् 1919 तक सहकारिता की जड़ें और भी मजबूत होने लगी थीं। इसी वर्ष सहकारिता को मोंटेग्यू चेम्सफोर्ड रिपोर्ट में राज्य के विषय के रूप में शामिल कर लिया गया और उन्हें अपनी सुविधानुसार कानून बनाने का अधिकार भी दे दिया गया।
भारतीय सहकारिता आंदोलन में सहकारी समितियों की अहम् भूमिका मानी जाती है। भारत का सहकारी क्षेत्र विश्व के वृहदतम सहकारी क्षेत्रों में शुमार किया जाता है। मार्च 2003 के आंकड़ों के मुताबिक 5.41 लाख समितियां भारतीय सहकारी क्षेत्र का हिस्सा थीं, जिनकी पहुंच देश के शत् प्रतिशत गांवों तक बताई जाती है। इन समितियों के 22.15 करोड़ सदस्य होने की बात भी कही जाती है।
1954 में 'आल इंडिया रूरल क्रेडिट सर्वे कमेटीÓ की रिपोर्ट में सहकारी समितियों द्वारा उपलब्ध कराए जाने वाले ऋण को ग्रामीण आर्थिक संरचना के सुदृढ़ीकरण की दिशा में महत्वपूर्ण बताते हुए इसमें सरकार की भागीदारी की सिफारिश भी की गई थी। सन् 1958 में राष्ट्रीय विकास परिषद ने सहकारिता को लेकर एक राष्ट्रीय नीति बनाने की अनुशंसा की और इस तरह से भारतीय सहकारिता आंदोलन गति पकडऩे लगा था। 1950-51 में सभी प्रकार के सहकारी संस्थानों की संख्या 1.81 लाख आंकी गई। जबकि, 1996-97 में 4.53 लाख संस्थानों के होने की बात कही जाती है। इसी तरह इन समितियों के सदस्यों में भी खासी बढ़ोत्तरी देखने को मिलती है। इसी कालखंड में सदस्यों की संख्या 1.55 करोड़ से बढ़कर 20.45 करोड़ हो गई।
इस विशेष और विशाल सहकारी आंदोलन को सरकारी समर्थन देने के लिए 'राष्ट्रीय सहकारी विकास निगमÓ का गठन किया गया है। निगम का उद्देश्य कृषि सहकारी समितियों को सुदृढ़ और विकसित करना है और उनकी आय को बढ़ाने के लिए फसलोपरांत सुविधाएं मुहैया करवाना है। निगम ग्रामीण क्षेत्रों में कृषि आदानों, प्रसंस्करण, भंडारण एवं कृषि उत्पादों के विपणन तथा उपभोक्ता वस्तुओं की आपूर्ति संबंधी कार्यक्रम पर ध्यान दे रहा है। गैर कृषि क्षेत्र में कमजोर तबकों को प्रोत्साहन देने के लिए भी निगम प्रयासरत है।
इसके लिए वह हथकरघा, कुक्कुट पालन, मात्स्यिकी, अनुसूचित जनजाति की सहकारी समितियों से संबंधित कमजोर वर्गों पर विशेष ध्यान दे रहा है। 'राष्ट्रीय सहकारी विकास निगमÓ (संशोधान) अधिनियम, 2002 के पारित हो जाने के पश्चात 'राष्ट्रीय सहकारी विकास निगमÓ का कार्यक्षेत्र बढ़ गया है। इसमें पशुधन, कुक्कुट और ग्रामीण उद्योग, हस्तशिल्प, ग्रामीण शिल्प तथा कुछ अधिसूचित सेवाओं को भी शामिल कर लिया गया है। इस अधिनियम के तहत सहकारी समितियों को ज्यादा स्वायत्तता दी गई है।
इसी दिशा में एक और पहल के रूप में राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के परामर्श से केंद्र सरकार ने राष्ट्रीय सहकारिता नीति तैयार की है। इसका उद्देश्य देश में सहकारी समितियों के चौतरफा विकास को बढ़ावा देना है। इसके अंतर्गत सहकारिताओं को आवश्यक समर्थन, प्रोत्साहन और सहायता दी जाएगी ताकि वे स्वायत्तशासी, आत्मनिर्भर और लोकतांत्रिक संस्थाओं के रूप में कार्य कर सकें। वे अपने सदस्यों के प्रति पूर्ण रूप से जवाबदेह हों। वे राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में, विशेषकर देश में गरीबी रेखा के नीचे रहने वाले बड़े वर्ग (जिनके लिए सार्वजनिक भागीदारी और सामुदायिक प्रयासों की जरूरत होती है) के उत्थान में एक विशेष योगदान कर सकें।
सहकारी साख (नाबार्ड), सहकारी विपणन (नैफेड), खाद एवं प्रसंस्करण सहकारिता (कृभको, इफको), दुग्ध सहकारिता (अमूल), महिला सहकारिता (एनएफआईसी), आदिवासी सहकारिता (ट्राइफेड), खाद्य सहकारिता (फिश काफेड), श्रमिक सहकारिता (नेशनल फेडरेशन आफ लेबर को-आपरेटिव) और सहकारिता संगठन (एनसीडीसी तथा एनसीयूआई), भारत में सहकारिता की सफलता की गाथा दर्ज करवा चुके हैं। सहकारी समितियों के उत्थान के लिए उनमें समयबद्धता, पारदर्शिता, व्यवहारशीलता तथा सहभागिता का समावेश होना आवश्यक है। गांवों और किसानों के विकास के सपने को साकार करने के लिए 11वीं पंचवर्षीय योजना में सहकारिता को अधिक महत्व दिया जाएगा। कृषि ऋण को बढ़ावा देने के लिए सहकारिता एक बेहतर माध्यम है। सहकारिता कृषि और ग्रामीण विकास एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। कृषि ऋण के विभिन्न आयामों मसलन-क्रेडिट, उत्पादन, प्रसंस्करण, मार्किटिंग, इन्पुट्स का वितरण, हाउसिंग, डेयरी और टेक्सटाईल इत्यादि में आज सहकारी संस्थानों की महत्वपूर्ण भागीदारी है।
कुछ क्षेत्रों जैसे-डेयरी, शहरी बैंकिग एवं आवास, चीनी तथा हैण्डलूम इत्यादि में सहकारी संस्थानों ने अपनी उपलब्धि दर्ज करवाई है। देश में सहकारी आंदोलन की असफलता के पीछे इसके सदस्यों की निष्क्रियता एवं प्रबंधन में सक्रिय सहभागिता का अभाव रहा है। सहकारी साख समितियों की उधारी बाकी, आंतरिक संसाधनों को इक_ा करने की इच्छाशक्ति का अभाव, सहकारी सहायता पर अधिक निर्भरता, व्यावसायिक प्रबंध तंत्र का अभाव, प्रशासनिक अंकुश, प्रबंधन में अनावश्यक सरकारी दखलंदाजी भी इसकी असफलता के लिए कम दोषी नहीं हैं। निहित स्वार्थी लोगों के सहकारी समितियों पर छाए रहने के कारण भी आम लोगों तक सहकारी आंदोलन का प्रभाव महसूस नहीं होता। इस कारण यह अपने उद्देश्य को पाने में असफल रहती है। इस आंदोलन को जन-जन तक पहुंचाने के लिए समुचित वैधानिक एवं नीतिगत उपाय करने होंगे।

