इन दिनों भूमि अधिग्रहण को लेकर किसानों में खासा आक्रोश है। वह नहीं चाहते कि उनकी जमीन ली जाए, लेकिन सरकार विकास की दुहाई दे रही है। इस बारे में आपके क्या विचार हैं?
धीरे-धीरे कृषि योग्य भूमि को दूसरे कार्यों में परिवर्तित किया जा रहा है। सरकार आधारभूत अवसन्रचनाओं (सड़क, अस्पताल, हवाईअड्डे आदि) के साथ ही शहरीकरण और औद्योगिकरण के लिए जमीन ले रही है। अनुमान लगाया जा रहा है कि यदि ऐसा ही चलता रहा तो एक दिन खेती की सारी भूमि समाप्त हो जाएगी। खाद्यान्न संकट पैदा हो सकता है। आजादी के समय प्रति व्यक्ति भूमि उपलब्धता 0.36 हेक्टेयर थी। घटते-घटते 90 के दशक तक भू-उपलब्धता 0.16 रह गई। वर्तमान में प्रति व्यक्ति भूमि उपलब्धता 0.13 हेक्टेयर है। जिस गति से जनसंख्या बढ़ रही है, उसे देख कर यह अनुमान लगाया जा रहा है कि 2025 तक प्रति व्यक्ति भूमि उपलब्धता 0.09 ( 900 मीटर) रह जाएगी। इतनी जमीन खाद्यान्न पैदा करने लिए पर्याप्त नहीं होगी। जिस गति से आधारभूत संरचना का विकास हो रहा है, उससे 2030 तक आधी जनसंख्या शहरी जनसंख्या में तब्दील हो जाएगी। ऐसी स्थिति में खेती योग्य भूमि बचाने की कोशिश की जानी चाहिए। बंजर जमीनों का उपयोग औद्योगिक विकास के लिए किया जाय। मानव इतिहास इस बात का गवाह है कि बस्तियां उपाजाऊ जमीन को छोड़ कर बसाई गईं हैं। सरकार को भी कोशिश करना चाहिए की उपजाऊ जमीन को अधिग्रहित न किया जाय।
कृषि उत्पादकता लगातार घट रही है। इसके लिए कौन से तत्व उत्तरदायी हैं?
कृषि उत्पादकता लगातार घटने की वजह जमीन का लगातार दोहन और सिंचाई व्यवस्ता का अभाव है। वर्तमान में 40 फीसद खेती के लिए सिंचाई की व्यवस्था उपलब्ध है। 60 फीसद खेती अभी भी वर्षा पर आधारित है। सिंचित सुविधा संपन्न क्षेत्रों में अधिकतम 8 से 10 टन अनाज प्रति हेक्टेयर पैदा किया जाता है। औसतन चार टन अनाज प्रति हेक्टेयर पैदा होता है। वहीं वर्षा आधारित क्षेत्रों में 1.1 टन अनाज प्रति हेक्टेयर पैदा होता है। केवल सिंचाई की समुचित व्यवस्था करने से उत्पादन दो से ढाई गुना तक बढ़ सकता है। सिंचाई में निवेश करना लाभदायक है। इसके बावजूद भी लोग इसमें निवेश नहीं करते हैं।
उत्तर प्रदेश में लोकदल अन्य दलों के साथ अधिग्रहण आंदोलन का नेतृत्व कर रही है। आपको नहीं लगता कि आंदोलन के बहाने सभी राजनीति चमकाने की कोशिश कर रहे हंै?
सभी राजनीतिक दल विशुद्घ रूप से अपनी राजनीति चमकाने में लगे हुए हैं। लोकदल तो हमेशा से ही फायदा उठाने की जुगत में रहा है। इस मुद्दे पर सभी राजनीतिक दल मायावती की खिलाफत कर रहे हैं। लेकिन कोई भी एकजुट नहीं है। यदि एकजुटता दिखानी है तो सभी मिलकर एक उम्मीदवार चुनावों में खड़े क्यों नहीं करते? मुद्दे की बात यह है कि विरोध करने वाले अपने राज्यों में क्या कर रहे हैं? मुलायम सिंह का विरोध तब कहां था, जब उन्होंने दादरी में सैकड़ों एकड़ भूमि अधिग्रहित करवाई थी। एबी वर्धन और वृन्दा कारात ने सिंगूर में टाटा का विरोध क्यों नहीं किया? सभी अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने में लगे हुएं हैं।
भूमि अधिग्रहण एक्ट 1894 किसान विरोधी माना जाता है। संशोधन एक्ट 2007 भी सर्वमान्य नहीं है। आपको नहीं लगता भूमि अधिग्रहण कानून में बदलाव के लिए केद्र सरकार को खुद पहल करनी चाहिए?