अन्तरराष्ट्रीय सहकारिता

दुनिया की पहली सहकारी समिति राकडेल तथा क्विटेबल सोसायटी ऑफ पायोनियर्स मानी जाती है। राकडेल इंग्लैण्ड के लंकाशायर व यार्कशायर की सीमा पर स्थित एक कस्बा है जो अपनी प्रगतिशील विचारधारा के लिए जाना जाता था। इस समिति में 28 व्यक्तियों ने बैठक में भाग लेकर सहकारिता की शुरूआत 26 जून सन् 1844 को औपचारिक बैठक में हुई थी। इसमें सभी 28 व्यक्तियों ने एक-एक पौण्ड की पूंजी देकर आरंभ किया था। इस सोसायटी की गठन के बाद प्रथम बैठक 11 अगस्त सन् 1844 दिन रविवार को हुई थी। राकडेल क्विटेबल सोसायटी ऑफ पायोनियर्स विश्व की प्रथम सहकारी समिति थी कि जिसने समिति संचालक के कुछ नियमों व सिद्धान्तों का निरूपण किया जो आगें चलकर विश्व सहकारिता आंदोलन के आधार बनें। वर्तमान में दुनिया के 100 से अधिक देशों में सहकारी आंदोलन समय परिवर्तन एवं आवश्यकता के अनुकूल विभिन्न उद्देश्यों वाली सहकारी संस्थाओं के रूप में विकसित हो रहा है।
फ्रांस में सहकारिता आन्दोलन की प्रगति और विकास का श्रेय केवल वहां के कृषक संगठनों को जाता है। कृषकों की आवश्यकताओं की पूर्ति 'एग्रीकल्चर फायनेंसियल बैंकÓ द्वारा ही की जाती है। फ्रांस में जितने भी सहकारी बैंक कार्यरत हैं वे सभी बहुद्देश्यीय ऋण प्रदान कर रही हैं। जर्मनी में सहकारिता आन्दोलन की प्रगति सन् 1927 में निर्मित हुई जो भंयकर मुद्रा स्फिति की ही देन है। आस्ट्रेलिया, इटली में सहकारी आन्दोलन प्रजातांत्रिक प्रणाली का पर्याय है। फलस्वरूप आम नागरिकों में सहकारिता का अत्याधिक लगाव बढऩे लगा जिससे विवश होकर सरकार को शासकीय शिकंजे से सहकारिता को मुक्त करना पड़ा। वर्तमान में जर्मनी में 768 को सहकारी बैंक हंै, जिनकी 3 लाख से अधिक सदस्य संख्या हैैं।
आयरलैण्ड का सहकारी आंदोलन यूरोप के सबसे सफल और मजबूत अभियान का रूप ले चुका है। कनाडा में भी आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग की रूचि सहकारिता आन्दोलन के प्रति निरंतर विकसित हो रही है। बेल्जियम में श्री सी.आर. फेकी की पहल पर कृषकों का एक ऐसा संगठन बना जिसने अल्प समय में ही काफी लोकप्रियता अर्जित करते हुए सदस्यों के हित में अनेकों कार्य किए उससे प्रभावित होकर क्षेत्रीय शासकों ने वोरेनबाण्ड शहर में एक मुख्य क्रेडिट कोआपरेटिव बैंक की स्थापना की जिसके माध्यम से डेरी उत्पादन के सीमित बाजार का समुचित विकास हुआ है। इसी तरह नीदरलैण्ड में भी सहकारी बैंको की तरह सहकारी मार्केटिंग सोसायटी का विकास हुआ। स्वीडन, रोमानिया, स्पेन, पुर्तगाल व इटली के सहकारिता आन्दोलन ने कृषि व साख के क्षेत्र से काफी ऊपर उठकर चिकित्सा के क्षेत्र में अपंग बच्चों की देखरेख सहकारिता के माध्यम से घरों की देखभाल के साथ-साथ बुजुर्ग, शारीरिक रूप से अक्षम व्यक्तियों व बच्चों की पूर्ण जिम्मेदारी समाजसेवी सहकारी संगठनों के माध्यम से सफलतापूर्वक की जा रही है।