देखिए, 1894 के कानून की सबसे खराब बात यह है कि इसमें सार्वजनिक उद्देश्य की व्याख्या ठीक प्रकार से नहीं की गई है। शासनतंत्र में बैठे लोग इसी का फायदा उठाकर किसानों की जमीन छीन लेते हैं। संसद में इस पर लगातार बहस होती रही है। अधिकांश सांसदों सहित शरद कमेटी, हनुमंता राव कमेटी की रिर्पोटों में कहा गया है कि सार्वजनिक उद्देश्य की परिभाषा स्पष्ट की जानी चाहिए। किसानों से जमीन उतनी ही ली जाएं जितनी जरूरत है। शहरीकरण और औद्योगिकरण को सार्वजनिक उद्देश्य न माना जाय। किसानों और उद्योगपतियों के बीच सरकार बिचौलिए की भूमिका न निभाए। आप हरियाणा और पंजाब का उदाहरण देखें। वहां पर तो कभी भी अधिग्रहण को लेकर आंदोलन नहीं हुआ। वहां किसानों को भावी कीमत के आधार पर मुआवजा दिया जाता है। ऐसा कानून बनें जिससे किसानों को वाजिब मुआवजा मिले। मुआवजा मिलने की प्रक्रिया आसान बने। किसानों को कंपनी में हिस्सेदारी दी जाय। कहा जाता है कि किसानों को नौकरी दी जाएगी। लेकिन किसान उस नौकरी के लायक कुशलता और योग्यता कहां ले आएगा। जो किसान भूमिहीन है, दूसरों की भूमि पर काम करके अपना पेट पालता है, उसका क्या होगा? वह तो मारा जाएगा।जहां तक संशोधन विधेयक 2007 की बात है तो वह सिर्फ कास्मेटिक चेंज है। इसके मौलिक स्वरूप को बदलने की जरूरत है। कानून बदलाव के संदर्भ में केद्र सरकार को पहल करनी चाहिए। यदि ऐसा नहीं होता है तो स्थिति एक दिन विस्फोटक हो सकती है।
आज भी भारत गांवों में बसता है।
70 फीसद जनता गांवों में रहती है। फिर भी गांव, गरीब, किसान और मजदूर की सुनवाई क्यों नहीं होती?
देखिए, गांव का समुदाय संगठित नहीं है। यदि कभी संगठित होता भी है तो अल्पकाल के लिए। लोगों को लगता है कि दूसरों के मामले में के क्यों पडं़े। आप बताइए, इतना बड़ा समुदाय जिसकी संख्या कुल आबादी की 70 फीसद है। वह यदि संगठित होकर कोई बात मनवाना चाहे तो नहीं मनवा सकता क्या? यदि लोग संगठित होकर मुद्दा आधारित वोटिंग करें तो उनकी बात सभी सुनेंगे। आप राष्ट्रीय किसान आयोग के चेयरमैन के साथ ही वित्त और योजना आयोग के सदस्य रह चुके हैं।
गांव, गरीब, किसान और मजदूर की हालत सुधरे, इसके लिए क्या करना चाहिए?
अधिकांश योजनाएं केन्द्र या राज्य की राजधानियों में बैठकर बनाई जाती हैं। योजनाएं जिनके के लिए बनाई जाती हैं, उनकी क्या प्रासंगिकता है इसका ख्याल नहीं रखा जाता है। योजनाएं जिस वर्ग विशेष के लिए बनाई जाती हैं, उनकी क्या कठिनाई है, वह क्या चाहते हैं, इसको शमिल करके योजनाओं को सफल बनाया जा सकता है। योजनाएं तो बन जाती हैं, लेकिन उसे लागू करने की प्रक्रिया इतनी जटिल और लंबी होती है कि वाजिब लोगों तक वह पहुंच ही नहीं पाता। कुछ चालाक और तिकड़मबाज लोग राजनीतिक सिफारिश लगा कर योजना से संबंधित धन हड़प लेते हैं।
किसान खेती छोड़ता जा रहा है। एक सर्वे के मुताबिक हर साल एक लाख किसान खेती छोड़ रहे हैं। इसके लिए किन कारणों को आप उत्तरदायी मानते हैं?