आजादी के बाद लोग नेतृत्व की तरफ उपदेशिता की दृष्टि से देखते थे। लोगों में नेतृत्व के प्रति आशा और विश्वास था। उनका मानना था कि सरकार उनके लिए जो करेगी वह ठीक होगा। बाद में धीरे-धीरे इस धारणा में परिवर्तन आना शुरू हो गया। जब सहकारिता आंदोलन शुरू हुआ। उस समय इसके दो पक्ष सामने आए। पहला, जो सीधे-सीधे कृषि से जुड़ा हुआ था। तत्कालिन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की सोच अतिवादी थी। इससे लोगो में शंका पैदा हो गया। लोगों को लगा कि उनकी जमीन सरकार छीन लेगी। नागपुर सम्मेलन के दौरान सहकारी खेती का विरोध हुआ था। उस समय चौं चरण सिंह ने सहकारी खेती और इसके प्रति सरकारी नीति का खुलकर विरोध किया था। कांग्रेस ने इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया था। यह नेहरू नीति की करारी हार थी। दूसरी बात, हमारे देश में किसान और उपभोक्ता दोनों कम आय वर्ग के लोग हैं। कुटीर उद्योगों के पास पूंजी की कमी है। इस स्थिति को देखते हुए श्रम और पूंजी को जोडऩे की वकालत की गई। ताकि उनको लाभ मिल सके। इस पद्घति के तहत सहकारी चीनी मिलों की स्थापान हुई थी। मिलों में किसानों को पूर्ण भागीदीरी दी गई। किसानों को बराबर का शेयर दिया गया। इसी पद्घति से गुजरात और महाराष्ट्र में गन्ने और दूध के मामले में यह आंदोलन सबसे ज्यादा सफल था।

बुआई के समय खाद और बीज उपलब्ध नही होता है। समिति अधिकारी इस सम्बन्ध में स्पष्ट जवाब नही दे पाते। खाद बीज आज इन समितियों में जरूरतमंद किसानो को न देकर ब्लैक में बेच दिया जाता है। सहकारी समिति के डायरेक्टर और चैयरमेन अपने किसी दुकानदार रिश्तेदार आदि को बेच देते हंै। इससे इसका समुचित वितरण नही हो पाता। समितियों में किसानो से ऋण देने के ऐवज में अधिकारी रिश्वत लेते है। कुछ किसानों को बिना ऋण लिए ही उनके खातों में ऋण चढ़ा मिलता है।
सतपाल सिंह, किसान, गौरीपुर जवाहरनगर

सहकारी समितियां शासन और प्रशासन की लापरवाही से भ्रष्टाचार का गढ़ बन चुकी हैं। मिल सोसायटी से खाद लेने पर यदि आपने पैसा एक महीने बाद चुकता कर दिया तो भी ब्याज कम से कम छह महिने या एक साल का लगेगा। खाद भी जरूरत के समय नहीं मिलता है। बीज तब आता है जब फसल कटने वाली होती है। सोसायटियों में प्रबन्धन इस प्रकार है कि जिन लोगों पर समिति का कर्ज है, में खुद उगाहने आते है। पैसे लिए और रसीद बाद में देने की बात होती है जो कि कई बार नहीं मिलती। पैसे देने के बावजूद कर्ज ज्यों का ज्यों रहता है।
राजकुमार, किसान, ग्राम बाघू

किसानों को समितियों से आज भी बहुुत फायदे मिलते है। आज किसान की जोत घटती जा रही है। उसके पास इतन समय नहीं है कि वह सहकारी समिति में खाद बीज जो कि एक प्रक्रिया द्वारा मिलता है। वह उसे प्राप्त कर सके। समिति की गतिविधियां आज संदिग्ध है। इस बात को वे भी स्वीकार करते हंै। यदि किसान मिलकर समितियों में सहभागिता निभाये भ्रष्ट अधिकारियों के खिलाफ आन्दोलन करें तो ये समितियों एक बार फिर किसान के लिए वरदान सािबत हो सकती है। जरूरत है किसानों को इसके प्रति जागरूक होने की तथा इनमें पदों को संभालने की।
नैन सिंह , निदेशक, गूर्जर सहकारी समिति, निरोजपुर

सहकारिता आंदोलन महाराष्ट्र, गुजरात सहित कुछ राज्यों में सफल तो रहा लेकिन उत्तर के राज्यों में सफल नहीं हो सका। इसकी प्रमुख वजह सांस्कृतिक खाई थी। यहां के लोगों में सहकारिता के लिए उपयुक्त संस्कृति का अभाव था। सरकार भी सहकारिता के मूल स्वरूप को बनाए रखने में नाकाम साबित रही। इसलिए उत्तर के राज्यों में सहकारिता का स्वरूप सहकारी की बजाय सरकारी हो गया।
डॉ. सोमपाल, पूर्व केंद्रिय कृषि मंत्री


Saturday, October 2, 2010

साक्षात्कार - श्री सोमपाल सिंह शास्त्री

इन दिनों भूमि अधिग्रहण को लेकर किसानों में खासा आक्रोश है। वह नहीं चाहते कि उनकी जमीन ली जाए, लेकिन सरकार विकास की दुहाई दे रही है। इस बारे में आपके क्या विचार हैं?

धीरे-धीरे कृषि योग्य भूमि को दूसरे कार्यों में परिवर्तित किया जा रहा है। सरकार आधारभूत अवसन्रचनाओं (सड़क, अस्पताल, हवाईअड्डे आदि) के साथ ही शहरीकरण और औद्योगिकरण के लिए जमीन ले रही है। अनुमान लगाया जा रहा है कि यदि ऐसा ही चलता रहा तो एक दिन खेती की सारी भूमि समाप्त हो जाएगी। खाद्यान्न संकट पैदा हो सकता है। आजादी के समय प्रति व्यक्ति भूमि उपलब्धता 0.36 हेक्टेयर थी। घटते-घटते 90 के दशक तक भू-उपलब्धता 0.16 रह गई। वर्तमान में प्रति व्यक्ति भूमि उपलब्धता 0.13 हेक्टेयर है। जिस गति से जनसंख्या बढ़ रही है, उसे देख कर यह अनुमान लगाया जा रहा है कि 2025 तक प्रति व्यक्ति भूमि उपलब्धता 0.09 ( 900 मीटर) रह जाएगी। इतनी जमीन खाद्यान्न पैदा करने लिए पर्याप्त नहीं होगी। जिस गति से आधारभूत संरचना का विकास हो रहा है, उससे 2030 तक आधी जनसंख्या शहरी जनसंख्या में तब्दील हो जाएगी। ऐसी स्थिति में खेती योग्य भूमि बचाने की कोशिश की जानी चाहिए। बंजर जमीनों का उपयोग औद्योगिक विकास के लिए किया जाय। मानव इतिहास इस बात का गवाह है कि बस्तियां उपाजाऊ जमीन को छोड़ कर बसाई गईं हैं। सरकार को भी कोशिश करना चाहिए की उपजाऊ जमीन को अधिग्रहित न किया जाय।

कृषि उत्पादकता लगातार घट रही है। इसके लिए कौन से तत्व उत्तरदायी हैं?

कृषि उत्पादकता लगातार घटने की वजह जमीन का लगातार दोहन और सिंचाई व्यवस्ता का अभाव है। वर्तमान में 40 फीसद खेती के लिए सिंचाई की व्यवस्था उपलब्ध है। 60 फीसद खेती अभी भी वर्षा पर आधारित है। सिंचित सुविधा संपन्न क्षेत्रों में अधिकतम 8 से 10 टन अनाज प्रति हेक्टेयर पैदा किया जाता है। औसतन चार टन अनाज प्रति हेक्टेयर पैदा होता है। वहीं वर्षा आधारित क्षेत्रों में 1.1 टन अनाज प्रति हेक्टेयर पैदा होता है। केवल सिंचाई की समुचित व्यवस्था करने से उत्पादन दो से ढाई गुना तक बढ़ सकता है। सिंचाई में निवेश करना लाभदायक है। इसके बावजूद भी लोग इसमें निवेश नहीं करते हैं।

उत्तर प्रदेश में लोकदल अन्य दलों के साथ अधिग्रहण आंदोलन का नेतृत्व कर रही है। आपको नहीं लगता कि आंदोलन के बहाने सभी राजनीति चमकाने की कोशिश कर रहे हंै?