यदि किसान खेती छोड़ रहा है तो उसमें बुराई क्या है? वैसे सभी किसान खेती नहीं छोड़ रहे हैं। यह गलत धारणा हैं। जहां तक सर्वे की बात है तो ऐसे सर्वे करने वालों कृषि का कखग.. भी नहीं पता होता है। विकसित से विकसित अर्थव्यवस्था में भी लोगों का कृषि से अन्य क्षेत्रों में पलायन हुआ है। जब आधुनिक प्रक्रिया प्रारम्भ होती है, अन्य क्षेत्रों का विकास होता है, तब लोगों का पलायन होता है। पहले कृषि में शामिल 75 फीसद जनसंख्या के पास देश की 61 फीसद आय होती थी। आज 62 फीसद जनसंख्या के पास 16 फीसद आय है। ऐसी स्थिति में कृषि छोड़कर दूसरे व्यवसाय अपनाने की आज जरुरत है। कृषि क्षेत्र में विकास के सीमित अवसर हैं, जबकि अन्य क्षेत्रों में असीमित। देश के औद्योगिक क्षेत्रों में क्षमतावान और प्रशिक्षित लोगों की मांग है। अपने देश में कुल 621 तकनीकी कोर्स हंै। यहां से प्रशिक्षण लिया जा सकता है। चीन में चार हजार तकनीकी कोर्स हैं। वहां खेती के लिए भी प्रशिक्षण दिया जाता है। अपने यहां तो लोगों ठीक से पौधा लगाने और पशुओं को इंजेक्शन देने भी नहीं आता है। लोग दूसरे व्यवसाय में जाएंगे तो जोत का आकार बढेगा। खेती की उत्पादकता बढ़ेगी।
वेस्ट यूपी के लोगों का शिक्षा खासकर उच्च शिक्षा के प्रति रूझान कम है। इसके पीछे क्या कारण हैं? लोगों को शिक्षा के प्रति कैसे आकर्षित किया जा सकता है?
समाज हमेशा से अर्थप्रधान रहा है। आज भौतिक समृद्घि को प्राथमिकता दी जाती है। ऐसी परिस्थिति में उच्च शिक्षा के अंतर्गत एमए और पीएचडी करके क्या किया जा सकता है। ऐसी शिक्षा की जरुरत है जिससे कौशल और क्षमता का निर्माण किया जा सके। वर्तमान शिक्षा व्यवस्था लोगों को नकारा बनाती है। यदि इंजीनियरिंग और एमबीए की बात भी करें तो कितने लोगों इससे नौकरी मिल सकती है। आज एमबीए करके नौजवान घर में बैठे हैं। उत्पादकता बढेगी तभी लोगों को काम मिलेगा। आज व्यवसायपरक शिक्षा का अभाव है।सबसे ज्यादा दोष खुद का है। जो व्यक्ति खुद को आगे नहीं बढ़ाना चाहता है, उसका क्या हो सकता है। जो अकर्मण्य है, वह कुछ नहीं कर सकता। सरकार को गणना और आकलन करके सुविधाएं देनी चाहिए, लोगों को अपनी समृद्घि के लिए उसका उपयोग करना चाहिए।
सहकारी खेती को विदेशों में बढ़ावा दिया जा रहा है। इसका अपने देश में क्या भविष्य है?
यूरोपीय देशों में सहकारी कृषि पूरी तरह विफल रही है। इजरायल में सहकारी खेती गंभीरता से लागू किया गया था। वहां भी यह प्रवृत्ति समाप्त होती जा रही है। अपने देश में गुजरात और महाराष्ट्र में सहकारी पद्घति सफल रही है, लेकिन उत्तर के अधिकांश राज्यों में विफलता मिली है। यह एक सांस्कृतिक समस्या है। हर जगह का अपना मिजाज होता है, जिसे नहीं बदला जा सकता। यहां सहकारी का स्वरूप सरकारी ही है। इसको दुरुस्त करने के लिए कानून में बदलाव जरुरी है। जब मैं कृषि मंत्री था तो उस समय सहकारी व्यस्था से संबंधी एक मॉडल व्यवस्था बनाकर सभी राज्यों में भेजा था। लेकिन अभी तक राज्यों ने इस पर कोई कार्यवाही नहीं की है। हमारे पास तब समय की कमी थी।
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