सभी राजनीतिक दल विशुद्घ रूप से अपनी राजनीति चमकाने में लगे हुए हैं। लोकदल तो हमेशा से ही फायदा उठाने की जुगत में रहा है। इस मुद्दे पर सभी राजनीतिक दल मायावती की खिलाफत कर रहे हैं। लेकिन कोई भी एकजुट नहीं है। यदि एकजुटता दिखानी है तो सभी मिलकर एक उम्मीदवार चुनावों में खड़े क्यों नहीं करते? मुद्दे की बात यह है कि विरोध करने वाले अपने राज्यों में क्या कर रहे हैं? मुलायम सिंह का विरोध तब कहां था, जब उन्होंने दादरी में सैकड़ों एकड़ भूमि अधिग्रहित करवाई थी। एबी वर्धन और वृन्दा कारात ने सिंगूर में टाटा का विरोध क्यों नहीं किया? सभी अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने में लगे हुएं हैं।

भूमि अधिग्रहण एक्ट 1894 किसान विरोधी माना जाता है। संशोधन एक्ट 2007 भी सर्वमान्य नहीं है। आपको नहीं लगता भूमि अधिग्रहण कानून में बदलाव के लिए केद्र सरकार को खुद पहल करनी चाहिए?

देखिए, 1894 के कानून की सबसे खराब बात यह है कि इसमें सार्वजनिक उद्देश्य की व्याख्या ठीक प्रकार से नहीं की गई है। शासनतंत्र में बैठे लोग इसी का फायदा उठाकर किसानों की जमीन छीन लेते हैं। संसद में इस पर लगातार बहस होती रही है। अधिकांश सांसदों सहित शरद कमेटी, हनुमंता राव कमेटी की रिर्पोटों में कहा गया है कि सार्वजनिक उद्देश्य की परिभाषा स्पष्ट की जानी चाहिए। किसानों से जमीन उतनी ही ली जाएं जितनी जरूरत है। शहरीकरण और औद्योगिकरण को सार्वजनिक उद्देश्य न माना जाय। किसानों और उद्योगपतियों के बीच सरकार बिचौलिए की भूमिका न निभाए। आप हरियाणा और पंजाब का उदाहरण देखें। वहां पर तो कभी भी अधिग्रहण को लेकर आंदोलन नहीं हुआ। वहां किसानों को भावी कीमत के आधार पर मुआवजा दिया जाता है। ऐसा कानून बनें जिससे किसानों को वाजिब मुआवजा मिले। मुआवजा मिलने की प्रक्रिया आसान बने। किसानों को कंपनी में हिस्सेदारी दी जाय। कहा जाता है कि किसानों को नौकरी दी जाएगी। लेकिन किसान उस नौकरी के लायक कुशलता और योग्यता कहां ले आएगा। जो किसान भूमिहीन है, दूसरों की भूमि पर काम करके अपना पेट पालता है, उसका क्या होगा? वह तो मारा जाएगा।जहां तक संशोधन विधेयक 2007 की बात है तो वह सिर्फ कास्मेटिक चेंज है। इसके मौलिक स्वरूप को बदलने की जरूरत है। कानून बदलाव के संदर्भ में केद्र सरकार को पहल करनी चाहिए। यदि ऐसा नहीं होता है तो स्थिति एक दिन विस्फोटक हो सकती है।
आज भी भारत गांवों में बसता है।

70 फीसद जनता गांवों में रहती है। फिर भी गांव, गरीब, किसान और मजदूर की सुनवाई क्यों नहीं होती?

देखिए, गांव का समुदाय संगठित नहीं है। यदि कभी संगठित होता भी है तो अल्पकाल के लिए। लोगों को लगता है कि दूसरों के मामले में के क्यों पडं़े। आप बताइए, इतना बड़ा समुदाय जिसकी संख्या कुल आबादी की 70 फीसद है। वह यदि संगठित होकर कोई बात मनवाना चाहे तो नहीं मनवा सकता क्या? यदि लोग संगठित होकर मुद्दा आधारित वोटिंग करें तो उनकी बात सभी सुनेंगे। आप राष्ट्रीय किसान आयोग के चेयरमैन के साथ ही वित्त और योजना आयोग के सदस्य रह चुके हैं।

गांव, गरीब, किसान और मजदूर की हालत सुधरे, इसके लिए क्या करना चाहिए?

अधिकांश योजनाएं केन्द्र या राज्य की राजधानियों में बैठकर बनाई जाती हैं। योजनाएं जिनके के लिए बनाई जाती हैं, उनकी क्या प्रासंगिकता है इसका ख्याल नहीं रखा जाता है। योजनाएं जिस वर्ग विशेष के लिए बनाई जाती हैं, उनकी क्या कठिनाई है, वह क्या चाहते हैं, इसको शमिल करके योजनाओं को सफल बनाया जा सकता है। योजनाएं तो बन जाती हैं, लेकिन उसे लागू करने की प्रक्रिया इतनी जटिल और लंबी होती है कि वाजिब लोगों तक वह पहुंच ही नहीं पाता। कुछ चालाक और तिकड़मबाज लोग राजनीतिक सिफारिश लगा कर योजना से संबंधित धन हड़प लेते हैं।

किसान खेती छोड़ता जा रहा है। एक सर्वे के मुताबिक हर साल एक लाख किसान खेती छोड़ रहे हैं। इसके लिए किन कारणों को आप उत्तरदायी मानते हैं?

यदि किसान खेती छोड़ रहा है तो उसमें बुराई क्या है? वैसे सभी किसान खेती नहीं छोड़ रहे हैं। यह गलत धारणा हैं। जहां तक सर्वे की बात है तो ऐसे सर्वे करने वालों कृषि का कखग.. भी नहीं पता होता है। विकसित से विकसित अर्थव्यवस्था में भी लोगों का कृषि से अन्य क्षेत्रों में पलायन हुआ है। जब आधुनिक प्रक्रिया प्रारम्भ होती है, अन्य क्षेत्रों का विकास होता है, तब लोगों का पलायन होता है। पहले कृषि में शामिल 75 फीसद जनसंख्या के पास देश की 61 फीसद आय होती थी। आज 62 फीसद जनसंख्या के पास 16 फीसद आय है। ऐसी स्थिति में कृषि छोड़कर दूसरे व्यवसाय अपनाने की आज जरुरत है। कृषि क्षेत्र में विकास के सीमित अवसर हैं, जबकि अन्य क्षेत्रों में असीमित। देश के औद्योगिक क्षेत्रों में क्षमतावान और प्रशिक्षित लोगों की मांग है। अपने देश में कुल 621 तकनीकी कोर्स हंै। यहां से प्रशिक्षण लिया जा सकता है। चीन में चार हजार तकनीकी कोर्स हैं। वहां खेती के लिए भी प्रशिक्षण दिया जाता है। अपने यहां तो लोगों ठीक से पौधा लगाने और पशुओं को इंजेक्शन देने भी नहीं आता है। लोग दूसरे व्यवसाय में जाएंगे तो जोत का आकार बढेगा। खेती की उत्पादकता बढ़ेगी।

वेस्ट यूपी के लोगों का शिक्षा खासकर उच्च शिक्षा के प्रति रूझान कम है। इसके पीछे क्या कारण हैं? लोगों को शिक्षा के प्रति कैसे आकर्षित किया जा सकता है?

समाज हमेशा से अर्थप्रधान रहा है। आज भौतिक समृद्घि को प्राथमिकता दी जाती है। ऐसी परिस्थिति में उच्च शिक्षा के अंतर्गत एमए और पीएचडी करके क्या किया जा सकता है। ऐसी शिक्षा की जरुरत है जिससे कौशल और क्षमता का निर्माण किया जा सके। वर्तमान शिक्षा व्यवस्था लोगों को नकारा बनाती है। यदि इंजीनियरिंग और एमबीए की बात भी करें तो कितने लोगों इससे नौकरी मिल सकती है। आज एमबीए करके नौजवान घर में बैठे हैं। उत्पादकता बढेगी तभी लोगों को काम मिलेगा। आज व्यवसायपरक शिक्षा का अभाव है।सबसे ज्यादा दोष खुद का है। जो व्यक्ति खुद को आगे नहीं बढ़ाना चाहता है, उसका क्या हो सकता है। जो अकर्मण्य है, वह कुछ नहीं कर सकता। सरकार को गणना और आकलन करके सुविधाएं देनी चाहिए, लोगों को अपनी समृद्घि के लिए उसका उपयोग करना चाहिए।

सहकारी खेती को विदेशों में बढ़ावा दिया जा रहा है। इसका अपने देश में क्या भविष्य है?

यूरोपीय देशों में सहकारी कृषि पूरी तरह विफल रही है। इजरायल में सहकारी खेती गंभीरता से लागू किया गया था। वहां भी यह प्रवृत्ति समाप्त होती जा रही है। अपने देश में गुजरात और महाराष्ट्र में सहकारी पद्घति सफल रही है, लेकिन उत्तर के अधिकांश राज्यों में विफलता मिली है। यह एक सांस्कृतिक समस्या है। हर जगह का अपना मिजाज होता है, जिसे नहीं बदला जा सकता। यहां सहकारी का स्वरूप सरकारी ही है। इसको दुरुस्त करने के लिए कानून में बदलाव जरुरी है। जब मैं कृषि मंत्री था तो उस समय सहकारी व्यस्था से संबंधी एक मॉडल व्यवस्था बनाकर सभी राज्यों में भेजा था। लेकिन अभी तक राज्यों ने इस पर कोई कार्यवाही नहीं की है। हमारे पास तब समय की कमी थी।

फिर गरमाई राम नाम की राजनीति

इन दिनों अयोध्या मसला फिर से सुर्खिओं में है। वजह है 30 सितंबर को आने वाला फैसला। फैसले को लेकर जहां केंद्र और राज्य सरकार सतर्क हैं, वहीं सपा और भाजपा सहित विभिन्न राजनीतिक दल भी ध्यान लगाए हुए हैं। बिहार चुनाव से पहले वीएचपी एक बार फिर इसे मुद्दा बनाने में जुट गई है। हालांकि विश्व हिंदू परिषद ने कहा है कि इस मामले का समाधान कानून लाकर ही किया जा सकता है, लेकिन उसने ये भी साफ कर दिया है कि अदालत का फैसला जो भी आए, विवादित जगह पर राम मंदिर ही बनेगा। सनद रहे कि अयोध्या में विवादास्पद जगह पर मालिकाना हक को लेकर अदालत 30 सितंबर को फैसला सुनाने वाली है। वीएचपी इस मुद्दे पर पिछले कई दिनों से सक्रिय है। लगातार प्रेस विज्ञप्तियों के जरिए मीडिया को संदेश भेजे जा रहे हैं। अपने कार्यकर्ताओं को भी एक बार फिर लामबंद करने की कोशिश की जा रही है। लंबी कानूनी जिरह के बाद आने वाले अदालती फैसले से पहले ही वो हिंदूवादी बयान देकर माहौल बिगाडऩे में जुट गई हंै। एनडीए के शासनकाल के दौरान मंदिर बनवाने की मांग पर चुप रहने वाली वीएचपी को लग रहा है कि अब इस मुद्दे को हवा देने का सही मौका है। विश्व हिन्दू परिषद के अध्यक्ष अशोक सिंहल का कहना है कि अयोध्या में राममंदिर के मुद्दे को वोट की राजनीति से जोड़कर भाजपा ने इस आंदोलन का बहुत नुकसान पहुंचाया है। इसका उसे प्रायश्चित करना चाहिए। उन्होंने कहा कि राममंदिर का मुद्दा राजनीतिक मसला हो नहीं सकता। यह देश की करोड़ों, करोड़ जनता की आस्था से जुड़ा हुआ मामला है। इसलिए संसद में सर्वसम्मति से कानून बनाकर अयोध्या में राममंदिर के निर्माण का रास्ता साफ करना चाहिए।भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता एवं पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने कहा कि अयोध्या में राम जन्म भूमि पर भव्य राममंदिर का निर्माण पार्टी की प्रतिबद्ध है। मगर पार्टी विवादित स्थल के स्वामित्व विवाद पर उच्च न्यायालय का निर्णय आ जाने तक इस बाबत कोई टिप्पणी नहीं करेगी। अयोध्या में विवादित स्थल के स्वामित्व विवाद पर इसी महीने उच्च न्यायालय के संभावित निर्णय के बारे में श्री सिंह ने कहा कि अदालत का जो भी निर्णय होगा ठीक ही होगा। रणनीति पार्टी का अंदरूनी मामला है जिसे अंदरूनी ही रखा जाता है। अयोध्या मामले में उच्च न्यायालय के संभावित निर्णय के मद्देनजर उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा की जा रही सुरक्षा व्यवस्था के बारे में सवाल पर सिंह ने कहा कि कई बार अति सावधानी का उल्टा असर पडता है। बेवजह घबराहट का वातावरण बन रहा है। उन्होंने कहा कि आज जो हालात पैदा हुए है, वे वोट बैंक की राजनीति की देन है।राजनाथ सिंह ने साफ कहा कि भाजपा सब कुछ छोड़ सकती है, लेकिन भगवान राम को कभी नहीं। उन्होंने कहा, भगवान राम हमारी सांस्कृतिक पहचान हैं। हम सब कुछ छोड़ सकते है, उन्हें नहीं। उन्होंने कहा कि भारत में रहने वाले हर व्यक्ति को चाहे उसका धर्म और मजहब कुछ भी हो। यह याद रखना चाहिए कि भगवान राम देश की सांस्कृतिक पहचान है। उन्होंने यहां तक कहा कि मुसलमानों ने भी बहुत बड़ी संख्या में लोग यह मानते है कि भगवान राम अयोध्या में ही पैदा हुए थे। मगर थोड़े से लोगों ने इसे राजनीतिक मुद्दा बना दिया है। अयोध्या स्थित राम जन्मभूमि मंदिर के प्रधान पुजारी आचार्य सतेंद्र दास ने कहा कि देश के कुछ राजनैतिक दल अयोध्या मसले को अपने वोट बैंक का साधन मानते हैं। वह नहीं चाहते है कि यह विवाद खत्म हो। इस विवाद का हल आपसी समझ और सूझ-बूझ से निकाला जाना चाहिए और यदि ऐसा नहीं हो सकता है तो दोनों समुदायों (हिन्दू और मुसलमान) को चाहिए की वह जमीन के मालिकाना हक के लिए इसी माह अदालत के आने वाले निर्णय का सम्मान करें। यदि ऐसा नहीं हुआ तो अयोध्या का मसला तो सौ साल में भी हल नहीं हो पाएगा, क्योंकि हाईकोर्ट का फैसला जिसके भी विपक्ष में जाएगा वह सुप्रीम कोर्ट जाएगा। हाईकोर्ट का फैसला आने में तो 60 साल लग ही गए हैं, सुप्रीम कोर्ट में भी 40 साल से अधिक का समय लग जाएगा। श्री दास ने कहा कि इस मुद्दे को यहीं रोक देना चाहिए और देश व समाज के बुद्धिजीवी लोगों को मिल कर इसका समाधान निकालना चाहिए। उन्होंने कहा कि अयोध्या के लोग इस मसले का हल अकेले नहीं खोज सकते क्योंकि वहां के कुछ साधु भी नहीं चाहते की यह झगड़ा सामाप्त हो। यह साधू नारा लगाते हैं कि पुजारी हटाओ, मंदिर बचाओं। मंदिर के नाम पर लोगों को उकसाने वाले केवल वोट की राजनीति कर रहे है। उन्हें मंदिर निर्माण से कोई मतलब नहीं। श्रीदास ने हिंदू और मुस्लिम सभी से कोर्ट के आने वाले फैसले का सम्मान करने की अपील की करते हुए कहा कि वह किसी के बहकावे में न आवें और एक साथ मिलकर देश की विकास की धारा को गति प्रदान करें।अनहोनी से निपटने की पूरी है तैयारीअयोध्या फैसले पर संभावित घटनाओं के लिए उत्तर प्रदेश सरकार पूरी तरह तैयार है। इस मसले पर चर्चा के लिए मुख्यमंत्री मायावती ने राजभवन पहुंचकर राज्यपाल बीएल जोशी से मुलाकात की। अयोध्या विवाद के सम्भावित फैसले को लेकर चर्चा की। यह भी बताया कि अयोध्या विवाद पर फैसला आने के बाद प्रदेश में कानून-व्यवस्था की स्थिति न बिगडऩे पाए, इसको लेकर उनकी सरकार ने क्या-क्या तैयारी की है। मुख्यमंत्री ने अतिरिक्त सुरक्षा बल उपलब्ध कराने के लिए केंद्र से अनुरोध भी किया है।कानूनी लड़ाई जारी रहेगी बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी ने कहा है कि अयोध्या विवाद पर उसकी कानूनी लड़ाई जारी रहेगी। कमेटी का मानना है कि फैसला किसी के पक्ष में आए, दूसरा पक्ष उसके खिलाफ अपील तो दायर ही करेगा और इस तरह कानूनी लड़ाई के अभी जारी रहने की पूरी सम्भावना है।सुरक्षा व्यवस्था को लेकर केंद्र भी सतर्कप्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने संभावित फैसले पर अपने वरिष्ठ मंत्रियों से चर्चा की। बैठक में संभावित परिस्थितियों को देखते हुए राज्य सरकार की ओर से किए गए उपायों व केंद्रीय स्तर पर की गई सुरक्षा व्यवस्था की चर्चा की गई थी। उत्तर प्रदेश सरकार ने फैसले के बाद संभावित कानून-व्यवस्था की स्थिति का हवाला देते हुए पहले ही केंद्र सरकार से अर्धसैनिक बल की 485 कंपनियां मांगी है। एक कंपनी में 112 से लेकर 125 अर्धसैनिक बल कर्मी होते हैं। इसके लिहाज से केंद्र सरकार से राज्य सरकार ने 50 हजार से अधिक अर्धसैनिक बलकर्मी मांगा है। बैठक में उपस्थित सभी इस बात पर सहमत थे कि कानून-व्यवस्था की स्थिति को देखते हुए राज्य सरकार को हरसंभव मदद दी जाए, जिससे वह किसी भी गड़बड़ी के लिए केंद्र सरकार को कठघरे में खड़ा करने की कोशिश न करे। इसके अलावा फैसले के बाद उप्र के अलावा दूसरे राज्यों में उसके संभावित असर पर भी चर्चा की गई। यह सुनिश्चित किया गया कि हर राज्य को इस मामले के संदर्भ में सतर्क रहने की लिए कहा जाए। मालिकाना हक पर साठ साल बाद आएगा फैसलासितंबर मध्य में आने वाला फैसला इस मसले पर साठ साल पहले दायर की गई याचिका पर लिया जाना वाला निर्णय होगा। इस मसले पर गठित स्पेशल बेंच जिसमें जस्टिस एसयू खान-जस्टिम सुधीर अग्रवाल- जस्टिस डीवी शर्मा शामिल हैं, रामजन्मभूिम के मालिकाना हक को लेकर अपना निर्णय देंगे। वर्ष 1950 में सबसे पहले गोपाल सिंह विशारद ने विवादित भूमि पर भगवान राम की पूजा-अर्चना की इजाजत देने को लेकर याचिका दायर की थी। इसी साल परमहंस रामचरण दास ने भी इसी तरह की इजाजत संबंधी दूसरी याचिका दायर की थी। हालांकि बाद में यह याचिका वापस ले ली गई थी। वर्ष 1959 में निर्मोही अखाड़ा ने तीसरी याचिका दायर करते हुए भूमि हस्तांतरित करने की मांग की थी। चौथी याचिका 1961 में यूपी सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड ने दायर करते हुए भूमि हस्तांतरित करने की मांग की और इसे मस्जिद भूमि घोषित करने की मांग की। 1989 में पांचवीं याचिका भगवान श्रीरामलला विराजमान ने दायर करते हुए भूमि हस्तांतरण की मांग की और इसे मंदिर घोषित करने की मांग की।निर्णय के आधार बिंदुअदालत मूलत तीन बिंदुओं पर अपना निर्णय देगी। इसमें सबसे पहला और मुख्य बिंदु यह है कि क्या अयोध्या की विवादित भूमि राम मंदिर ही है। दूसरे, क्या मस्जिद मंदिर के अवशेषों से बनी थी। तीसरे, क्या मस्जिद इस्लाम के नियमों अनुरूप बनी थी। माना जा रहा है कि अदालती फैसले के बाद इस मसले पर संवेदनशील स्थिति बन सकती है।

 
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